27 फ़रवरी 2018

मौर्य युगीन आटविक बस्तर

मौर्य युगीन आटविक बस्तर ..........!!


बस्तर के प्राचीन इतिहास के अध्ययन से यह मालुम पड़ता है कि बस्तर सदैव स्वाभिमानी अौर स्वतंत्रता प्रिय रहा है. चाणक्य की रणनीति अौर विशाल सेना का स्वामी होकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक विजय रथ दौडाने वाला चन्द्रगुप्त मौर्य भी बस्तर की स्वाभिमानी जनता पर अपना शासन स्थापित नही कर सका था. 

मौर्य काल मे बस्तर आटविक जनपद के नाम से जाना जाता था. मौर्य काल मे बस्तर तदयुगीन आटविक की जनता कबीलो मे रहती थी .यहां के लड़ाकु जनजातियो से सीधे लड़ने की क्षमता उस समय के किसी भी राजा मे नही थी.

कौटिल्य के अर्थशास्त्र मे आटविक  सेना का उल्लेख मिलता है. चन्द्रगुप्त मौर्य ने आटविक बस्तर के योद्धाओ को अपनी सेना मे सम्मिलित किया था. भारत का सबसे महान सम्राट अशोक मौर्य ने भी आटविक बस्तर को अपने अधीन रखने की इच्छा दिखायी थी. अशोक के समय कलिंग और आटविक बस्तर दोनो ही मौर्य  साम्राज्य के आँखो मे चुभते हुए कांटो के समान थे.

प्रियदर्शी अशोक दोनो को स्वतंत्र नही देख सकता था . उसने सर्वप्रथम कलिंग पर चढाई की. आटविक  बस्तर की जनजातियो ने अशोक के खिलाफ कलिंग का साथ दिया.  कलिंग आटविक  के लड़ाको ने वह लड़ाई लड़ी कि अशोक का दिल दहल गया. कलिंग युद्ध मे लाखो सैनिक मारे गये. लाखो लोग अकाल , महामारी अौर भुखमरी से मारे गये. 261 ई पूर्व मे  कलिंग ने अशोक  की अधीनता स्वीकार कर ली  किंतु आटविक बस्तर ने अपनी स्वतंत्रता बनाये रखी. आटविक  बस्तर को अशोक  कभी  जीत नही सका.

आटविक बस्तर पर अधिकार ना कर पाने की विफलता अशोक के एक शिलालेख मे इन पंक्तियो मे दिखायी देती है -"अंतानं अविजितानं" अर्थात आटविक जन अविजित पड़ोसी है’। कलिंग के युद्ध मे अपार जनक्षति के कारण अशोक का ह्रदय परिवर्तन हो गया. चंडशोक से अब वह धम्म अशोक बन गया था. अशोक ने आटविक पर अपना अधिकार करने की इच्छा त्याग दी.

आटविक के लडाकु योद्धा समय समय पर अशोक के लिये चुनौती उत्पन्न करते रहे थे , ये उसके साम्राज्य की शांति  के लिये चिंता के विषय बने रहे. अपने तेरहवे शिलालेख मे आटविक राज्य के लिये स्पष्ट रुप से चेतावनी जारी करते हुए सम्राट  अशोक कहते  है  -" यदि आटविक राज्य किसी प्रकार की कोई अराजकता उत्पन्न करता है तो वह उन्हे ऊचित जवाब देने के लिये तैयार है. साथ ही साथ यह भी कहते है कि वे वनवासियो  पर दयादृष्टी रखते है, उन्हे धम्म मे लाने का प्रयत्न करते है."

सत्य केतु विद्यालंकार के शब्दो मे " जब राज्य कर्मचारियो ने अशोक से पुछा कि - क्या आटविक का दमन करने के लिये युद्ध किया जाए तो उसने यही आदेश दिया कि उन वनवासी जातियो को भी धर्म द्वारा ही वश मे लाया जाये."

तब अशोक ने आटविक लोगो से स्पष्ट रुप से चिंतित ना होने एवँ स्वयं  को स्वाधीन समझने का निर्देश दिया -
 “एतका वा मे इच्छा अंतेषु पापुनेयु,
लाजा हर्बं इच्छति अनिविगिन हेयू, 
ममियाये अखसेयु च में सुखमेव च,
हेयू ममते तो दु:ख”!!

इन सभी विवरणो से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि - निश्चित रुप  से अशोक ने आटविक जनो को धम्म मे लाने का प्रयत्न किया होगा. विश्व शांति, गौतम बुद्ध के विचारो , और धम्म के संदेशो को कोने कोने तक पहुँचाने  के लिये अशोक ने हजारो स्तुप बनवाये थे. अशोक ने आटविक बस्तर के वनवासियो को धम्म के द्वारा वश मे लाने के लिये यहां भी बौद्ध स्तुप बनवाये होंगे परंतु लम्बे समय व्यतीत होने एवं बाद मे अनेक वंशो के शासन के कारण अब  मौर्य युगीन अवशेष अब धुंधले हो चुके है.


बस्तर मे मिली बौद्ध प्रतिमाये , भोंगापाल के बौद्ध चैत्य आदि   मौर्य युग के बाद के ही माने गये है. बस्तर मे एक गुफा मे मौर्य कालीन लेख से मौर्यो के बस्तर आगमन की बात प्रमाणित हो जाती है. भविष्य में ,खुदायी मे यदि मौर्य कालीन सिक्के मिले तो उसमे किसी प्रकार का कोई आश्चर्य नही होना चाहिये !!

ओम सोनी 

9 फ़रवरी 2018

गनमन तालाब का शिव मंदिर, बारसूर

गनमन तालाब का शिव मंदिर, बारसूर

बारसूर के भूले बिसरे मंदिर !

बारसूर आज का बसा कोई आम नगर नही है . यह तो सदियों पुराना शहर है. प्राचीनकाल में इस बारसूर को बाणासुर की राजधानी होने का गौरव प्राप्त था . विभिन्न राजवंशो के शासको ने यथा गंगवंशीय ,नागवंशियों ने इसे अपनी राजधानी बना कर सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक रूप से सवारा है.
एक अनुमान के मुताबिक बारसूर में 147 छोटे बड़े मंदिर हुआ करते थे और साथ ही इतने ही तालाब . किन्तु समय की मार के कारन बमुश्किल 7 से 8 मंदिर एवं इतने ही तालाब शेष रह गए है . कुछ प्रयासों से गणेश मंदिर , मामा भांजा मंदिर और बत्तीसा मंदिर आज फिर से आस्था के केंद्र बन चुके है.

किन्तु आज भी बारसूर में ऐसे कुछ मंदिर और उनके अवशेष फिर से अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करने के लिए जीर्णोद्धार की बाँट जोह रहे है . उनमे से गनमन तालाब का शिव मंदिर प्रमुख है. बहुत कम लोगो को ज्ञात है की गणेश मंदिर के पीछे की तरफ लगभग 200 मीटर की दुरी पर घनी झाड़ियो से घिरे हुए तालाब के मध्य एक शिव मंदिर स्थित है .
वर्तमान में इस तालाब को गनमन तालाब के नाम से जाना जाता है . नागवंशी शासको द्वारा तालाब के बीचोबीच शिव मंदिर के निर्माण कराया गया था .यह मंदिर अब पूरी तरह से ध्वस्त हो चूका है . वर्तमान में इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग और एक स्तम्भ एवं नीचे का आधार सुरक्षित है .

यह मंदिर स्तम्भो पर आधारित रहा होगा .जिसमे से एक स्तम्भ आज भी सुरक्षित खड़ा अपने जीर्णोद्धार की इन्तजार कर रहा है. आज इस मंदिर में पूजा तो दूर विभिन जलीय पक्षी अपना निवास स्थान बनाये हुए है .
वर्तमान में इस मंदिर का जीर्णोद्धार कर फिर से इस मंदिर को अपने मूल अवस्था में लाया जाये . तालाब तक जाने के लिए सड़क का निर्माण किया जाये.

.....ओम सोनी

6 फ़रवरी 2018

बस्तर के लोकगीत

बस्तर के लोकगीतो में प्रेमसंदेश
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बस्तर में लोक गीतो का बडा ही महत्व हैं. लोक गीतो के मामले में बस्तर का आदिवासी समाज बडा ही सम्पन्न हैं. बस्तर में हर अवसर पर यहां के ग्रामीण गाते हैं. शुभकार्यो के अवसर पर , मेले मड़ई में , मृत्यु में , या किसी तीज त्योहारो के समय पर ये गाकर अपनी भावनाये प्रकट करते हैं. बस्तर के ह्ल्बी भतरी गोंडी सभी बोली में लोकगीतो का महत्वपूर्ण स्थान हैं. हर कार्य के पीछे लोक गीत जुडे हैं. बस्तर में लोकगीतो के माध्यम से बहुत सारी बाते बडी ही आसानी से कह दी जाती हैं.



जब बात प्रेमसंबंधो की आती हैं तो उसमें भी लोकगीतो का बहुत ही सुन्दर तरिके से प्रयोग होता हैं. नायक अपनी नायिका को छेडने के लिये , बेहद ही सुन्दर तरिके से , लोक गीतो की पंक्तियो के माध्यम से अपने मन की बात कहता हैं. बस्तर की ह्ल्बी बोली में ऐसे प्रणय निवेदन के लिये एक छोटा सा लोक गीत हैं -
" रांडी चो बेटी , बाट चो खेती ,
कनक चुडी धान !
बाना पाटा के ओछा नोनी,
खिंडिक रहो ठान !"
मतलब - ओ विधवा की बेटी , ओ , जन पथ की खेती सी , धान की फसल सी तरूणी! ओ श्रमिके , अपना रंगीन वस्त्र बिछाकर थोड़ा आराम कर ले , परंतु थोडी सी जगह ज़रूर रहे.

एेसे निवेदन पर यहां के लोकगीतो में बडा ही सुन्दर जवाब होता हैं. एेसे प्रणय निवेदन की स्वीकृति में भतरी बोली में उस नायिका का यह जवाब होता हैं -
"ज़े दिने धरिब मोहरी हात ,
सेई दिने निन्दा नास !
कुटुम खाईबे भात !
तमर-आमर सूरती हेले ,
लोक बलिबे महत!"
मतलब - ज़िस दिन तुम मेरा हाथ पकड़ लोगे , उसी दिन तुम्हारे साथ मेरा ब्याह हो जायेगा , उसी दिन लोक निन्दा समाप्त हो जायेगी. रिश्तेदार सब भोज में शामिल होंगे , परंतु हम दोनो में प्रीति होनी चाहिये. लोग इसे अच्छा कार्य समझेंगे!
बस्तर में लोकगीतो में बहुत ही स्वच्छन्दता हैं इनमे तनिक भी बनावटीपन का अहसास नही होता हैं. बस्तर में यहां के आदिम निवासियो की हर य़ात्रा एक गीत य़ात्रा हैं जो आदिकाल से चली आ रही हैं. आशा हैं यह गीतय़ात्रा यूँ ही चलती रहेगी!
--ओम सोनी

5 फ़रवरी 2018

माड़िया और सृष्टि की उत्पत्ति

माड़िया और सृष्टि की उत्पत्ति !!



आप सभी माने या नहीं माने , सृष्टि की उत्पत्ति बस्तर में ही हुई है. माड़िया लोगो में प्रचलित गोत्र कथा के अनुसार पालनार गांव में ही सृष्टी की उत्पत्ति हुई है . उस कथा के अनुसार पहले जब पृथ्वी नहीं थी तब चारो तरफ जल ही जल था और चारो तरफ सन्नाटा पसरा था . तब उस समय में वहाँ एक तुम्बा तैर रहा था , उस तुम्बे में माड़िया कुटुम्ब का आदी पुरूष ड्ढडे बुरका अपनी पत्नी के साथ बैठा हुआ था.
बायसन होर्न माडिया

इतने में वहाँ भीमादेव प्रकट हुआ. भीमादेव प्रकट होते ही पानी पर हल चलाने लगा , जहां जहां हल चला वहाँ की धरती ऊपर आ गयी और शेष भाग में आज भी पानी है . जहां भूमि ऊबड खाबड हुई वहाँ पहाड बन गए . भूमि देखकर ड्ढडे बुरका अपनी पत्नी के साथ तुम्बे से नीचे उतरा और भीमादेव को अपना इष्ट मानकर अपना गृहस्थ जीवन प्रारम्भ किया . उसके दस पुत्र और पुत्री हुए . और बाद में उनके कई गोत्र चले . संसार के समस्त प्राणी ड्ढडे बुरका के ही वंशज है , ऐसी माडियो की मान्यता है .

माड़िया दो प्रकार के होते है - अबुझ माडिया और दंडामी माडिये . दंडामी माडियो को बायसन होर्न माडिया भी कहा जाता है . य़े माडिये गौर सिंग से बने मुकुट पहन कर नृत्य करते है .

विराने में, विराजित ब्रम्हा विष्णु महेश

विराने में, विराजित ब्रम्हा विष्णु महेश 


तत्कालीन चक्रकोट में छिंदक नागवंशी राजाओ ने बस्तर के कई स्थलों को अपने गढ़ों के रूप में विकसित किया था। इन गढ़ो की संख्या 84 से भी अधिक मानी गयी है। लगभग आज हजार साल बाद उन सामरिक गढ़ो के सिर्फ अवशेष ही प्राप्त होते है। अधिकांश गढ़ प्राकृतिक रूप से सुरक्षित है। ऐसा ही एक प्रमुख गढ़ था मिरतुर जो कि बीजापुर जिले के अंतर्गत बैलाडिला पहाडियो मे बसा एक छोटा सा गांव है। 
ब्रम्हा, विष्णु और महेश

उन छिंदक नागवंशी शासकों ने लगभग प्रत्येक गढ़ो में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया था। उन मंदिरों में देवी-देवताओं की भव्य प्रतिमायें स्थापित रहती थी। समय के कालचक्र में वे मंदिर विभिन्न कारणों से नष्ट होते गये और धन की कमी के कारण वे मंदिर पुनः जीर्णोद्धारित नहीं हो पाये। उन मंदिरों के अवशेष बिखरते गये और सिर्फ बची रही गयी मंदिर की प्रतिमाये। उन प्रतिमाओं में से अधिकांश प्रतिमायें चोरी होती गयी। कुछ प्रतिमायें गांववासियों के देवस्थल होने के कारण सुरक्षित बची रह गयी। 

आज बस्तर में अधिकांशत देवगुड़ियों में गणेश या शाक्त प्रतिमायें ही प्राप्त होती है। मिरतुर एक ऐसा ग्राम है जहां पर ब्रम्हा, विष्णु और लकुलीश अवतार में शिव तीनों की प्रतिमायें आज भी सुरक्षित विद्यमान है। मिरतुर भी तत्कालीन नागयुगीन गढ़ था। नागयुगीन स्थापत्यकला के अवशेष मिरतुर एवं आसपास के ग्रामों में इन प्रतिमाओं के रूप में प्राप्त होते है। 
ब्रम्हा

मिरतुर ग्राम में ब्रम्हा विष्णु महेश (लकुलीश) तीनो देवताओ की एक साथ प्रतिमाये स्थापित होने के कारण इस का ऐतिहासिक महत्व कई गुना बढ़ जाता है.मिरतुर की ब्रम्हाजी की प्रतिमा भी दक्षिण् बस्तर के ढोलकल, गणेशजी प्रतिमा के समान ही स्वर्णिम नागयुग की महत्वपूर्ण प्रतीक है।

दक्षिण बस्तर के मिरतुर जैसे गांव मे ब्रम्हाजी की प्राचीन प्रतिमा होना बेहद ही अकल्पनीय एवं अविश्वसनीय है ऐसा इसलिये क्योकि पूरे विश्व मे राजस्थान के पुष्कर मे ही ब्रम्हाजी का एकमात्र मन्दिर स्थित है. अन्यत्र मंदिरों के दिवारों पर भी ब्रम्हा की प्रतिमायें प्राप्त होती है। बस्तर में मिरतुर में ब्रम्हा की प्रतिमा प्राप्त होने से यह प्रतीत होता है कि नागशासकों ने यहां के मंदिरों में ब्रम्हाजी की प्रतिमायें स्थापित करवायी थी।  
 विष्णु

हिन्दुओं में तीन प्रधान देव माने जाते है- ब्रह्मा, विष्णु और महेश। ब्रह्मा इस संसार के रचनाकार है, विष्णु पालनहार है और महेश संहारक है। लेकिन हमारे देश में जहाँ विष्णु और महेश के अनगिनत मंदिर है वही खुद की पत्नी सावित्री के श्राप के चलते ब्रह्मा जी का पुरे भारत में एक मात्र मंदिर है जो की राजस्थान के प्रशिद्ध तीर्थ पुष्कर में स्तिथ है।सावित्री ने अपने पति ब्रह्मा को ऐसा श्राप इसका वर्णन हमे पद्म पुराण में मिलता है। हिन्दू धर्मग्रन्थ पद्म पुराण के मुताबिक एक समय धरती पर वज्रनाश नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसके बढ़ते अत्याचारों से तंग आकर ब्रह्मा जी ने उसका वध किया। लेकिन वध करते वक़्त उनके हाथों से तीन जगहों पर कमल का पुष्प गिरा, इन तीनों जगहों पर तीन झीलें बनी। इसी घटना के बाद इस स्थान का नाम पुष्कर पड़ा। 
महेश

इस घटना के बाद ब्रह्मा ने संसार की भलाई के लिए यहाँ एक यज्ञ करने का फैसला किया। ब्रह्मा जी यज्ञ करने हेतु पुष्कर पहुँच गए लेकिन किसी कारणवश सावित्री जी समय पर नहीं पहुँच सकी। यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उनके साथ उनकी पत्नी का होना जरूरी था, लेकिन सावित्री जी के नहीं पहुँचने की वजह से उन्होंने गुर्जर समुदाय की एक कन्या ‘गायत्री’ से विवाह कर इस यज्ञ शुरू किया। उसी दौरान देवी सावित्री वहां पहुंची और ब्रह्मा के बगल में दूसरी कन्या को बैठा देख क्रोधित हो गईं। 
 बैलाडिया की हसीन वादियां

उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि देवता होने के बावजूद कभी भी उनकी पूजा नहीं होगी। सावित्री के इस रुप को देखकर सभी देवता लोग डर गए। उन्होंने उनसे विनती की कि अपना शाप वापस ले लीजिए। लेकिन उन्होंने नहीं लिया। जब गुस्सा ठंडा हुआ तो सावित्री ने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में आपकी पूजा होगी। कोई भी दूसरा आपका मंदिर बनाएगा तो उसका विनाश हो जाएगा। भगवान विष्णु ने भी इस काम में ब्रह्मा जी की मदद की थी। इसलिए देवी ने विष्णु जी को भी श्राप दिया थाकि उन्हें पत्नी से विरह का कष्ट सहन करना पड़ेगा। इसी कारण राम (भगवान विष्णु का मानव अवतार) को जन्म लेना पड़ा और 14 साल के वनवास के दौरान उन्हें पत्नी से अलग रहना पड़ा था.


मिरतुर मे गांव के आखिरी छोर मे एक प्राचीन तालाब के पास बरगद का विशाल पेड़ के नीचे एक चबुतरे मे ब्रम्हा विष्णु महेश तीनो आदि देवो की प्रतिमा स्थापित है. इस चबुतरे मे तीनो आदि देवो के अलावा सप्त मातरिका , सूर्य ,एक शिशविहीन घूडसवार तथा नन्दी की भग्न प्रतिमा भी स्थापित है। 
मिरतुर की हसीन वादियां

चबुतरे मे ब्रम्हा जी की प्रतिमा में नीचे किनारे हंस का अंकन है , उसके पास विष्णु जी की प्रतिमा, उसके पास भगवान शंकर की लकुलीश अवतार की प्रतिमा स्थापित है. यह प्रतिमा भी एतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण प्रतिमा है शंकर जी की लकुलीश अवतार की प्रतिमा भी बहुत कम् देखने को मिलती है. यह प्रतिमा भी बीच से टूटी हूई है ज़िस कारण पेट से नीचे का हिस्सा दुसरी प्रतिमा का होना प्रतीत होता है. लकुलीश प्रतिमा के पास शिश विहीन घूड सवार एवं सूर्य की प्रतिमा भी स्थापित है. पास ही गांव वालो ने एक छोटा मन्दिर बनाया है जिसमे शिवलिंग , गणेश एवं नन्दी की प्रतिमाये स्थापित है. 

ग्रामीणो ने बताया कि बहुत पहले माओवादियो ने इन प्रतिमाओ को जलाकार नष्ट करने की कोशिश की थी. निश्चित ही ये सभी प्रतिमाये नागवंशी राजाओं के राजत्व काल मे निर्मित हूई है. इन प्रतिमाओं को गांव वालों ने संरक्षण कर रखा है। मिरतुर को भी पर्यटन नक्शे में शामिल कर इसको प्रचारित किये जाने की आवश्यकता है।
- ओम सोनी