31 जनवरी 2018

विलुप्ति के कगार पर - बस्तर का वन भैंसा

विलुप्ति के कगार पर - बस्तर का वन भैंसा



बस्तर अत्यधिक वनसंपदा के कारण वन्य जीवों के मामले में भी संपन्न रहा है। परन्तु पिछले सौ सालों में अंधाधुंध शिकार के कारण बस्तर में अब बहुत से वन्य जीव लुप्त हो चुके है और अधिकांशतः विलुप्ति के कगार पर है। बस्तर में हाथी, सिंह, बाघ,, जंगली भैंसा, गौर, नीलगाय जैसे बड़े स्तनपायी वन्य जीव बहुतायत में थे। अंग्रेजों के शासन में ही जंगली भैंसों, बाघों का अंधाधुंध शिकार किया गया जिसके कारण ये बस्तर से लगभग विलुप्त हो चुके है। अंग्रेजो द्वारा किये गये वन भैंसो के शिकार, से जुड़े रोचक किस्से आज भी इतिहास में दर्ज है। 

छत्‍तीसगढ राज्‍य का राजकीय पशु वन भैंसा(Wild Buffalo) अर्थात Bubalus Bubalis है।  वन भैंसा छत्‍तीसगढ के दुर्लभ एवंसंकटग्रस्‍त प्रजातियों में से एक है। एक समय में ये प्रजाति अमरकंटक से लेकर बस्‍तर तक बहुत अधिक संख्‍या में पाया जाता था किन्तु अब मात्र उदंती अभ्यारण्य और बस्तर में इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान और भैरमगढ अभ्यारण्य में ही पाया जाता है। उदंती अभ्यारण्य में 8-9 ही वनभैंसे है जिसमें से एक मात्र मादा भैंसा है जिसका नाम आशा रखा गया है। 

छ0ग0 में उदंती अभ्यारण्य के अलावा दक्षिण बस्तर के इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान और भैरमगढ़ अभ्यारण्य में वन भैंसे पाये जाते है। भैरमगढ़ अभ्यारण्य तो विशेष रूप से वन भैंसो के लिये ही संरक्षित है। यदा कदा इनके झुंड विचरण करते हुये दिखायी पड़ते है। कुटरू के आसपास इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान में भी वन भैंसो के झुंडों की विचरण की जानकारी मिलती रहती है। यहां पाये जाने वाला वन भैंसें की नस्‍ल सर्वाधिक शुध्‍द है अत: छत्‍तीसगढ राज्‍य के वन भैंसे का विशेष महत्‍व है, इस कारण से छत्‍तीसगढ शासन द्वारा इसे राज्‍य पशु का दर्जा दिया गया है।

वन भैंसे बहुत हद तक स्थानीय पालतु भैंसो से मिलते जुलते है। जंगली भैंसा आमतौर पर पालतु भैंसा से संपर्क स्थापित कर लेता है। कई शोधकर्ताओ का मानना है कि जंगली भैंसा पालतु नर भैंसा को मादा के पास ही नहीं आने देता है वहीं जंगली भैंसा पालतू मादा भैंसा से संपर्क स्थापित कर लेता है। 

भैरमगढ़ वन भैंसा अभ्यारण क्षेत्र में प्रवेश हेतु भैरमगढ़ पहुँच कर वनमार्गों के द्वारा अभ्यारण क्षेत्र में भ्रमण किया जा सकता है  तथा इसी मार्ग पर बीजापुर से 35 किमी दूर ग्राम माटवाड़ा से भी अभ्यारण क्षेत्र में प्रवेश किया जा सकता है  सामान्यत 15 दिसम्बर से 15 जून तक निजी व्यवस्था से पहुंचा जा सकता है।


माओवादी प्रभाव एवं अवैध शिकार के कारण बस्तर का वन भैंसा अब विलुप्ति की कगार पर है। इसका संरक्षण किया जाना अति आवश्यक है , नहीं तो ये भी हाथियों की तरह बस्तर से सदा के लिये विलुप्त हो जायेगे। 

30 जनवरी 2018

भैरमगढ़, एक भुला दिया गया ऐतिहासिक स्थल

भैरमगढ़, एक भुला दिया गया ऐतिहासिक स्थल!!
बस्तर में , भैरव की सबसे बड़ी प्रतिमाये !!

                                                                                                                                                                                                                                                ओम सोनी

बस्तर की खोज एक कभी ना खत्म होने वाली खोज हैं. बस्तर एक अथाह गहरा समुन्दर हैं इसमें ज़ितने बार भी गोते लगाओ , हर बार सुन्दर मोती पाओगे. बस्तर में नागवंशियो ने लम्बे समय तक शासन किया. नागो में अनेक शासक हुए अौर उन शासको ने बस्तर में अलग अलग जगहो में अपनी राजधानी बनायी.



बस्तर में एक ऐसा ही एक बेहद अल्पग्यात एतिहासिक स्थल हैं ज़िसे कभी नागो की राजधानी का गौरव प्राप्त था. उस नगर में आज भी बहुत से पुराने मन्दिर , मुर्तियां बिखरे पड़े हैं. बारहवी सदी में नाग राजा नरसिंह देव की राजधानी भैरमगढ़ आज बेहद महत्वपूर्ण एतिहासिक स्थल होते हुए भी पुरी तरह से उपेक्षित हैं.
भैरमगढ़ ततकालिन नाग शासन में बेहद महत्वपूर्ण नगर था. यह नगर आज आपने आप में बहुत सारा इतिहास समेटे हुए हैं. यहां के हर चटटानो पर आपको ऊकेरी गयी देव प्रतिमाओ के दर्शन हो जायेगे, झाडियो में आपको उन पुराने मन्दिरो के अवशेष चीखते नजर आयेंगे जो कभी श्रधालुओ के भीड से गुलजार रहते थे. आज इनकी यह हालत देखकर बेहद तरस आता है.
भैरमगढ़ ,जैसा की नाम से ही स्पष्ट होता हैं भैरम का गढ़. यहां बस्तर में भैरव ही भैरम हो गये हैं. भैरमगढ़ में एक चट्टान पर भैरव की विशाल प्रतिमा ऊकेरी गयी हैं. यहां ग्रामीणो ने इस पर मन्दिर बनवा दिया हैं. मन्दिर के बाहर पेड के नीचे लगभग पांच फीट ऊँची भैरव की प्रतिमा स्थापित हैं. दो चौकोर शिलाओ पर चरणो के निशान ऊकेरे गये हैं. मन्दिर के पीछे एक विशाल तालाब हैं. यह तालाब भी उसी समय का हैं.

सवाल यह हैं कि बस्तर में बारसुर के बाद सर्वाधिक एतिहासिक मन्दिरो वाला यह भैरमगढ़ आज भी सबकी नजरो से ओझल क्यो हैं. बारसुर के एतिहासिक स्थल , चित्रकोट , तीरथगढ़ , दंतेवाड़ा आदि स्थानो को छतीसगढ़ के पर्यटन में प्रमुखता से बढ़ावा दिया जाता रहा हैं जबकि भैरमगढ़ को बिलकुल भुला दिया गया. जबकि बारसुर के गणेश प्रतिमाओ के समान यहां के भैरव की विशाल प्रतिमाये पुरे छत्तीसगढ़ में नही होगी.
भैरमगढ़ को छत्तीसगढ़ के पर्यटन नक्शे में स्थान मिलना चाहिये. यहां भी बारसुर महोत्सव के समान भैरमगढ़ महोत्सव होना चाहिये. सुन रहे हो ना भैरमगढ़ वालो , बीजापुर वालो , ब्राण्डिंग करो भैरमगढ़ की पुरी दुनिया में....

बस्तर की पेय पहचान - सल्फी

बस्तर की पेय पहचान - सल्फी !!



ओम सोनी




आप में से शायद ही किसी ने सुना हो कि किसी पेड़ से आनन्ददायक पेय मिलता हो , तो आपका जवाब होगा ना , लेकिन बस्‍तर मे ऐसे पेड़ पाये जाते है जिससे ऐसा रस मिलता है और उस रस को बेचने से आदिवासियों का अच्‍छी खासी आ्मदनी होती हैा बस्‍तर में ताड़ की तरह उंचे पेडो को सल्‍फी कहा जाता है.यह पेड़ ताड़ की एक प्रजाति कारयोटा युरेंस हैा


वैसे पुरे बस्तर में सल्‍फी के पेड़ बहुतायत में पाये जाते है किन्‍तु कुछ सालों में आक्‍सीफोरम फिजिरियस फंगस के कारण ये पेड़ सुखने लगे जिससे इनकी संख्‍या मे अच्‍छी खासी कमी आयी हैा किन्‍तु अब फिर से आदिवासी सल्‍फी के पेड़ लगाने लगे है. 10 साल में सल्‍फी के पेड़ रस देने लगते है. एक पेड़ से सालाना 50 हजार तक की कमाई हो जाती है. जिस किसी के पास 4 से 5 पेड़ उसे सालाना ढाई तीन लाख की आमदनी हो जाती है.

इनसे लगभग साल भर रस प्राप्‍त होता हैा सल्‍फी के पेड़ में गुच्‍छेदार हरे हरे फूल लगता है जिसे पोंगा कहा जाता है. उस पोंगा को काट देते है जिससे वहां से निकलने वाले रस को हंडी में इकठठा किया जाता है.

यह पेड़ लगभग 40 फिट उंचा होता है जिस पर हंडी लटकाना और उसमें रस निकालना कोई आसान काम नहीं हैा बिना किसी सीढी के 40 फिट की उंचाई पर बांस के सहारे चढने में जान जाने का खतरा होता है. कई ग्रामीण सल्‍फी के पेड से गिरकर अपनी जान गंवा चुके है. सल्‍फी के पेड़ से रस निकालने में एक व्‍यक्ति ही नियत होता है हर बार वही व्‍यक्त्‍िा ही रस निकालता है. रस निकालने के पहले अपने देवता की पूजा की      जाती है.

सल्‍फी का ताजा रस स्‍वास्‍थ्‍य के लिये अच्‍छा होता है. बीयर की तरह हल्‍का नशा होने के कारण यह बस्‍तर की बीयर या देशी बीयर के नाम से प्रसिद्ध है. रस बासी होने पर खमीर उठना शुरू हो जाता है और इसके सेवन से नशा होने लगता हैा
बस्‍तर में लडकियों को शादी में सल्‍फी के वृक्ष दहेज में दिये जाते है. जिससे आजीवन होने वाली कमाई पर लडकी का ही अधिकार होता है.

29 जनवरी 2018

बस्तर की चापडा चटनी

बस्तर की चापडा चटनी 

आदिवासियो की प्रिय, लाल चिंटियो की चटनी।

ओम सोनी


बस्तर मे सरगी वृक्ष बहुतायत मे पाये जाते है। सरगी वृक्ष बस्तर के आदिवासियो की बहुत से जरूरतो को पुरा करते है जैसे इनके पत्तो से दोना, पत्तल बनता है , सरगी के लकडी से दांतो की सफाई के लिये दातुन बनता है। सरगी पेड के नीचे बरसात के शुरुवाती दिनो मे आने वाले प्रसिद्ध बोडा का उत्पादन होता है जो की बस्तर की बहुत ही प्रिय सब्जी है और सरगी के पेड के पत्तियो मे एक लाल चींटी का निवास भी है. यह लाल  चींटी की चटनी बस्तर के आदिवासी का प्रिय भोज्य पदार्थ है। 



यह लाल चींटी चापड़ा चींटी के नाम से जानी जाती है. चापडा का अर्थ है - पत्तियो से बनी हूई घोसला. लाल चिंटिया सरगी वृक्ष की पत्तियोे को अपनी लार से चिपका कर घोसला बना कर रहती है।

प्रायः आम अमरूद साल और अन्य ऐसे पेड़ जिनमें मिठास होती है उन पेड़ों पर यह चींटियां अपना घरौंदा बनाती हैं। आदिवासी एक पात्र में चींटियों को एकत्र करते हैं। इसके बाद इनकों पीसा जाता है। नमकए मिर्च मिलाकर रोटी के साथ या ऐसे ही खा लिया जाता है। चींटी में फॉर्मिक एसिड होने के कारण इससे बनी चटनी चटपटी होती है। इसमें प्रोटीन भी होता है।

बस्तर के आदिवासी इन चिंटियो को पिसकर चटनी बना कर खाते है. चापडा चटनी का सेवन आँखो से जुडे हुए बीमारियो के लिये राम बाण औषधी है।  गर्मी के दिनो खासकर अप्रेल मई के दिनो मे इस चापडा चटनी का प्रयोग किया जाता है।

 चापडा चटनी के बारे एक ओर विश्वास है कि किसी भी रोगी के शरीर पर इन् चिंटियो के घोसले को डालने से इनके डंक से रोगी स्वस्थ हो जाता है।  लाल चींटी की चटनी को औषधि के रूप में प्रयोग ला रहे आदिवासियों का कहना है कि चापड़ा को खाने की सीख उन्हें अपनी विरासत से मिली है। यदि किसी को बुखार आ जाए तो उस व्यक्ति को उस स्थान पर बैठाया जाता है जहां लाल चींटियां होती हैं। चींटियां जब पीड़ित व्यक्ति को काटती हैं तो उसका बुखार उतर जाता है।

बस्तर के हाट बाजार में बहुतायत में चापड़ा पांच रुपए दोना में बेचा जाता है। ग्रामीण जंगल जाकर पेड़ के नीचे गमछा कपड़ा बिछाकर शाखाओं को जोर.जोर से हिलाते हैंए जिससे चींटियां झड़ कर नीचे गिरते हैंए उन्हें इकट्ठा कर बेचने के लिए बाजार लाया जाता है।

बहादुर कलारीन की माची

बहादुर कलारीन की माची , चिरचारी, बालोद। 

 ओम सोनी


बालोद जिले में बालोद से गुरूर रोड में अन्दर की ओर चिरचारी नाम का गांव है. यह पत्थरो से बना एक मंडप था जो कि बहुत ही जीर्ण शीर्ण था।  वर्तमान में यह पुरा बिखर गया है। यहां प्रचलित कथा के अनुसार कभी कोई हैहयवंशी राजा यहां शिकार खेलने के लिये आया था। वह गांव की बहादुर कलारीन पर मोहित हो गया था. बाद में दोनो ने गंधर्व विवाह कर लिया। बहादुर कलारीन गर्भवती हो गई थी।  राजा ने उसे इसी अवस्था में छोड कर वापस अपने राज्य में चला गया। बहादुर कलारीन ने एक बालक को जन्म दिया। उसने उसका नाम कचान्छा रखा।
पत्थरो से बना एक मंडप


वह जब बडा हो गया तो उसने अपनी माँ से अपने पिता के बारे में पुछा तब बहादुर कलारीन ने अपने साथ घटित घटनाओ के बारे अपने बेटे को बताया।  तब कचान्छा को सभी राजाओ से नफरत हो गई। उसने अपना सैन्य संगठन खडा किया और आसपास के सारे राजाओ पर हमला कर दंडित किया।

 एक बार उसने एक राजा पर हमला कर उसकी बेटियो को बन्दी बना लिया। बहादुर कलारीन ने अपने बेटे को उन निर्दोष राजकुमारियो को छोडने के लिये कहा।  परंतु बेटा नहीं माना। तब उस बहादुर कलारीन ने अपने बेटे को खाने में जहर देकर मार दिया ओर उसके पश्चाताप में खुद ही कुएँ में कुद कर आत्म हत्या कर ली।  उसी के याद में यह मंडप या माची बनाई गई थी। यह स्मारक 15 वी सदी का अनुमानित है। 

27 जनवरी 2018

चित्रधारा जलप्रपात जगदलपुर

चित्रधारा जलप्रपात जगदलपुर 

अस्सी के दशक के फिल्मो की य़ादे ताजा करता चित्रधारा !
ओम सोनी


बस्तर की धरती  बेहद ही मनमोहक एवं सुंदर दृश्यों से भरी पड़ी है। दृश्य इतने मनमोहक होते है कि कई दिनों तक आंखो के सामने घुमते रहते है। वैसा ही एक बेहद ही सुंदर जलप्रपात है चित्रधारा जलप्रपात। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है मनमोहक झरनों का बेहतरीन दृश्य। बहती हुयी धाराओं का बेहतरीन चित्र ही चित्रधारा जलप्रपात है।
पोज देते हुये लेखक


जगदलपुर से 20 किलोमीटर दुर चित्रकोट रोड की तरफ पोटानार के पास एक छोटा सा परंतु बहुत ही खूबसूरत झरना है.
चित्रधारा 

खेतो से बहता हुआ पानी एक नाले का रूप ले लेता है। यह बरसाती नाला एक गहरी और लम्बी खाई में कई हिस्सो में 50-60 फीट के बहुत ही सुंदर झरने बनाता है  और  आगे बहते हुये विशाल इन्द्रावती नदी में विलीन हो जाता है।
खेतो से बहता हुआ पानी 

चित्रधारा जलप्रपात जगदलपुर से सबसे नजदीक एवं आदर्श पर्यटन स्थल है. चित्रधारा के आसपास का नजारा बेहद ही मनमोहक है. चारो तरफ धान के हरे भरे खेत , रंग बिरंगे फूल, खेतो में बहता निर्मल पानी , नीले अम्बर में विचरते बादल ये सभी दृश्य मन को बहुत आनंदित करते है, यहां से वापस घर जाने का मन ही नहीं होता है. चित्रधारा तथा आसपास के मनमोहक दृश्य,  80 के दशक के फिल्मो के प्राकृतिक दृश्यो की य़ादे ताजा कर देते है।
रंग बिरंगे फूल
जगदलपुर से 20 किलोमीटर की दुरी पर है। यहां स्वयं के वाहन से जुलाई से दिसम्बर तक इस झरने के सुन्दरता का आनन्द ले सकते है।  परिवार के साथ पिकनिक का सबसे उत्तम स्थल है।  समुह पर्यटन के रूप में चित्रकोट जलप्रपात, तामड़ा घुमर, मेंदरी घुमर, नारायणपाल कुरूषपाल जैसे ऐतिहासिक स्थलों का भी भ्रमण किया जा सकता है।

वन दूर्गा देवी, दंतेवाड़ा

वन दूर्गा देवी, भैरम बाबा मन्दिर दंतेवाड़ा 

पत्तियाँ चढाई जाती है यहां देवी को।
ओम सोनी

पुरे भारत में देवियों को विभिन्न स्वरूपो में पूजा जाता है।  अनेको नाम से आव्हान किया जाता है। देवी शक्ति से जुड़ी अनेको मान्यताये भी प्रचलित है।  ऐसी ही, देवी से जुड़ी एक अनोखी मान्यता दंतेवाड़ा में  भी प्रचलित है। मान्यता के अनुसार यहां देवी को पेड़ो की पत्तियाँ अर्पित की जाती है।
वन दूर्गा देवी


दंतेवाड़ा में शंखिनी डँकिनी नदियो के संगम में पर बस्तर की आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी का जगत प्रसिद्ध मन्दिर है वही दुसरी तरफ भैरव बाबा का मन्दिर है। भैरव बाबा मन्दिर परिसर में ही किनारे एक छोटा सा मन्दिर निर्मित है जिसमें देवी भैरवी की प्रतिमा स्थापित है जिसे स्थानीय लोग वनदूर्गा के नाम से पूजा करते है।

सामान्यतया जहां देवी देवताओ को विभिन्न फल फूल एवं मिठाइयाँ चढाई जाती है। परंतु विशिष्ट मान्यता अनुसार यहां देवी को पेड़ पौधो की पत्तियाँ चढा कर भक्त देवी से आशिर्वाद प्राप्त करते है। भक्तों से पत्तियाँ स्वीकार करने के कारण देवी , डालखाई देवी के नाम से भी जानी जाती है।  यह प्रतिमा ग्यारहवी सदी में निर्मित मानी गयी है। यह मन्दिर भी केंद्रिय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है।

चितावरी देवी मन्दिर, धोबनी

चितावरी देवी मन्दिर, धोबनी

ईंटो से बना ताराकृति का प्रमुख मंदिर
ओम सोनी

रायपुर बिलासपुर मार्ग में दामाखेडा ग्राम से बाये तरफ अन्दर की ओर, दो किलो मीटर की दुरी पर धोबनी नामक ग्राम स्थित है. इस ग्राम के मध्य में तालाब के किनारे एक विशाल प्राचीन मंदिर अवस्थित है. यह मंदिर पश्चिमाभिमुख है जो कि मूलतः भगवान शिव को समर्पित है।  मंदिर लगभग दो फीट ऊँचे चबुतरे पर निर्मित है। मन्दिर का नीचे का हिस्सा पत्थरों से बना है।




    
शिखर वाला भाग ईंटो से निर्मित है. शिखर में आमलक एवं कलश नहीं है. मन्दिर का गर्भगृह वर्गाकार है. शिखर का सामने का हिस्सा क्षतिग्रस्त होने के कारण सीमेंट की ढ़लाई कर ज़ीर्णोद्धार किया गया है. गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है. शिवलिंग के बीच में दरार पड़ी हुयी है, जो कि सिन्दुर से पुता हुआ है. स्थानीय ग्रामवासी शिवलिंग चितावरी देवी के नाम से पूजा करते है इसलिये इस मन्दिर को चितावरी देवी के मन्दिर के नाम से जाना जाता है।

 गर्भगृह का नीचे का हिस्सा लाल बलुआ पत्थरो से बना है.ऊपर का पुरा हिस्सा लाल पकी ईंटो से बना है. यह मन्दिर तारे की आकृति में निर्मित है. मन्दिर के बाहरी दिवारो पर चैत्य गवाक्ष , व्याल अंकन किया गया है। मन्दिर के बांयी तरफ बाहरी दिवार में दरवाजे की आकृति निर्मित है 


जिसमे दांये पल्ले में एक नायिका को झांकते हुए बहुत ही आकर्षक रूप से दर्शाया गया है. उसी प्रकार दुसरे तरफ के दरवाजे में दाये पल्ले में एक नायिका कमल की कली पकड़े हुए खडी है। दाये हाथ के नीचे एक पुरूष प्रतिमा बैठी हूई प्रदर्शित है।

इसी तरह बहुत से चैत्य गवाक्षो एवं व्याल अंकन भी किया गया है। यह मन्दिर पूर्णतः सुरक्षित अवस्था में है। छ0ग0 में ईंटो से निर्मित तारा आकृति के मन्दिरो में यह मंदिर प्रमुख है। स्थापत्यकला के आधार पर इतिहासकार इसे सोम वंशी काल में 9 वी सदी में निर्मित मानते है। 


25 जनवरी 2018

हरिहर प्रतिमा

  हरिहर प्रतिमा - चंद्रादित्य मंदिर बारसूर

ओम सोनी

            बारसूर में चंद्रादित्य मंदिर बाजार स्थल में विशाल तालाब के किनारे स्थित है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। गर्भगृह के प्रवेशद्वार के ललाटबिंब पर भगवान हरिहर की प्रतिमा अंकित है। पुरे छत्तीसगढ़ में एक मात्र यही मंदिर है जिसके प्रवेशद्वार पर हरिहर की प्रतिमा स्थापित है। हिन्दु धर्म में विष्णु (हरि) तथा शिव (हर) का सम्मिलित रूप हरिहर कहलाता है। इनको शंकरनारायण तथा शिवकेशव भी कहते है। विष्णु तथा शिव दोनों का सम्मिलित रूप होने के कारण हरिहर वैष्णव और शैव दोनो के लिये पूज्य है। 

             शिव और विष्णु ने अपनी एकरूपता दर्शाने के लिये ही हरिहर रूप धरा था, जिसमें एक हिस्सा विष्णु और दुसरा हिस्सा शिव का है। हरिहर की यह प्रतिमा समभंग मुद्रा में है। प्रतिमा में दाये तरफ सिर पर जटामुकुट और कानों में सर्पकुंडल धारण किये हुये है। बायें तरफ सिर पर किरीट मुकुट का अंकन किया गया है। यह प्रतिमा चर्तुभुजी है जिसमें विभिन्न आयुध सुशोभित है। दायें तरफ त्रिशुल और वरद मुद्रा में प्रदर्शित है। 
           वहीं बायें हाथ में चक्र और शंख धारण किये हुये है। प्रतिमा में दायें तरफ नंदी और बांये तरफ अंजलिमुद्रा में गरूड़ बैठे हुये अंकित किये गये है। यह प्रतिमा शिल्पशास्त्र विष्णुधर्मोत्तर पुराण में दिये हुये मानकों के आधार पर बनी हुयी है। 

तीरथगढ़ का गुरू जलप्रपात - मंडवा

तीरथगढ़ का गुरू जलप्रपात  - मंडवा 

ओम सोनी

बस्तर, एशिया के सबसे चौड़े जलप्रपात चित्रकोट एवं छ0ग0 के बड़े जलप्रपातो में से एक तीरथगढ़ जलप्रपात की असीम सुंदरता के कारण पुरे विश्व में प्रसिद्ध है। इसके अलावा बस्तर में और भी अनेकों जलप्रपात है। जो चित्रकोट और तीरथगढ़ के जैसे बड़े आकार के तो नहीं है परन्तु अपने अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य में किसी भी प्रकार से कम नही है। जगदलपुर से गीदम राजमार्ग में मावलीभाठा ग्राम में मंडवा नाम का बेहद ही खुबसुरत जलप्रपात है। 


यह जलप्रपात तीरथगढ़ जलप्रपात की हुबहु नकल है। आकार में यह तीरथगढ़ जलप्रपात से बेहद ही छोटा है किन्तु इसकी खुबसुरती तीरथगढ़ जलप्रपात की तरह ही बेहद ही मनमोहनी है। सीढ़ीदार चटटानों से गिरता निर्झर मन को असीम शांति की अनुभूति देता है।


 इस निर्झर की मधुर ध्वनि हदय को प्रसन्नचित कर देती है।  दुर से सुनाई देती निर्झर की मधुर ध्वनि , इसके सौंदर्य दर्शन के लिये मन को बेहद ही आतुर कर देती है। बेहद ही शांत वातावरण में जलप्रपात की झलझल करती धाराये, खेतों में चहचहाते पक्षी रोजमर्रा की थकान को पल भर में दुर कर देते हैं। 


यह जलप्रपात मुनगा नदी में बना हुआ है। मुनगा और बहार नदियो के संगम उपरांत ही तीरथगढ़ जलप्रपात बना है। यह जलप्रपात लगभग 70 फीट की उंचाई का है। इस जलप्रपात में मुनगा नदी सीढीदार चटटानों से गिरकर हुबहु तीरथगढ़ जलप्रपात के जैसे झरने बनाती है। इस लिये इस मंडवा जलप्रपात को तीरथगढ़ जलप्रपात की गुरू जलप्रपात भी कहा जाता है। 


इसके सौंदर्य को निहारने के लिये जुलाई से लेकर जनवरी तक का समय सबसे अच्छा होता है। जगदलपुर से गीदम राजमार्ग में मावलीभाठा ग्राम स्थित है। इस ग्राम के पास ही मंडवा जलप्रपात है। स्वयं के वाहन से स्थानीय ग्रामीणों के मदद से यहां पहुंचा जा सकता है। साथ ही साथ मावलीभाठा के पास ही ढोडरेपाल के प्राचीन नाग युगीन मंदिरों का भी भ्रमण किया जा सकता है। 

24 जनवरी 2018

ढोडरेपाल के प्राचीन मंदिर समुह

ढोडरेपाल के प्राचीन मंदिर समुह

ओम सोनी


बस्तर में आज भी बहुत से ऐसे ऐतिहासिक स्थल है जो कि बेहद ही सुगम्य है फिर  भी आम लोगों को इनकी कोई जानकारी नहीं है। जगदलपुर से गीदम राजमार्ग में मावलीभाठा ग्राम भी एक बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है किन्तु, कुछ लोग ही इस गांव की ऐतिहासिक महत्ता से परिचित है। उचित प्रचार प्रसार नहीं होने के कारण आम लोग बस्तर के ऐतिहासिक धरोहरों से आज भी अनभिज्ञ है। 


ढोडरेपाल के प्राचीन मंदिर समुह

जगदलपुर-गीदम राष्ट्रीय राजमार्ग में जगदलपुर से 25 किलोमीटर की दुरी पर मावलीभाठा नाम का छोटा सा ग्राम है। इस ग्राम के पास से किरन्दुल कोटवालसा रेलमार्ग है। रेलमार्ग के उस पार , खेतों में प्राचीन मंदिर समुह है। ये मंदिर संख्या में तीन थे किन्तु एक मंदिर नश्ट हो जाने के कारण अब दो ही मंदिर सुरक्षित विद्यमान है। ये मंदिर समुह पूर्वाभिमुख है। दोनो ही मंदिर में शिवलिंग प्रतिष्ठापित है। एक मंदिर में शिवपार्वती की युगल प्रतिमा भी स्थापित है। ये मंदिर लगभग 25 फीट उंचे है। मंदिर गर्भगृह एवं मंडप में विभक्त थे। मंडप पुरी तरह से नष्ट हो गये है। शिखर पर आमलक एवं कलश स्थापित है। बाहरी दीवारो में बनी रथिकायें प्रतिमा विहिन है। मंदिरों की आकृति रथों के समान है। निर्माण शैली में उत्कल शैली की छाप स्पष्ट प्रदर्शित होती है। 
विश्वकर्मा देव 


मंदिर प्रांगण में ही स्थानीय ग्रामवासियों की देवगुड़ी भी है। देवगुड़ी में देव की प्रतिमा स्थापित है। स्थानीय ग्रामवासी देव को विश्वकर्मा भगवान के नाम से पुजा करते है। इस कारण इन मंदिर समुहों को विश्वकर्मा मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। चुंकि ये मंदिर ढोडरेपाल गांव की सीमा में आते है इसलिये इस अंचल में ये मंदिर ढोडरेपाल के विश्वकर्मा मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।  

बस्तर में आठवी सदी के मध्य से लेकर चौदहवी सदी के प्रारंभ तक छिंदक नागवंशी राजाओं का षासन था। नाग शासकों ने अपने अपने राजत्व काल में बहुत से मंदिरों का निर्माण करवाया था। जिसमें आज भी बहुत से मंदिर सुरक्षित अवस्था में है। ढोडरेपाल के ये मंदिर भी नागयुगीन स्थापत्यकला के अनुपम उदाहरण है। तीसरे मंदिर के पास ही, लगे हुये पेड़ के कारण, वह मंदिर ध्वस्त हो गया। पुरातत्व विभाग ने मंदिरों को पुर्नसंरचित कर जीर्णोद्धार किया है। चारदीवारी से इन मंदिरों को सुरक्षित किया गया है। 
ढोडरेपाल के प्राचीन मंदिर समुह


मंदिर के पास ही कुछ दुरी पर एक बहुत ही सुंदर जलप्रपात है। यह जलप्रपात मंडवा के नाम से प्रसिद्ध है। पिकनिक के लिये यह जलप्रपात बेहद आकर्षक स्थल है। पर्यटक मंदिर के दर्शन उपरांत मंडवा जलप्रपात के अप्रतिम सौंदर्य का भी आनंद ले सकते है। 

23 जनवरी 2018

भीमा कीचक मंदिर मल्हार !

भीमा कीचक मंदिर मल्हार !

                                                                                                                                                                                                             
  
मल्हार छत्तीसगढ़ की प्रमुख प्राचीन नगरी है।  मल्हार बिलासपुर से 40 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। यह मस्तुरी ब्लाक से 15 किलोमीटर दुरी बिलासपुर रायगढ़ मार्ग पर स्थित है।


यहां पर प्राचीन काल के कई ऐतिहासिक मंदिर एवं टीले मौजुद है। प्राचीन समय में यह नगर मल्लाल एवं मल्लालपटटन के नाम से जाना जाता था। यहां हुये उत्खनन से इस स्थल की प्राचीन इतिहास एवं समृद्ध वैभव शाली संस्कृति का पता चलता है। 1873 में बेगलर ने यहां का भ्रमण किया था , उसने अपने रिपोर्ट में मल्हार के मडफोर्ट का जिक्र किया है।

यहां मिले सिक्कों से कई राजवंशों की जानकारी मिलती है। मल्हार में हुये उत्खनन से यहां मौर्य, सातवाहन, शरभपुरीय, सोमवंशी, एवं कल्चुरी राजवंश की संस्कृति की जानकारी प्राप्त हुयी है। मल्हार में डिडनेश्वरी देवी मंदिर, पातालेश्वर मंदिर, भीमाकीचक मंदिर  ऐतिहासिक महत्व के मंदिर है। 


मल्हार में भीमाकीचक मंदिर एतिहासिक महत्व का प्रमुख मंदिर है। यह मंदिर एक टीले के रूप में था। टिले के उत्खनन से यह मंदिर सामने आया है। मंदिर गर्भगृह एवं अंतराल में विभक्त है। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। मंदिर का शिखर पुरी तरह से नष्ट हो चुका है। मंदिर की सिर्फ सादी दिवारे ही शेष है। मंदिर की द्वार शाखा बेहद ही अलंकृत है।

यह द्वार शाखा तीन शाखों में विभक्त है। बाहर की शाखा में भारवाहक एवं उनके द्वारपालों प्रतिमा स्थापित है। मध्य की शाखा में भारवाहक के उपर नदी देवी गंगा यमुना की बेहद ही आकर्षक प्रतिमायें स्थापित है। अंत की प्रमुख द्वार शाखा में शिव पार्वती , ब्रहमा, कार्तिकेय एवं शिव के गणों की विभिन्न मुद्राओं की आकर्षक प्रतिमायें खुदी हुयी है। इन सभी दृश्यों के चारों तरफ आकर्षक सुंदर पुष्पलताओं का अंकन किया गया है।

मंदिर के बाहर दो विशाल प्रतिमायें है जिसे स्थानीय लोग भीमा और कीचक के नाम से जानते है  जिसके कारण यह मंदिर भीमाकीचक मंदिर के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया है। इतिहासकारों ने इस मंदिर को 7 वी से 8 वी सदी के मध्य में निर्मित माना है।

--  ओम सोनी

बाहर आता बारसूर का इतिहास !

बाहर आता बारसूर का  इतिहास !

                                                                                                                                                   ओम सोनी, एम0ए0 इतिहास गोल्डमेडलिस्ट दंतेवाड़ा  

बारसूर नगर की धरती आज भी बहुत से प्राचीन मंदिरों एवं उनके अवषेशों को अपने अंदर समेटे हुये है। हजारों वर्शो से ये प्राचीन मंदिर एवं उनके अवषेश जमीन में दबे हुये है। हाल के कुछ वर्शो मे बारसूर में इन मंदिरों के अवषेशों को बाहर लाने के लिये कुछ हलचल हुयी है। बारसूर के गणेषमंदिर परिसर मे पुराने ऐतिहासिक मंदिरों के अवषेशों का मलबा बिखरा पड़़ा था। पुरातत्व विभाग ने मलबे की सफाई की तो उस घ्वस्त मंदिर का एक अलग ही स्वरूप बाहर आया। मंदिर के गर्भगृह पर पड़े प्रस्तरों को हटाया गया तो उसमे एक जलहरी युक्त षिवलिंग बाहर आया। सरस्वती देवी की प्रतिमा बाहर आयी। 



गणेष मंदिर परिसर की पुरी मलबा सफाई एवं खुदाई के कार्य से पांच मंदिरों के अवषेश बाहर आये। जिनमें से एक मंदिर बड़ा एवं चार मंदिर छोटे है। यह मंदिर पंचायतन षैली मे है। गणेष प्रतिमाओं के सामने वाला बड़ा मंदिर मूलतः षिवमंदिर है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है जो कि गर्भगृह, अंतराल एवं मंडप युक्त था । मंडप के सामने एक दुसरा गर्भ गृह खुदाई से बाहर आया है। मंदिर का मंडप स्तंभो से युक्त था। मंडप के अंदर से ही गर्भ गृह के लिये दोनो ओर प्रदक्षिणा पथ का निर्माण था। मंदिर के सामने वाले गर्भगृह से जलहरी प्राप्त हुयी है। यह बारसूर का अनोखा मंदिर था जिसमें दो गर्भ गृह आमने सामने थे। 


इस बडे मंदिर के दायी तरफ एक छोटा मंदिर खुदाई मे सामने आया जो कि पूर्वाभिमुख है। मंदिर के पीछे विपरित दिषा मे एक और मंदिर मलबे की सफाई में सामने आया जो कि पष्चिमामुभिमुख है। गणेष प्रतिमाओ के दायी तरफ ऐसे दो और मंदिर खुदाई में बाहर आये जो पूर्वाभिमुख है। एक मंदिर पर स्तंभो को खड़ा कर उस पर प्रस्तर की छत बना दी गयी जिसमें एक कलष रखा गया है। इस प्रकार 1 बडे मंदिर एवं चार छोटे मंदिर सहित कुल 05 मंदिर मलबा सफाई एवं खुदाई कार्य से बाहर आये है। इन सारे मंदिरों का नीचला हिस्सा ही मात्र षेश है। मंदिर के अवषेश किनारे एकत्रित रखे गये है। 


गणेषमंदिर परिसर मंे गणेषजी के 7 एवं 5 फीट उंची विषाल प्रतिमायें है जिन्हे संरक्षित किया गया है। कहा जाता है बारसूर में 147 मंदिर हुआ करते थे। आज भी बारसूर में बहुत से मंदिर है जो टीले में दबे हुये है जो इस इंतजार मे है कि कब बारसूर में उतखनन कार्य हो और सबके सामने बारसूर का पुरा इतिहास सामने आये

त्रिशूल स्थापना से फागुन मेले की शुरूआत

            त्रिशूल स्थापना  से हूई फाल्गुन मंडई की शुरूआत .....!  

                                                                             
मां दंतेश्वरी मंदिर दंतेवाड़ा में ऐतिहासिक फागुन मंडई की शुरूआत बसंत पंचमी के अवसर पर त्रिशूल  की स्थापना के साथ हो गया है। शुद्ध तांबे से निर्मित इस त्रिशूल को मंदिर के समक्ष मन्दिर के पूजारी सभी परगनों के मांझी मुखियों की उपस्थिति में परंपरानुसार विधि विधान से स्थापित किया गया।

दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी के मुताबिक कई वर्षो से परंपरानुसार इस शुद्ध तांबे के त्रिशूल स्तंभ की स्थापना की जा रही है। विधिवत त्रिशूल स्थापना रस्म के साथ ही विश्व प्रसिद्ध फागुन मंडई प्रारंभ हो जाती है। उन्होंने बताया कि त्रिशूल को मां भगवती का अस्त्र माना गया है, इसलिए इसे सती के प्रतीक के रूप में भी पूजा जाता है। फागुन मेले की शुरूआत बस्तर के राजा पुरूषोत्तम देव के समय हूई थी।


पुजारी के मुताबिक प्रतिवर्ष फागुन मंडई की शुरूआत त्रिशूल स्तंभ की स्थापना के साथ होती है, जो मेला संपन्न होने तक मांईजी के मंदिर के समक्ष स्थापित रहता है। मेला के दौरान विभिन्न रस्मों की अदायगी के दौरान यहां पूजा अर्चना की जाती है। त्रिशुल स्थापना की इस रस्म को डेरी गड़ाई कहते हैं।   इसे राजा भैरमदेव ने राजस्थान के जयपुर से बनवाया था। यह त्रिशूल ओर जिस खंब में त्रिशूल की स्थापना की जाती है ये दोनो लगभग ढ़ाई  सौ साल पुराने है।

तांबे के त्रिशूल में दोनो फलक के नीचे भगवती के वाहन सिंह, मध्य में नागदेवता तथा गरूड़ का प्रतीक है। त्रिशूल की स्थापना से के बाद फागुन मेले में शामिल होने के लिये देवी देवताओ को न्यौते भेज जाते है। यह त्रिशूल मन्दिर के समक्ष बसंत पंचमी से लेकर फागुन मेले की समाप्ति तक रहता है। मेला संपन्न होने के पश्चात आमंत्रित देवी-देवताओं की विदाई के दूसरे दिन त्रिशूल खंब को देवी के शयन कक्ष में पुनः रख दिया जाता है।


सायं  को दंतेश्वरी मंदिर से मांईजी का छत्र, जवानों कीे सलामी के बाद पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ जयस्तम्भ चैक तक  ले जाया  जाता है। चैक में मांईजी की छत्र की पूजा अर्चना की जाती है। इस दौरान लोगो द्वारा मांईजी के छत्र को आम के बौर अर्पित किए जाते है । लोग कानांे में आम की बौर को खोसकर बसंत आगमन की खुशियां मनाते है।इस रस्म को स्थानीय बोली में आमा मउड़ कहा जाता है। 

बसंत पंचमी से प्रारंभ होने वाले इस ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक फागुन मेला, फागुन शुक्ल षष्ठी से पूर्णिमा तक होता है।

15 जनवरी 2018

ढोलकल पर विराजे गणेश

ढोलकल पर विराजे गणे
ओम सोनी, 
       
            बैलाडिला की पहाड़ियों की पहचान पुरी दुनिया में इसके गर्भ में पाये जाने वाले लौह अयस्क के कारण है। यहां का लौह अयस्क सर्वाधिक षुद्ध एवं उच्च कोटि का माना जाता है। बैलाडिला की सबसे उंची चोटी नंदीराज की चोटी है। बैल के डिले के आकार की चोटी के कारण इन पहाडियों को बैलाडिला की पहाडी के नाम से प्रसिद्ध है। ये पहाडिया लौह अयस्क से परिपूर्ण तो है साथ इन पहाड़ियों में बस्तर का अनदेखा इतिहास छिपा पड़ा है। इन पहाड़ियो में बहुत सी ऐतिहासिक प्रतिमायें बिखरी पड़ी है जो इंतजार में है दुनिया के सामने आने के लिये।


          ढोलकल हां एक ऐसा नाम जो अब बहूत ही प्रसिद्ध हो चुका हैं। जो कभी गुमनाम था किसी कोने में। आज यह ढोलकल पुरी दुनिया के सामने है। बैलाडिला की एक उंची चोटी है ढोलकल। ढोलकल आज पुरी दुनिया में जाना जा रहा है अपने अप्रतिम मनमोहक लुभावने वन एवं प्राकृतिक दृष्य और उस चोटी में विराजित प्रथम वंदनीय गणेषजी की प्रतिमा के कारण।


          मैं बहुत पहले से ही ढोलकल के बारे में जानता था जब मैं आठवी में था अर्थात 2005 से ही मुझे इसकी जानकारी थी। मेरा दोस्त ढोलकल के पास मासोडी गांव का था। उसने बताया था मुझे ढोलकल के बारे मे। बह कई बार जा चुका था ढोलकल। उस वक्त ढोलकल बाहरी दुनिया के नजर में नही आया था। मैंने भी दो बार कोषिष की थी ढोलकल जाने की पर सफल नही हो पाया। 2012 में कुछ स्थानीय पत्रकारों ने इस ढोलकल को दुनिया के सामने लाया था। उंची पर्वत चोटी में विराजित गणेष जी की प्रतिमा की छायाचित्र छा गयी थी।  लगभग हर जगह इसकी चर्चाये होने लगी थी। मैं मई 2015 में पहली बार यहां गया था।

         ढोलकल नामक बैलाडीला की चोटी में विराजित गणेषजी की प्रतिमा के बारे में हमे सबसे पहले अंग्रेज अधिकारी डा कु्रकषेक की रिपोर्ट से पता चलता है। 1934 -35 में भारतीय भू गर्भ सर्वेक्षण के वैज्ञानिक डा कु्रकषेक ने बैलाडिला के पहाड़ियो में लौह अयस्क के सर्वे हेतु एक जियोलाजिकल रिपोर्ट आफ साउथ बस्तर नाम की रिपोर्ट तैयार की थी। उन्हेाने चैदह पहाड़ियों का सर्वे कर नक्षा तैयार किया था। उस रिपोर्ट में सबसे पहले बैलाडिला के पहाड़ियो की एक चोटी में गणेष की छः फीट की प्रतिमा के बारे में लिखा था। ढोलकल दो समानंतर पहाड़ियां है जिनका आकार एक खड़े ढोल की तरह है। एक चोटी पर गणेष की छः फीट उंची प्रतिमा स्थापित है। वहीं दुसरी चोटी को सूर्य मंदिर के रूप में जिक्र किया था जहां अब सिर्फ अवषेश मात्र है।
        
        बैलाडिला की एक उंची चोटी है जिसका आकार ढोलनुमा है। गोंडी में पत्थर को कल कहा जाता है इसलिये इस चोटी को स्थानीय आदिवासी ढोलकल के नाम से पुकारते है। दरअसल पहाडी से एक बडी सी गोलाकार चटटान लगी हुई। यह चटटान लगभग 25 फीट की है तथा बीच से दो हिस्सों में है। इस ढोलनुमा चटटान के उपर विघ्नहर्ता प्रथम पूजनीय श्री गणेषजी की प्रतिमा कई सैकड़ों  सालों से यहां स्थापित है। इस ढोलनुमा चटटान में 6 से 7 लोगों की बैटने लायक जगह है। गणेष जी की प्रतिमा वास्तव में सिर्फ तीन फीट ही उंची है। यह प्रतिमा एक चैकोर प्रस्तर पर निर्मित है। काले पत्थर से निर्मित गणेषजी की यह प्रतिमा ललितासन में है। सिर पर मोर मुकुट धारण किये है। चर्तुभुजी गणेष जी के दाहिने उपर वाले हाथ में फरसा धारण किये तथा नीचे वाले हाथ वरदमु्रदा में माला धारण किये है। बायें हाथ में उपर की ओर एक टूटा हुआ दांत प्रदर्षित है वही नीचे वाले हाथ में मोदकों से भरा पात्र धारण किये है। माथे में , हाथों में , गले में, पैरों में आभूशण धारण किये    हुये है। तन पर जनेउ के रूप में जंजीर धारण किये हुये। पेट में नाग का अंकन किये हुये जिसके आधार पर इस प्रतिमा को नागवंषी काल में निर्मित मानते है।

        नागवंषियों ने 9 सदी से 14 वी सदी तक बस्तर के भू भाग पर षासन किया है।  इतिहासकार इस प्रतिमा का निर्माण काल 10-11 वी सदी में मानते है। वास्तव में उस समय इस चटटान पर मंदिर निर्माण की योजना थी।  आज जिन प्रस्तरों के सहारे गणेषजी की प्रतिमा स्थापित है वे प्रस्तर उस छोटे से मंदिर की दीवारे में प्रयुक्त थे जो वहां बनने वाला था। इन चैड़े समतल प्रस्तरों को को छेदकर लकड़ी या अन्य किसी के द्वारा आपस में जोड़ा गया था। समय के साथ जोड़ने वाली लकड़ी सड़ गई और सारे प्रस्तर बिखर कर नीचे गिर गये। कुछ प्रस्तर ही षेश है जिनके सहारे प्रतिमा अब भी स्थापित है। मंदिर के उपर लगने वाली छत सामने के पहाड़ी पर रखी हुई है। यह समकोण काटी हुई चैकोर लंबे प्रस्तरो से निर्मित है। जो कि आज भी वही है। 
         ढोलकल पहाडी़ के नीचे एक पगडंडी बीजापुर जिले के मिरतुर ग्राम की ओर जाती है उस मार्ग में क्षतिग्रस्त जलहरी एवं आवासीय संरचना प्राप्त हुये जिसे स्थानीय लोग बरहागुड़ा कहते है। यहां आसपास के ग्रामों जैसे पंडेवार , भोगाम, कंवलनार, केषापुर आदि ग्रामो में ढोलकल से जुड़े कुछ मिथक मिलते है जैसे यहां एक देवी थी जो पहाड़ में खोहनुमा जगह में रहती थी। वह डमरू बजाकर गणेषजी की पूजा करती थी। कई सालो तक यहां से डमरू की आवाजे सुनाई देती रही है। इस कारण ग्रामीण इस षिखर को ढोलमेटटा कहते है जो बाद में ढोलकल के रूप में जाना जाने लगा । पहाड़ी की ढलान में देवी की नग्न प्रतिमा स्थापित थी जो बाद में चोरी हो गई।

       बैलाडिला की पहाडियां लौह अयस्क एवं अन्य खनिजों से तो संपन्न है परन्तु ये विविध वृक्षों एवं पौधों से भी संपन्न है। इन पहाडियों पर सल्फी नामक वृक्ष बहुतायत में पाये जाते है। बस्तर के स्थानीय आदिवासी सल्फी वृक्ष के रस को हल्के मादक पेय पदार्थ के रूप में प्रयोग करते है। ढोलकल के पहाडियो में भी सल्फी के बहुत से वृक्ष थे इन वृक्षों से रस प्राप्ति के लिये ग्रामीण इन पहाड़ो मे जाते थे जिसके कारण उन्हे गणेषजी की प्रतिमा देखने को मिली। इस प्रकार आसपास के गांव वालो को इस प्रतिमा के बारें में जानकारी प्राप्त हुई। 
       पास ही एक दुसरी चोटी है जिस पर कभी सूर्यदेव की प्रतिमा स्थापित थी। कहते है उस चोटी पर सर्वप्रथम सूर्य की किरणे पड़ने के कारण यहां पर सूर्यदेव की प्रतिमा स्थापित की गई थी। वर्तमान में यह प्रतिमा कई साल पहले वहां से चोरी हो चुकी है। अब बस वहां पत्थरों को ढेर पड़ा है। यहां पर और भी प्रतिमायें भी स्थापित थी जैसे षिव , पार्वती, कृश्ण। ये प्रतिमा भी आसानी से पहुंच होने के कारण चुरा ली गई है। गणेषजी की प्रतिमा के पास आसानी से नही पहुंचा जा सकता हैं इस कारण यह प्रतिमा आज वहां सुरक्षित है। न हीं तो यह प्रतिमा भी चोरी हो गई होती देखने को सिर्फ बिखरे अवषेश होते है एवं एक रिपार्ट होती जिसमें छः फीट के गणेषजी की जिक्र होता जिसे कभी देखा ही न गया था। और न ही देखा था उस अंग्र्रेज अधिकारी ने भी।
       जी जेम्स कु्रकषेक ने जब यहां बैलाडिला के पहाड़ियों का सर्वे किया तब उन्होने अपने रिपोर्ट में गणेषजी के छः फीट उंची प्रतिमा का जिक्र किया था। दरअसल कु्रकषेक ने गा्रमीणों के कथन अनुसार प्रतिमा को छः फीट का बताया जबकि वास्तव में प्रतिमा सिर्फ तीन फीट की ही है। उन्होने प्रतिमा को स्वयं नही देखा था। आज भी कई लोग उस रिपोर्ट एवं सोषल मीडिया में फैले हुए ढोलकल के बारे में वर्णन के अनुसार उस प्रतिमा को छः फीट की ही मानते हैं जबकि प्रतिमा महज 3 फीट की ही है।
        गणेषजी की प्रतिमा लगभग 250 से 300 मीटर की उंची पहाडी चोटी में स्थापित है। इसे प्रदेष में सर्वाधिक उंचाई पर गणेषजी की प्रतिमा स्थापित होने का गौरव प्राप्त है। पहाडी की चोटी से सामने देखने पर दुर दुर तक फैला जंगल ही नजर आता है। जहां तक नजरे जायेंगी वहां तक सिर्फ और सिर्फ घना जंगल ही दिखाई देता है। वहां से गणेषजी की प्रतिमा के दर्षन करते है तब ऐसा लगता है इस संसार में जहां सिर्फ चहुं ओर हरियाली है , उपर खुला नीला आसमान है , सफेद बादल चारों तरफ खुले आसमान में बिखरे पड़े है गणेषजी उस ढोलनुमा सिंहासन में सबसे उंचाई पर विराजित है और देवता उपर से उन पर पुश्प की वर्शा कर रहे है। मैंने मई 2015 में यहां की यात्रा की थी। उस सूखे मौसम में चारो तरफ हरियाली थी। गणेषजी इतनी उंचाई पर थे उनसे नीचे तो सफेद बादल विचरण कर रहे थे। बहुत तेजी से हवा चल रही थी। सुखे पत्ते चारो तरफ उड़ रहे थे। बहुत ही सुंदर दृष्य था। 
        कुछ लोग इस क्षेत्र को गणेषजी एवं परषुराम के बीच हुये युद्ध से जोड़कर भी देखते है। एक बार परषुराम जी षिवजी के पास मिलने गये थे। गणेषजी षिवजी के कक्ष का पहरा दे रहे थे। गणेषजी ने परषुरामजी को षिवजी से मिलने नही दिया तब परषुरामजी ने अपने फरसे से गणेषजी का एक दांत काट दिया जिसके कारण गणेष जी एकदंत कहलायें। गणेषजी की प्रतिमा में भी एक हाथ में एक दंत प्रदर्षित है। इस क्षेत्र में कैलाष गुफा होने का भी दावा किया जाता है। परन्तु आज तक किसी ने भी देखा नहीं। बहुत घने घने जंगलों से ढंकी पहाड़ियां है। संभवत गुफा कभी मिल ही जाये। पास ही फरसपाल नामक ग्राम भी परषुराम के फरसे के कारण फरसपाल के नाम से जाना जाता है।


         यहां तक पहुंचने के लिये सबसे पहले जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा से केषापुर ग्राम पहुंचना होता है। वहां से लगभग दो घंटे की पैदल चढाई करके ढोलकल पहंुचा जा सकता है। लगभग 6से 7 किलोमीटर की घुमावदार चढाई करके नंगे एवं चिकने काले पत्थरों से बनी ढोलकल चोटी पर पहुंच कर गणेषजी के दर्षन करना एक बहुत ही सुखद अनुभव है। बिना किसी स्थानीय जानकार के आप वहां नही जा सकते। मार्ग में एक नाले के उपर छोटा सा परन्तु एक खुबसूरत झरना बहता है। जिसका सौंदर्य वर्शाकाल में देखने लायक होता है। नाले का पानी गर्मियों के मौसम बेहद ठंडा एवं  साफ रहता है। इसका पीने के लिये उपयोग किया जाता रहा है। मार्ग में जगह जगह जंगली सुअरों  के निषान, साही जीव के द्वारा खोदी गई जमीन, एवं उछल कुद करते हुए बंदरों के दर्षन होते है। 
        ढोलकल में गणेषजी की प्रतिमा इतनी उंचाई पर क्यों स्थापित है। यह आज भी रहस्य बना हुआ है। इतिहासकारों के अनुसार दंतेवाड़ा नगर के रक्षक के रूप में नागवंषी षासकोे ने गणेषजी को उंचाई पर स्थापित किया था। परन्तु अब भी यह एक रहस्य है जिसे सबके सामने लाना है। ढोलकल के सामने चारों ओर घने जंगल हैं इन जंगलों में जाने की किसी का भी साहस नही होता है। ये जंगल बहुत से पुरातात्चिक महत्व की वस्तुयें छिपाये हुये। समय है उन ऐतिहासिक स्थलो को बाहर लाने का जिससे रहस्य उजागर हो इतनी उंचाई पर गणेषजी की प्रतिमा स्थापित करने का।