विलुप्त हो चुके बस्तर के परम्परागत वाद्ययंत्र -हुलकीपराय......!
बस्तर का संगीत , दुनिया के सबसे मधुर संगीत मे से एक है. आदिम सभ्यता की मनमोहनी धुने कानो मे हर पल गुंजती रहती है. बस्तर के हर कोने में संगीत की अपनी अलग दुनिया है, जहाँ से आती मधुर आवाजे हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है. पुराने समय से लेकर कुछ बीस साल पहले तक बस्तर की संगीत का काफ़ी समृध्द हुआ करता था.
यहाँ के विभिन्न जनजातिय समाजो मे मनोरंजन का साधन सिर्फ़ और सिर्फ़ परम्परागत वाद्ययंत्रो से निकला कर्णप्रिय संगीत हुआ करता था किन्तु बीतते हुए समय के साथ बस्तर के परम्परागत वाद्य यंत्रो का इस्तेमाल कम होता गया जिसके कारण बस्तर का संगीत अब मौन होते जा रहा है. उन परम्परागत वाद्य यन्त्रों का स्थान अब डीजे और मोबाइल ने ले लिया.
आज कई ऐसे वाद्ययंत्र है जो कभी बस्तर मे गुंजते रहते थे किन्तु अब पूर्णत विलुप्त हो चुके है. कुछ घरो या सिर्फ़ संग्रहालय मे शोभा बढाते हुए उन वाद्ययन्त्रों से हम मे से बहुत ही कम लोग परिचित है. डमरु की तरह दिखने वाला यह वाद्य यन्त्र भी उन विलुप्त हो चुके वाद्ययन्त्रों मे से एक है. स्थानीय तौर पर इसे हुलकी पराय कहा जाता है. यह एक छोटी ढोलकी है जिसे मुरिया समुदाय के लोग बजाया करते थे. इसे लकड़ी की खोल पर डमरु की तरह बनाया गया है. इसे पंखो से सजाया गया है.
इसे किस तरह से बजाया जाता था इससे मै भी परिचित नहीं हूँ. सम्भव है कि डमरु की तरह या फ़िर गले मे लटका कर ढोलक की तरह.
किन्तु अब इसका उपयोग ना के बराबर ही है. ऐसे और भी अनेको वाद्ययन्त्र है जो आज विलुप्त हो चुके है. इनके विलुप्त होने के कारण आज हम सभी उन मधुर ध्वनियो से भी वंचित हो चुके है जो कभी बस्तर के हर हर कोने से निकल कर आती थी.
इस सम्बन्ध मे ऐसी पहल होनी चाहिए कि बस्तर मे स्थानीय संगीत कला को समर्पित विश्वविद्यालय की स्थापना होनी चाहिए जिससे सदियो पुराना संगीत पुन जीवित हो और आने वाली पीढियो तक संरक्षित हो सके..!
ओम .

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