29 अगस्त 2018

गोन्चा - बस्तर का तिहार


गोन्चा - बस्तर का तिहार.....!

उत्कल देश मे विराजित भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा पुरे देश मे उत्साह और भक्तिभाव के साथ मनाई जाती है. गली गली मे जगन्नाथ भगवान के रथ खींचने की होड़ मची रह्ती है. आषाढ मास में ह्ल्की फ़ुहारो के साथ जय जगन्नाथ जयकारा गुंजता रह्ता है.

नवांकुर धान की हरितिमा लिये माशुनि देश के वनो में सुन्दर रथो पर सवार भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा हर किसी का ध्यान आकर्षित करती है.
जहाँ सारा विश्व रथयात्रा के नाम से उत्सव मनाता है वही भ्रमरकोट का बस्तर इसे गोन्चा नाम का अनोखा सम्बोधन देता है.


रथयात्रा यहाँ गोन्चा पर्व कहलाती है, गोन्चा नाम का सम्बोधन मुझे एक एतिहासिक संस्मरण का याद दिलाता है. यह संस्मरण बस्तर के चालुक्य नृपति रथपति महाराज पुरुषोत्तम देव के संकल्प को फ़िर से ताजा कर देता है.
वारनगल से आये , चालुक्य कुल भूषण महाराज अन्नमराज के पौत्र भयराजदेव बस्तर के राजा भये. भयराजदेव के पुत्र हुए रथपति पुरुषोत्तम. यथा नाम तथा गुण इस बात को सिद्ध करते महाराज पुरुषोत्तम देव 1408 की इस्वी मे चक्रकोट राज्य के राजा बने.

1324 में अन्नमदेव से लेकर सन 47 के प्रवीर तक इन चालुक्य नृपतियो मे पुरुषोत्तम देव का राजत्व काल धार्मिक काल था. सर्वाधिक धार्मिक राजा. इनके धार्मिक सांस्कृतिक कार्यो का जसगान बेह्द लम्बा है. यह यशोगान कभी और दिन पुरा करेंगे.

एक रात्रि पुरुषोत्तम देव को स्वप्न मे जगन्नाथ भगवान ने दर्शन दिये. भगवान की आग्या से पुरुषोत्तम देव दल बल और रसद समेत , उत्कल देश की पदयात्रा पर निकल पड़े. जनश्रुति है कि साष्टान्ग दंडवत प्रणाम करते हुए महाराज पुरुषोत्तम पुरी पहुँचे.
जिस दिन पुरी पहुँचे उस दिन तिथी थी आषाढ शुक्ल की द्वितीया.

पुरी मे रथयात्रा प्रारंभ हो चुकी थी, श्रद्धालु रथ खींचते जा रहे थे परन्तु रथ के पहिये टस से मस भी नहीं हो रहे थे.
महाराज के पहुंचते ही उन काष्ट पहियो मे जान आ गयी और रथ चल पड़े.
वहाँ उपस्थित गजपति राजा ने देव पुरुषोत्तम को रथपति की उपाधि से सम्मानित किया.
रथपति के सम्मान से विभूषित महाराज ने बस्तर मे भी रथयात्रा प्रारंभ करवायी. गुन्डिचा से बिगडा शब्द बस्तर मे गोन्चा बन पडा.

बस्तर मे छ सौ साल पुरानी यह रथयात्रा , गोन्चा पर्व के नाम से बड़े उल्लास के साथ मनाई जा रही है.
बस्तर की आखिरी राजधानी जगदलपुर मे , प्रतिवर्ष आषाढ शुक्ल द्वितीया से एकादशी तक , गोन्चा तिहार मनाया जाता है. बाकी गाँवो मे अपनी सुविधा अनुसार गोन्चा तिहार मनाते है.
दशहरा की रथयात्रा भी इसी जनश्रुति से जुड़ी हुई है.

अनजाना बस्तर- गढ़िया

अनजाना बस्तर- गढ़िया ....!

बस्तर में अनदेखी एवं संरक्षण के अभाव में बहुत से ऐतिहासिक मंदिर आज ध्वस्त हो चुके है या फिर ध्वस्त होने की कगार पर है। इनके जीर्णोद्धार एवं संरक्षण के लिये शायद किसी को रूचि नहीं है।


आलम तो यह है कि बहुत से मंदिरो की जानकारी शासन को दुर, आम लोगों को भी नहीं है। एक तरफ तो टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिये विभिन्न तरह के कार्यक्रम किये जाते है वहीं जब बात ऐतिहासिक मंदिरों के मरम्मत एवं जीर्णोद्धार की आती है तो सब को सांप सूंध जाता है।

ऐसा ही एक मंदिर है गढ़िया का शिव मंदिर। गढ़िया बस्तर जिले के लोहंडीगुड़ा ब्लाक में छोटा सा ग्राम है। गढ़िया नागयुगीन बस्तर में एक महत्वपूर्ण दुर्ग था। चक्रकोट के महान नृपति छिंदक नागवंशी शासक राजभूषण सोमेश्वर देव ने 1097 ई में गढ़िया ग्राम में शिव मंदिर का निर्माण करवाया था।

पूर्वाभिमुख यह मंदिर गर्भगृह अंतराल और मंडप में विभक्त था जिसमें मंडप पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है। गर्भगृह का मात्र ढांचा ही शेष है। साल भर पहले गढ़िया के किसी आसामाजिक तत्व ने इस मंदिर के बाहर रखे शिलालेख को टूकड़े टूकड़े कर दिया।

बस्तर के ऐतिहासिक विरासत को मटियामेट करने की साजिश का एक हिस्सा यह भी है। चित्रकोट जलप्रपात जाने से पूर्व गढ़िया ग्राम जाकर इस मंदिर को देखा जा सकता है।गढ़िया लोहंडीगुड़ा से 05 किलोमीटर दुर कोड़ेनार जाने वाले मार्ग में है। जगदलपुर से इसकी दुरी 40 किलोमीटर है।
शासन को गढ़िया के शिव मंदिर का जीर्णोद्धार करके इसे चित्रकोट टूरिज्म सर्किट में जोड़ना चाहिये, शिलालेख को पुनः जोड़कर संग्रहालय में रखना चाहिये....!

25 अगस्त 2018

तुंगल बांध- एक खुबसूरत स्थल

सुकमा का तुंगल बांध.....!

सुकमा दक्षिण बस्तर में ओडिसा एवं आंध्रप्रदेश की सीमाओं से लगा हुआ सीमांत जिला है। एक सिक्के के दो पहलू की तरह सुकमा एक ओर जहां माओवादी आतंक से पीड़ित है वहीं दुसरी ओर सुकमा भौगोलिक रूप से स्वर्ग सा सुंदर है। दुर दुर तक फैले हुये हरे भरे खेत, आसमान से बाते करते हुये ताड़ के वृक्ष, विशाल पर्वत श्रृंखलाये, कल कल बहती शबरी नदी ये सभी मिलकर सुकमा को स्वर्ग सा सुंदर बनाते है।




आज हम सुकमा के पास ही तुंगल बांध की चर्चा करते है। सुकमा से लगा हुआ छोटा सा ग्राम है मुरतोंडा। इस मुरतोंडा ग्राम में पानी को रोकने के लिये छोटा सा बांध बनाया गया है जिसके कारण एक बड़े भू भाग पर जलभराव हो गया है। यह तुंगल बांध चारो तरफ घने जंगलों से घिरा हुआ है। पानी में छोटे छोटे टापू बने हुये है जिस पर छायादार घने वृक्षों की भरमार है।


जलभराव के कारण ताड़ के वृक्ष भी पानी में कतार बद्ध डूबे हुये है। प्रशासन के द्वारा इस बांध को बहुत ही सुंदर एवं आकर्षक तरीके से विकसित किया है। बांध में नाव चालन बोटिंग की भी व्यवस्था है।



बांध के पास ही छोटा सा पार्क बनाया गया है जिसमें एमु जैसे विशाल पक्षी रखे गये है। तुंगल बांध वाकई में बेहद ही खुबसुरत जगह है। यहां गर्मी के दिनों में पर्यटकों का ताता लगा रहता है। पार्क के कारण तुंगल बांध बच्चों का सबसे पसंदीदा जगह है।
जंगल एवं बांध की असीम खुबसूरती के कारण यह एक आदर्श पिकनिक स्थल है। सुकमा जाये तो तुंगल बांध जरूर जायें....ओम।

14 अगस्त 2018

पाट जात्रा रस्म के साथ बस्तर दशहरे की शुरूआत

पाट जात्रा रस्म के साथ बस्तर दशहरे की शुरूआत.....!

बस्तर में प्रत्येक वर्ष की तरह इस साल भी दशहरे का आगाज हरेली अमावस को पाट जात्रा की रस्म से हो चुका है। बस्तर में बीते छः सौ साल से दशहरा मनाया जा रहा है। यहां के दशहरा कुल 75 दिनों तक चलता है जो कि पुरे विश्व का सबसे लंबा दशहरा है। दशहरा में पूरे भारत में जहां रावण के पुतले जलाये जाने की परंपरा है वही बस्तर रावण के पुतले ना जलाये जाकर दशहरा में रथ खींचा जाता है।
बस्तर दशहरा 1408 ई से आज तक बड़े ही उत्साह एवं धुमधाम से जगदलपुर शहर में मनाया जा रहा है। इसमें प्रत्येक पुरे बस्तर के लाखो आदिवासी सम्मिलित होते है। दशहरा की रस्म 75 दिन पूर्व पाट जात्रा से प्रारंभ हो जाती है। दशहरे में दो मंजिला रथ खींचा जाता है। जिसमें मां दंतेश्वरी का छत्र सवार रहता है। दंतेवाड़ा से प्रत्येक वर्ष माईजी की डोली दशहरा में सम्मिलित होने के लिये जाती है।

बस्तर दशहरा बस्तर का सबसे बड़ा पर्व है। इसी पर्व के अंतर्गत प्रथम रस्म के तौर पर पाटजात्रा का विधान पुरा किया गया है। बस्तर दशहरा निर्माण की पहली लकड़ी को स्थानीय बोली में टूरलु खोटला एवं टीका पाटा कहते हैं।बस्तर दशहरे के लिए तैयार किए जाने वाली रथ निर्माण की पहली लकड़ी दंतेश्वरी मंदिर के सामने ग्राम बिलौरी से लाई गई।
परंपरानुसार विधि.विधान के साथ रथ निर्माण करने वाले कारीगरों एवं ग्रामीणों के द्वारा माँझी चालाकी मेम्बरीन के साथ स्थानीय जनप्रतिनिधियो की मौजूदगी में पूजा विधान एवं बकरे की बलि के साथ पाट जात्रा की रस्म संपन्न हुई।

पाट जात्रा पूजा विधान में झार उमरगांव बेड़ा उमरगांव के कारीगर जिनके द्वारा रथ का निर्माण किया जाना है। वे अपाने साथ रथ बनाने के औजार लेकर आते है तथा रथ बनाने की पहली लकड़ी के साथ औजारों की पूजा परंपरानुसार रथ निर्माण के कारीगरों एवं ग्रामीणों के द्वारा की जाती है। परम्परानुसार मोंगरी मछली एवं बकरे की बली के साथ इस अनुष्ठान को संपन्न किया गया। जिसमें ग्रामीणों की भागीदारी भी होती है।
बस्तर की अनोखी परम्परा से बस्तर दशहरा विश्व में अपनी अलग पहचान रखता है, जिसे देखने और समझने के लिए देशी.विदेश पर्यटक यहां पहुंचते है।इस दशहरे में आस्था और विश्वास की डोर थामे आदिम जनजातियां अपनी आराध्य देवी मॉ दंतेश्वरी के छत्र को सैकड़ों वर्षों से विशालकाय लकड़ी से निर्मित रथ में विराजमान कर रथ को पूरे शहर के परिक्रमा के रूप में खींचती हैं।

भूतपूर्व चित्रकोट रियासत से लेकर बस्तर रियासत तक के राजकीय चालुक्य राजपरिवार की ईष्ट देवी और बस्तर अंचल के समस्त लोक जीवन की अधिशाष्ठत्री देवी मां दंतेश्वरी के प्रति श्रद्धाभक्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति का पर्व बस्तर दशहरा है।

दंडामी माड़िया नृत्य

दंडामी माड़िया नृत्य.....!

बस्तर में माड़िया जनजाति के नर्तक दलों का जादू बस्तर ही नही पुरी दुनिया में छाया हुआ है। उनके आभूषण, पहनावा, नृत्य मुद्राये सब कुछ बेहद आकर्षक लगता है। दंडामी माड़िया बस्तर के लगभग हर क्षेत्र में निवासरत है। दंडामी माड़ियों का नृत्य देखते ही बनता है। उनकी नृत्य शैली किसी का भी मनमोह लेती है। इस नृत्य को गौर माड़िया नृत्य भी कहा जाता है। मांदर की थाप जब कानों तक पहुंचती है तो पैर अपने आप थिरकने लग जाते है।


दंडामी माड़ियों की नर्तक दल दो दलों में बंट कर नृत्य करता है। एक तरफ पुरूष एवं दुसरी तरफ महिलाये। दंडामी माड़िया पुरूषों की वेशभूषा बस्तर की पहचान बन चुकी है। सिर पर गौर के सींगों से बना हुआ आकर्षक मुकूट , उस पर पक्षियों के रंग बिरंगे पंख , सामने कौड़ियों की लटकती हुई लड़े, गले में लटका हुआ बड़ा सा ढोल (मांदर) ये सभी माडिया नर्तक को अलग पहचान देते है। 


वहीं माड़िया स्त्री दल में महिलायें लाल रंग के कपड़े, सिर पर पीतल का गोल मुकूट, गले में मोहरी माला, हाथों में बाहुटा, पहने होती है। ये सब इनके नृत्य में निखार लाते है। हाथों में लोहे की पतली सी छड़ी जिस पर लोहे की पत्तियां लगी होती है इस छड़ी को तिरडडी कहते है। जमीन पर छड़ी को पटक पटक कर आदिवासी बालायें बहुत ही खुबसूरत नृत्य करती है। 


पुरूष नर्तक दल गले में मांदर की थाप पर कतार बद्ध या गोलाकर नृत्य करते है। मांदर की थाप उनके कदमताल देखने लायक होती है वही स्त्री दल दाहिना हाथ दुसरे के कमर में डाल कर एवं बाये हाथ से तिरडडी को जमीन पर पटक पटककर लय ताल के साथ नृत्य करती है। मांदर की थाप एवं तिरडडी की छनछनाहट किसी को भी इनके नृत्य को देखने को विवश कर देती है। बस्तर के हर उत्सव एवं कार्यक्रमों में आप माड़िया नर्तक दलों के नृत्य अवश्य देख सकते है। ़......ओम सोनी।

अधिक से अधिक शेयर करें। चित्र अलामी स्टाक फोटो, सादर धन्यवाद जिसने ये चित्र लिये है। 

कर्णेश्वर मंदिर सिहावा

कर्णेश्वर महादेव मंदिर सिहावा......!

#सावन_मे_बस्तर_के_शिवालय_तीसरा_सोमवार

कांकेर एक अलग रियासत रही है। कांकेर का अपना समृद्ध इतिहास रहा है। आजादी के बाद बस्तर और कांकेर दोनो रियासतों को मिलाकर बस्तर जिला बना दिया गया था। आज बस्तर जिले में कुल 7 जिले है एवं संभाग का नाम बस्तर है। 

कांकेर मे ग्यारहवी सदी से चौदहवी सदी के पूर्वाद्ध तक सोमवंशी राजाओं का शासन था। सोमवंशी शासकों ने कांकेर के अलावा सिहावा क्षेत्र में भी अपनी राजधानी बनाई थी। सिहावा क्षेत्र वर्तमान धमतरी जिले के अंतर्गत आता है। सिहावा 1830 ई तक बस्तर रियासत का महत्वपूर्ण परगना था।  


सिहावा में कांकेर के सोमवंशी राजा कर्णदेव द्वारा बनवाये हुये कुल 5 प्राचीन मंदिर है। इन मंदिर समूह को कर्णेश्वर महादेव मंदिर समूह के नाम से जाना जाता है। इन मंदिरों में एक मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। दुसरा मंदिर रामजानकी मंदिर है जिसमें भगवान राम सीता लक्ष्मण की संगमरमर की नवीन प्रतिमा एवं विष्णु की दो तथा सूर्य की एक प्राचीन प्रतिमायें रखी हुई है। अन्य दो मंदिरों मे क्रमश भगवान गणेश, दुर्गा की प्रतिमायें कालांतर में रखी गई है। एक मंदिर बेहद छोटा है जिसमें सूर्य की प्रतिमा स्थापित है।


शिवमंदिर के मंडप की भित्ति में शिलालेख जड़ा हुआ हे। शिलालेख की भाषा संस्कृत और लिपि नागरी है। इस शिलालेख के अनुसार सोमवंशी राजा कर्ण ने स्वयं के पूण्य लाभ के लिये भगवान शिव और केशव के मंदिर बनवाये। राजा कर्ण ने अपने माता पिता के पूण्य लाभ के लिये त्रिशुलधारी शिव के दो मंदिर एवं अपने भाई रणकेसरी के लिये एक मंदिर बनवाया था।

इन मंदिर समुह से एक किलोमीटर की दुरी पर तालाब के किनारे एक प्राचीन कुंड है। इसके पास ही एक नदी बहती है। नदी के तट पर एक मंदिर के अवशेष बिखरे पड़े है। इस मंदिर का निर्माण कर्ण की रानी भोपल देवी ने करवाया था। जिसमें विष्णु की प्रतिमा स्थापित थी।


ये सभी मंदिर उड़िसा शैली में है। शिलालेख में तिथी शकसंवत 1114 ई सन 1192 अंकित है जो कि मंदिरों के निर्माण तिथी भी है।

नगरी से पहले बायीं तरफ पांच किलोमीटर दुर देव पुर गांव है इस देवपुर गांव के देउरपारा में ये मंदिर स्थित है। पास ही महानदी का उदगम एवं श्रृंगी ऋषि का आश्रम भी स्थित है।











बस्तर में हाथी

हाथी की पाती....!

आज विश्व हाथी दिवस पर हाथी की चर्चा आवश्यक हो जाती है. धरती पर सबसे बड़ा स्तनपायी जीव हाथी है. शुरु से ही इंसानो ने हाथी को पालतु बना लिया था. हाथी का यदि पौराणिक महत्व देखे तो यह हम सभी को मालूम है कि भगवान गणेश हाथी के सिर के कारण वे गजानन कहलाये. इन्द्र का वाहन एरावत हाथी था. देवी लक्ष्मी पर घडो से अमृत उडेलते हाथी ऐसे शिल्पांकन आज भी मन्दिरो या चित्रो में देखने को मिलते है. सफ़ेद हाथी भी होते हैं जिसे बेहद शुभ माना गया है.
आज छत्तीसगढ़ हाथी प्रदेश हो गया है. झारखंड एवं ओडिसा के हाथियो ने छत्तीसगढ़ मे अपना स्थायी डेरा जमा लिया. आये दिन हाथियो द्वारा घरो को तोड़ने एवं इंसानो को कुचलने की खबर आती रहती है. करंट या अन्य तरिके से हाथियो के मरने की भी खबरे आती है. दोनो के लिये यह स्थिति भयावह है इसका स्थायी समाधान आवश्यक है.
छत्तीसगढ़ के उत्तरी क्षेत्र के विपरित यहाँ दक्षिण मे बस्तर मे हाथी नहीं है. ओडिशा के हाथी पडोसी बस्तर के जंगलो मे लहराते लाल झंडो को पहचानते है इसलिये उन्होने बस्तर की तरफ़ रुख नहीं किया.
एक समय था जब बस्तर मे हाथी पाये जाते थे. यहाँ के बहुत से ऐतिहासिक किस्सो में हाथी पाये जाने का जिक्र मिलता है.


रियासतकालीन बस्तर और पडोसी रियासत जैपोर दोनो ही राज्य छोटी छोटी बातो के लिये अक्सर लड पड़ते थे. एक ऐसा ही मजेदार किस्सा है हाथी के कारण दोनो राज्यो में तनाव उत्पन्न हो गया था.अंग्रेजों के समय तक हाथी जयपोर (वर्तमान में ओडिशा में अवस्थित) एवं बस्तर रियासत में प्रमुखता से पाये जाते थे।
अंग्रेज अधिकारी मैक्जॉर्ज जो कि बस्तर में 1876 के विद्रोह के दौरान प्रशासक था, ने हाथी और उससे जुडी तत्कालीन राजनीति पर एक रोचक उल्लेख अपने एक प्रतिवेदन में किया है – " दोनो रियासतों में छोटी छोटी बातों के लिये झगडे होते थे। जैपोर और बस्तर के राजाओं के बीच झगड़े की जड़ था एक हाथी।
जैपोर स्टेट ने बस्तर के जंगलों से चोरी छुपे हाथी पकड़वाये। इसके लिये वे हथिनियों का इस्तेमाल करते थे। इसी काम के लिये भेजी गयी उनकी कोई हथिनी बस्तर के अधिकारियों ने पकड़ ली। उस समय इस वजह से दोनो रियासतो मे बड़ा विवाद हो गया था."
अंतत: अंग्रेज आधिकारियों को इस हथिनी के झगड़े में बीच बचाव करना पड़ा। हथिनी को सिरोंचा यह कह कर मंगवा लिया गया कि बस्तर स्टेट को वापस कर दिया जायेगा लेकिन फिर उसे जैपोर को सौंप दिया गया.
बस्तर दशहरा में शामिल होने पहले दंतेवाडा से माईजी की पालकी हाथी पर राजधानी जगदलपुर जाती थी, अब तो बस्तर में हाथी दुर दुर तक नहीं दिखते. कभी कभार कोई हाथी वाला आ जाता है सो हाथी को यहाँ के लोग देख लेते हैं और हाथी यहाँ के लोगो को देख लेता है....... ओम!
छायाचित्र सौजन्य श्री पी एन सुब्रमण्यम जी से बिना इजाजत.

दोस्तो आज विश्व हाथी दिवस पर हाथी दिखे तो केले जरुर खिलायो बाकि जो है सो है..!

4 अगस्त 2018

छतोड़ी की खोज

छतोड़ी की खोज.....!

सावन भादो की बरसात मे सभी जगह रंग बिरंगे लाल काले छाते ओढे ही लोग दिखते है। छतोड़ी पहनकर जाता कोई भी अब दिखता नहीं है। बांस से बनी छतोड़ी बहुत काम की चीज है जब बस्तरिया बरसात के दिनो ंमें खेत जाता है या मछली पकड़ने तालाब जाता है तो वह छतोड़ी पहनकर ही जाता है।
अब तो बस्तरिया और बस्तरिन दोनो के हाथो में सिर्फ काला छाता ही दिखता है भले ही पानी गिरे या तेज धुप हो। ऐसी कोई बस्तरिन नहीं जिसके हाथो में काला छाता ना हो। छतोड़ी तो अब बीते दिनों की बात हो गई है।


छतोड़ी थोड़ी बड़ी साईज की गोलाकार होती है। वहीं इसका एक रूप ढूटी भी होती है यह अपेक्षाकृत थोड़ी छोटी होती है। इन्हे बनाने के लिये लचीले बांस की खपचियों को उड़नतश्तरी के आकार में बनाया जाता है। बीच में पत्तें या प्लास्टिक की झिल्लियों को डालकर कर रस्सियों से मजबूती से बांध दिया जाता है और फिर छतोड़ी तैयार हो जाती है।
एक समय था जब गाँवो मे बांस से बनी छतोडी ओढे महिलाये खेतो मे रोपा लगाते हुए दिखाई देती थी। छतोडी पर पड़ती वर्षा की बुन्दे टीप टीप की मधुर संगीत कानो मे घोलते रह्ती थी।
छत्तीसगढ़ के गांवो में इन दिनो ंचरवाह सर पर छतोडी पहन बकरी और गायो के साथ दिन भर दौड़ लगाता दिख जाता है।
छतोडी बनाने वाला बंसोड हौले हौले बांस की खपचियो को गोला कार सजाता हुआ मुस्कुराता और सोचता मेरी छतोडी तो उन काले छतरडियो से ज्यादा मजबुत है। इस पर बने आडे तिरछी खांचे, रंगीन छ्तरियो पर बने कार्टूनो से भी ज्यादा सुन्दर दिखते है ऐसा ही भाव छतोडी में झलकता है।
काले छाते ओढे जब मास्टरानी स्कूल को आती है तब उन्हे देख ग्रामबालिकाये सोचती इससे अच्छी तो मेरी याया दिखती है जब वह छतोडी सर पर पहनकर खेतो की तरफ जाती है।
मैने इस छतोडी को बहुत खोजा, मिली भी तो घर की छ्त पर, पुरानी सी, अनुपयोगी और धुप मे तपती हुई। बहुत दिनों से इसे देखने की और पहनने की इच्छा थी और एक फोटो भी लेनी थी क्योंकि अब आगे तो ना छतोड़ी दिखेगी और और ना ही इससे पहनने वाला।
जैसे ही छतोड़ी को सर पर रखा तो समलू की मुस्कुराहट देखते ही बन रही थी, मैने अपने हाथों से इस छतोड़ी को बनाया था बाबू, बहुत साल हो गये इसे पहने हुये, ऐसा उसने कहा। आज कल के लेका लेकी मन छतोडी जाने भी नहीं बाबू. सब छता और रेनकोट के पीछे ही भागते है।
एक समय था जब छतोडी पहने आदिवासी बालाये पानी मारे झेला झाई पानी मारे यह गीत गुनगुनाती थी अब तो काले छाते पकड़कर चाइना मोबाईल से गाने सुनती हुई दिखती है।
छतोडी पहने हल चलाता किसान अब तो दिखता ही नहीं, ट्रैक्टर की शोर मे हल बैल छतोडी सब गायब हो गये है। छतोड़ी तो अब बीते दिनों की बात हो गई प्यारे.......ओम!
छायाचित्र सौजन्य हयुमन्स आफ गोंडवाना!

3 अगस्त 2018

दुर्लभ ब्रह्म कमल

दुर्लभ ब्रह्म कमल......!

हिमालय में पाये जाना वाला यह दुर्लभ पुष्प ब्रह्म कमल बेहद ही पवित्र फूल है। माना जाता है कि यह फूल साल में एक बार सिर्फ सावन मास में ही खिलता है।

यह फूल भगवान शिव का सबसे पसंदीदा फूल है। शिवभक्त इसे भगवान शिव को अर्पित करते हैं।
इसे ब्रम्हमुहुर्त में ही भगवान शिव को अर्पित किया जाना बेहद ही शुभ माना जाता है। ब्रह्म कमल पौधे की पत्तियों में कली का रूप धारण कर खिलता है।

बस्तर में भी कुछ लोगों के घरो में ब्रह्म कमल का पौधा है जिसमें साल में सिर्फ सावन माह मे ही एक बार ब्रह्म कमल फूल खिलता है।
इस फूल की अन्य खासियत यह है कि सिर्फ रात को ही खिलता है। रात ढलते ही सुबह तक यह फूल मुरझा जाता है।


ब्रह्म कमल से जुड़ी बहुत सी पौराणिक मान्यताएं हैं जिनमें से एक के अनुसार जिस कमल पर सृष्टि के रचयिता स्वयं ब्रह्मा विराजमान हैं वही ब्रह्म कमल है इसी में से सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई थी।
इस कमल से संबंधित एक बहुत प्रचलित मान्यता कहती है कि जो भी व्यक्ति इस फूल को देख लेता है. उसकी हर इच्छा पूर्ण होती है।
इसे खिलते हुए देखना भी आसान नहीं है क्योंकि यह देर रात में खिलता है और केवल कुछ ही घंटों तक रहता है। इस फूल की खुश्बु भी बहुत ही अच्छी होती है।
इसका वैज्ञानिक नाम Saussurea obvallata है। इसे क्वीन आफ द नाईट भी कहा जाता है। 
---ओम!

2 अगस्त 2018

भूमकालेया - गुंडाधुर

भूमकालेया - गुंडाधुर.....!

1774 ई से अंग्रेज बस्तर में लगातार पैर जमाने की कोशिश कर रहे थे। बीसवी सदी आते तक वे बस्तर के सार्वभौम बन चुके थे। इन दो सौ साल में बस्तर के आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध कई बार विद्रोह का झंडा बुलंद किया और हर बार विद्रोहियों का दमन किया गया। 
1910 का महान भूमकाल आंदोलन बस्तर के इतिहास में सबसे प्रभावशाली आंदोलन था। इस विद्रोह ने बस्तर में अंग्रेजी सरकार की नींव हिला दी थी। पूर्ववती राजाओं के नीतियों के कारण बस्तर अंग्रेजों का औपनेविषक राज्य बन गया था। बस्तर की भोली भाली जनता पर अंग्रेजो का दमनकारी शासन चरम पर था। दो सौ साल से विद्रोह की चिंगारी भूमकाल के रूप में विस्फोटित हो गई थी। 
भूमकाल आंदोलन के पीछे बहुत से कारणों की लंबी श्रृंखला है। आदिवासी संगठित होकर अंग्रेजी सत्ता को बस्तर से उखाड़ फेककर मुरियाराज की स्थापना के लिये मरने मारने पर उतारू हो गये थे। बस्तर के आदिवासियों के देवी दंतेश्वरी के प्रति आस्था में अंग्रेजी सरकार का अनावश्यक  हस्तक्षेप बढ़ गया था। अंग्रेजी सरकार द्वारा नियुक्त दीवानों की मनमानी अपने चरम पर थी। वनों की अंधाधूंध कटाई कर आदिवासियों को उनके जल जंगल जमीन से वंचित किया जा रहा था।  आदिवासियो और राजा रूद्रप्रताप में आपसी विश्वास एवं समन्वय की कमी और राजपरिवार के अन्य सदस्य लाल कालिन्दर सिंह और राजा की सौतेली मां सुवर्णकुंवर देवी के अंग्रेजो और राजा के प्रति शंका ने उन्होने विद्रोह का झंडा बुलंद करने के लिये विवश किया। 
साहब लाल कालिन्दर सिंह जो राजा के चाचा थे, उन्होने आदिवासियों के अंदर विद्रोह की ज्वाला को पहचान कर उन्हे दिशा देने का कार्य किया। मध्य बस्तर और सुकमा जिले में आदिवासियों की एक अन्य जनजाति धुरवा आदिवासियों की बाहुल्यता है। धुरवा आदिवासी राजपरिवार के निकट थी और अंग्रेजो के शासन में सर्वाधिक शोषित जनजाति थी। 


लाल साहब ने नेतानार के विद्रोही नेता गुंडाधुर को आदिवासियों का नेता बनाकर विद्रोह की रूपरेखा तय की। राजमाता सुवर्णकुंवर देवी ने भी लाल साहब और गुंडाधुर के साथ मिलकर विद्रोहियों को नेतृत्व प्रदान किया। 
गुंडाधुर बस्तर में एक लीजेण्ड है। उन्होने आदिवासियों को कुशल नेतृत्व प्रदान किया साथ ही उसने लोगो के मन में विश्वास जगाया और सभी वर्गो का समर्थन प्राप्त किया। बस्तर के महिलाओं में गुंडाधुर की छवि राबिनहुड के समान थी। धुरवा जाति के कारण गुंडा धुर कहलाता था। उसकी बहुत सी किंवदंतियां आज भी सुनने को मिलती है। शरीर से मजबूत, उंचे लंबे कद और चीते से फूर्ती वाला गुंडाधुर ने अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया था। उसके पास गायब होने की अदभूत क्षमता थी, उसकी पूंछ भी थी, पलक झपकते ही एक जगह से दुसरे जगह पहुंचने की शक्ति थी, ऐसी बहुत से अनजाने किस्से और गुंडाधुर की अनोखी विशेषतायें आज भी बुढ़े बुजुर्गो से सुनने को मिलती है। कुछ लोग आज भी गुंडाधुर को एक किंवदंती मानते है और कुछ तो लाल कालिन्दर सिंह को ही गुंडाधुर मानते है। परन्तु गुंडाधुर वास्तव में गुंडाधुर था वो सच्चा क्रांतिकारी नायक था जिसने महान भूमकाल विद्रोह का नेतृत्व किया। 
गुंडाधुर ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर प्रत्येक परगने में विद्रोहियों का जत्था तैयार किया। गांव गांव में लाल मिर्च बंधी आम की टहनियों डारा मिरी को लेकर अंग्रेजो के प्रति विद्रोह का प्रचार किया। प्रत्येक परगने में अलग अलग नेताओं ने गुंडाधुर के नेतृत्व में विद्रोह के लिये मोर्चा बना गया।  1908 के ताड़ोकी से भूमकाल आंदोलन की शुरूआत हो चुकी थी। योजनाबद्ध तरीके से 2 फरवरी 1910 को पुसपाल बाजार लूटा गया, 4 फरवरी को कुकानार बाजार और 5 फरवरी करंजी बाजार लूटा गया। इधर राजा ने अंग्रेजो को विद्रोह की सूचना दे दी गई।  9 फरवरी को कुआंकोंडा का थाना लूटा गया। तीन पुलिसवाले मारे गये। 13 फरवरी को गीदम बाजार लूटा, स्कूल भी जला दिया गया।  16 फरवरी को खड़कघाट में अंग्रेजी सेना और विद्रोही में मुठभेड़ हुई जिसमें कई आदिवासी मारे गये। लाल कालिन्दर सिंह एवं अन्य नेता गिरप्तार कर लिये गये। 
03 मार्च को नेतानार में गुंडाधुर और अंग्रेजी सेना में जबरदस्त मुठभेड़ हुई। सोनू माझी के विश्वास घात के कारण अंग्रेजो ने विद्रोहियों को घेर लिया।  विद्रोहियों को हजारों की संख्या में मारा गया। गुंडाधुर भाग निकलने में कामयाब हो गया वहीं डेबरीधुर और अन्य सहयोगी पकड़े गये जिन्हे फांसी दी गई। 03 मई 1910 तक विद्रोह का दमन किया जा चुका था। 
अंग्रेज गुंडाधुर को पकड़ नहीं पाये। उसके बाद गुंडाधुर कहां गया और उसका क्या हुआ इसका आज तक कोई अता पता नहीं है। गुंडाधुर को अंग्रेज हरकीमत पर पकड़ना चाहते थे किन्तु आखिर तक गुंडाधुर अंग्रेजों के हाथ नहीं आया। वह मृत्युंजय है और आज भी प्रासंगिक है। 
गुंडाधुर आज भी बस्तर के इतिहास में जीवित है। कोई नही कहता कि गुंडाधुर मर गया। उसने आदिवासियों को एकत्रित कर अंग्रेजी सरकार के प्रति महान भूमकाल आंदोलन का नेतृत्व किया और अंग्रेजी सरकार से बस्तर को स्वाधीन करने का भरसक प्रयास किया। बस्तर में गुंडाधुर का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। गुंडाधुर आज भी यहां अमर है। गुंडाधुर दमन कारी अंग्रेजी हुकूमत से बस्तर को आजादी दिलाने वाले नायकों की अग्रिम पंक्ति में शामिल है। इस महान भूमकालेया आटविक योद्धा गुंडाधुर की शौर्य गीत आज भी बस्तर में गाये जाते है।  प्रतिवर्ष 10 फरवरी को भूमकाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।