रावण वध नहीं होता बस्तर दशहरे में
बस्तर , अपने आप में एक ऐसा क्षेत्र है जिसके बारे में हर कोई जानना चाहता है। यहां की हर चीज एक अलग आर्कषण लिये हुये है जिसके कारण हर कोई बस्तर की तरफ खींचा चला आता है। बस्तर की आदिम संस्कृति, इतिहास, प्राकृतिक एवं भौगोलिक स्थिति बस्तर को पुरे विश्व में अनूठा स्थान प्रदान करते है। बस्तर की कला संस्कृति में बहुत से ऐसे उत्सव एवं त्यौहार है जो कि बेहद ही महत्वपूर्ण है। बस्तर का दशहरा आज विश्व प्रसिद्ध हो चला है। इसे देखने के लिये विदेशी सैलानी आने लगे है। यहां के दशहरे में रावण नहीं मारा जाता वरन रथ खींचा जाता है। दशहरा बस्तर की सांस्कृतिक पंूजी है जिसमें भक्ति भाव भाई चारा एवं उत्साह उमंग एक साथ दिखाई पड़ते है।
बस्तर में विजया दशमी पर तंत्र-मंत्र के साथ देवी आराधना और शस्त्र पूजा कर देवी दशहरा मनाते रहे हैं, इसलिए बस्तर में रावण दहन की परंपरा नहीं है। बस्तर दशहरा पूरी तरह से मां दंतेश्वरी को समर्पित पर्व है, इसलिए विजया दशमी पर विशाल रथ में मां दंतेश्वरी का छत्र विराजित किया जाता है।
दशहरा के दौरान यहां रावण दहन क्यों नहीं किया जाता? बस्तरवासी विजयादशमी और देवी दशहरा मनाते हैं न कि रावण दहन वाला दशहरा। आदिम संस्कृति और रियासत व्यवस्था के बीच रच- बस गए यहां के रहवासियों की आराध्या मांई दंतेश्वरी है और उनके प्रति आदर भाव प्रकट करने ही यहां के रहवासी वर्षों से अपने राजाओं के बस्तर दशहरा मनाते आ रहे हैं।
मां दंतेश्वरी मंदिर के प्रधान पुजारी के मुताबिक बस्तर में सैकड़ों साल तक रियासत रही है। अपनी विजय यात्रा के साथ वे हर साल विजयादशमी के दिन अपने परंपरागत शस्त्रों की पूजा करते रहे हैं। अपनी कुल देवी मां दंतेश्वरी की तांत्रिक विधान से पूजा अर्चना करते आए हैं। उपरोक्त परंपरा के चलते ही बस्तर में देवी आराधना का पर्व मनाया जाता है।
जैसे मैदानी इलाके में रावण वध के बाद भगवान राम के अयोध्या वापसी पर दशहरा और दीपावली मनाई जाती है।वैसे ही बस्तर दशहरा में शामिल होने दंतेवाड़ा से आई मां दंतेश्वरी के स्वागत में मावली परघाव और प्रतीक के रूप में उनके छत्र को विशाल रथ में स्थापित कर दो दिन रथ परिक्रमा किया जाता है जिसे भीतर और बाहर रैनी कहते हैं। बस्तर दशहरा का रावण दहन से कोई संबंध नहीं है, इसलिए यहां रावण के पुतला दहन की परंपरा नहीं है।
यह ऐसा अनूठा पर्व है, जिसमें रावण नहीं मारा जाता अपितु बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी सहित अनेक देवी-देवताओं की 13 दिन तक पूजा-अर्चना होती है। बस्तर दशहरा विश्व का सर्वाधिक दीर्घ अवधि वाला पर्व माना जाता है जो 75 दिन तक चलता है।
हरेली अमावस्या अर्थात तीन माह पूर्व से दशहरा की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। यह माना जाता है कि यह पर्व 600 से अधिक वर्षों से परंपरानुसार मनाया जा रहा है। दशहरा की काकतीय राजवंश एवं उनकी इष्टदेवी मां दंतेश्वरी से अटूट प्रगाढ़ता है।
बस्तर दशहरा का रस्म-रिवाज सामाजिक समरसता एवं लोकसहकर्मिता का अनूठा मिसाल पेश करता है। समाज में व्याप्त छुआछूत व तमाम रूढ़ियों को खत्म करते हुए सभी जातियों व समुदायों का इस महापर्व में प्रमुख योगदान रहता है। जैसे जंगल से लकड़ी लाना व रथ निर्माण के लिए बकावंड जनपद के संवरा लोगों की जवाबदेही तय है। इसी प्रकार रथ खींचने के लिए रस्सी बनाने का जिम्मा करंजी, सोनाबाल व केशरपाल गांवों के लोगों को सौंपा गया है। बलि के लिए लाए गए बकरों के देखभाल की जिम्मेदारी घाटलोहंगा क्षेत्र के मिलकू परिवार की है। लोहंडीगुड़ा जनपद के गढ़िया गांव के लोगों को रथ पर सीढ़ी लगाने का काम सौंपा गया है। आठ पहियों वाले रैनी रथ को खींचने का काम किलेपाल के माड़िया समाज के लोग करते आ रहे हैं।
बस्तर दशहरा के इतिहास पर प्रकाश डालते हुये लाला जगदलपुरी जी कहते है कि 1408 ई में महाराज पुरूषोत्तम देव ने बस्तर से उड़िसा के जगन्नाथपुरी धाम तक पैदल ही यात्रा की थी। वहां जगन्नाथ धाम में पूजा अर्चना की। जगन्नाथ मंदिर के पुजारी को भगवान जगन्नाथ ने स्वप्न में दर्शन दिया स्वप्न में पुजारी को रथपति घोषित करने की आज्ञा पुजारी ने राजा पुरूषोत्तम देव को रथपति की उपाधि दी। उसके बाद रथपति पुरूषोत्तम देव ने बस्तर के गोंचा एवं दशहरा पर्व में रथ यात्रा प्रारंभ की। पहले 12 पहिये का रथ चलाया जाता था किन्तु बाद में 04 एवं 08 पहिये के दो रथ चलाये जाने लगे। बस्तर प्राचीन काल से देवी शक्तियों का बस्तर रहा है जिसके कारण देवी भक्त राजाओं ने देवी के सम्मान में बहुत से उत्सव प्रारंभ किये वैसे ही पुरूषोत्तम देव ने रथ में देवी के प्रतीकों को विराजित कर दशहरा में रथ चलाने की परंपरा प्रारंभ की। धीरे धीरे दशहरा में बहुत सी नयी परंपरायें जुड़ती गई और बस्तर दशहरा की आवश्यक अंग बन गई।
पाट जात्रा रस्मः-
बस्तर में प्रत्येक वर्ष की तरह इस साल भी दशहरे का आगाज हरेली अमावस को पाट जात्रा की रस्म से हो चुका है। बस्तर में बीते छः सौ साल से दशहरा मनाया जा रहा है। यहां के दशहरा कुल 75 दिनों तक चलता है जो कि पुरे विश्व का सबसे लंबा दशहरा है। दशहरा में पूरे भारत में जहां रावण के पुतले जलाये जाने की परंपरा है वही बस्तर रावण के पुतले ना जलाये जाकर दशहरा में रथ खींचा जाता है।
बस्तर दशहरा 1408 ई से आज तक बड़े ही उत्साह एवं धुमधाम से जगदलपुर शहर में मनाया जा रहा है। इसमें प्रत्येक पुरे बस्तर के लाखो आदिवासी सम्मिलित होते है। दशहरा की रस्म 75 दिन पूर्व पाट जात्रा से प्रारंभ हो जाती है। दशहरे में दो मंजिला रथ खींचा जाता है। जिसमें मां दंतेश्वरी का छत्र सवार रहता है। दंतेवाड़ा से प्रत्येक वर्ष माईजी की डोली दशहरा में सम्मिलित होने के लिये जाती है।
बस्तर दशहरा बस्तर का सबसे बड़ा पर्व है। इसी पर्व के अंतर्गत प्रथम रस्म के तौर पर पाटजात्रा का विधान पुरा किया गया है। बस्तर दशहरा निर्माण की पहली लकड़ी को स्थानीय बोली में टूरलु खोटला एवं टीका पाटा कहते हैं।बस्तर दशहरे के लिए तैयार किए जाने वाली रथ निर्माण की पहली लकड़ी दंतेश्वरी मंदिर के सामने ग्राम बिलौरी से लाई गई।
परंपरानुसार विधि.विधान के साथ रथ निर्माण करने वाले कारीगरों एवं ग्रामीणों के द्वारा माँझी चालाकी मेम्बरीन के साथ स्थानीय जनप्रतिनिधियो की मौजूदगी में पूजा विधान एवं बकरे की बलि के साथ पाट जात्रा की रस्म संपन्न हुई।
पाट जात्रा पूजा विधान में झार उमरगांव बेड़ा उमरगांव के कारीगर जिनके द्वारा रथ का निर्माण किया जाना है। वे अपाने साथ रथ बनाने के औजार लेकर आते है तथा रथ बनाने की पहली लकड़ी के साथ औजारों की पूजा परंपरानुसार रथ निर्माण के कारीगरों एवं ग्रामीणों के द्वारा की जाती है। परम्परानुसार मोंगरी मछली एवं बकरे की बली के साथ इस अनुष्ठान को संपन्न किया गया। जिसमें ग्रामीणों की भागीदारी भी होती है।
बस्तर की अनोखी परम्परा से बस्तर दशहरा विश्व में अपनी अलग पहचान रखता है, जिसे देखने और समझने के लिए देशी.विदेश पर्यटक यहां पहुंचते है।इस दशहरे में आस्था और विश्वास की डोर थामे आदिम जनजातियां अपनी आराध्य देवी मॉ दंतेश्वरी के छत्र को सैकड़ों वर्षों से विशालकाय लकड़ी से निर्मित रथ में विराजमान कर रथ को पूरे शहर के परिक्रमा के रूप में खींचती हैं।
भूतपूर्व चित्रकोट रियासत से लेकर बस्तर रियासत तक के राजकीय चालुक्य राजपरिवार की ईष्ट देवी और बस्तर अंचल के समस्त लोक जीवन की अधिशाष्ठत्री देवी मां दंतेश्वरी के प्रति श्रद्धाभक्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति का पर्व बस्तर दशहरा है।
डेरी गड़ाई रस्म:-
बस्तर दशहरा में पाटजात्रा के बाद दुसरी सबसे महत्वपूर्ण रस्म है डेरी गड़ाई। बस्तर का दशहरा 75 दिनों तक चलने वाला विश्व का सबसे लंबा दशहरा है। बस्तर दशहरा की शुरूआत पाटजात्रा (11 अगस्त 2018) की रस्म से हो चुकी है। पाटजात्रा के बाद डेरी गड़ाई की रस्म बेहद महत्वपूर्ण रस्म है। जगदलपुर के सिरासार भवन में (22 सितंबर 2018) को माझी चालकी मेंबर मेंबरिन की उपस्थिति में पुरे विधि विधान के साथ डेरी गड़ाई रस्म पूर्ण की गई।डेरी गड़ाई रस्म बिरिंगपाल के ग्रामीण साल की दो शाखा युक्त दस फीट की लकड़ी लाते है जिसे हल्दी का लेप लगाकार प्रतिस्थापित किया जाता है। इसे ही डेरी कहते है। इसकी प्रतिस्थापना ही डेरी गड़ाई कहलाती है। सिरासार भवन में दो स्तंभों के नीचे जमीन खोदकर पहले उसमें अंडा एवं जीवित मोंगरी मछली अर्पित की जाती है। फिर उन गडढो में डेरी को स्थापित किया जाता है।दशहरा की विभिन्न रस्मों मे मोंगरी मछली की बलि दी जाती है जिसकी व्यवस्था समरथ परिवार करता है। वहां उपस्थित महिलाओं ने हल्दी खेलकर खुशियां मनाती है। इस रस्म के बाद बस्तर दशहरा के विशालकाय काष्ठ रथों का निर्माण कार्य प्रारंभ हो जाता है। विगत छः सौ साल से डेरी गड़ाई की रस्म मनाई जा रही है। बेड़ा और झार उमरगांव के लगभग 150 कारीगर मिलकर विशाल रथों का निर्माण करते है।रथ निर्माण में कोई विघ्न ना हो इसलिये देवी को याद कर डेरी गड़ाई की रस्म पुरी की जाती है। ज्ञात हो कि बस्तर में राजा पुरूषोत्तम देव (1409) के काल से बस्तर दशहरा मनाया जा रहा है। इस दशहरा में रावण ना जलाकर रथ खींचने की अनूठी परंपरा का निवर्हन किया जाता है। 75 दिनों तक चलने वाले इस दशहरें में विभिन्न रस्मों की अदायगी की जाती है। जिसमें से डेरी गड़ाई दुसरी प्रमुख रस्म है।
बारसी उतरानी विधान
बस्तर दशहरा के लिए चार पहिए वाला रथ बनाने का कार्य प्रारंभ हो जाता है। इसके पहले जंगलों से लाई गई लकड़ियों की पूजा कर बकरा, मांगुर मछली और अंडा अर्पित किया जाता है। इस मौके पर झार और बेड़ा उमरगांव के 150 कारीगर के अपने विभिन्न औजारों के साथ उपस्थित रहते है। नए रथ का संचलन फूल रथ के रूप में होगा।
शनिवार को बस्तर दशहरा की तीसरी रस्म बारसी उतरानी सिरहासार के सामने होती हे। रथ कारीगर दल के मुखिया के नेतृत्व में कारीगरों ने रथ बनाने लाई गई लकड़ियों की पूजा करते है। वहीं रथ बनाने में प्रयुक्त औजारों की भी पूजा की जाती है। परंपरानुसार पूजा के बाद सात मांगूर, एक बकरा और सवाया के रूप में एक अण्डा अर्पित किया जाता है। रथ को बनाने के लिए दरभा, माचकोट, बकावंड और जगदलपुर रेंज के जंगलों से 166 नग साल, धामन और टिनसा वृक्ष के गोले मंगवाए जाते है।
नारफोड़नी की रस्म
विश्व प्रसिद्घ बस्तर दशहरा पर्व में सिरासार चैक में विधि-विधानपूर्वक नारफोड़नी रस्म पूरी की जाती है। इसके तहत कारीगरों के प्रमुख की मौजूदगी में पूजा अर्चना की जाती है। इस मौके पर मोगरी मछली,अंडा व लाइ-चना अर्पित किया जाता है। साथ ही औजारो की पूजा की गई। पूजा विधान के बाद रथ के एक्सल के लिए छेद किए जाने का काम शुरू किया जाता है। विदित हो कि रथ के मध्य एक्सल के लिए किए जाने वाले छेद को नारफोड़नी रस्म कहा जाता है। गौरतलब है कि 75 दिनों तक चलने वाला यह लोकोत्सव पाटजात्रा विधान के साथ शुरू हुआ था। इसके बाद डेरीगढ़ाई व बारसी उतारनी की रस्म पूूरी की गई।
पिरती फारा
बस्तर दशहरा के लिए इस बार चार पहियों वाला रथ सिरहासार के सामने तैयार किया जाता है। इस कार्य में झार और बेड़ा उमरगांव से पहुंचे करीब 150 कारीगर लगते हैं। पिरती फारा की रस्म में पहले निर्माणाधीन रथ के सामने बकरे की बलि दी जाती हैं। रथ निर्माण में लगे कारीगरों ने सॉ मिल से चिरान कर लाकर करीब 25 फीट लंबे तथा वजनी फारों को बड़ी सावधानी से ऊपर चढ़ाया जाता है। बताया जाता है कि इस कार्य के दौरान कोई अप्रिय वारदात न हो, इसलिए फारा चढ़ाने के पहले रथ की पूजा- अर्चना की जाती है।
दशहरा का विशालकाय रथ
दुनिया में सबसे लंबी अवधि लगभग 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरा पर्व विश्व प्रसिद्ध है। इस दशहरे में लकड़ी से बनाया गया दुमंजिला भवन का भव्य रथ पर्यटकों के लिए खास आकर्षण का केन्द्र रहा है। पिछले 600 वर्षों से हर साल नये सिरे से बनाए जाने वाले इस रथ को बनाने वाले कारीगरों के पास भले ही किसी इंजीनियरिंग कालेज की डिग्री न हो, लेकिन जिस कुशलता और टाइम मैनेजमेंट से इसे तैयार किया जाता है, वह आश्चर्य का विषय साबित हो सकता है।
रथ के चक्कों से लेकर धुरी (एक्सल)तथा रथ के चक्कों व मूल ढांचे के निर्माण में ग्रामीण अपने सीमित घरेलू औजार कुल्हाड़ी व बसूले, खोर खुदनी सहित बारसी का ही उपयोग करते हैं। ये शिल्पी जिस कुशलता के साथ दो मंजिले रथ का निर्माण करते हैं, वह 40 फुट उंचा और 32 फुट लंबा होता है। इसकी चैड़ाई 20 फिट होती है तथा इसे बनाने में 50 घन मीटर लकड़ी का उपयोग होता है।
माचकोट व तिरिया से लाए गए साल वृक्ष के मोटे तनों को सीधे चीर कर 20 से 25 फुट फारों में बदला जाता है। दो दर्जन से अधिक शहतीरों को लंबाई के आधार पर अलग-अलग रख दिया जाता है। इसके बाद रथ के एक्सल के लिए दो मजबूत लकड़ियों को तराशा जाता है। इसके दोनों छोर पर चक्का बिठाने के लिए आकार तय किया जाता है।
इन आयताकार आकारों के बाद चक्का बिठाने की बारी आती है। रथ परिचालन का सारा दारोमदार पहियों पर ही होता है। रथ का पहिया बनाने के लिए मजबूत लकड़ियों के दो अर्धगोलाकार आकृतियों को आपस में बिठाकर पूर्ण गोलाकार चक्कों का रूप दिया जाता है। इन चारों चक्कों का आकार, मोटाई व उनके बीच बने नार का निर्माण ऐसे होता है कि रथ को खींचने के लिए कम से कम बल लगाया जाता है। बस्तर दशहरा देखने के लिए विश्वभर से पर्यटक अपार उत्कंठा लिए बस्तर पहुंचते हैं। बस्तर दशहरा इनके आर्कषण और कौतूहल का विषय होता है।
काछिनगादी परंपरा
बस्तर का दशहरा अपने विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं रस्मों के कारण देश विदेश में प्रसिद्ध है। बस्तर दशहरा भारत का ऐसा दशहरा है जिसमें रावण दहन ना करके रथ खींचने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यह दशहरा विश्व का सबसे लंबा चलने वाला दशहरा है। कुल 75 दिन तक दशहरा के विभिन्न रस्मों -परंपराओं का आयोजन किया जाता है।
पाटजात्रा नामक रस्म से बस्तर दशहरा की शुरूआत हो जाती है। पाटजात्रा के बाद डेरी गड़ाई एक प्रमुख रस्म है जिसमें काष्ठ रथों का निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है। डेरी गड़ाई के बाद सबसे महत्वपूर्ण रस्म है काछिन गादी रस्म। प्रत्येक वर्ष नवरात्रि से पूर्व आश्विन मास की अमावस्या के दिन काछिनगादी की रस्म निभाई जाती है। काछिनगादी रस्म के निर्वहन के बाद ही दस दिवसीय दशहरा की औपचारिक शुरूआत हो जाती है।
काछिनगादी का अर्थ है काछिन देवी को गद्दी देना। काछिन देवी की गद्दी कांटेदार होती है। कांटेदार झुले की गद्दी पर काछिनदेवी विराजित होती है। काछिनदेवी का रण देवी भी कहते है। काछिनदेवी बस्तर अंचल के मिरगानों (हरिजन)की देवी है। बस्तर दशहरा की शुरूआज 1408 ई में बस्तर के काकतीय चालुक्य राजा पुरूषोत्तम देव के शासन काल में हुई थी वहीं बस्तर दशहरा में काछिनगादी की रस्म महाराज दलपत देव 1721 से 1775 ई के समय प्रारंभ मानी जाती है।
बस्तर संस्कृति और इतिहास में लाला जगदलपुरी जी कहते है कि जगदलपुर मे पहले जगतु माहरा का कबीला रहता था जिसके कारण यह जगतुगुड़ा कहलाता था। जगतू माहरा ने हिंसक जानवरों से रक्षा के लिये बस्तर महाराज दलपतदेव से मदद मांगी। दलपतदेव को जगतुगुड़ा भा गया उसके बाद दलपत देव ने जगतुगुड़ा में बस्तर की राजधानी स्थानांतरित की। जगतु माहरा और दलपतदेव के नाम पर यह राजधानी जगदलपुर कहलाई। दलपतदेव ने जगतु माहरा की ईष्ट देवी काछिनदेवी की पूजा अर्चना कर दशहरा प्रारंभ करने की अनुमति मांगने की परंपरा प्रारंभ की तब से अब तक प्रतिवर्ष बस्तर महाराजा के द्वारा दशहरा से पहले आश्विन अमावस्या को काछिन देवी की अनुमति से ही दशहरा प्रारंभ करने की प्रथा चली आ रही है।
जगदलपुर में पथरागुड़ा जाने वाले मार्ग में काछिनदेवी का मंदिर बना हुआ है। लाला जगदलपुरी जी के अनुसार इस कार्यक्रम में राजा सायं को बड़े धुमधाम के साथ काछिनदेवी के मंदिर आते है। मिरगान जाति की कुंवारी कन्या में काछिनदेवी सवार होती है। कार्यक्रम के तहत सिरहा काछिन देवी का आव्हान करता है तब उस कुंवारी कन्या पर काछिनदेवी सवार होकर आती है। काछिन देवी चढ़ जाने के बाद सिरहा उस कन्या को कांटेदार झुले में लिटाकर झुलाता है। फिर देवी की पूजा अर्चना की जाती है। काछिनदेवी से स्वीकृति मिलने पर ही बस्तर दशहरा का धुमधाम के साथ आरंभ हो जाता है। काछिन देवी कांटो से जीतने का संदेश देती है वहीं बस्तर दशहरा में हरिजन समाज से जुड़ी रस्मों का निवर्हन इस बात का प्रमाण है कि बस्तर में अस्पृश्यता का कोई स्थान नहीं है।
जोगी बिठाई -
काछिनगादी के बाद सबसे महत्वपूर्ण रस्म है जोगी बिठाई। आश्विन शुक्ल प्रथमा से दशहरा में नवरात्र कार्यक्रम प्रारंभ होता है। नवरात्रि के प्रथम दिन कलष स्थापना की जाती है। जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर नवरात्र में हवन पूजा पाठ पुरे नौ दिनों तक चलते रहते है। नवरात्र के पहले दिन ही सिरासार भवन में जोगी बिठाई का कार्यक्रम होता हैं। इस कार्यक्रम मे आमाबाल गांव का व्यक्ति विधि विधान से जोगी के रूप में बिठाया जाता है। सिरासार भवन में एक आदमी समाने लायक गडढा खोदा जाता है । मावली देवी के पूजा अर्चना के बाद जोगी को उसमें बैठाया जाता है। यह परंपरा छः सौ साल पुरानी है। पीढ़ियो से आमाबाल एवं पराली गांव के ग्रामीण जोगी बनते है। जोगी नौ दिनों तक वहीं गढडे में रहता है जिसके लिये दुग्ध एवं फलों की व्यवस्था रहती है। चारों तरफ कपड़ा लगाया जाता है ताकि उसे बुरी नजर से बचाया जा सके। जोगी बिठाई के बारे में लाला जगदलपुरी जी अपनी पुस्तक बस्तर संस्कृति इतिहास में लिखते है कि कभी दशहरे के अवसर पर एक ग्रामीण दशहरा निर्विघ्न संपन्न हो , इसलिये वह अपने ढंग से योग साधना में बैठ जाया करता था। वह नौ दिन तक योगासन में बैठा रहता है। जोगी बिठाते समय मांगूर मछली काटने का रिवाज है। पहले बकरा भी काटा जाता था। जोगी बिठाई कार्यक्रम की मान्यता है कि जोगी के तप से देवी प्रसन्न होती है और दशहरा निर्विघ्न संपन्न होता है।
देवी को निमंत्रण:-
भारतीय परंपरा में किसी भी शुभ कार्य के लिये सबसे पहले देवी देवताओं को याद किया जाता है। उनकी पूजा अर्चना के बाद ही मांगलिक कार्य संपन्न किये जाते है। कुछ रस्मों रिवाजों एवं कार्यक्रमों देवी देवताओं की उपस्थिति बेहद ही अनिवार्य होती है। बस्तर दशहरा में भी देवी दंतेष्वरी की उपस्थिति अनिवार्य होती है। बस्तर में देवी दंतेश्वरी के बिना दशहरा पर्व संभव ही नहीं है। देवी दंतेश्वरी दसवी सदी से वर्तमान काल तक बस्तर की आराध्या देवी है। पूर्व में नागवंशी राजाओं एवं परवर्ती काकतीय चालुक्य राजाओं ने देवी को अपनी ईष्ट देवी मानकर आराधना की। नागयुगीन माणिक्यदेवी ही काकतीय राज में दंतेष्वरी के नाम से जानी गई। नागराजाओं ने माणिक्यदेवी के सम्मान में हर तरह के आयोजन किये उसी प्रकार काकतीय चालुक्य राजाओं में अन्नमदेव और बाद पुरूषोत्तम देव ने देवी की उपस्थिति में दशहरे और फाल्गुन मेले का प्रारंभ किया। देवी दंतेश्वरी को सुमिरन किये बिना बस्तर में आज भी कोई शुुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता है। दशहरा में देवी दंतेश्वरी का डोली स्वयं जगदलपुर जाती है। देवी के छत्र को राजा या पुजारी अपने हाथों में लेकर रथारूढ़ होते है। देवी के छत्र को रथ पर विराजित की रथ परिक्रमा की परंपरा निर्वहन की जाती है। आश्विन शुक्ल पंचमी को राज परिवार के सदस्य, मांझी चालकियों का दल जगदलपुर से दंतेवाड़ा में माई जी के मंदिर में दशहरा निमंत्रण देने के लिये आते है। निमंत्रण के लिये विनय पत्रिका राजगुरू द्वारा संस्कृत में लिखी जाती है। विनय पत्रिका , अक्षत सुपारी सहित बस्तर महाराजा के द्वारा देवी दंतेष्वरी के चरणो में अर्पित की जाती है। देवी से दशहरा में सम्मिलित होने की गुहार लगाई जाती है। न्यौते को स्वीकार करने के बाद देवी के प्रतीक मावली माता की प्रतिमा जो नये कपड़े में हल्दी का लेप लगाकर बनायी जाती है। मावली देवी को पूजा अर्चना कर डोली में विराजित किया जाता है। देवी दंतेश्वरी का अन्य नाम मावली देवी भी है। डोली को गर्भगृह से बाहर मंदिर के सभाकक्ष में रखा जाता है। पंचमी से अष्टमी तक देवी की डोली सभाकक्ष में स्थापित रहती है। अष्टमी को देवी दंतेश्वरी की डोली पुजारी एवं सेवादार के साथ जगदलपुर रवाना होती है। पहले रियासतकाल में राजा भैरमदेव के समय चांदी की डोली होती थी। महारानी प्रफुल्लकुमारी के समय देवी की डोली रक्त चंदन की लकड़ी से बनाई गई थी।
रथ चालन:-
जोगी बिठाई के दुसरे दिन अर्थात आश्विन शुक्ल द्वितीया से सप्तमी तक रथ चलाया जाता है। दशहरा के लिये दो रथ बनाये जाते है। पहला चार चक्कों वाला फूलरथ और दुसरा आठ चक्को वाला रैनी रथ। महाराज पुरूषोत्तम देव के समय 12 पहिये वाला रथ चलाया जाता था। किन्तु रथ चालन में कठिनाईयों के कारण आठ चक्कों एवं चार चक्कों के दो रथ चलाये जाने लगे। आष्विन शुक्ल द्वितीया से सप्तमी तक चार पहियों वाला फूलरथ चलाया जाता है। रथ निर्धारित मार्गाें में ही चलाया जाता है। मां दंतेश्वरी के छत्र को फूलरथ में विराजित कर मावली मंदिर की परिक्रमा कराई जाती है। सबसे पहले मांई जी छत्र दंतेश्वरी मंदिर से मावली माता मंदिर राम मंदिर लाया जाता है। तत्पश्चात भगवान जगन्नाथ मंदिर के सामने खड़े रथ में माई जी के छत्र को विराजित किया जाता है। इस मौके पर जिला पुलिस बल के जवानों ने हर्ष फायर कर माता को सलामी देते है। । रथ चालन के इस कार्यक्रम को देखने के लिये जगदलपुर में लोगों को हुजूम उमड़ता है। रथ पर राजा देवी का छत्र लेकर आसीन होता है। इस रथ को फूलों से सजाया जाता है जिसके कारण इसे फूल रथ कहते है। राजा स्वयं फूलों से बनी पगड़ी पहनता था। फूल रथ को कचोरापाटी और अगरवारा परगनों के लोग ही खींचते है। रथ पर चढ़ने के लिये सीढ़ी गढे़या के ग्रामीण बनाते हैं। रथ खींचने की रस्सियां करंजी केसर पाल और सोनाबाल के ग्रामीण बनाते है। रियासत काल में केंवटा जात नाईक और पनारा जात नाईक की पत्नियां पहले फूल रथ पर परिक्रमा के लिये रवाना होने से पहले चना लाई और रोटियां छिड़कती थी ऐसी जानकारी लाला जगदलपुरी से प्राप्त होती है।
दशहरे की भीड़ में गाँव-गाँव से आमंत्रित देवी देवताओं के साज बाज आज भी देखने को मिल जाते हैं। उनके छत्र डंगइयाँ घंटे बैरक घंटे शंख तोड़ियाँ आदि सब अपनी अपनी जगह ठीक ठाक हैं, आज भी लोग श्रद्धा भक्ति से प्रेरित होकर रथों की रस्सियाँ खींचते हैं। रथ के साथ-साथ नाच गाने भी चलते रहते हैं। मुंडा लोगों के मुंडा बाजे बज रहे होते हैं। नाइक पाइक माझी कोटवार आदि तो आज भी चल रहे होते हैं, पर पहले सैदार बैदार पड़ियार और राजभवन के नौकर चाकर भी अपने अपने राजसी पहनावे में चलते रहते हैं। पहले रथ प्रतिदिन सीरासार चैक से ठीक समय पर चलकर शाम को एक निश्चित समय पर सिंह द्वार के सामने पहुँच जाता है।
बेल पूजा:-
शहर से लगे ग्राम सरगीपाल में बेल पूजा होती है। यहां राजपरिवार और अन्य श्रद्धालु बेल पेड़ पर पूजा-अनुष्ठान के बाद युग्म बेल फल लेकर दंतेश्वरी मंदिर आते है। ग्रामीण गाजे-बाजे के साथ पूजा के बाद विवाह की भांति एक-दूसरे को तेल-हल्दी लगाकर लोगों का स्वागत व विदाई करते है।
बस्तर दशहरा में फूल रथ की पांचवीं परिक्रमा के बाद सोमवार की देर रात दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी व मांझी-मुखिया सरगीपाल जाते है। जहां बरसों पुराने बेल फल के वृक्ष के तले देवी का आव्हान करते युग्म (जोड़ा) बेल फल को कपड़े से बांधते है। पूजा-अनुष्ठान के बाद दो बकरों की बलि दी जाएगी और युग्म फल को तोड़ दंतेश्वरी मंदिर लाकर प्रतिस्थापित किया जाएगा। परंपरानुसार बरसों से दशहरा के दौरान अश्विन शुक्ल पक्ष सप्तमी को बेल पूजा की जाती है। इस रस्म को ग्रामीण पुत्री विवाह की तरह मानते हैं। पूजा के बाद वे एक-दूसरे पर हल्दी-पानी का छींटा मारते हैं। ग्रामीण मान्यता के अनुसार बेल पेड़ व फल को ग्रामीण माता दुर्गा का दूसरा रूप मानते हैं, इसलिए दशहरा के मौके पर फूल रथ की पांचवी परिक्रमा पूर्ण होने के बाद बेल न्यौता व बेल पूजा की जाती है।
निशाजात्रा:-
अश्विन शुक्ल अष्टमी की आधी रात निशाजात्रा गुड़ी में पूजा अनुष्ठान के बाद राज परिवार की मौजुदगी में ग्यारह बकरों की बलि दी जाती है। अष्टमी की रात को देश की खुशहाली के लिये देवियों को मछली कुम्हड़ा और बकरों की बलि दी जाती है। रात 12 बजे राजपरिवार भैरमदेव की पूजा अर्चना कर हवन स्थल में 11 बकरों की बलि दी जाती है। मावली मंदिर में दो और सिंहडयोढी व काली मंदिर में एक-एक बकरे की बलि दी जाती है। दंतेश्वरी मंदिर जगदलपुर में एक काले कबुतर व सात मोंगरी मछलियां तथा श्री राम मंदिर में उड़द दाल और रखिया कुम्हड़ा की बलि दी गई है। निशाजात्रा में मां को अर्पण बकरे को प्रसाद के रूप में नवमी के दिन पुजारियों सहित शहर के नागरिकों के घर घर पहुंचाया जाता है।
दंतेवाड़ा से देवी की रवानगी:-
बस्तर की आराध्य मां दंतेश्वरी अष्टमी को ऐतिहासिक बस्तर दशहरा में शामिल होने जगदलपुर रवाना होती है। मांईजी के छत्र व डोली को मंदिर परिसर में सलामी दी जाती है। माईंजी की डोली के साथ पुजारी सेवादार समरथ मांझी व चालकी के साथ 12 परगना के लोग शामिल होतेे है। डोली और छत्र मंदिर से आतिशबाजी के साथ निकलते है। तत्पश्चात डंकनी नदी के पास बनाए गए पूजा स्थल में श्रद्धालु पूजा.अर्चना कर मांईजी को विदा करते। आंवराभाटा से मांईजी की डोली व छत्र फूलों से सजे वाहन में जगदलपुर रवाना होती है। रियासत काल में माईजी को जगदलपुर पहुंचने में तीन चार दिन लग जाते थे। सेवादार डोली को कंधो पर उठाकर पैदल जगदलपुर पहुंचते थे। अब वाहन के कारण नवमीं की सुबह को डोली जगदलपुर पहुंच जाती है। दंतेवाड़ा से जगदलपुर तक आवराभाठा हारम गीदम बास्तानार किलेपाल कोडेनार डिलमिली तोकापाल पंडरीपानी मे देवी का स्वागत सत्कार किया जाता है। हजारों श्रद्धालु देवी के स्वागत एवं पूजा अर्चना के लिये पलके बिछाये खड़े रहते है। रात्रि को जगदलपुर में जिया डेरा विश्राम करती है। सुबह देवी की स्वागत एवं पूजा अर्चना की जाती है।
मावली परघाव:-
दशहरा पर्व का ’मावली परघाव’ विधान आश्विन शुक्ल नवमीं कुटरूबाड़ा के समक्ष पूरी की जाती है। दंतेवाड़ा से आई माईजी के डोली, छत्र आदि का स्वागत राजपरिवार के सदस्य, राजगुरु, दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी, राजपुरोहित के नेतृत्व में मांझी-मुखिया करते हे। इसके बाद राजपरिवार के सदस्यों सहित अन्य भक्तों ने माईजी की डोली को कांधे पर उठाकर दंतेश्वरी मंदिर ले जाते है। इस कार्यक्रम के तहत दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक दंतेश्वरी की डोली में लाई गई मावली मूर्ति का स्वागत किया जाता है। मावली देवी को दंतेश्वरी का ही एक रूप मानते हैं। नए कपड़े में चंदन का लेप देकर एक मूर्ति बनाई जाती है और उस मूर्ति को पुष्पाच्छादित कर दिया जाता है। यही है मावली माता की मूर्ति। मावली माता निमंत्रण पाकर दशहरा पर्व में सम्मिलित होने जगदलपुर पहुँचती हैं। इससे पहले गीदम रोड स्थित जियाडेरा में ठहरे माईजी की डोली, छत्र सहित विभिन्न देवी-देवताओं की डोली, छत्र, लाट, बैरग आदि लिए ग्रामीणों की विशाल शोभायात्रा गाजे-बाजे और आतिशबाजी के साथ निकाली जाती है।
मावली परघाव के दिन ही जोगी उठाई का कार्यक्रम भी संपन्न किया जाता है। नौ दिनों से सिरासार भवन में योग साधना में बैठा जोगी आज के दिन सम्मानपूर्वक उठाया जाता है।
भीतर रैनी:-
विजयादशमी के दिन भीतर रैनी के कार्यक्रम होते हैं। इस आठ पहियों वाला विशाल रैनी रथ चलता है। इस रथ को किलेपाल परगना के 56 गांव से आए माड़िया जनजाति के लोगों ही खींचते है। इसके बाद नए बनाए गए दो मंजिला 8 चक्कों के रथ में मांई दंतेश्वरी की डोली को पूरे रस्म-रिवाज के साथ मुख्यद्वार (दंतेश्वरी मंदिर सिंह ड्योढ़ी) के सामने से डोली को रथारुढ़ किया जाता है। भीतर रैनी अर्थात विजयादशमी के दिन यह रथ अपने पूर्ववर्ती रथ की ही दिशा में अग्रसर होता है।
इस रथ पर झूले की व्यवस्था रहती है। जिस पर पहले रथारुढ़ शासक वीर वेश में बैठा झूला करता था। विजयदशमी की शाम को जब रथ वर्तमान नगर पालिका कार्यालय के पास पहुँचता था तब रथ के समक्ष एक भैंस की बलि दी जाती थी। भैंसा महिषासुर का प्रतीक बनकर काम आता था। तत्पश्चात जलूस में उपस्थित राजमान्य नागरिकों को रुमाल और बीड़े देकर सम्मानित किया जाता था। विजयादशमी के रथ की परिक्रमा जब पूरी हो चुकती है।
बाहर रैनी:-
मांई की डोली जैसे ही रथ पर सवार हुई। उसके बाद रस्म के हिसाब से रथ चुराने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। रथ चुराने के लिए किलेपाल, गढ़िया एवं करेकोट परगना के 55 गांवों से 4 हजार से अधिक ग्रामीण यहां पहुंचते है। रातोरात ग्रामीणों ने इस रथ को खींचकर करीब पांच किमी दूर कुम्हड़ाकोट के जंगलों में ले जाते है। इसके बाद रथ को यहां पेड़ों के बीच में छिपा दिया जाता हैं। रथ चुराकर ले जाने के दौरान रास्ते भर उनके साथ आंगादेव सहित सैकड़ो देवी-देवता भी साथ रहते है। लाला जगदलपुरी जी अपनी पुस्तक बस्तर और इतिहास और संस्कृति में बाहर रैनी के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां देते है। उनके अनुसार कुम्हड़ाकोट राजमहलों से लगभग दो मील दूर पड़ता है। कुम्हड़ाकोट में राजा देवी को नया अन्न अर्पित कर प्रसाद ग्रहण करते है। बस्तर दशहरे की शाभा यात्रा में कई ऐसे दृश्य हैं जिनके अपने अलग-अलग आकर्षण हैं और उनसे पर्याप्त लोकरंजन हो जाता है। राजसी तामझाम के तहत बस्तर दशहरे के रथ की प्रत्येक शोभायात्रा में पहले सुसज्जित हाथी घोड़ों की भरमार रहती थी। मावली माता की वह घोड़ी याद आती है जिसे चाँदी के जेवरों से सजाया जाता था। उसके पावों में चाँदी के नूपुर बजते रहते थे और माथे पर चाँदी की झूमर झूलता था। उसकी पीठ के नीचे तक एक ज़रीदार रंगीन साड़ी झिलमिलाती रहती थी। विगत दशहरे में एक सुसज्जित घोड़े पर सवार मगारची नगाड़े बजा बजा कर यह संकेत देता चलता था कि पुजारी समेत देवी दन्तेश्वरी के छत्र को रथारूढ़ होने या उतारने में कितना समय और शेष है। पहले भीतर रैनी और बाहिर रैनी के कार्यक्रमों में धनु काँडेया लोगों की धूम मची रहती थी। भतरा जाति के नवयुवक धनुकाँडेया बनते थे। उनकी वह पुष्प सज्जित धधारी देह सज्जा देखते ही बनती थी। धनु काँडेया रथ खींचने के लिए आदिवासियों को पकड़ लाने के बहाने उत्सव की शोभा बढ़ाते थे। वे रह-रह कर आवाज़ करते, इधर उधर भागते फिरते नज़र आते थे।
इधर रथ चोरी होने के बाद महाराजा कमलचंद्र भजदेव, राजगुरू नवीन ठाकुर अन्य लोगों के साथ कुम्हडाकोट जाते है। यहां पहले नए फसल के अनाज को ग्रामीणों के साथ पकाने के बाद इसका भोग राजपरिवार के सदस्य करते है। इसके बाद चोरी हुए रथ को वापस लाने के लिए ग्रामीणों को मनाया जाता है। देर शाम रथ को बस्तर महाराज अपनी अगुवाई में लेकर वापस दंतेश्वरी मंदिर पहुंचते है। रथ को वापस लाने की रस्म को बाहर रैनी रस्म कहा जाता है।
बस्तर दशहरा का रथ प्रतिवर्ष भीतर रैनी की रात चोरी चला जाता है। 500 से ज्यादा ग्रामीण राजमहल के सामने खड़े रथ को चुराकर कोतवाली के सामने से खींचते हुए कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं। इतिहासकार बताते हैं कि दशहरा रथ की चोरी पिछले 259 वर्षों से जारी है। बस्तर दशहरा की यह पुरातन परंपरा है कि 50 से 65 किमी दूर बास्तानार- कोड़ेनार क्षेत्र के 33 गांवों से करीब 500 माड़िया आदिवासी दशहरा रथ खींचने जगदलपुर आते हैं। परिक्रमा पूर्ण होने के बाद रथ को राजमहल के सामने खड़ा कर दिया जाता है। देर रात परंपरानुसार ग्रामीण बिना शोर मचाए रथ को खींचते हुए करीब दो किमी दूर कुम्हड़ाकोट जंगल ले जाते हैं। इसे बोल चाल में रथ चुराना कहते हैं। दूसरे दिन बस्तर राजपरिवार कुम्हड़ाकोट से चुराए गए रथ को वापस राजमहल के सामने लाता है। इस परंपरा को बाहर रैनी कहते हैं। रथ के लौटते ही बस्तर दशहरा के रथ संचालन की रस्म पूर्ण हो जाती है। बस्तर राजाओं की राजधानी जगतूगुड़ा जो अब जगदलपुर के नाम से जाना जाता है, में स्थानांतरित हुई इसलिए माना जाता है कि 259 साल से रथ संचालन हो रहा है। रथ चुराना पर्व की एक मनोरंजक रस्म है।
मुरिया दरबार:-
बस्तर दशहरे मे एक बेहद ही रोचक कार्यक्रम का आयोजन होता है। यह कार्यक्रम मुरिया दरबार के नाम से जाना जाता है। आश्विन शुक्ल द्वादश के दिन काछिन जात्रा के बाद सायं को जगदलपुर के सिरासार भवन मे मुरिया दरबार का आयोजन होता है।
मुरिया दरबार मे बस्तर के राजा एवँ प्रजा के बीच विचारो का आदान प्रदान होता था . बस्तर के प्रत्येक माँझी चालकी अपने क्षेत्र की समस्याओ को राजा के सम्मुख रखते थे. समस्याओ एवँ शिकायतो के निवारण हेतु खुली चर्चाये होती थी. यह मुरिया दरबार बस्तर का प्रमुख आकर्षण है ज़िसमे प्रजातंत्र को प्रोत्साहित किया जाता था. बस्तर मे भले ही आदिवासी किसी भी समाज का ही क्यो ना हो सब के लिये मुरिया शब्द का ही प्रयोग प्रचलित है. यह एक तरह से बस्तर की पहचान है.इसीलिये इस आयोजन को आदिवासी दरबार ना कहकर मुरिया दरबार के नाम से ही जाना जाता है।
मुरिया दरबार का आयोजन 1876 से प्रारम्भ हुआ है. उस समय बस्तर के राजा भैरमदेव थे. इन्होने 1853 ई से 1891 ई तक बस्तर की सत्ता संभाली. इनके शासन काल मे 1876 मे बस्तर के आदिवासियो ने जबरदस्त विद्रोह किया जो बस्तर के इतिहास मे मुरिया विद्रोह के नाम से जाना जाता है। बस्तर भी अंग्रेजी हुकुमत के अधीन था.
बस्तर का मुक्तिसंग्राम मे हीरालाल शुक्ल ने पहले मुरिया दरबार के आयोजन के बारे लिखा है. 1876 के मुरिया विद्रोह के देखते हुए उस समय सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर मैकजार्ज ने राजा एवँ प्रजा मे मेल कराने के लिये 8 मार्च 1876 को जगदलपुर मे पहले मुरिया दरबार का आयोजन किया था. इस प्रकार मुरिया दरबार का सुत्रपात हुआ , बाद में यह मुरिया दरबार का यह आयोजन बस्तर के दशहरे का प्रमुख एवँ सार्थक प्रजातांत्रिक आकर्षण बन गई. तब से अब तक प्रत्येक दशहरे मे मुरिया दरबार का आयोजन किया जाता है।
ओहाड़ी:-
बस्तर दशहरा में शामिल हुए बस्तर के देवी-देवताओं को अश्विन शुक्ल १३ को ’गंगा मुंडा कुटुंब जात्रा’ में पूजा-अनुष्ठान के बाद विदाई दी जाती है। देवी दंतेश्वरी के अलावा विभिन्न देवी-देवताओं के छत्र-डोली आदि जात्रा स्थल पर पहुंचते है। इस कार्यक्रम को ओहाड़ी कहते हैं। पहले बस्तर दशहरा के विभिन्न जात्रा कार्यक्रमों में सैकड़ों पशुमुंड कटते थे जात्रा का अर्थ होता है यात्रा अर्थात महायात्रा (बलि)। बस्तर अंचल शाक्तों (शक्तिपूजकों) का अंचल है। पर आज यह प्रथा बंद-सी हो गई
बस्तर दशहरा के अंतिम पड़ाव में कुटुंब जात्रा रस्म पूरी की गई। यहां दशहरे में शामिल हुए सभी परगनाओं के देवी-देवताओं के छत्र, डोली, लाट, बैरग आदि लेकर पुजारी पहुंचते है। दोपहर करीब 12 बजे दंतेश्वरी मंदिर के प्रमुख पुजारी और दंतेवाड़ा से आए जिया पुजारी दंतेवाड़ा व जगदलपुर के देवी छत्रों के साथ गांव-गांव से पहुंचे देवी-देवताओं का परंपरानुसार पूजा-अनुष्ठान करते हे।
कुटुंब जात्रा के बाद दशहरा समिति की ओर से सभी देवी-देवताओं के पुजारियों को रुसुम देकर ससम्मान विदा किया जाता है।
बस्तर दशहरा में शामिल होने आई दंतेवाड़ा मांईजी के डोली व छत्र की विदाई बाद में होती है। कुटुंबजात्रा में शामिल होने के बाद छत्र को जिया डेरा लाया जाता है। बस्तर के अन्य देवी-देवताओं की विदाई के बाद दंतेवाड़ा के देवी को विदाई दी जाती है।
बस्तर दशहरा में दंतेवाड़ा की डोली, छत्र के अलावा कोंडागांव क्षेत्र के ग्राम चिपानार, ओरेंडा, बालैंड, बतवा, सोनाबेड़ा, अनंतपुर, सिवनी, अरंगुल, आलोर, तर्राबेड़ा, फूफागांव, रांधना, बरबई, तेलीभाटा, विश्रामपुरी, पुसपाल, केशकाल क्षेत्र से गबेड़ा, छोटेराजपुर, केसरपाल, हरबेल, बरगांव, बड़ेराजपुर, जुगरढीह, फरसगांव, बड़ेडोंगर, नवागढ़, केसरपाल, मसू कोकोड़ा, आमबेड़ा, बारसूर, केशरपाल, एरकुंड, लोहंडीगुड़ा, तिरिया, चिपावंड, पाहुरबेल, करंजी, केसुरपाल, कर्रेकोट सहित अन्य ग्रामीण मंदिर व देवी-गुड़ियों के देवी-देवताओं के डोली, छत्र, बैरग, लाट आते है।
देवी को विदाई:-
बस्तर दशहरा मनाने आईं मां दंतेश्वरी को अश्रूपूरित आंखों से हजारों भक्तों ने विदाई देते है। राजपरिवार के सदस्यों में मांईजी की डोली जिया डेरा तक पहुंचाई वहीं बस्तर की आराध्या को जिला पुलिस बल के जवानों ने तीन स्थानों पर 60 राउंड हर्ष फायर कर तथा सलामी देकर बिदा किया जाता है। । मांईजी का शहर के गीदम नाका से लेकर बास्तानार तक भव्य स्वागत होता है।
आठ दिनों तक मां दंतेश्वरी मंदिर में अतिथि रहने के बाद शनिवार सुबह माता को आत्मीय विदाई दी जाती है। सबसे पहले माता की विशेष पूजा हुई तत्पश्चात राज परिवार ने माता को विभिन्न वस्तुओं की भेंट देकर बस्तरवासियों पर सदैव कृपा करने की प्रार्थना करते हे। महाआरती के बाद राजपरिवार के कमलचंद भंजदेव माता की डोली लेकर स्वयं मंदिर से बाहर आए और माता केा जिया डेरा तक छोड़ने जाते है। । इस दौरान जवानों ने मंदिर के सामने, फिर सिंह ड्योढ़ी के पास तथा जिया डेरा में माता को सलामी दी जाती है। । विदाई के मौके पर विभिन्न राजनीतिक दलों के पदाधिकारी, दशहरा समिति के सदस्य, टेंपल कमेटी के सदस्य मांझी, चालकी, मेम्बर-मेम्बरिन आदि उपस्थित रहते है।
अंत में लाला जगदलपुरी के शब्दो में -
बस्तर दशहरा बहु आयामी है। धर्म, संस्कृति, कला, इतिहास और राजनीति से इसका प्रत्यक्ष संबंध तो जुड़ता ही है साथ-साथ परोक्ष रूप से बस्तर दशहरा समाज की उच्च एवं परिष्कृत सांस्कृतिक परंपरा का साक्षी भी बनता है। आज का बस्तर दशहरा पूर्णतः दंतेश्वरी का दशहरा है। बस्तर दशहरे की यह एक तंत्रीय पर्व प्रणाली आज के बदलते जीवन मूल्यों में भी दर्शकों को आकर्षित करती चल रही है। यह इसकी एक बड़ी बात है। कहना न होगा आज का जो बस्तर दशहरा हम देख रहे हैं। वह हमें अपने गौरवशाली अतीत से जोड़ता है। एक ऐसा अतीत जो बस्तर के आदिवासियों की अमूल्य धरोहर है किंतु जिस पर संपूर्ण भारतवासी गर्व करते हैं।
लेख - ओम प्रकाश सोनी
दंतेवाड़ा मो0 8878655151
