नागुल दोरला(कोई विद्रोह 1859) और विश्व पर्यावरण दिवस का देशी सन्दर्भ.
आज विश्व पर्यावरण दिवस के विभिन्न आयोजनों के बीच मुझे बार बार दक्षिण बस्तर की धरा याद आ रही है।इसके पीछे का कारण है 1859 में घटित *कोई विद्रोह*!कोई का अर्थ होता है दक्षिण बस्तर के जमींदारियों के अंतर्गत निवासरत आदिवासियों को तत्कालीन समय में कोई कहा जाता था।जिसे आज दोरला और दंडामी माड़िया कहते हैं।
*कोई विद्रोह* 1857 के प्रथम स्वाधीनता मुक्ति संग्राम के बाद वर्तमान बीजापुर भोपालपट्टनम क्षेत्र में घटित एक ऐसा प्रतिरोध था।जिसमें विशुद्ध लोक जीवन के वैविध्य और जीवन संस्कार दिखाई देता है।कोई विद्रोह उस दौर के फोतकेल जमींदारी क्षेत्र में शुरू हुआ।धीरे धीरे इसका प्रसार दक्षिण बस्तर के अन्य क्षेत्रों में होता गया।ब्रिटिश साम्रज्यवाद के बेपनाह शोषण और हैदराबाद के व्यापारियों की लूट ने अपना निशाना इस क्षेत्र के साल वनों को बनाया।हैदराबाद के व्यापारी हरिदास भगवानदास नाम से ईश्वरीय था लेकिन कार्य से जालिम और शोषक।वह पूरे क्षेत्र में साल वनों के द्वीप को खत्म करने पर आमादा हो गया।
अब असल पर्यावरण रक्षा की कहानी शुरू होती है।जब नागुल दोरला और उनके साथी(बापी राजू,कुण्या दोरा, जुग्गा राजू,पाम भोई आदि) मिलकर प्रतिरोध की लोक परम्परा को रूप देते हैं।ये योद्धा बिना किसी विज्ञापन और स्वार्थ के अपनी प्रकृति माता को बचाने के लिए एक हो गए।परम्परागत हथियार तीर,भाला चमकने लगा।मानों बस्तर का सूर्य चमकने लगा,निर्झर प्रहार की मुद्रा में आ गया।
🌿एक साल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर🤺
यह लोक स्वर दक्षिण बस्तर की फिजाओं में मूर्त होने लगा।एक तरफ अंग्रेजों के आधुनिक हथियार बंदूकें दूसरी तरफ तीर,भाला और टंगिया।अंततः लगातार असंख्य बलिदान के बीच सतत छापामार युद्ध के बाद विजय श्री का तिलक प्रकृति पुत्र कोई के मस्तक पर लगा।
आज भी साल वनों की सरसराहट मानों अपने रक्षक पुत्रों की स्मृति में गीत गाती है।नागुल दोरला और उसके सेनानियों की अमूर्त उपस्थिति का बोध कराती है।छत्तीसगढ़ की लोक परम्परा,प्रतिरोध परम्परा,प्रकृति प्रेम का पुनर्नवापन है यह कोई विद्रोह।
वृक्ष रक्षा को लेकर किया गया यह विद्रोह सम्भवतः अपनी मूल चरित्र में अनूठा है।इसकी तुलना न तो चिपको आंदोलन से की जा सकती हैं और न ही ग्रीन पीस मूवमेंट से। ☘☘☘☘☘☘☘
✍भुवाल सिंह ठाकुर जी