10 जनवरी 2019

मंदिर की प्रस्तर दीवारों पर मुर्गा लड़ाई का दृश्य

मंदिर की प्रस्तर दीवारों पर मुर्गा लड़ाई का दृश्य......!

बस्तर के मुर्गा लड़ाई से आप सभी परिचित होंगे। यहां जनजातीय समाज में परंपरागत मनोरंजन के तौर पर मुर्गो की लड़ाई सदियों से प्रचलित है। स्थानीय भाषा में मुर्गो की लड़ाई को कुकड़ा गाली कहते है। ये कोई साधारण मुर्गो की लड़ाई नहीं होती है।  मुर्गे की प्रजाति असील बेहद लड़ाकू गुस्सैल एवं आक्रमक होती है। ग्रामीण असील मुर्गे को विशेष तौर पर लड़ने के लिये प्रशिक्षित भी करते है। \
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जिस प्रकार बाक्सिंग के लिये रिंग होता है उसी तरह मुर्गो के लड़ने के लिये नियत स्थानों पर गोलाकार तारबंदी युक्त रिंग होते है। इस रिंग के बाहर लोगों की भीड़ जमा होती है जो अंदर लड़ते हुये मुर्गो के दृश्यों का आनंद लेते है। मुर्गो की लड़ाई भी बेहद खुनी होती है क्योंकि इन मुर्गो के  पैर में चाकू बांधा जाता है जिसे काती कहते है। 

काती बांधने की भी कला है।काती बांधने वालों को कातकीर कहा जाता है जो इस कला के माहिर होते हैं। लड़ाई के दौरान एक दुसरे को धारदार काती के वार से मुर्गे एक दुसरे को घायल कर या मारकर विजयी होते है। जब दो मुर्गे लड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं तो दर्शक के रूप में उपस्थित लोग अपने मनपसंद मुर्गे पर दांव लगाते हैं। मुर्गे की लड़ाई आमतौर पर 10 मिनट तक चलती है।


जीतने वाले मुर्गे के मालिक को पैसा और मरा हुआ मुर्गा दोनो मिलता है। मुर्गे की लड़ाई देखने के लिये उपस्थित लोगों की भीड़ में अधिकतर लोग अपने अपने मुर्गो को जोर आजमाईश के लिये लाते है। साथ ही छोटे मोटी दुकाने भी सजती है। कुल मिलाकर मनोरंजन के साथ एक छोटी सी हाट बाजार भी हो जाती है। मुर्गे की लड़ाई के लिये ग्राम एवं दिवस निश्चित होते है। अधिकांशत सायम चार बजे ही मुर्गा लड़ाई प्रारंभ होती है। 

मुर्गा लड़ाई एक समय पुरे भारत में हजारों सालों से प्रचलित थी किन्तु अब मात्र जनजातीय बहुल क्षेत्रों जैसे बस्तर में मुर्गा लड़ाई का खेल देखने को मिलता है। आज से हजार साल पहले दक्षिण भारत में भी इसी तरह की मुर्गा लड़ाई का खेल होता था। कर्नाटक के चामराज जिले में गुंडलूपेट एक छोटा सा कस्बा है इस कस्बे के विजय नारायण मंदिर की प्रस्तर दीवारों पर मुर्गा लड़ाई का दृश्य अंकित है।

Pic Credit Thomas Alexandar

इसमें दो मुर्गे आपस में लड़ रहे है वहीं उसके मालिक अपने अपने मुर्गो को जीतने के लिये प्रोत्साहित कर रहे है। यह मंदिर 10 वी सदी के लगभग पश्चिमी गंग राजाओं के काल में निर्मित माना गया है। इस मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण मुर्गा लड़ाई के दृश्य इस बात को प्रमाणित करते है कि एक समय पुरे भारत में खासकर दक्षिण भारत में भी मुर्गा लड़ाई का मनोरंजक खेल प्रचलन में था। 
गुंडलूपेट के मंदिर में उत्कीर्ण मुर्गा लड़ाई के दृश्य के चित्र के लिये थामस एलेक्जेंडर सर को धन्यवाद।
आलेख -ओम सोनी दंतेवाड़ा बस्तर। 

लुप्त होते बस्तर के बैल बाजार


बस्तर के हाट बाजार किसी भी सैलानी के लिये आकर्षण के केन्द्र होते है। हाट बाजार बस्तर की आदिम संस्कृति को करीब से देखने का सबसे अच्छा माध्यम है। सब्जियों, रोजमर्रा की चीजों , एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं के हाट बाजारों के अलावा बस्तर के कुछ खास स्थानो में पशुओ का बाजार भी सजता है। व्यापारिक नगरी गीदम दक्षिण बस्तर का महत्वपूर्ण केन्द्र बिन्दु है। गीदम में आज भी बुधवार के दिन पशुओं को बाजार भरता है। यहां पशुओं से मतलब बैल, गाय की बाछियां, या पाढ़े से ही है। बाकि जानवरों का इस बाजार कोई लेना देना ही नहीं है। इसलिये यहां पुरे बस्तर में ऐसे पशु बाजारों को बैला बाजार ही कहते है।



बैल बाजार में अप्रैल से लेकर जून माह तक काफी रौनक रहती है अर्थात पशुओं की संख्या इन महिने में ज्यादा रहती है। इन बैल बाजारों में आदिवासी गाय की बाछियां, बैल, और पाढ़े खरीदने और बेचने के लिये आते है। आषाढ़ में नागर जोतने से पूर्व यहां के आदिवासी किसानों को बैल की जरूरत पड़ती है। इन बैल बाजारों से नागर जोतने के लिये आसानी से बैल या पाढ़े मिल जाते है। बस्तर में कई अंदरूनी गांवो में अब भी टै्रक्टर की पहुंच ना के बराबर है। 



इसलिये वे अंदर गांव के किसान नागर जोतने के लिये इन पशुओं पर ही निर्भर है। बस्तर में गाय की बड़ी बाछियों एवं गाय से भी नागर जोते जाते है। यहां गाय बैलों एवं भैसे की नस्ले बेहद निम्न स्तर की है। आदिवासी गाय भैंसो से दुध नहीं निकालते है। यहां की स्थानीय राउत जाति ही दुध निकालने का कार्य करती है। लगभग प्रत्येक आदिवासी के घर में गाय भैंस होते है। 


गरीब से गरीब धर में भी 100-50 मवेशी होते ही है। पैसों की जरूरत या फिर अधिक पशु होने के कारण इन बैल बाजारों में आदिवासी धर के मवेशी बेचने के लिये लाते है। कुछ आदिवासियों ने इसे अपना रोजगार भी बना लिया है। ये लोग उड़िसा के उमरकोट, कालाहांडी से सस्ते दामों में पशु खरीद कर बस्तर के इन बैल बाजारों में बेचने के लिये लाते है। इन्हें कुछ पैसों का फायदा हो जाता है। इतनी दुर से मवेशियों को पैदल ही लाते है। अपने गांवों से भी बाजार तक ये पैदल ही मवेशियों को लेकर आते है। अच्छे किस्म के बैल जोड़ी लगभग 20 से 30 हजार मे बिकती है। वहीं भैंसों की जोड़ी 25 से 35 हजार रू तक में मिल जाती है। गाय बाछी की जोड़ियां लगभग 10 से 15 हजार रू. तक बिक जाती है। 


कभी कभी सौदा नहीं जमता है तो फिर अगले बाजार को या अन्य जगह के बाजार में मवेशियों को ले जाया जाता है। वर्षा शुरू होने से पहले दो चार माह में ही बैल बाजारों में रौनक रहती है, साल के बाकी दिनों में बैल बाजार सिर्फ नाम मात्र रह जाते है। गीदम के अलावा जगदलपुर के डिमरापाल, लोहंडीगुडा जैसे जगहों में बड़े बड़े बैल बाजार लगते है। मुझे बचपन के वे दिन अच्छे से याद है आज गीदम में जहां बस स्टेंड है वहां कभी बैल बाजार भरता था। इस जगह को बैल बाजार ही कहते थे। बैलों की जोड़ियां चारों तरफ खुंटियों में बंधी रहती थी। अब बैल बाजार नगर से बाहर हो गया है। कृषि मे अब में टै्रक्टर के प्रयोग से नागर जोतने के लिये बैलों की आवश्यकता कम रह गई है। जिसके कारण बस्तर के ये बैल बाजार धीरे धीरे लुप्त होते जा रहे है। 
...ओम सोनी, दंतेवाड़ा। 

8 जनवरी 2019

रथ चुराने की 260 साल पुरानी परंपरा


बस्तर दशहरा मे रथ चुराने की 260 साल पुरानी परंपरा - बाहर रैनी.....!

माईजी की डोली जैसे ही रथ पर सवार होती है, उसके बाद रस्म के हिसाब से रथ चुराने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है।  रथ चुराने के लिए किलेपाल, गढ़िया एवं करेकोट परगना के 55 गांवों से 4 हजार से अधिक ग्रामीण यहां पहुंचते है। रातोरात ग्रामीणों ने इस रथ को खींचकर करीब पांच किमी दूर कुम्हड़ाकोट के जंगलों में ले जाते है। इसके बाद रथ को यहां पेड़ों के बीच में छिपा दिया जाता हैं। 


रथ चुराकर ले जाने के दौरान रास्ते भर उनके साथ आंगादेव सहित सैकड़ो देवी-देवता भी साथ रहते है। लाला जगदलपुरी जी अपनी पुस्तक बस्तर और इतिहास और संस्कृति में बाहर रैनी के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां देते है। उनके अनुसार कुम्हड़ाकोट राजमहलों से लगभग दो मील दूर पड़ता है। 


कुम्हड़ाकोट में राजा देवी को नया अन्न अर्पित कर प्रसाद ग्रहण करते है। बस्तर दशहरे की शाभा यात्रा में कई ऐसे   दृश्य हैं जिनके अपने अलग-अलग आकर्षण हैं और उनसे पर्याप्त लोकरंजन हो जाता है। राजसी तामझाम के तहत बस्तर दशहरे के रथ की प्रत्येक शोभायात्रा में पहले सुसज्जित हाथी घोड़ों की भरमार रहती थी। मावली माता की वह घोड़ी याद आती है जिसे चाँदी के जेवरों से सजाया जाता था। उसके पावों में चाँदी के नूपुर बजते रहते थे और माथे पर चाँदी की झूमर झूलता था। उसकी पीठ के नीचे तक एक ज़रीदार रंगीन साड़ी झिलमिलाती रहती थी। 

विगत दशहरे में एक सुसज्जित घोड़े पर सवार मगारची नगाड़े बजा बजा कर यह संकेत देता चलता था कि पुजारी समेत देवी दन्तेश्वरी के छत्र को रथारूढ़ होने या उतारने में कितना समय और शेष है। पहले भीतर रैनी और बाहिर रैनी के कार्यक्रमों में धनु काँडेया लोगों की धूम मची रहती थी। भतरा जाति के नवयुवक धनुकाँडेया बनते थे। उनकी वह पुष्प सज्जित धारी देह सज्जा देखते ही बनती थी। धनु काँडेया रथ खींचने के लिए आदिवासियों को पकड़ लाने के बहाने उत्सव की शोभा बढ़ाते थे। वे रह-रह कर आवाज़ करते, इधर उधर भागते फिरते नज़र आते थे।

इधर रथ चोरी होने के बाद महाराजा कमलचंद्र भजदेव, राजगुरू नवीन ठाकुर अन्य लोगों के साथ कुम्हडाकोट जाते है। यहां पहले नए फसल के अनाज को ग्रामीणों के साथ पकाने के बाद इसका भोग राजपरिवार के सदस्य करते है। इसके बाद चोरी हुए रथ को वापस लाने के लिए ग्रामीणों को मनाया जाता है।  देर शाम रथ को बस्तर महाराज अपनी अगुवाई में लेकर वापस दंतेश्वरी मंदिर पहुंचते है। रथ को वापस लाने की रस्म को बाहर रैनी रस्म कहा जाता है।

बस्तर दशहरा का रथ प्रतिवर्ष भीतर रैनी की रात चोरी चला जाता है। 500 से ज्यादा ग्रामीण राजमहल के सामने खड़े रथ को चुराकर कोतवाली के सामने से खींचते हुए कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं। इतिहासकार बताते हैं कि दशहरा रथ की चोरी पिछले 259 वर्षों से जारी है। बस्तर दशहरा की यह पुरातन परंपरा है कि 50 से 65 किमी दूर बास्तानार- कोड़ेनार क्षेत्र के 33 गांवों से करीब 500 माड़िया आदिवासी दशहरा रथ खींचने जगदलपुर आते हैं।

परिक्रमा पूर्ण होने के बाद रथ को राजमहल के सामने खड़ा कर दिया जाता है। देर रात परंपरानुसार ग्रामीण बिना शोर मचाए रथ को खींचते हुए करीब दो किमी दूर कुम्हड़ाकोट जंगल ले जाते हैं। इसे बोल चाल में रथ चुराना कहते हैं। दूसरे दिन बस्तर राजपरिवार कुम्हड़ाकोट से चुराए गए रथ को वापस राजमहल के सामने लाता है। इस परंपरा को बाहर रैनी कहते हैं। रथ के लौटते ही बस्तर दशहरा के रथ संचालन की रस्म पूर्ण हो जाती है। बस्तर राजाओं की राजधानी जगतूगुड़ा जो अब जगदलपुर के नाम से जाना जाता है, में स्थानांतरित हुई इसलिए माना जाता है कि 259 साल से रथ संचालन हो रहा है। रथ चुराना पर्व की एक मनोरंजक रस्म है। 

आलेख ओम सोनी दंतेवाड़ा बस्तर

5 जनवरी 2019

स्टेच्यू आफ यूनिटी की उंचाई का बस्तर में एक झरना

स्टेच्यू आफ यूनिटी की उंचाई का बस्तर में एक झरना.......!

बस्तर की धरती में अनगिनत ऐसे स्थल है जिसे देखे बिना आपका भारत भ्रमण पुरा नहीं हो सकता है। यहां के इन प्राकृतिक उपहारो ने राज्य और देश में नहीं, वरन पुरे विश्व में अपने अनूठेपन की छाप छोड़ी है। उदाहरण के तौर पर चित्रकोट जलप्रपात जिससे आप सभी परिचित होंगे, इस झरने की चौड़ाई ने पुरे भारत में सर्वाधिक चौड़ाई वाले झरने का खिताब दिया है। 


चित्रकोट झरने को देखने के लिये हर वर्ष हजारों देशी विदेशी पर्यटक बस्तर आते है। चित्रकोट झरने की तरह कांगेर घाटी की कुटूमसर गुफा अपने अदभूत झूमर आकृतियों के लिये विश्वप्रसिद्ध है। हर वर्ष हजारों विद्यार्थी इस गुफा की गहराई में उतरकर प्राकृतिक कलाकृतियों को निहारते है। अंधी मछलियों को गुफा में देखने आते है।

अभी कुछ दिनों पहले गुजरात में नर्मदा सरोवर स्थित सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा का अनावरण किया गया है। देश की एकता के प्रतीक स्टैच्यू ऑफ यूनिटी भारत के प्रथम उप प्रधानमन्त्री तथा प्रथम गृहमन्त्री वल्लभभाई पटेल को समर्पित एक स्मारक है।यह विश्व की सबसे ऊँची मूर्ति है जिसकी लम्बाई 182 मीटर 597 फीट है। स्टेच्यू आफ यूनिटी से आज पुरा विश्व परिचित है। अपनी उंचाई के कारण स्टेच्यू आफ यूनिटी कई किलोमीटर दूर से दिखाई देती है। 


स्टेच्यू आफ यूनिटी के उंचाई के लगभग बस्तर में एक झरना है जिसके बारे में तो यहां के स्थानीय निवासियों को भी पता नहीं है। बस्तर के सूदुर दक्षिण में, बीजापुर जिले के उसूर ब्लाक में ,तेलंगाना की सीमा से लगा छोटा सा ग्राम है नंबी। इस ग्राम से 03 किलोमीटर की दुरी पर पुरे बस्तर का सबसे उंचा झरना स्थित है।नंबी ग्राम के पास होने के कारण यह झरना भी नंबी झरना या नंबी धारा के नाम से ही चर्चित है।



कुछ वर्ष पहले जिले के पुलिस अधिकारी इस झरने को देखने के लिये गये थे तब इस झरने की उंचाई नापी गई थी जो कि 180 मीटर थी। यह झरना भी उंचाई के आधार पर  स्टेच्यू आफ यूनिटी के आसपास ठहरता है। 

कुछ दिनों पहले मुझे भी इस झरने को देखने का अवसर प्राप्त हुआ था। यह झरना वास्तव में बहुत ही उंचा है। नंबी ग्राम से तीन किलोमीटर दूर होने के बावजूद भी यह झरना सामने ही दिख रहा था। वैसे यह झरना मौसमी है। जुलाई से लेकर मात्र अक्टूबर तक ही इस झरने में पानी रहता है। अत्यधिक नक्सल प्रभावित क्षेत्र होने के कारण इस क्षेत्र का समूचित विकास नहीं हो पाया है।


यहां जाना भी खतरे से खाली नहीं है। घने जंगलों के मध्य से सूनसान पगडंडी एक मात्र मार्ग है जिस पर हर 05 मीटर में अवरोध के लिये गडढे खोदे गये है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि कुछ सालों में नंबी तक जाने के लिये सड़क होगी, भयमुक्त होकर पर्यटक नंबी धारा की उंचाई को देखने जायेंगे और चित्रकोट जलप्रपात के चौड़ाई की तरह नंबी झरने की असीम उंचाई भी बस्तर की पर्याय बनेगी। 

वर्तमान हालात के मुताबिक अभी यहां जाने के बारे में सोचियेगा भी नहीं। 

नंबी झरने की ये फोटो अयाज तंबोली सर के सौजन्य से प्राप्त। 

आलेख ओम सोनी दंतेवाड़ा

4 जनवरी 2019

बस्तर में आज भी प्रचलित है श्येनपालन की आदिम परंपरा

बस्तर में आज भी प्रचलित है श्येनपालन की आदिम परंपरा.......!

आदिकाल से  इंसानों का पक्षियों के प्रति एक विशेष आकर्षण देखने को मिलता है। हमारे देवी देवताओं में भगवान विष्णु का वाहन गरूड़ पक्षी है वहीं लक्ष्मी जी का वाहन उल्लू है। देवों के सेनापति कार्तिकेय का वाहन मयूर है। और अन्य कई देवी देवताओं के वाहन के रूप में पक्षियों का नाम विभिन्न धार्मिक ग्रंथो में मिलता है। इंसानी आवाज बोलने के अदभूत गुण वाला तोता धरो-धर पाला जाता है। पक्षियों के शिकार कौशल को अपने फायदे के लिये कैसे उपयोग किया जाये ? इस बात को ध्यान में रखते हुये इंसानों ने बाज शिकरा जैसे शिकारी पक्षियों का पालतू बनाना प्रारंभ किया। 


इन पक्षियों को पालतू बनाकर शिकार के लिये प्रशिक्षित किया जाता है। इस कला को श्येनपालन कहा जाता है। इस कला का ज्ञान मनुष्य को सदियों से है। भारत में  विशेषत मुगलों के शासनकाल में इस कला को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला था। क्रीड़ा के रूप में लड़ाकू जातियों में श्येनपालन बराबर प्रचलित रहा है।आज इसका प्रचार अधिक नहीं है। शौक के रूप में आज भी बस्तर में श्येनपालन कुछ क्षेत्रो में प्रचलित है। शिकारी चिड़ियाँ पेड़ों पर रहनेवाले पक्षी हैं जो हवा में पर्याप्त ऊँचाई तक उड़ लेते हैं। 

इनके नाखून बड़े नुकीले और टेढ़े होते हैं। इनकी चोंच टेढ़ी और मजबूत होती है। इनकी निगाह बड़ी तेज होती है। सभी मांसभक्षी चिड़ियों में से अधिकांश जिंदा शिकार करती हैं और कुछ मुर्दाखोर भी होती है। शिकारी पक्षियों की एक विशेषता यह है कि इनकी मादाएँ नरों से कद में बड़ी और अधिक साहसी होती हैं।जो शिकारी चिड़ियाँ पाली जाती हैं उनमें बाज बहरी शाहीन, तुरमती, चरग ;या चरख लगर, वासीन, वासा, शिकरा और शिकरचा, बीसरा ,धूती तथा जुर्रा प्रमुख हैं 

बस्तर में स्थानीय जनजातियों में बाज और शिकरा जैसी शिकारी पक्षियों को पालने की पुरानी परंपरा आज भी प्रचलित है। मध्य बस्तर के कुछ ग्रामों में आज भी कई शिकारी छोटे मोटे पक्षियों के शिकार हेतु शिकरा पक्षी को पालते है।   शिकरा पक्षी को  प्रशिक्षित कर छोटी पक्षियों का शिकार किया जाता है। धान कटाई के बाद लावा बटेर कबूतर जैसे पक्षियों का बहुतायत में शिकार किया जाता है। इन पक्षियों के शिकार के कई तरीके प्रचलित है। पालतू शिकारी पक्षी के माध्यम से इन पक्षियों के शिकार की प्रथा वैसे तो सदियों पुरानी है। 

गुलेल बन्दुक जाल आदि  शिकार के औजार मिलने के कारण बस्तर में श्येनपालन लगभग विलुप्त हो गई है। अपने भ्रमण के दौरान  एक ग्रामीण से मुलाकात हुई जिसने तीन साल से शिकरा पक्षी को पालकर रखा था। उसने शिकरा को छोटे पक्षी चुहे आदि के पकड़ने के लिये प्रशिक्षित कर रखा था। 

जब पक्षी पर्याप्त पालतू बना लिया जाता है और बिना डर के खाने पीने लगता है तब कुछ दूरी से कच्चे मांस का टुकड़ा दिखलाकर पक्षी को हाथ पर बुलाया जाता है। यह क्रिया अनेक बार दुहराई जाती है और दूरी को धीरे धीरे बढ़ाया जाता है। शिकार को पकड़कर पालक के पास लाने की भी शिक्षा दी जाती है। शिकारी पक्षी के डर को भगाने के लिये उसे ग्राम के व्यस्त मार्ग में किनारे बांध दिया जाता है ताकि मनुष्य के प्रति उसका डर कम हो सके। 

आप सभी ने कुत्ते की स्वामी भक्ति देखी होगी किन्तु मैने शिकरा पक्षी की ऐसी स्वामीभक्ति पहली बार देखी। धरों का पालतू तोता भी पिंजरे को खुला पाकर आसमान में उड़ जाता है वहीं शिकरा पक्षी अपने पालक के लिये छोटे पक्षी को पकड़कर लाकर देती है और उसे मांस का टूकड़ा ईनाम में मिलता है। वो चाहे तो आसमान में उड़ कर फुर्र हो सकती है और अपने पालक के पास कभी वापस ही नहीं आये किन्तु वह अपनी स्वामी के प्रति वफादारी के कारण शिकार पकड़कर वापस आ जाती है। ऐसा नजारा मेैने अपने आंखो से देखा, वाकई सबकूछ संभव है। 

आलेख - ओम सोनी दंतेवाड़ा