31 जुलाई 2018

मंगलतराई का बाजार

मंगलतराई का बाजार चारामा......!

07 जुलाई को मैं कांकेर के चारामा क्षेत्र में मंगलतराई गांव गया था। मंगलतराई चारामा की घाटियों में बसा वन ग्राम है। बालोद से लगा हुआ क्षेत्र होने के कारण छत्तीसगढ़ और बस्तर की मिली जुली महक इस गांव की फिजा में घुली हुई है।
इस गांव में शनिवार को एक छोटा सा बाजार लगता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के किसी बाजार का यह मेरा पहला अनुभव था। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के बाजार पार्ट टाईम जाब की तरह होते है। वहीं बस्तर के बाजार सुबह से लेकर शाम तक चलते है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण मेले और बस्तर के साप्ताहिक बाजार दोनो एक जैसे भीड़ वाले होते है।

03 से 06 बजे तक तीन घंटे के बाजार में बहुत सी दुकाने लगती है। सब्जियां, मनिहारी, गुड़, तेल, पकवान आदि छोटी मोटी कई दुकाने बाजार में सजती है। बाजार में बिकती वस्तुये सिर्फ उस ग्राम की रसद की पूर्ति करने लायक ही थी।
इस बाजार में मैने एक अलग दुकान देखी, ऐसी दुकान मैने बस्तर के बाजारों में कभी नहीं देखी। यह दुकान थी खाने के तेल की। तेल की दुकान बहुत से तेल टीनों से सजी हुई थी। पुरे बाजार में यदि सबसे ज्यादा भीड़ किसी दुकान में थी तो वो दुकान इस तेल वाले की थी।

महिलाये आती जा रही थी और आवश्यकतानुसार बोतलो में तेल खरीद कर ले जा रही थी। इसके विपरित बस्तर के बाजारों में खाने वाले तेल की दुकाने मैने कभी लगते नही देखी। यहां आम तौर टोरा का तेल ही खाने में प्रयोग किया जाता है। हाथ पैर सिर में लगाने और खाने के लिये टोरे के तेल पर वनवासियों का भरोसा सदियों से है।

टोरा तेल स्वास्थ्य के लिये लाभदायक होता ही है इसके अलावा नियमित रूप से बालों में लगाने पर बाल सफेद भी नहीं होते है। बस्तर मे रूई की तरह सफेद बाल वाला वृद्ध या वृद्धा ढूंढने से भी नहीं मिलती है।

मैने उड़द के बड़ों, मिर्चा और टमाटर की चटनी के साथ 07 जुलाई की संध्या मंगलतराई बाजार में ही बितायी। ऐसे ही किसी बाजार का आपका अनुभव क्या रहा है ? जरूर शेयर करें----ओम!

24 जुलाई 2018

यादवों की मुद्राये

बस्तर में देवगिरि के यादवों की मुद्राये......!
कुछ दिनों पहले की बात है बस्तर में जिला सुकमा के किन्दरवाड़ा में ग्रामीण को खेत में खुदाई के दौरान सोने के सिक्के मिले थे। वही सप्ताह भर पहले ही मध्य बस्तर में कोंडागांव जिले में केशकाल विकासखंड में कोरकोटी ग्राम में सोने के सिक्के प्राप्त हुये है। कोरकोटी से बेड़मा तक सड़क निर्माण किया जा रहा है।
सड़क निर्माण में लगे मजदुरो को ये सिक्के मिले है। इन सिक्को को सोने एवं चांदी के सिक्के बताया जा रहे है। एक गडढे में मिटटी खोद रही महिला श्रमिक को मिटटी का धडा मिला जिसमें 35 नग बड़े एवं 22 नग छोटे सोने के सिक्के, एक चांदी का सिक्का एवं एक सोने की बाली मिली।

उक्त सभी सिक्के 12 वी से 13 सदी के माने गये है। इन सिक्को को देवगिरि के यादव राजाओं (850 ई से 1334 ई तक) द्वारा जारी बताया जा रहा है। औरंगाबाद के पास आधुनिक दौलताबाद ही पूर्व में देवगिरि के नाम से प्रसिद्ध था। यादव राजवंश ने देवगिरि को केन्द्र बनाकर दक्षिण भारत में अपनी धाक जमा ली थी, यादव राजवंश में भिल्लम, सिंधण, कृष्ण जैसे महान राजा हुये है।
देवगिरि से जुड़ा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मोहम्मद बिन तुगलक ने राजधानी दिल्ली से हटाकर देवगिा (दौलताबाद) स्थानांतरित की थी।
इन सिक्को से संबंधित कोई जानकारी हो तो कृपया इस पर प्रकाश डाले। छायाचित्र श्री हितेन्द्र कुमार श्रीवास कोंडागांव जी के सौजन्य से।

झरनों का गढ़ - तीरथगढ़

झरनों का गढ़ - तीरथगढ़ ........!

बस्तर के कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में झरनों का अपनी खुबसूरत दुनिया है। धरा पर सूर्य की किरणे तक पहुंचने नही देने वाले, इस घने जंगल में असंख्य छोटे मोटे झरने है।

कुछ तो खोजे जा चुके है और कुछ की खुबसूरती अब भी दुनिया के समक्ष आने को शेष है।
बस्तर के झरनों के बारे में यदि कभी कहीं कोई चर्चा हो तो उसमें ये दो झरनों का नाम जरूर आता है- पहला है चित्रकोट और दुसरा तीरथगढ़।
बचपन में मैने जब तीरथगढ़ नहीं देखा था तब तक मैं तीरथगढ़ का अभिप्राय किसी तीर्थ स्थान को ही समझता था, कोई मंदिर जैसा कोई धार्मिक स्थल होगा ऐसी ही मेरी इसके प्रति समझ थी। जब मैने तीरथगढ़ को देखा तब पता चला यह तो झरना है। बहुत ही बड़ा झरना है।
वास्तव में तीरथगढ़ छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े झरनों में से एक है। लगभग 300 फीट की उंचाई से गिरती रजत जलधाराये , फिसलपटटी समान चटटानों पर मोतियों के रूप में झरते हुये बहती है। छोटी छोटी बुंदे मोती के रूप में बिखर जाती है।

तीरथगढ़ मुनगा और बहार नदियों के संगम पर बसा छोटा सा गांव है। इस मुनगाबहार नदी के विशाल झरने का नामकरण इस गांव के उपर ही तीरथगढ़ जलप्रपात हो गया है।

इस जलप्रपात में छोटे मोटे कुल सात झरने है। इन झरनों के बीच एक टापू है। टापू पर पुराने मंदिर बने हुये है। यह तीरथगढ़ झरनो का तीरथ है। झरनो का तीरथ ही तीरथगढ़ जलप्रपात है।
इस जलप्रपात के उपर से कांगेर घाटी के हरी भरी वादियों के सुंदर दृश्य मन को मोह लेते है।

बरसात के दिनों में अत्यधिक पानी होने के कारण इस झरने का रूप बहुत ही विकराल और भयानक हो जाता है। ंवहीं सितंबर माह से इसका पानी चांदी की तरह चमकता है।

झरने में नीचे उतरने के लिये सीढ़ियां बनी हुई है। झरनों के आसपास लाल मुंह वाले बंदरों का समुह हमेशा आपके स्वागत के लिये तैयार बैठा रहता है।

यह तीरथगढ़ पारिवारिक भ्रमण और पिकनिक के लिये बेहद ही आदर्श स्थल है। अक्टूबर के बाद तीरथगढ़ भ्रमण के साथ कांगेर घाटी राष्ठ्रीय उद्यान, कांगेर जलधारा, कुटूमसर, आरण्यक, दंडक गुफायें भी देख सकते है।

इस जलप्रपात में सावधानी रखने की अत्यंत आवश्यकता है। थोड़ी सी लापरवाही में आप अपनी जान गंवा सकते है। यहां पर ऐसे बहुत सी दर्दनाक घटनायें हो चुकी है। झरने में बिलकुल भी ना उतरे, किनारे खड़े होकर नीचे ना झांके, अधिक पानी हो तो बिलकुल भी नहाने के लिये ना उतरे। इन बातों का विशेष ध्यान रखे।

किसी भी मौसम इस जलप्रपात के सौंदर्य को निहारा जा सकता है। जगदलपुर से केशलूर होते हुये 35 किलोमीटर दुर तीरथगढ़ तक आसानी से स्वयं के वाहन से पहुंचा जा सकता है। 
----ओम !

19 जुलाई 2018

बस्तर की पहचान - बैलाडिला

बस्तर की पहचान - बैलाडिला......!

बैलाडिला की लौह खदाने पुरे एशिया में बस्तर की पहचान है। बैलाडिला पर्वत श्रृंखला की अवस्थिति दक्षिण बस्तर के मस्तक पर तिलक के समान है। बैलाडिला नाम पड़ने के पीछे महत्वपूर्ण कारण है यह कि इसकी सर्वोच्च चोटी का आकार बैल के डीले अर्थात बैल के कुबड़ के समान है। जिसके कारण इस पर्वत श्रृंखला को बैलाडिला के नाम से जाना जाता है।

 बैलाडिला की पहाड़ियों पर राष्ट्रीय खनिज विकास निगम द्वारा 1966 से लगातार की जा रही है। बैलाडिला की लौहे खाने एशिया की सर्वश्रेष्ठ लौह खाने है। यहां का लौह अयस्क उत्तम श्रेणी का है इसमें लोहे की मात्रा 60 से 70 प्रतिशत तक पाई जाती है। किरन्दुल कोटवालसा रेलमार्ग द्वारा जापान और विशाखापटनम संयंत्र में लौह अयस्क का निर्यात किया जाता है। बैलाडिला की तलहटी में दो नगर बसे है पहला बड़े बचेली और दुसरा किरन्दुल। 


सामान्यत बोलचाल की भाषा में किरन्दुल के लिये बैलाडिला का प्रयोग किया जाता है जिससे अधिकांशत लोगो को बैलाडिला नामक अन्य नगर होने का भ्रम होता है। बैलाडिला पहाड़ी के कारण ही उस क्षेत्र को बैलाडिला की संज्ञा दी गई है। एक अनुमान के मुताबिक इन पहाड़ो में इतना लौह अयस्क है कि यह हजार वर्ष तक भी खत्म नहीं होगा। 

बैलाडिला की चोटी छत्तीसगढ़ में दुसरी सबसे उंची चोटी है। छत्तीसगढ़ में गौरलाटा 1225 मीटर उंचाई लिये सबसे उंची चोटी है वहीं दंडकारण्य पठार में अवस्थित बैलाडिला की चोटी 1210 मीटर की उंचाई के साथ छत्तीसगढ़ में दुसरे स्थान पर है। बैलाडिला से लगभग 80 किलोमीटर दुर बंजारिन घाट से ही बैलाडिला की यह चोटी दिखाई देने लगती है। दंतेवाड़ा जिले में किसी भी जगह से आपको यह चोटी जरूर दिखाई देगी। 


बैलाडिला की लौह चोटियों ने  बस्तर के इतिहास में भी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। बैलाडिला की एक चोटी ढोलकल पर भगवान गणेश की हजार वर्ष से अधिक पुरानी प्रस्तर प्रतिमा स्थापित है। यह स्थान अब पुरी दुनिया में दंतेवाड़ा की पहचान बन चुका है। यहां के नाग शासकों ने अपने अस्त्र शस्त्र के लिये बैलाडिला की लौह अयस्क का ही प्रयोग किया था।
----ओम !

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16 जुलाई 2018

बस्तर का उड़ने वाला तक्षक नाग

बस्तर का उड़ने वाला तक्षक नाग.....!
बैलाडिला के जंगल हैं तक्षक नाग का घर .........!
आज विश्व सर्प दिवस पर यह विशेष जानकारी ........!

बस्तर घने जंगलो के कारण वन्य जीवों से समृद्ध रहा है। अत्यधिक शिकार एवं जंगलो की कटाई से बहुत से वन्य जीव बस्तर से लुप्त हो चुके है। आज भी बस्तर के कुछ क्षेत्रों की वन संपदा आमजनों से अछुती है। दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा के बैलाडीला के जंगल आज भी वन्य जीवों के रहवास के आदर्श स्थल है। जब बात रेंगने वाले जीवों अर्थात सर्प प्रजाति की होती है तो भी उस मामले में भी बस्तर के जंगल अव्वल है। दक्षिण बस्तर में बैलाडिला की पहाड़ियों के जंगल एवं बस्तर के अन्य जंगलो में आज भी पौराणिक सांप तक्षक कभी कभी लम्बी छलांग लगाते हुये दिखायी पड़ता है। स्थानीय स्तर पर इसे उड़ाकू सांप भी कहा जाता है।

महाभारत के बाद राजा परीक्षित के समय इस तक्षक नाग से जुड़ा एक प्रसंग है जिसके अनुसार श्रृंगी ऋषि ने महाराज परीक्षित को श्राप दिया था कि तुम्हारी मृत्यु तक्षक नाग के डसने से होगी। तक्षक नाग के डसने से राजा परीक्षित की मृत्यु हो गयी तब परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने तक्षक नाग से बदला लेने के लिये सर्प यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में सभी सांप आकर गिरने लगे तब तक्षक नाग डरकर इंद्र की शरण में गया। जैसे ही यज्ञ करने वाले ब्राहमण ने तक्षक नाग की आहुति डाली वैसे ही तक्षक नाग देवलोक से यज्ञ में गिरने लगा। किन्तु आस्तीक ऋषि ने अपने मंत्रो से तक्षक नाग को आकाश में ही रोककर स्थिर कर दिया।
मैने इस सर्प को तीन बार देखा है। यह बड़ी तेजी से एक पेड़ से दुसरे पेड़ तक लंबी छलांग मारता है। जैसे ही पलक झपके वैसे ही यह दुर अगले वृक्ष में दिखाई पड़ता है। सर्प वैज्ञानिकों के अनुसार यह तक्षक नाग अपनी पसलियों को फैला लेता है। शरीर के निचले भागों को अंदर कर उसमें हवा भर लेता है। जिससे यह हल्का हो जाता है। ऐसा करने के बाद वह पेड़ो से लंबी छलांग लगाता है। छलांग लगाते समय यह अपने शरीर को अंग्रेजी के एस अक्षर की तरह मोड़ लेता है। इसकी छलांग बहुत लंबी होती है। मैने इसकी छलांग लगभग 50 से 60 फिट तक देखी है। यह इससे भी कई गुना अधिक लंबी छलांग मारता है।
सरीसृपों के मशहुर वैज्ञानिक डा. एच0के0एस0 गजेन्द्र सर ने बस्तर के सरीसृपों पर बहुत शोध किया है। दक्षिण बस्तर में पहली बार तक्षक नाग की खोज भी उन्होने ही की है। उनके अनुसार इस प्राचीन तक्षक नाग का वैज्ञानिक नाम क्राइसोपेलिया आर्नेटा या ग्लाईडिंग स्नेक भी कहा जाता है। बैलाडिला की पहाडियों का जंगल इस सर्प के रहवास के लिये बेहद उपयुक्त है।
उन्होने अब तक सरीसृपों की 59 प्रजातियों की पहचान की है जो बस्तर में पाये जाते है। जिसमें 5 सांपो की एवं 1 कछुये की प्रजाति जो प्रदेश के लिये नई है। डॉ गजेंद्र ने तक्षक के अलावा इस क्षेत्र में रूखचघा सांप ;डेण्ड्रीलेफिस ट्रिसटिस, पेड़ चिंगराज ;बोइगा गोकुल. पूर्वी मांजरा, पानी चिंगराज ;बोइगा फारेस्टेनी. फार्सटन मांजरा, बेशरम सांप ;ट्राइमेरिसुरस ग्रेमिनियस जिसे हरा गर्तघोणा या ग्रीन पिट वाइपर की खोज की है। उन्होंने ही बैलाडीला पहाड़ के पश्चिमी घाट जो बीजापुर जिले का क्षेत्र है वहां दुर्लभ सितारा कछुए की खोज की है। इस कछुए का जुलॉजिकल नेम जिओचिलोन एलिगेंस है।
आप में से भी बहुत लोगों ने इस छलांग मारने वाले सांप को जरूर देखा होगा, अपना अनुभव जरूर शेयर करें........ओम!
दो फोटो नेट से और बाकी सारी फोटो श्री एज0के0एस0 गजेन्द्र सर ने ली है। वे स्वयं हाथ में इस सर्प को पकड़े हुये है।अधिक से अधिक इस पोस्ट को शेयर करें कापी ना करें।

बस्तरिया पुटू

बस्तरिया पुटू.......!

मशरूम बस्तर की संस्कृति का अहम हिस्सा है। कहीं भी सहजता से पनपने वाले मशरूम बस्तरिया खान पान में मुख्य रूप से सम्मिलित है। बस्तर में लगभग हर तरह के मशरूम पुटू के प्रचलित नाम से ही खाये जाते है। बाजार में किसी भी प्रजाति का कोई भी पुटू तुरंत बिक जाता है। लोगों में इसकी सब्जी खाने का इतना शौक है कि हाथों हाथो, मुंहमांगे दाम में मशरूम खरीद लिये जाते है।

पुटू चुनकर बाजार में बेचने वाले ग्रामीणों के लिए यह फायदे का धंधा है। ग्रामीणों को परंपरागत ज्ञान से मालूम रहता है कि जंगल में पाए जाने वाले कौन से मशरूम खाने योग्य हैं। बस्तर में मशरूम की बहुत सी प्रजातियां खायी जाती है। मशरूम एक साधारण फंफूद संरचना है।

मशरूम मूलतः दो भागों में बंटा हुआ है। पहला भाग छतरी और दुसरा भाग डंडी के रूप में रहता है। दोनो ही भाग खाने योग्य होते है। मशरूम के बहुत से प्रकार है जैसे सफेद छाते वाले, गदावाले, बटन वाले, पैरा पुटू, छाती पुटू, डेंगुर पुटू हरदुलिया मंजूरढूंढा तथा तेन्दूछाती आदि ऐसे बहुत से पुटू है जिनकी सब्जी बेहद ही लजीज और स्वादिष्ट बनती है।

पुटू सुपाच्य कार्बोहाड्रेट एवं प्रोटीन युक्त होते है। इसे बच्चे से बूढ़े से लेकर स्वस्थ या बीमार व्यक्ति कभी भी बिना किसी झिझक के खा सकते हैं। इसमें प्राकृतिक रेशे की मात्रा अधिक होने के कारण गैस एवं कब्जियत की समस्या से ग्रस्त लोगों के लिए विशेष लाभप्रद हैं।

इससे हार्ट अटैक का खतरा कम होता है। मशरूम खाने से बहुत से फायदे है। कुछ मशरूम बेहद ही जहरीले होते है। जहरीले मशरूम को खाने से उल्टी दस्त की शिकायत और बेहोशी की स्थिति बनती है ऐसी स्थिति में मौत भी हो सकती है। आपने कौन से मशरूम की सब्जी खाई है ? मशरूम के कुछ और फायदे जरूर शेयर करें.......ओम!

11 जुलाई 2018

तुपकी से भगवान जगन्नाथ को सलामी

तुपकी से भगवान जगन्नाथ को सलामी.........!

बस्तर में भगवान जगन्नाथ के सम्मान में प्रतिवर्ष गोंचा त्यौहार बड़े धुमधाम से मनाया जाता है। भगवान जगन्नाथ के प्रति आस्था के इस महापर्व में आदिवासी जनता भगवान को सलामी देने के लिये जिस उपकरण का उपयोग करती है उसे तुपकी कहते है।
गोंचा महापर्व में आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र तुपकी होती है। विगत छः सौ साल से तुपकी से सलामी देने की परंपरा बस्तर में प्रचलित है।तुपकी बांस से बनी एक खिलौना बंदुक है।


तुपकी में पौन हाथ लंबी बांस की एक पतली नली होती है। यह दोनो ओर से खुली होती है। इसका धेरा सवा इंच का होता है। नली में प्रवेश कराने के लिये बांस का ही एक मूंठदार राड होता है। लंबी नली के छेद से गोली राड के द्वारा प्रवेश करायी जाती है। नली का अगला रास्ता पहली गोली से बंद हो जाता है। जब दुसरी गोली राड के धक्के से भीतर जाती है और हवा का दबाव पड़ते ही पहली गोली आवाज के साथ बाहर निकल भागती है।

मटर के दाने के आकार का फल इस तुपकी में गोली का काम करता है। इस फल को पेंग कहा जाता है। ये जंगली फल होते है जो मालकागिनी नाम की लता में लगते है। मलकागिनी के फलों को तुपकी में गोली के रूप में उपयोग किया जाता है। ये फल यहां पेंग कहलाते है। पिचकारी चलाने की मुद्रा में निशाना साधकर राहगीरों पर तुपकी चलायी जाती है। बस्तर में भगवान जगन्नाथ के अनसर काल से रथयात्रा तक आम लोग तुपकी चला कर भगवान के प्रति अपनी आस्था एवं प्रसन्नता व्यक्त करते है।
तुपकी के बगैर बस्तर के गोंचा पर्व का वर्णन अधुरा है। तुपकी का प्रयोग से भगवान एवं राजा को सलामी दी जाती है। 1408 में बस्तर के राजा पुरूषोत्तम देव के राजत्व काल में बस्तर मे गोंचा महापर्व प्रारंभ किया गया था। गोंचा में तुपकी चलाने की प्रथा पहले सिर्फ कोरापुट में विद्यमान थी बाद में यह बस्तर में भी प्रारंभ हो गई।


भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा उत्सव में तुपकी चलाने की यह रस्म सिर्फ बस्तर में ही प्रचलित है। आजकल तुपकी को विभिन्न फुलो एवं रंगीन कागजो से भी सजाया जाता है। आजकल छोटी से लेकर बड़े आकार की तुपकी भी बनायी जाती है। आप ने तुपकी चलायी है कि नहीं.......ओम !

10 जुलाई 2018

धैर्य का खेल - गरी खेल

धैर्य का खेल - गरी खेल.....!

आज राष्ट्रीय मतस्य पालक दिवस है। 10 जुलाई 1957 को डॉ हीरालाल चौधरी और डॉ. के.एच. अलिकुन्ही ने भारत में मछलियों के उत्प्रेरित प्रजनन कार्यक्रम सफलता पूर्वक क्रियान्वित करवाया था। उसकी स्मृति में 2001 से प्रतिवर्ष 10 जुलाई को राष्ट्रीय मत्स्य पालक दिवस के रूप में मनाया जाता है। मतस्यपालक दिवस पर आज मछली पकड़ने की सबसे आसान विधि गरी खेल पर चर्चा आवश्यक हो जाती है।


नदी तालाबो के किनारे रहने वाले लोगों के मनोरंजन का सबसे अच्छा साधन गरी खेलना होता है। गरी कोई छुपम छुपाई या पकड़म पकड़ाई का खेल नहीं है, गरी तो शतरंज की तरह चाल में फंसाने का खेल होता है। वास्तव में गरी खेलने का मतलब मछली पकड़ना होता है। गरी खेल में बांस की पतली सी लगभग 10 फीट की डंडी होती है। इस डंडी के एक सिरे पर नायलान का पतला धागा बांधा जाता है। जो लगभग 10 फीट से भी ज्यादा लंबा होता है।

इसे धागे में मछली को पकड़ने के लिये लोहे का कांटा होता है। कांटे में केंचुये को चारे के रूप में फंसा कर लगाया जाता है। किस्मत अच्छी हुई तो बहुत सी मछलियां पकड़ में आ जाती है। गरी खेलने में अलग ही आनंद है। बस्तर में नदी के किनारे जितने भी गांव है वहां के सारे ग्रामीण खाली समय में गरी जरूर खेलते है। हालांकि मछली पकड़ने के अन्य तरीके भी है पर जितना आनंद गरी खेल से मछली पकड़ने में मिलता है वो अन्य तरीको से नहीं मिलता।

गरी खेलने में आदमी को खुशी इसलिये होती है कि उसके बनाये चक्रव्यूह में , उसके फेंके हुये चारे में बेवकूफ मछली फंस जाती है और शाम को मछली खाने का आनंद तो मिलना ही है।
गरी खेल में आदमी का धैर्य सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है। इस खेल में आपको धैर्य रखना ही होगा, आप अपने लगाये हुये दांव पर धैर्य रखिये, मछली उसमें जरूर फंसेगी, धैर्य नहीं है तो बार बार आप चारा फेंकते रहिये और आवाज करते रहिये , मछली चारा खाना तो दुर , आसपास भी नही भटकेगी।

गरी के खेल में धैर्य का फल मछली होता है। इस बात को ध्यान में रखते हुये हम भी कभी कभी ग्रामीणों के साथ साथ गरी खेल लेते है। आप में से किस किस ने गरी खेली अपना अनुभव जरूर साझा करे। राष्ट्रीय मतस्य पालक दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.......ओम!

9 जुलाई 2018

सोनई -रूपई का तालाब, गढ़िया पहाड़ कांकेर

सोनई -रूपई का तालाब, गढ़िया पहाड़ कांकेर......!

कांकेर बस्तर से अलग एक रियासत थी, इसका अपना रोचक इतिहास है। कांकेर शहर के गढ़िया पहाड़ की अपनी ऐतिहासिक गाथा है। गढ़िया पहाड़ 700 साल पहले कांकेर राजाओं की राजधानी हुआ करती थी। सोमवंशी राजाओ के बाद धरमन नाम के कंडरा जाति के सरदार ने कांकेर की सत्ता अपने हाथ में ले ली।
धरमन धर्मदेव के नाम से 1345 से 1367 ई तक कांकेर पर राज किया। कंडरा राजा के नाम से चर्चित धर्मदेव ने गढ़िया पहाड़ को अपनी राजधानी बनाकर किले का निर्माण कराया था। आज भी वहां किले के अवशेष बिखरे पड़े है।


गढ़िया पहाड़ पर एक तालाब भी है। इस तालाब के साथ एक रोचक कथा जुड़ी हुई है। धर्मदेव कंडरा राजा ने अपनी प्रजा के जलापूर्ति के लिये पहाड़ पर एक तालाब खुदवाया, पर तालाब में पानी ज्यादा दिन ठहरता नहीं था, वह जल्द ही सुख जाता था।
धर्मदेव की दो बेटियां सोनई और रूपई एक दिन उस सूखे तालाब में खेल रही थी। तब अचानक देवीय संयोग से, सूखा तालाब पानी से लबालब हो गया, वहां खेल रही सोनई और रूपई दोनो तालाब में डूबकर मर गई , इस घटना के कारण यह तालाब सोनई रूपई तालाब के नाम से जाना जाता है।
इसका एक छोर सोनई और दुसरा छोर रूपई कहलाता है। इस तालाब की खासियत यह है कि कितनी भी भीषण गर्मी क्यो ना हो, यह तालाब कभी सुखता नहीं है। यहां ऐसी अन्य मान्यता भी प्रचलित है कि तालाब का पानी सुबह सोने की तरह एवं शाम को चांदी की तरह चमकता है। मैने सन 2010 में इस तालाब को देखा था। गढ़िया पहाड़ पर सोनई रूपई तालाब के अलावा सिंहद्वार, जोगी गुफा, फांसी भाठा आदि ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल भी हे। ........ओम !
इस तालाब की फोटो के लिये श्री शिवम अवस्थी जी को बहुत बहुत धन्यवाद।

6 जुलाई 2018

जंगल का फूल - चेंदरू द टायगर बाय

जंगल का फूल  - चेंदरू द टायगर बाय.....!

शेर के साथ खेलते हुये इस आदिवासी लड़के की फोटो पर हर किसी की नजर अनायास ही चली जाती है, फोटो देखने के बाद हर किसी के मन में इसे जानने की उत्सुकता रहती है। यह लड़का बस्तर के जंगलों का वह फूल था जिससे हर कोई देखना चाहता था, मिलना चाहता था, उससे बात करना चाहता था।







शकुंतला दुष्यंत के पुत्र भरत बाल्यकाल में शेरों के साथ खेला करते थे वैसे ही बस्तर का यह लड़का शेरों के साथ खेलता था। इस लड़के का नाम था चेंदरू। चेंदरू द टायगर बाय के नाम से मशहुर चेंदरू पुरी दुनिया के लिये किसी अजुबे से कम नही था। बस्तर मोगली नाम से चर्चित चेंदरू पुरी दुनिया में 60 के दशक में बेहद ही मशहुर था। हर कोई उसकी एक झलक पाने को बेताब रहता था।

चेंदरू मंडावी नारायणपुर के गढ़ बेंगाल का रहने वाला था। मुरिया जनजाति का यह लड़का बड़ा ही बहादुर था। बचपन में इसके दादा ने जंगल से शेर के शावक को लाकर इसे दे दिया था। चेंदरू ने उसका नाम टेंबू रखा था। इन दोनो की पक्की दोस्ती थी। दोनो साथ मे ही खाते , घुमते और खेलते थे। इन दोनो की दोस्ती की जानकारी धीरे धीरे पुरी दुनिया में फैल गयी।

स्वीडन के ऑस्कर विनर फिल्म डायरेक्टर आर्ने सक्सडॉर्फ चेंदरू पर फिल्म बनाने की सोची और पूरी तैयारी के साथ बस्तर पहुंच गए। उन्होंने चेंदरू को ही फिल्म के हीरो का रोल दिया और यहां रहकर दो साल में शूटिंग पूरी की। 1957 में फिल्म रिलीज हुई. एन द जंगल सागा जिसे इंग्लिश में दि फ्लूट एंड दि एरो के नाम से जारी किया गया।

फिल्म के रिलीज होने के बाद चेंदरू को भी स्वीडन और बाकी देशों में ले जाया गया। उस दौरान वह महीनों विदेश में रहा।

 चेंदरू को आर्ने सक्सडॉर्फ गोद लेना चाहते थे लेकिन उनकी पत्नी एस्ट्रीड से उनका तलाक हो जाने के कारण ऐसा हो नहीं पाया। एस्ट्रीड  एक सफल फोटोग्राफर थी फ़िल्म शूटिंग के समय उन्होंने चेंदरू की कई तस्वीरें खीची और एक किताब भी प्रकाशित की चेंदरू  द बॉय एंड द टाइगर।  उसकी मुलाकात  तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से हुई उन्होंने चेंदरू को पढ़ने के लिये कहा पर चेंदरू के पिता ने उसे वापस बुला लिया।

वहां से वापस लौटकर वह फिर से अपनी पुरानी जिंदगी में लौट गया, चकाचौंध ग्लैमर में जीने का आदी हो चुका चेंदरू गांव में गुमसुम सा रहता था। एक समय ऐसा आया कि गुमनामी के दुनिया में पुरी तरह से खो गया था जिसे कुछ पत्रकारों ने पुन 90 के दशक में खोज निकाला।


फिल्म में काम करने के बदले उसे दो रूपये की रोजी ही मिलती थी। उसके पास बुढ़ापे में कुछ भी नहीं था, कुछ पुरानी पुस्तके, कुछ खिलौने वगैरह थे जो विदेशियों ने उसे दिये थे, इसके भोलेपन का फायदा उठाकर उसे लोग ले गये। चेंदरू आखिरी समय में बिल्कुल गुम सुम सा हो गया। गुमनामी में रहते रहते 18 सितंबर 2013 में लगभग 78 साल की आयु में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी स्मृति में रायपुर के जंगल सफारी  में चेंदरू की प्रतिमा स्थापित की गई. ......ओम !