30 अक्टूबर 2018

सबका पसंदीदा - सीताफल

सबका पसंदीदा - सीताफल.......!

बस्तर में सीताफल बहुतायत में मिलता है। यहां के जंगलों में सीताफल के छोटे पेड़ हर जगह देखने को मिलते है। पतली डालियां युक्त सीताफल का छोटा सा पेड़ हर ग्रामीण के बाड़ी में जरूर दिखता है। दंडकारण्य के जंगलों में भगवान राम ने अपने वनवास के चैदह साल बिताये है। 

वनवास के दौरान भगवान राम सिर्फ कंदमूल और फल ही खाते थे। यहां बस्तर में ऐसी मान्यताये भी सुनने को मिलती है भगवान राम को जो फल पसंद था वो रामफल कहलाया और माता सीता का पसंदीदा फल सीताफल कहलाया। 
सीताफल लगभग सभी को पसंद आता है। हरे रंग के आवरण के अंदर सफेद रंग पल्प होती है जो काले बीजों पर लगी होती है। उस पल्प का स्वाद बेहद ही मीठा होता है। सीताफल को सरीफा भी कहते है। ठंड के मौसम इसकी बंपर आवक होती है। 

इधर ठंड चालू होती है और बाजारों मे सीताफल आने चाले हो जाते है। सीताफल के अधिक सेवन से सर्दी होना तय है। सीताफल शुगर गठिया एवं ह्दय रोगों के उपचार के लिये प्रमुख औषधि का भी कार्य करता है। 

सीताफल अधिक दिनों तक रखने से खराब हो जाता है। सीताफल के पल्प से बनी आईसक्रीम बड़ी अच्छी लगती है। इस बार बस्तर में अधिक वर्षा के कारण सीताफल की उतनी आवक देखने को नहीं मिली।  सीताफल से जुड़े प्रसंस्करण बनाने की आवश्यकता है। सीताफल से जुड़े खादय पदार्थों को बढ़ावा देकर कृषकों की आय बढाने की दिशा में भी कार्य करने की आवश्यकता है। सीताफल के बहुत से फायदे है आपको इसके क्या क्या फायदे है जरूर बताये। 

26 अक्टूबर 2018

बस्तर की शार्क, बोध मछली

बस्तर की शार्क - बोध मछली.....!

बस्तर की इंद्रावती नदी में एक समय बस्तर की शार्क कही जाने वाली बोध मछली बहुतायत में पायी जाती थी किन्तु अत्यधिक शिकार के कारण यह अब विलुप्ती की कगार पर पहुंच गई है। यह मछली वजन में 150 किलो तक हो जाती है। इस मछली को पकड़ने के लिये लोहे की जाल का इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि सामान्य जाल को यह अपने दांतों से काट देती है इसलिये इसे बस्तर की शार्क कहा जाता है।


बोध मछली असल में कैटफिश है जिसका वैज्ञानिक नाम बोमारियस बोमारियम है। इंद्रावती नदी के किनारे रहने वाले कुडूक जाति के लोग इस मछली की पूजा करते है। बारसूर का बोधघाट गांव बोध मछली के नाम पर ही पड़ा है। मछली के अधिक वजनी होने के कारण मछुआरे इसका अत्यधिक शिकार करते है।

यह मछली बाजार में दो हजार रूपये तक की कीमत में बिकती है। पानी से 24 घंटे तक बाहर रहने के बावजूद भी यह मछली जिंदा रहती है। बस्तर में इंद्रावती के अलावा कोटरी नदी में भी बोध मछलियां पायी जाती थी किन्तु अब वहां यह मछली यदा कदा ही दिखती है।

इसके अतिरिक्त देश की ब्रहमपुत्र व गोदावरी के अलावा बस्तर की इंद्रावती नदी में चित्रकोट जलप्रपात के नीचे से लेकर इंद्रावती.गोदावरी नदी के संगम तक यह बोध मछली पाई जाती है। मछली का संरक्षण समय रहते हुये आवश्यक है, नहीं तो, कोटरी नदी की तरह इंद्रावती से भी यह मछली विलुप्त हो जायेगी। 

24 अक्टूबर 2018

बस्तर दशहरा का आकर्षण, विशाल काष्ठ रथ

बस्तर दशहरा का आकर्षण - विशाल काष्ठ रथ.....!

बस्तर की आदिम संस्कृति एवं अनोखी रस्में बस्तर दशहरा को बेहद ही अनूठा बनाती है। एक ओर दशहरा पर्व अच्छाई कीे बुराई पर विजय के प्रतीक के तौर पर मनाया जाता है। रावण के पुतले दहन किये जाते है वहीं बस्तर में पुतले दहन ना करके दशहरा में काष्ठ रथों को खींचने की अनोखी परंपरा है। यहां रावण दहन ना करके 75 दिनों पूर्व से ही रथ बनाने एवं उससे जुड़ी परंपराओं का निर्वहन किया जाता है जिसके कारण इसे विश्व का सबसे लंबा दशहरा का भी गौरव प्राप्त है। 


बस्तर दशहरा में सबसे मुख्य आकर्षण का केन्द्र दुमंजिला भवन का भव्य  काष्ठ रथ होते है।  हर साल नये सिरे से बनाए जाने वाले इस रथ को बनाने वाले कारीगरों के पास भले ही किसी इंजीनियरिंग कालेज की डिग्री न हो, लेकिन जिस कुशलता और टाइम मैनेजमेंट से इसे तैयार किया जाता है, वह आश्चर्य का विषय साबित हो सकता है।

रथ के चक्कों से लेकर धुरी (एक्सल)तथा रथ के चक्कों व मूल ढांचे के निर्माण में ग्रामीण अपने सीमित घरेलू औजार कुल्हाड़ी व बसूले, खोर खुदनी सहित बारसी का ही उपयोग करते हैं। काष्ठ रथ बनाने से जुड़ी रस्में पाटजात्रा, नारफोड़नी, बारसी उतारनी और फिरतीफारा रस्मों का श्रद्धा के साथ निर्वहन किया जाता है। इन रस्मों के साथ रथ बनाने के लिये प्रयुक्त औजारों की पूजा अर्चना के साथ किसी भी तरह की अनहोनी ना घटित हो इसलिये देवी की पूजा अर्चना की जाती है। 1408 में बस्तर महाराज पुरूषोत्तम देव ओडिसा के पुरी मंदिर से रथपति का सम्मान प्राप्त किये थे। इसलिये विगत छः सौ वर्षो से बस्तर दशहरा में रावण ना मारकर रथ खींचने का प्रथा चल पड़ी है। 

जोगी बिठाई के दुसरे दिन अर्थात आश्विन शुक्ल द्वितीया से सप्तमी तक रथ चलाया जाता है। दशहरा के लिये दो रथ बनाये जाते है। पहला चार चक्कों वाला फूलरथ और दुसरा आठ चक्को वाला रैनी रथ। महाराज पुरूषोत्तम देव के समय 12 पहिये वाला रथ चलाया जाता था। किन्तु रथ चालन में कठिनाईयों के कारण आठ चक्कों एवं चार चक्कों के दो रथ चलाये जाने लगे। आष्विन शुक्ल द्वितीया से सप्तमी तक चार पहियों वाला फूलरथ चलाया जाता है। रथ निर्धारित मार्गाें में ही चलाया जाता है। 

मां दंतेश्वरी के छत्र को फूलरथ में विराजित कर मावली मंदिर की परिक्रमा कराई जाती है। सबसे पहले मांई जी छत्र दंतेश्वरी मंदिर से मावली माता मंदिर राम मंदिर लाया जाता है। तत्पश्चात भगवान जगन्नाथ मंदिर के सामने खड़े रथ में माई जी के छत्र को विराजित किया जाता है। इस मौके पर जिला पुलिस बल के जवानों ने हर्ष फायर कर माता को सलामी देते है। । रथ चालन के इस कार्यक्रम को देखने के लिये जगदलपुर में लोगों को हुजूम उमड़ता है। रथ पर राजा देवी का छत्र लेकर आसीन होता है। 


इस रथ को फूलों से सजाया जाता है जिसके कारण इसे फूल रथ कहते है। राजा स्वयं फूलों से बनी पगड़ी पहनता था। फूल रथ को कचोरापाटी और अगरवारा परगनों के लोग ही खींचते है। रथ पर चढ़ने के लिये सीढ़ी गढे़या के ग्रामीण बनाते हैं। रथ खींचने की रस्सियां करंजी केसर पाल और सोनाबाल के ग्रामीण बनाते है। रियासत काल में केंवटा जात नाईक और पनारा जात नाईक की पत्नियां पहले फूल रथ पर परिक्रमा के लिये रवाना होने से पहले चना लाई और रोटियां छिड़कती थी ऐसी जानकारी लाला जगदलपुरी से प्राप्त होती है।

रथ खींचने का कार्य सिर्फ किलेपाल के माड़िया जनजाति के युवक ही करते है। इनके द्वारा रथ चुराकर कुम्हड़ाकोट ले जाया जाता है। जहां राजपरिवार द्वारा नवाखानी एवं अन्य रस्में पुरी की जाती है। 
बस्तर भूषण। 

12 अक्टूबर 2018

लूप्त होती जा रही बस्तर की गेड़ी परंपरा

लूप्त होती जा रही बस्तर की गेड़ी परंपरा......!


बस्तर में बहुत सी पुरानी परंपराये अब समय के साथ विलुप्त होती जा रही है। गेड़ी परंपरा भी अब बस्तर से विलुप्ति की कगार पर है। आज भी बस्तर के कुछ ग्रामीण क्षेत्रो मे गेड़ी चढ़ने की पुरानी परंपरा देखने को मिलती है। यहां बस्तर में गेड़ी को गोड़ोंदी कहते है।  


हरियाली त्यौहार मनाने के बाद गेड़ी चढ़ने की परंपरा निवर्हन की जाती है। गेड़ी बनाने के लिये 7 फीट की दो लकड़ियों में 3 फीट की उंचाई पर पैर रखने के लिये लकड़ी का गुटका लगाते है। काफी संतुलन एवं अभ्यास के बाद गेड़ी पर चढ़कर बच्चे गांव भर में घुमते है। कई बच्चे एक दुसरे गेड़ी के डंडे टकराकर करतब भी दिखाते है। इसे गोडोंदी लड़ाई कहते है। 

बस्तर के कुछ क्षेत्रों में गेड़ी से जुड़ी कुछ मान्यताये भी जुड़ी है। हरियाली से नवाखानी भाद्रपक्ष की नवमीं तक गांव में गोडोंदी को रखते है। नवाखानी के दुसरे दिन प्रातः से गोडोंदी बनाये हुये सभी बच्चे गांव घर मे घुमकर चावल दाल दान मांगकर एकत्रित करते है। सभी घरों से मिले दान को गोडोंदी देवता के सामने रखकर गोडोंदी देवता की विधि विधान से पूजा अर्चना करते है। 


उसके बाद सभी गेड़ियों को तोड़कर पत्थर की शिला के उपर रखते है। इस पूजा मे मात्र कुंवारे लड़के ही भाग लेते है। एक अंडे को उछाल कर टूटे डंडो से उपर तोड़ने का प्रयास करते है। अगर अंडा डंडे से टकराकर नहीं टूटता और जमीन पर गिर जाता है तो उसे देवता का विश्वास माना जाता और फिर उसे जमीन में गाड़ देते है। 
गेड़ी यह परंपरा अब बस्तर के गांवों से विलुप्त होते जा रही है , बस्तर की भावी पीढ़ी को इसके संरक्षण की जिम्मेदारी उठानी होगी। गेड़ी चढ़े हुये बच्चो की इतनी सुंदर तस्वीरों के लिये शकील रिजवी सर को बहुत धन्यवाद ।Om Soni !

9 अक्टूबर 2018

बस्तर की आराध्य मां दंतेश्वरी

बस्तर की आराध्य मां दंतेश्वरी....!

प्राचीन काल से बस्तर शाक्त धर्म का केन्द्र रहा है। यहां आज भी देवी को सर्वोच्च सम्मान दिया जाता है। देवी की पूजा अर्चना के बाद ही शुभ कार्य किये जाते है। देवी दंतेश्वरी का मंदिर दंतेवाड़ा के शंखिनी और डंकिनी नदियों के संगम पर सदियों पूर्व से स्थापित है। देवी दंतेश्वरी बस्तर की आराध्यदेवी है। देवी का मंदिर गर्भगृह अंतराल मंडप सभामंडप और महामंडप में विभक्त है। गर्भगृह प्रस्तर निर्मित है जो कि मूल मंदिर रहा है और काफी प्राचीन भी है।

गर्भगृह में देवी दंतेश्वरी की षटभूजी प्रतिमा स्थापित है जो काले ग्रेनाईठ से निर्मित है। आगे का हिस्सा बाद में परवर्ती चालुक्य काकतीय शासकों के समय निर्मित माना जाता है। काष्ठ का बना महामंडप बस्तर की महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी के समय निर्मित है। काष्ठ मंडप के कारण मंदिर के सामने के तीन अन्य प्रस्तर मंदिर उसके अंदर आ गये है जो कि भैरव और शिव को समर्पित है
मंदिर के बाहर गरूड़ स्तंभ स्थापित है। सभामंडप में गणेश भगवान की भव्य प्रतिमा स्थापित है। इसके अतिरिक्त मंदिर में कार्तिकेय दुर्गा विष्णु भैरव काली शिव पार्वती आदि देवी देवताओं की 50 से अधिक प्रतिमायें स्थापित है। मंदिर में प्रवेश करने हेतु कुल 4 दरवाजों से होकर गुजरना पड़ता है। दुसरे दरवाजे से ही गर्भगृह में स्थापित देवी दंतेश्वरी के दर्शन हो जाते है। देवी दर्शन के लिये धोती पहन कर मंदिर में प्रवेश करना अनिवार्य है। टेंपल कमेटी के द्वारा वहां धोती उपलब्ध रहती है।
मंदिर में नागयुगीन एवं काकतीय चालुक्यों के प्राचीन शिलालेख भी रखे हुये है। देवी दंतेश्वरी के मंदिर के पास ही देवी मावली का मंदिर भी बना हुआ है। देवी मावली को भुनेश्वरी देवी के मंदिर के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर के गर्भगृह में महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा स्थापित है। इसके अतिरिक्त नरसिंह भैरव गणेश शिव आदि देवताओं की प्रतिमायें भी स्थापित है।
मंदिर के पीछे ही शंखिनी और डंकिनी नदियों का संगम है। संगम के उस पार भैरव बाबा का मंदिर है। भैरव बाबा के दर्शन के बिना देवी दर्शन अधुरा माना जाता है। भैरव मंदिर पास ही है।

देवी दंतेश्वरी के प्रति लोगों में अपार श्रद्धा है और यह श्रद्धा आज से नहीं हजारों सालों से है। देवी दंतेश्वरी नाग युग एवं उसके बाद चालुक्य काकतीय राजवंश की कुल देवी भी है। बस्तर का प्रत्येक सांस्कृतिक कार्यक्रम चाहे फाल्गुन मेला या बस्तर दशहरा हो सभी देवी की उपस्थिति में ही निर्विघ्न संपन्न किये जाते है। देवी दंतेश्वरी मंदिर को 52 वां शक्तिपीठ भी माना जाता है।

ऐसी मान्यता है कि देवी दंतेश्वरी का दांत यहां गिरा था जिसके कारण यह स्थान दंतेवाड़ा और देवी दंतेश्वरी के नाम से जानी गई । यहां एक अन्य किंवदंती भी प्रचलित है कि एक दंतकथा के मुताबिकराजा अन्नमदेव को उनकी कुल देवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि वे जहां तक जाएंगे वहां तक उनका राज्य होगा और स्वयं देवी उनके पीछे चलेगी, लेकिन राजा पीछे मुड़कर नहीं देखें। वरदान के अनुसार राजा ने वारंगल के गोदावरी के तट से उत्तर की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ की । राजा देवी के पायल के घुँघरूओं से उनके साथ होने का अनुमान लगा कर आगे बढ़ता गया ।
राजिम त्रिवेणी पर पैरी नदी तट की रेत पर देवी के पैर पर घुंघरुओं की आवाज रेत में दब जाने के कारण बंद हो गई तो राजा ने पीछे मुड़कर देखा तो देवी अंर्तध्यान हो गई बाद में राजा ने शंखिनी और डंकिनी के संगम पर देवी का मंदिर बनवाया।

प्रत्येक वर्ष नवरात्र में देवी दर्शन के लिये लोग दो सौ किलोमीटर दुर से भी पैदल चलकर आते है। नवरात्र में दंतेवाड़ा में बेहद भक्तिमय वातावरण रहता है। मार्गो में पदयात्री श्रद्धालुओं के लिये रूकने एवं खाने पीने की भी व्यवस्था रहती है। बस्तर दशहरा में देवी की डोली प्रत्येक वर्ष जगदलपुर जाती है। जगदलपुर में दशहरे में रथ पर देवी का प्रतीक छत्र को स्थापित कर रथों की परिक्रमा की जाती है।
फाल्गुन के समय देवी के सम्मान में फाल्गुन मेले का आयोजन किया जाता है। यह बस्तर का सबसे लंबा मेला है जो कुल 45 दिनों तक चलता है। मेले में भाग लेने के लिये बस्तर एवं आसपास के प्रांतों के पांच सौ से अधिक देवी देवता आते है।
हजारों साल से बस्तर शाक्त धर्म का केन्द्र था और आज भी बस्तर देवी शक्तियों की ही बस्तर है। देवी के आर्शीवाद से बस्तर आज प्राकृतिक रूप से संपन्न है और धीरे धीरे पुनः शांति का टापू बनने की ओर अग्रसर है।


दंतेवाड़ा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 400 किलोमीटर की दुरी पर दक्षिण में स्थित है। जगदलपुर से यह रेल सेवा से भी जुड़ा है। हवाई रेल और सड़क मार्ग से दंतेवाड़ा पहुंच सकते है।
सभी मित्रों को नवरात्रि की हार्दिक मंगलकामनाये जय माता दी।
Om Soni !

8 अक्टूबर 2018

मलकानगिरी सत्तीगुड़ा डेम

मलकानगिरी सत्तीगुड़ा डेम.....!

वैसे तो मलकानगिरी ओडिसा का सीमावर्ती नगर है। दक्षिण बस्तर सुकमा से इसकी दुरी मात्र 30 किलोमीटर ही है। शबरी नदी के उस पार ओडिसा में मलकानगिरी नगर है। 



शबरी पार करते ही ओडिया संस्कृति दिखनी प्रारंभ हो जाती है। ग्राम खेत नदी तालाब पहाड़ सभी में ओडिसा संस्कृति साफ साफ झलकती है। मलकानगिरी में वैसे तो बहुत से टुरिस्ट स्पाट है। ओडिसा शैली में निर्मित बहुत से भव्य मंदिर है। 


किन्तु बस्तर सुकमा दंतेवाड़ा वालों का मलकानगिरी जाने का मुख्य उद्देश्य मलकानगिरी का सत्तीगुड़ा बांध देखना होता है। सत्तीगुड़ा का डेम सुकमा वासियों के लिये पसंदीदा पिकनिक स्थल है। सत्तीगुड़ा डेम एक छोटा सा कृत्रिम बांध है जो कि मलकानगिरी से 08 किलोमीटर की दुरी पर है। 



यहां के दृश्य बेहद ही खुबसूरत है। आसपास की उंची पहाड़ियां और नीले नभ में विचरते श्वेत बादलों की परछाई बांध के जल में देखने का आनंद ही कुछ और है। हालांकि बांध ज्यादा बड़ा तो नहीं है फिर भी यह बेहतर पिकनिक स्थल है। परिवार सहित घुमने के लिये सुकमा के पास मलकानगिरी का सत्तीगुड़ा डेम एक आदर्श स्थल है। 
......ओम सोनी। 

6 अक्टूबर 2018

काछिनगादी परंपरा


काछिनगादी परंपरा से दशहरे की शुरूआत......!

बस्तर का दशहरा अपने विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं रस्मों के कारण देश विदेश में प्रसिद्ध है। बस्तर दशहरा भारत का ऐसा दशहरा है जिसमें रावण दहन ना करके रथ खींचने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यह दशहरा विश्व का सबसे लंबा चलने वाला दशहरा है। कुल 75 दिन तक दशहरा के विभिन्न रस्मों -परंपराओं का आयोजन किया जाता है। 

पाटजात्रा नामक रस्म से बस्तर दशहरा की शुरूआत हो जाती है। पाटजात्रा के बाद डेरी गड़ाई एक प्रमुख रस्म है जिसमें काष्ठ रथों का निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है। डेरी गड़ाई के बाद सबसे महत्वपूर्ण रस्म है काछिन गादी रस्म। प्रत्येक वर्ष नवरात्रि से पूर्व आश्विन मास की अमावस्या के दिन काछिनगादी की रस्म निभाई जाती है। काछिनगादी रस्म के निर्वहन के बाद ही दस दिवसीय दशहरा की औपचारिक शुरूआत हो जाती है। 

काछिनगादी का अर्थ है काछिन देवी का गद्दी देना। काछिन देवी की गद्दी कांटेदार होती है। कांटेदार झुले की गद्दी पर काछिनदेवी विराजित होती है। काछिनदेवी का रण देवी भी कहते है। काछिनदेवी बस्तर अंचल के मिरगानों (हरिजन)की देवी है। बस्तर दशहरा की शुरूआज 1408 ई में बस्तर के काकतीय चालुक्य राजा पुरूषोत्तम देव के शासन काल में हुई थी वहीं बस्तर दशहरा में काछिनगादी की रस्म महाराज दलपत देव 1721 से 1775 ई के समय प्रारंभ मानी जाती है।



जगदलपुर मे पहले जगतु माहरा का कबीला रहता था जिसके कारण यह जगतुगुड़ा कहलाता था। जगतू माहरा ने हिंसक जानवरों से रक्षा के लिये बस्तर महाराज दलपतदेव से मदद मांगी। दलपतदेव को जगतुगुड़ा भा गया उसके बाद दलपत देव ने जगतुगुड़ा में बस्तर की राजधानी स्थानांतरित की। जगतु माहरा और दलपतदेव के नाम पर यह राजधानी जगदलपुर कहलाई। दलपतदेव ने जगतु माहरा की ईष्ट देवी काछिनदेवी की  पूजा अर्चना कर दशहरा प्रारंभ करने की अनुमति मांगने की परंपरा प्रारंभ की तब से अब तक प्रतिवर्ष बस्तर महाराजा के द्वारा दशहरा से पहले आश्विन अमावस्या को काछिन देवी की अनुमति से ही दशहरा प्रारंभ करने की प्रथा चली आ रही है। 


जगदलपुर में पथरागुड़ा जाने वाले मार्ग में काछिनदेवी का मंदिर बना हुआ है। इस कार्यक्रम में राजा सायं को बड़े धुमधाम के साथ काछिनदेवी के मंदिर आते है। मिरगान जाति की कुंवारी कन्या में काछिनदेवी सवार होती है। कार्यक्रम के तहत सिरहा काछिन देवी का आव्हान करता है तब उस कुंवारी कन्या पर काछिनदेवी सवार होकर आती है।  काछिन देवी चढ़ जाने के बाद सिरहा उस कन्या को कांटेदार झुले में लिटाकर झुलाता है। फिर देवी की पूजा अर्चना की जाती है।  काछिनदेवी से स्वीकृति मिलने पर ही बस्तर दशहरा का धुमधाम के साथ आरंभ हो जाता है। काछिन देवी कांटो से जीतने का संदेश देती है वहीं बस्तर दशहरा में हरिजन समाज से जुड़ी रस्मों का निवर्हन इस बात का प्रमाण है कि बस्तर में अस्पृश्यता का कोई स्थान नहीं है। 
...........ओम सोनी!