30 जून 2018

राजा और रानी कीड़ा

राजा और रानी ......!
मानसूनी की पहली फुहारे जब धरती पर पड़ती है तो इंसानों के साथ साथ कीट पंतगे भी बेहद खुशी से झुम उठते है। हर जगह नये नये कीड़े मकोड़े दिखाई पड़ते है। अक्सर पहली बरसात के बाद से खेतों एवं रेतीली जमीन पर लाल रंग के छोटे छोटे कीड़े घुमते हुये नजर आते है।
लाल रंग की मलमल ओढ़े ये कीड़े बहुत ही सुंदर लगते है। यहां बस्तर में इन्हे रानी कीड़ा कहते है। रानी कीड़ा मतलब ही किसी रानी की तरह बेहद ही सुंदर। यह कीड़ा रेड वेल्वेट माईट है। इसके पीठ की त्वचा बिल्कुल मलमल की तरह मुलायम होती है।

बच्चे तो इन कीड़ो से बड़ा प्रेम करते है। जब भी ये दिखते है बच्चे इन्हे तुरंत उठा लेते है। हथेली में लेते ही ये अपने सभी पैरों को सिकोड़कर निष्क्रिय हो जाते है। जमीन पर छोड़ते ही भाग जाते है। आप में से प्रायः सभी ने इन रानी कीड़ो को देखा होगा।
मैं इसे कई सालों से देख रहा हूं। दो दिन पहले मैने राजा और रानी दोनो को खेत की मेड़ पर घुमते हुये देखा तब मैंने राजा और रानी दोनो को अपने हथेली पर ले लिया, रानी तो मुझसे नाराज हो गई, बिल्कुल कैकेयी की तरह कोप भवन में चली गई थी। राजा साहब बहुत ही मचलने लग गये थे, तुफान मचा दिया था मेरे हाथ पर, फिर मैने उन्हे उसी जगह छोड़ दिया जहां से उन्हे उठाया था।
ये कीड़े पुरे देश में पाये जाते है, इस कीड़े से बहुत रोगों की दवा भी बनती है जिसके कारण ये कीड़े अब दिखाई नहीं देते है। मधुमेह, लकवा आदि के लिये इसे असरकारक दवा बनायी जाती है। कई क्षेत्रो में ग्रामीण इसे एकत्र करके बेचते है।
आपने भी बचपन में यह रानी कीड़ा देखा होगा, अलग अलग क्षेत्रो में यह कई नाम से जाना जाता है। आप इसे किस नाम से जानते है ? अपना अनुभव जरूर शेयर करे। ...........ओम.!

29 जून 2018

चंदन जात्रा से गोंचा पर्व का आगाज

चंदन जात्रा से गोंचा पर्व का आगाज......!

ओडिसा की तरह बस्तर में भी भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा बड़े धुमधान से मनायी जाती है। भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा से पूर्व जितने भी अनुष्ठान होते है सभी अनुष्ठान श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक संपन्न किये जाते है। बस्तर में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा गोंचा पर्व के नाम से विख्यात है। बस्तर में गोंचा महापर्व का शुभारंभ चंदन जात्रा अनुष्ठान से होता है। इस अनुष्ठान में भगवान शालिग्राम की पूजा की जाती है। इंद्रावती के पवित्र जल से भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र की प्रतिमाओं को स्नान कराया जाता है।


भगवान के विग्रहों को चंदन का लेप लगाया गया है। जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र की विग्रहों को स्थापित किया जाता है। इसके बाद भगवान जगन्नाथ का अनसर काल प्रारंभ हो जाता है। यह अवधि कुल 15 दिन की होती है। इस पंद्रह दिवस में भगवान के दर्शन वर्जित रहता है। ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा के चंदन जात्रा एवं देवस्नान के बाद भगवान बीमार हो जाते है। 13 जुलाई के दिन भगवान जगन्नाथ को काढा पिलाया जाता है। उस दिन नेत्रोत्सव में भगवान दर्शन देते हैं.
देवस्नान एवं चंदनजात्रा के साथ बस्तर के ऐतिहासिक पर्व गोंचा का आगाज हो जाता है। बस्तर में राजा पुरूषोत्तम देव के समय से बस्तर में गोंचा पर्व बड़े धुमधाम से मनाया जा रहा है। बस्तर के 360 आरण्यक ब्राहमण समाज में द्वारा बहुत भव्य स्तर पर धुमधाम से गोंचा पर्व मनाया जाता है। जिसमें बस्तर का प्रत्येक नागरिक बड़े उत्साह उमंग एवं श्रद्धा के साथ सम्मिलित होता है।............ओम ! फोटो - जिस किसी ने भी लिये उसे सादर धन्यवाद। जय जगन्नाथ !

खिलौने मिट्टी वाले

खिलौने मिट्टी वाले...!

मुझे अच्छी तरह से याद है कि बचपन में हम भी मिट्टी के खिलौने बनाते थे. मिट्टी के गणेश बनाना हमे खुब भाता था. फ़िर गजानन महाराज को छोटे से पोखर मे विसर्जित कर देते थे. हाथी 🐘 बनाकर उसे खूब सजाया है. कटोरी दिये तो बहुत बना बना कर तोड़े है. सच मे , वे दिन बहुत ही अच्छे दिन थे. बस्तरिया बच्चे के द्वारा ली गयी इन तस्वीरो ने मुझे मेरा बचपन याद दिला दिया.



इन बच्चो ने बड़े ही सुन्दर खिलौने बनाये है. बैलो पर नागर फ़ान्दे हुए किसान, यह दृश्य, सदियों से आज तक यथावत है, दूसरा खिलौना ट्रैक्टर का है जो आज उसका विकल्प बन गया है. खेल खेल में इन बच्चो ने बता दिया कि जो चीज सदियों से नहीं बदली, वो अब बदल रही है, बदलाव जरुरी भी है.
आप ने बचपन मे मिट्टी के खिलौने बनाये है कि नहीं, बनाये है तो कौन से? अपना अनुभव जरुर शेयर करे. फोटो - बस्तरिया बच्चे!....... ओम!

27 जून 2018

गोबर थोपने की अनोखी रस्म

गोबर थोपने की अनोखी रस्म.........!

बस्तर के चित्रकोट क्षेत्र के गांवो में कम वर्षा होने पर या खंड वर्षा होने पर स्थानीय निवासियों द्वारा एक अनोखी रस्म निभायी जाती है। इस रस्म के तहत गांव में भीमा-भीमीन के काष्ठ प्रतिमा पर गोबर थोपा जाता है। यह परंपरा ग्रामीण सदियों से निभाते आ रहे है। जब भी कम वर्षा होती है जिसके कारण धान रोपाई नहीं हो पाती तब भगवान से वर्षा के लिये इस प्रकार की विनती की जाती है।

चित्रकोट के पास नाग युगीन टेमरा गांव है। इस गांव के तालाब के पास गणेश जी के 4 फीट उंची प्रतिमा स्थापित है। टेमरा के निवासी भी बरसात के मौसम में जब भी कम वर्षा होती है तब गणेशजी को पुरी तरह से गोबर से लीप देते है। गोबर गणेश करने की प्रथा के पीछे तर्क है कि गणेश जी एवं भीमा भीमीन देव अपने तन पर लगे गोबर को साफ करने के लिये घनघोर वर्षा करायेगे, जिससे खेती के लिये पर्याप्त वर्षा भी हो जायेगी।
मुझे कुछ दिनों पहले ही टेमरा की गणेश प्रतिमा के दर्शन करने का अवसर प्राप्त हुआ है। हजार साल पुरानी यह प्रतिमा जब भी वर्षा नहीं होती है तो इसी तरह गोबर से लीपी जाती है और हर साल तेज बरसात से यह पुनः साफ सुथरी हो जाती है। हालांकि ऐसे अवसर बेहद ही कम आये है और इस साल ऐसी उम्मीद है कि गणेश जी पर गोबर थोपने का नौबत नहीं आयेगी.............गणेश भगवान की जय ।
...............ओम!
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रहस्यमयी शंखिनी

रहस्यमयी शंखिनी ......!

प्राचीन काल में बस्तर तंत्र-मंत्र का गुमनाम एवं रहस्यमयी क्षेत्र था। आज भी बस्तर के स्थान स्थान में रहस्य छुपा हुआ है। यहां की नदियां भी कम रहस्यमयी नहीं है। रहस्यों से भरी एक ऐसी ही नदी शंखिनी है जो दंतेवाड़ा में उदगमित होकर दंतेवाड़ा में ही विलीन हो जाती है। शंखिनी एक बेहद ही छोटी सी नदी है जो बैलाडिला के पहाड़ियों से निकलती है।
इस नदी को बेहद ही प्रदुषित नदी का तमगा मिला हुआ है। प्रदुषित से मतलब नदी के जल में लौह अयस्क की अत्यधिक मात्रा इसे पीने योग्य नहीं बनाती है। इस कारण इस नदी का रंग खुन के समान लाल है।

शंखिनी नदी दंतेवाड़ा में मां दंतेश्वरी मंदिर के पीछे डंकिनी नदी में विलीन हो जाती है। आगे गीदम तरफ से आने वाली हारम नदी इस नदी में मिलकर तुमनार के पास मरी नदी का नाम ले लेती है। यह मरी नदी बीजापुर जिले के नेलसनार के पास इंद्रावती में समा जाती है। शंखिनी डंकिनी के संगम पर बस्तर की आराध्या मां दंतेश्वरी का मंदिर है।
शंखिनी नाम में ही बहुत से रहस्य है। शंखिनी और डंकिनी दोनो ही देवी दुर्गा के रौद्ररूप की सहयोगी है। ज्योतिष शास्त्रों में महिलाओं का एक प्रकार शंखिनी भी माना गया है। वास्तुशास्त्रो में शंखिनी एक मादा शंख भी होती है जिसे पूजा में शामिल नहीं किया जाता है और ना ही बजाया जाता है।
ढलते सुरज की लालिमा में रक्तिम सलिला शंखिनी के इस मनमोहक दृश्य की तस्वीर के लिये हम श्री विजय पटनायक जी के हृदय से आभारी है। ...........ओम !

26 जून 2018

कुटरू

कुटरू की रोशनी ......!
बस्तर मे कुटरु ज़मींदारी सबसे बड़ी ज़मींदारी थी. महाराज अन्नमदेव के समय इस ज़मींदारी की स्थापना का अपना रोचक इतिहास है. 1947 मे बस्तर के विलय के बाद ज़मींदारी प्रथा स्वमेव बन्द हो गई. कुटरू बीजापुर ज़िले के इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान मे एक छोटी सी बस्ती है.
आजादी से पूर्व निर्मित कुटरू ज़मींदारो का राज भवन अब ध्वस्त होकर खंडहर हो गया. पास ही पुराने कच्चे घर मे उस समय की पुरानी चीजे अब भी यहां वहां बिखरी पड़ी है .

घर की चौखट पर लोहे की सांकल मे लटके इसे दिये ने मेरा ध्यान खिंचा. पुराने समय में सम्पन्न परिवारो के घर की चौखटो पर लटकते हुए ऐसे दिये रोशनी किया करते थे.
लगभग सत्तर साल से यह दिया वही लटका हुआ , फर्क बस यह आ गया है कि यह अब कभी जलता नही. और भी ऐसे बहुत सी पुरानी चीजे अब भी चीख चीख कर अपना महत्व बता रही है , विडम्बना यह है कि इनके संरक्षण एवं सुरक्षा की सुध लेने वाला कोई नही है........ओम ..!

पिकी की फुल्लियां

पिकी की फुल्लियां 

नाक मे आभूषण पहनने का रिवाज सिर्फ महिलाओ मे ही प्रचलित है. महिलाये सामान्यत: नाक मे एक तरफ ही फुल्ली , नथ पहनती है. कुछ समाज विशेष मे नाक के दोनो तरफ फुल्ली पहनी जाती है।
बस्तर के जनजातीय समाज मे महिलाये नाक के दोनो तरफ फुल्ली पहनती है. इसमे दो तरह की फुल्ली चलन मे है. एक गोलाकार जाली फुल्ली होती है और दुसरी फुल्ली शंकु की तरह होती है ज़िसे गोंडी भाषा में मोसोकुटा कहा जाता है।
प्राय: बस्तर की सभी आदिवासी महिलाये सोने से बनी ये दोनो फुल्लियां पहनती है.
प्रस्तुत चित्र फुल्ली पहने आदिवासी किशोरी का है ज़िसे स्थानीय भाषा मे पिकी कहते है. पिकी का यह सुंदर चित्र जिस किसी भी ने लिया उसे सादर धन्यवाद.
इससे पूर्व जनजातीय समाज मे प्रचलित आभूषणो मे सुता , करधन , रूपया माला की जानकारी दे चुका हूँ. यह पोस्ट चौथी कड़ी है. 

23 जून 2018

बस्तर की पणिहारियां

बस्तर की पणिहारियां......!
आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाये सुबह शाम कुंये या हैंडपंप से पानी लाती हुई दिखाई पड़ती है। पानी लाने वाली महिलाओं के इस रूप को पणिहारी या पनिहारी कहा गया है। पनघट पर पनिहारी यह दृश्य अब सिर्फ गांवों में ही यदाकदा दिखाई पड़ता है।
घर पहुंच नल कनेक्शन के कारण शहरों में पनिहारी संस्कृति अब विलुप्त हो चुकी है। ये दृश्य अब गांवों में भी धीरे धीरे समाप्ति की ओर अग्रसर है। आज के बच्चे तो यह पनिहारी शब्द को जानते भी नहीं है कि कभी उनकी दादी परदादी कुंओं से मटके भर भर पानी लाती थी। एक के उपर एक या दो ऐसे दो तीन घड़े एक साथ पानी लाने वाली पनिहारियां , यह बात अब तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते है।

गांवो में महिलाओं की तरह पुरूष भी घरो में पानी भरा करते थे। कावड़ में पानी ढोकर रोज 50-100 रू. कमा लेते थे। बोर एवं नल कनेक्शन के कारण यह काम तो बिल्कुल बंद ही हो गया है।
सुर ताल के साथ तालमेल करती हुई, सिर पर घड़े रख नाचती हुई पनिहारियों का नृत्य भी अदभुत है। कई जगहों में पनिहारी के उपर बहुत से गीत भी प्रचलित है। पुराने फिल्मों में भी पनिहारी के दृश्यो को विशेष तौर पर दिखाया जाता था।
संगीतकार एस0एन0 त्रिपाठी ने 1943 में बनी फिल्म में पनघट फिल्म के लिये पनिहारी पर बहुत ही सुंदर गीत लिखा था गीत के बोल है - 
पनघट को चली पनिहारी, 
पनघट को चली पनिहारी, 
पनिहारी रे, 
पनघट को चली पनिहारी, 
पनिहारी रे,
कमर पर घड़ा धरे मतवारी
कमर पर घड़ा धरे मतवारी
मतवारी रे
कमर पर घड़ा धरे मतवारी
मतवारी रे

बस्तर में भी मुझे कई गांवो में ऐसे पनिहारियां देखने को मिली जो एक साथ दो दो घड़े पानी ले जाती हुई दिखाई दी। आदिवासी बालाओं का यह पनिहारी रूप अब विरल होता जा रहा है।
पनिहारियों के दोनो चित्र बस्तर के ही है। एक चित्र 1940 का है जिसमें आदिवासी युवती अपने पारंपरिक पहनावे में छोटे से मटके में पानी ला रही है और दुसरा चित्र 2018 का है जिसमें एक साथ दो घड़ो में पानी ला रही है। घड़े अब भी मिटटी के मिलते है परन्तु पानी लाने के लिये एल्युमिनियम के बर्तन उपलब्ध हो गये है। पहनावे में खास कोई फर्क नहीं है। दोनो की मुस्कान एवं चेहरे के भाव भी एक से है।
हालांकि मैं अब तक यह पता नहीं कर पाया कि बस्तर में पनिहारी के लिये स्थानीय स्तर पर क्या शब्द है ? और इसके लिये कोई स्थानीय गीत हो तो शेयर करे? अधिक से अधिक शेयर करे और स्थानीय स्तर पर आप सभी पनिहारियों के लिये क्या शब्द इस्तेमाल करते है जरूर बतायें। 
ओम.....!

22 जून 2018

बस्तर में धान भंडारण का पात्र - ढोलगी कड़गी

बस्तर में धान भंडारण का पात्र - ढोलगी कड़गी.....! 

बस्तर में आदिवासियों का बांस सबसे विश्वसनीय साथी है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, खान-पान से लेकर रोजमर्रा की वस्तुओं में बांस की ही सबसे बड़ा योगदान जनजातीय समाज में देखने को मिलता है। बांस से नाना प्रकार उपयोगी वस्तुयें बनाई जाती है जिन्हे बस्तर के आदिवासी सदियों से उपयोग करते आ रहे है। धीरे प्लास्टिक एवं अन्य धातुओं के समान उपलब्ध होने के कारण बांस के समानों का उपयोग अब कम होता जा रहा है। प्लास्टिक के घुस पैठ के कारण बांस से बने बहुत से सामान अब विरले ही दिखाई देते है। 



बस्तर के आदिवासी अपने जीवन यापन के लिये वनोपज के अलावा कृषि पर भी निर्भर है। छोटे छोटे खेतों में धान उगाकर साल भर के लिये अपने भोजन का इंतजाम करते है। सामान्यतः अन्य जगहों में जब धान कटाई हो जाती है तो धान को बड़े बड़े बोरो में भरकर गोदामों में रखा जाता है। वहीं घर में धान का भंडारण करने के लिये प्लास्टिक के बड़े बड़े ड्रम का उपयोग किया जाता है। 

बस्तर में धान भंडारण करने की एक पुरानी पद्धति है जो अब कुछ गांवों में ही प्रचलित है।  धर में धान रखने के लिये प्लास्टिक के ड्रम के बजाय बांस से बने हुये बड़े बड़े टोकने का इस्तेमाल किया जाता है। पांच फीट की उंचाई एवं दो फिट त्रिज्या की गोलाई माप के यह टोकने स्थानीय भाषा में इन्हे ढोलगी एवं कड़गी  कहा जाता है। ढोलगी उंचाई में थोड़ी कम होती है और कड़गी ज्यादा उंची होती है।  इन्हें बाहर से गोबर से लीप दिया जाता है। 
इसमें धान भरकर उपर पुआल या सियाड़ी के पत्तों को ढंककर उपर गोबर लीप कर स्थायी रूप से टोकने को ढक दिया जाता है। कमरे में एक कोने में इसे रख कर धान का भंडारण सुरक्षित किया जाता है। गोबर से लिपने के कारण इसमें कीड़े नहीं लगते है। 


ढोलगी कड़गी में 15 से 20 क्विंटल तक धान का भंडारण किया जाता है। एक परिवार के लिये साल भर का धान इसमें संरक्षित किया जाता है। बाजार में इसकी कीमत 1500 रू. तक है। दंतेवाड़ा के छिंदनार बाजार में अब भी कड़गी मिल जाती है। 

प्लास्टिक के ड्रम की उपलब्धता के कारण अब कड़गी -ढोलगी का प्रयोग कम होते जा रहा है। लोग अब इन्हे बनाते भी नहीं और ना ही बाजार में अब आसानी से मिलती है।.................ओम !

क्या आपके घर मे भी इसी तरह अनाज सुरक्षित रखा जाता है या अन्य कोई परंपरागत पुरानी पद्धति है तो कमेंट बाक्स में शेयर करे। 

लव इमोजी लाईक का ही प्रयोग करते हुये इस पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करें, कापी करके ना पोस्ट करें। चित्र सौजन्य - ड्रीम्सटाईम.काम । 

21 जून 2018

हिंगलाजिन माता बस्तर और हिंगलाज माता बलूचिस्तान

हिंगलाजिन माता बस्तर और हिंगलाज माता बलूचिस्तान.....!

बस्तर प्राचीन काल से आज तक शाक्त धर्म का सबसे बड़ा केन्द्र है। सदियों से यहां देवी शक्ति की आराधना की जाती रही है। यहां विभिन्न नामों से देवियों की पूजा भक्ति की जाती है। बस्तर के हर ग्राम मे देवी का आराधना स्थल है जो कि हजारों वर्षों से है। बस्तर जिले के बकावंड ब्लाक में एक छोटा सा ग्राम है गिरोला। गिरोला में देवी हिंगलाजिन का मंदिर है। देवी हिंगलाजिन यहां सदियों से पूजी जा रही है। 



वर्तमान में यहां पर पक्का मंदिर बनाया गया है। यह मंदिर भी दक्षिण भारतीय शैली में बनाया गया है। नवरात्रि के समय में देवी दर्शन के लिये यहां भक्तों की भीड़ उमड़ती है। देवी हिंगलाजिन  बस्तर के और भी अन्य ग्रामों में पूजी जाती है। 


बस्तर में जिस तरह से कई सदियों से आज तक देवी हिंगलाजिन मां को पूजा जाता है वैसे ही पाकिस्तान के बलुचिस्तान में देवी हिंगलाज माता भी सदियों से आज तक पूजी जा रही  है। दोनो देवियों के नाम में तो समानता है और दोनो ही देवी सती के ही रूप है। देवी दंतेश्वरी बस्तर के प्रत्येक ग्राम में अलग अलग नाम से पूजी जाती है। दंतेवाड़ा में देवी सती का दांत गिरा था ऐसी यहां मान्यता है। यहां स्थापित देवी दंतेश्वरी के नाम से पूजी जाती है। दंतेश्वरी मंदिर दंतेवाड़ा को 52 वां शक्तिपीठ माना गया है। 



इसी तरह हिंगलाज माता शक्तिपीठ पाकिस्तान के बलुचिस्तान राज्य में हिंगोल नदी के तट हिंगलाज क्षेत्र में स्थापित है। मान्यता है कि देवी सती का सिर यहां गिरा था। यह भारत 51 शक्तिपीठों में से प्रमुख शक्तिपीठ है। यहां देवी हिंगलाज माता के नाम से जानी जाती हैं। हर साल पाकिस्तान के हजारों हिन्दु यहां देवी के दर्शन करते है। इसके अलावा भारत से भी श्रद्धालु देवी हिंगलाज के दर्शन करने के लिये जाते है। 


बस्तर की देवी हिंगलाजिन और पाकिस्तान में िंहंगलाज माता दोनो के नाम में समानता के साथ साथ दोनो ही देवी सती के ही अंश है। 
पोस्ट अच्छी लगे तो शेयर करे, कापी ना करें । फोटो नेट से ली गई है जिस सज्जन ने भी फोटो खींची है उसे हृदय से धन्यवाद। 

20 जून 2018

तिखुर...........जानते तो होंगे

तिखुर...........जानते तो होंगे...!

मित्रों आज हम बात करते है तिखुर की। तिखुर के बारे में आप सभी को कुछ तो जानकारी होगी। बहुत से लोगों ने तिखुर का शर्बत पिया होगा। बस्तर में तिखुर बहुतायत होता है। गर्मी के मौसम में हाट-बाजारों में स्थानीय ग्रामीण तिखुर बेचते हुये दिखाई पड़ते है।
तिखुर का एक छोटा सा पौधा होता है। जिसे यहां बस्तर में बाथरी के नाम से जाना जाता है। तीखुर (वानस्पतिक नाम: Curcuma angustifolia) हल्दी जाति का एक पादप है जिसकी जड़ का सार सफेद चूर्ण के रूप में होता है. इसके जड़ों में हल्दी अदरक की तरह कंद लगते है। उस कंद को ग्रामीण निकालकर पानी से धोकर साफ करते है। फिर उसे खुरदरे पत्थर से घिस घिस कर पाउडर का रूप दिया जाता है।




यह पाउडर सफेद रंग के छोटे छोटे दानों में तिखुर के रूप में बाजार में बिकता है। सफेद तिखुर पाउडर को पानी में घोलकर शक्कर मिला कर शर्बत बनाया जाता है। तिखुर ठंडई लिये होता है। तिखुर का शर्बत पुरे तन में ठंडे पन का अहसास कराता है। गर्मी के दिनों में तिखुर का यह ठंडा शर्बत सेहत के लिये फायदेमंद होता है। तिखुर से हलवा भी बनाया जाता है।
तीखुर की खासियत यह है कि इससे पाचन क्रिया तो ठीकठाक रहती ही है, गर्मियों में तीखूर से बनी शरबत पीने से लू नहीं लगती।

वैसे गर्मी के मौसम में बस्तर के हाट बाजारों में तिखुर मिल जाता है। इसकी कीमत लगभग 160 रू. किलो तक है। मैने चित्रकोट के पास भी तिखुर बेचते हुये ग्रामीण महिलाओं को देखा है। कभी चित्रकोट आयेंगे तो तिखुर लेना ना भूले और उससे शर्बत बनाकर जरूर पीयें।

यहां आपको 40 रू. में एक सोली लगभग 250 ग्राम तिखुर मिल जायेगा, तिखुर के बारे में आप क्या जानते है ? इसका और क्या उपयोग एवं फायदे है ? जरूर बताईये। अधिक से अधिक शेयर करें।

19 जून 2018

रामी की मासूमियत

रामी की मासूमियत....!

बस्तर में पक्षियों का संसार बहुत बड़ा है। भांति भांति के पक्षी बस्तर के आसमान में उड़ते रहते है। मनुष्य को आदिकाल से पक्षियों से विशेष लगाव रहा है। हमारी बचपन की कहानियां हो या पुराने शिल्पांकन , इन सभी में दो ही पक्षी ऐसे मिलते है , जिसे इंसान ने पिंजरे में कैद कर पाला है , एक तो है तोता और दुसरा मैना।
तोता और मैना दो ऐसी चिड़िया है जो इंसानो की बोली सीख जाती है। आज हम बात करते है मैना की। मैना की कई प्रजातियां है जो पुरे भारत में पायी जाती है। बस्तर में मैना की एक विशेष प्रजाति पहाड़ी मैना पायी जाती है जिसे छत्तीसगढ़ की राजकीय पक्षी का गौरव प्राप्त है। मैना की दो जात ऐसी है जो इंसानी बस्ती के आस पास ही जीवन व्यतीत करती है ये है सिरोई मैना और देशी मैना।

इसमें से देशी मैना भी इंसानो की बोली की नकल करती है। आप सभी ने इसे अपने धरों के आसपास उड़ते देखा होगा। देशी मैना भुरे कत्थई रंग की होती है चोंच पीले रंग की और गले मे काली पटटी होती है और डैनों के किनारे सफेद रंग के होते है।
बस्तर में मैने इस देशी मैना को कई पिंजरों में कैद देखा है क्योंकि एक तो बड़ी आसानी से मिल जाती है और तोते की तरह ये भी दो चार मीठे बोल सीख जाती है। वे मीठे बोल ही इसे पिंजरो में कैद कर देते है। इसे स्थानीय भाषा में रामी चिड़िया कहते है। इस पक्षी को भी शौकिन लोग पिंजरे में पालते है यह पक्षी भी कुछ शब्द सीख जाता है मैने इसे बोलते हुये स्वयं देखा है।
शाम छः बजे मारडूम के पास यह बालक इस रामी चिड़िया को डंडे पर बैठाकर चला जा रहा था। इस रामी के चुजे के पुरे पंख अब ही निकले थे उड़ना सीख ही रही थी कि यह रामी इस शौकिन अबोध बालक के हत्थे चढ़ गई।
यह बालक रास्ते में चल रहा था, डंडे को छोडकर रामी कुछ दुर उड़ान भरती किन्तु कटे हुये पंख ज्यादा देर साथ नहीं देते और वह फिर जमीन पर आ गिरती। फिर वह लड़का उसे डंडे पर बैठा देता। यह नजारा मैने अपने आंखो से देखा।
इस लड़के ने एक घोसले से इस रामी को पकड़ा था लगभग 01 सप्ताह से वो इसे घुमा रहा था, दुसरे हाथ में पकड़े छिल्ली में रामी का खाना भी उसने इंतजाम कर रखा था।

मैने जब इन दोनो की तस्वीर ली थी यही भाव नजर आया कि बच्चा मासूम है, उसे चिड़िया पालने का शौक विरासत में मिला है, वो अभी पिंजरे में कैद पंछी के दर्द से वाकिफ नहीं है।
वहीं रामी मुझे बड़ी मासुमियत से देख रही थी जैसे वह मुझसे कह रही थी हाय रे मेरी किस्मत, घोसले से निकलते ही इस बच्चे के हाथ में आ पड़ी हुं, इसने मेरे पंख काट दिये है, खुले में रहती हूं , पिंजरे की मजूबत शलाखे भी नहीं है, ना जाने कब कौन बिल्ली या कुत्ता मुझे अपना भोजन बना ले , मेरे पंख मुझे लौटा दो , मेरी आजादी मुझे दे दो, मैं हिम्मत नहीं हारूंगी, अभी छोटी उड़ाने भर रही हूं , एक दिन इसे चकमा देकर, आसमान में कहीं दुर उड़ जाउंगी।
तो दोस्तों, पक्षियों की आजादी उनसे ना छिनो, आकाश में उन्हे उड़ने दो , नहीं तो इनकी मधुर चहचहाहट कभी सुनने को नहीं मिलेगी ----ओम....!

18 जून 2018

उफ़्फ़ ये उदासी

उफ़्फ़ ये उदासी.....!

ये कोसम बेच रहा था, इसके पास बैठे बच्चे जामुन बेच रहे थे, मैने गाड़ी से उतरते ही दोनो पर नजर डाली, मोबाइल हाथ मे ही था. मैने जामुन बेचने वालो बच्चो से जामुन देने को कहा कि इतने मे यह कोसम बेचने वाला उदास होकर मुंह उतारकर, नजरे फ़ेरकर बैठ गया , उसी दरम्यान मैने इसकी फ़ोटो ले ली. इसकी इस उदासी ने सीधे मेरे दिल पर चोट की. एकदम से सीने मे चुभ गई इसके ये भाव. बच्चो के द्वारा जामुन पैक करने के समय तक मेरा मन आत्मग्लानि से भर गया , कई विचार मन मे घुमड़ने लगे , इसकी उदासी के सामने जामुन लेना एक अपराध सा लगने लग गया था मुझे,


मैने तुरन्त स्थिति सम्भाली, इसकी उदासी को दुर करने के लिये इसे भी कोसम पैक करने को कहा, तुरन्त सर उठाकर इसने मेरी तरफ़ देखा, गजब की चमक आ गई उदासी भरी उन आँखो में, उसे पैसे दिये और हम चल पड़े
कभी कभी ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती है. और उसकी उदासी स्वाभाविक भी थी, क्योकि हर कोई आता और मीठे रसीले जामुन ही खरीदता, उन खट्टे मीठे कोसम पर कोई नजर ही नहीं डालता.
कारण- कोसम की जानकारी ना होना और रुचि भी नहीं होना.बस्तर मे बाहर से आने वालो को यहाँ होने वाले मौसमी फ़लो की जानकारी भी नहीं है.
तो ऐसे मे कभी सड़क किनारे दो या तीन लोग बैठकर मौसमी फ़ल बेचते मिले तो सभी से थोडा थोडा खरीदो, क्योकि 10- 20 रुपये से उस उदासी को दुर करने से मन को जो सुकुन मिलता है वो मीठे जामुनो से नहीं मिलता- ओम...!

बस्तर में खाना बनाने की एक पुरातन पद्धति-दोना पुड़गा

दोना पुड़गा......!

खाना जब लजीज हो तो आदमी उंगलियां भी चाट चाट कर खाता है। अच्छी सब्जी के , पीछे बनाने वाला, उसमे डाले गये मसाले और बनाने की विधि और उपयोगी पात्र ये सभी महत्वपूर्ण कारक होते है। तभी सब्जी बेहद ही लजीज बनती है और हम उसे खाकर तृप्त हो जाते है। आज हम बात करते है जायकेदार खाना बनाने की बस्तरिया पद्धति की।
बस्तर में खाना बनाने की एक पुरातन पद्धति प्रचलित थी जो अब भी कहीं कहीं प्रचलन में है। बस्तर के लोगो में मांसाहार विशेष रूप से सम्मिलित है। जंगल में या घर में मांस की सब्जी बनाने की एक पुरानी पद्धति बस्तर में देखने को मिलती है, इस पद्धति में बर्तनों का उपयोग नहीं किया जाता है। मांस को अच्छी तरह से धोकर, हल्दी नमक मिर्च एवं मसाले सहित पत्तों के दोनो में अच्छे से बांध दिये जाते है इन दोनो में तेल या पानी नहीं डाला जाता है। इन पत्तों के दोनो को आग में सेका जाता है। इससे यह बेहद स्वादिष्ट डिश बनती है और सेहत के लिये फायदेमंद होती है।

वैसे दोना पुड़गा में मांस तो पकाया ही जाता है जिसमें मछली की डिश बड़ी ही स्वादिष्ट बनती है। इस पुरी पद्धति को दोना पुड़गा कहा जाता है। विश्व के नंबर 01 शेफ गार्डन रामसे ने दोना पुडगा को अपने मेन्यु में शामिल किया है। स्टील एवं एल्युमिनियम के बर्तनों के मुकाबले पत्तों में पका हुआ मांस ज्यादा स्वादिष्ट एवं सेहत के लिये फायदेमंद होता है। आवश्यक प्रोटिन नष्ट ना होकर सीधे हमें मिलते है।
पहले एवं अब भी जंगल में जब भी आदिवासी पारद के लिये जाते है तो पत्तों की सहायता से इसी तरह अपना खाना(मांस की सब्जी) पकाते है। दोना पुडगा से तैयार डिश वाकई बेहद लजीज होती है। कभी आप भी ऐसे ही किसी पिकनिक पर जाये और मांसाहार के शौकिन है तो दोना पुडगा पद्धति का प्रयोग कर अपनी डिश तैयार करे और पिकनिक का आनंद उठाये, और यदि आप शाकाहारी है तो कोशिश करे कोई ऐसी सब्जी बनाने की जो इन पत्तों के दोनो से तैयार हो जाये और साथ ही हमें फोटो जरूर भेजे.. ओम सोनी...! फोटो सांकेतिक है।
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15 जून 2018

दुर्लभ हो चली मोहर माला

दुर्लभ हो चली मोहर माला.....!

शरीर के अंगो में गला एक ऐसा अंग है जिसमें अलग अलग तरह की कई मालायें पहनी जाती है। आज भी सोने एवं चांदी कई मालायें प्रचलित है।  एक माला ऐसी भी है जो एक समय बेहद प्रचलित थी किन्तु अब इस माला का चलन लगभग समाप्त हो गया है। यह माला सिक्को की माला जिसे गले में पहना जाता है। ग्रामीण अंचलों एवं बस्तर में आदिवासी युवतियां बड़े शौक से सिक्को की यह माला पहना करती थी। इस माला को मोहरी माला या मुहरी माला भी कहा जाता है। 

पहले राजा महाराजाओं के समय सोने या चांदी के सिक्के चला करते थे। मुगलों में शाह आलम द्वितीय ने गाजी मुबारक सिक्का जारी किया था जिसे पुरे देश में अलग अलग सभी राज्यों ने स्वीकार किया था। पुराने सिक्को को मोहर या मुहर कहा जाता था। ग्रामीण महिलायें इन मोहरों की माला बनवाकर पहन लेती थी जिसके कारण सिक्को की इस माला को मोहर माला भी कहा जाता है। 


सिक्के सोने या चांदी के होते थे जिसे गले में माला बनाकर पहना जाता था। सिक्को की माला बनाकर पहनने के पीछे यह तर्क यह है कि आर्थिक परेशानी के समय इन्हे गलाकर धन प्राप्त किया जाता था एवं माला के रूप में ये सुरक्षित भी रहते थे।आज भी कुछ महिलाओं के पास ऐसी मोहर माला देखने को मिल जायेगी। प्रस्तुत चित्र बहन पूनम विश्वकर्मा वासम बीजापुर ने लिया है जिसमें बस्तर की यह महिला सिक्को की माला पहनी हुई है ये सिक्के भारत के आजादी के समय 1947 में जारी किये गये थे। 

आज के समय ये मोहर माला सिर्फ नृत्य एवं आयोजनों में एक औपचारिक श्रृंगार मात्र बनकर रह गया है। ढूंढने से भी ऐसे मालायें अब नहीं मिलती है। बस्तर में पहले आदिवासी युवतियां ऐसे ही मोहरमाला पहना करती थी अब कुछ नृत्य समारोह में ही ये माला पहने हुये दिखाई देती है। ओम सोनी दंतेवाडा......, फोटो सौजन्य पूनम विश्वकर्मा वासम जी बीजापुर हृदय से धन्यवाद इस चित्र के लिये। कापी पेस्ट ना करें, अधिक से अधिक शेयर करें।

14 जून 2018

हल से खेती

हल से खेती
हल से खेती अब दुर्लभ हो गई......!

हल वो औजार है जिससे खेती की जाती है। मनुष्य के विकास में कृषि का सबसे बड़ा योगदान रहा है। पहले कृषि कार्य बगैर हल के संभव नहीं था। हल के सहारे ही मानव सभ्यता विकसित हुई है। देखा जाये तो हल का महत्व बहुत अधिक है और हल सबसे पुराने औजारों में से एक है जो आज भी कृषि के लिये बेहद उपयोगी है। हल से खेत की जुताई की जाती है। मिटटी की परत को उपर नीचे किया जाता है जिससे बीजों के अंकुरण में पर्याप्त हवा एवं नमी बनी रहती है। भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम का प्रमुख अस्त्र हल ही था। 

शनेः शनैः कृषि कार्य में तकनीकी उपकरणों के प्रयोग से हल का प्रयोग कम होता जा रहा है। हल का स्थान अब टै्रक्टर ने ले लिया है। टै्रक्टर के कारण कृषि कार्य में कम मेहनत में अच्छी तरह से खेत की जुताई कार्य हो जाती है। 

बस्तर में पहले कृषि को उतना महत्व नहीं दिया जाता था। वनोपज से आदिवासी अपना गुजारा करते थे। सिर्फ नाममात्र के लिये ही कृषि किया जाता है।  इसका कारण बस्तर की भौगोलिक स्थिति है, बस्तर में पठारो, नदियों एवं पहाड़ो के कारण समतल एवं कृषि योग्य भूमि का अभाव है। बस्तर में अब कृषि कार्य को अधिक महत्व दिया जा रहा है।  आदिवासी झुमिंग कृषि को अधिक महत्व देते है जिसमें से पेड़ो एवं छोटे पौधों को काटकर खेती योग्य जमीन तैयार की जाती है। उस जगह पर कुछ साल खेती करने के बाद फिर दुसरी जगह इसी तरह जमीन तैयार की जाती है।

 यहां भी खेती करने के लिये हल का ही उपयोग किया जाता रहा है। बैल, गाय एवं भैंसों पर ही नागर फांदकर कृषि कार्य किया जाता था। परन्तु बस्तर हाल के वर्षों में गांव -गांव में टै्रक्टर की सुलभता के कारण हल का प्रयोग बेहद ही कम हो गया है। टै्रक्टर से कम मेहनत में खेत की जुताई हो जाती है। हल से जुताई करने में भले ही लागत कम लगती है परन्तु समय एवं मेहनत अधिक लगने के कारण बस्तर के किसान हल के बजाय टै्रक्टर को अधिक महत्व देने लग गये है। 

बस्तर में अब मानसून आगमन के साथ ही खेतों में जुताई का कार्य बड़ी तेजी से चल रहा है। मैने देखा है कि लगभग सभी जगह टै्रक्टर से खेत की जुताई चल रही है, बेहद कम किसान हल का प्रयोग कर रहे है। कुछ किसानों के घर तो हल कोने में फेंके हुये पड़े है जैसे अब उनका कोई काम नहीं है। 

बड़ी मुश्किल से मुझे हल, हल बनाते हुये किसान, हल ले जाते हुये हलधर की तस्वीर खीचने का मौका मिला। हल चलाते हुये किसान मुझे अभी तक दिखाई नहीं दिये, कुछ अंदरूनी ग्रामों में शायद दिख जाये उसके लिये भोर होते ही जाना पड़ेगा। आने वाले कुछ सालों में बस्तर में आपको ना हल दिखाई देगा और ना ही हल चलाता हुआ कोई आदिवासी किसान, ये बात अब दुर की कौड़ी होने वाली है। ओम सोनी दंतेवाड़ा, अधिक से अधिक शेयर करे , कापी पेस्ट ना करें। 

11 जून 2018

हवा में लहराने वाली बाऊंसी बांसुरी

हवा में लहराने वाली बाऊंसी बांसुरी....!


बांसुरी की कर्णप्रिय मधुर ध्वनि हर किसी का मन मोह लेती है। नजरे उस ध्वनि के श्रोत की ओर अनायास ही दौड़ पड़ती है। बरसात के दिनों में गाय चराने वाले चरवाहे जंगलों में जब बांसुरी बजाते है तब पुरा जंगल बांसुरी की मधुर ध्वनि से आनंदित हो जाता है। मेले में तो बंशी वाला ही आकर्षण का केन्द्र होता है। हर कोई बांसुरी की ध्वनि की तरफ खिंचता चला आता है। 



बस्तर अंचल में आदिवासियों के बीच नृत्य गीतों में अन्य वाद्यों के साथ.साथ कहीं.कहीं बांसुरी वादन भी परंपरा से चली आ रही है। विशेषकर धुरवा जाति में इसका प्रचलन अधिक है। परन्तु आवश्यकतानुसार सीमित स्वर बजाने का ही अभ्यास इन्हें रहता है। बस्तर में बांसुरी को बाऊंसी कहा जाताहै। यहां आदिवासी बांस के नाना प्रकार की उपयोगी एवं सजावटी वस्तुये बनाते है। उसमें से बांसुरी प्रमुख है। 

आप सभी ने देखा होगा कि आमतौर पर बांसुरी मुंह से ही बजाई जाती है ,कुछ नाक से बजाने वाली बांसुरी भी होती है। बस्तर में इनसे इतर एक विशेष तरह की बांसुरी देखने को मिलती है जिसे बजाने के लिये मुंह या नाक से हवा देने की जरूरत नहीं पड़ती है। यहां एक विशेष तरह की बांसुरी का चलन है जो कि बहुत कम देखने को मिलती है। इस बांसुरी को सिर्फ हवा में लहराने मात्र से मधुर संगीत निकलता है। 


यह बांसुरी बांस की लगभग ढाई से तीन फीट लंबी होती है, इसकी गोलाई 1 इंच व्यास की होती है। यह पुरी खोखली होती है। इसमें सामान्य बांसुरी की तरफ बाहरी तरफ कोई छिद्र नहीं होती है। एक तरफ  गोलाकार दो ब्लोअर लगाया जाता है एवं दुसरी तरफ खुली होती है।  हवा में लहराते समय ये ब्लोअर उपर वाले हिस्से में होती है जिसमें से हवा आने एवं निकलने के कारण संगीत निकलता है जिसकी ध्वनि बांसुरी के समान ही होती है। 

हवा में लहराने मात्र से इस बांसुरी से संगीत निकलने लगता है। इस बांसुरी की कीमत यहां सिर्फ 100 रू. है वहीं विदेशों में इस बांसुरी की कीमत 1000 रू. तक है। इटली स्वीडन फ्रांस जैसे देशों में इस बांसुरी की बहुत मांग है। यह बांसुरी आपको चित्रकोट जलप्रपात के पास मिल जायेगी। ....ओम सोनी दंतेवाड़ा। 

7 जून 2018

टोरा के फायदे

टोरा के फायदे.....!

बस्तर में महुआ एक ऐसा वृक्ष है जिससे आदिवासियों को दो बार फायदा होता है। पहला तो महुये के फूल से। महुये के फूल को बाजार में बेचते है या उनसे शराब बनाकर बेची जाती है जिससे प्राप्त शुद्ध आय सीधे उनके जेब में जाती है। महुये के फूल के बाद दुसरा लाभ होता है इसके फल से। मई जून माह में महुये के वृक्ष फलों से लद जाते है  यहां स्थानीय भाषा  में इन फलो को टोरा कहा जाता है। 



टोरा फल के उपर लगी गुदा से सब्जी भी बनायी जाती है। बड़े बड़े बीजों को सूखा लिया जाता है। उन्हे फोड़कर बीजों की गिरी को रख लिया जाता है। कस्बों के हालर मिलों में उन बीजो से तेल निकलवाया जाता है। टोरा का तेल खाने में , हाथ पैर सिर में लगाने के लिये, दिये जलाने में उपयोग में लाया जाता है। हम दीपावली में दिये टोरे के तेल से जलाते है काफी देर तक दिये जलते है। ठंड के दिनों में टोरे का तेल हाथ पैरो में लगाने से त्वचा को शुष्क होने से बचाता है। 


तेल निकालने के बाद टोरा का बचा हुआ अवशेष काली बर्फी के समान हो जाता है। जिसे खली कहते है। खली जलाने से मच्छर दुर भागते है। शायद यह टोरे के तेल का कमाल है कि बस्तर में आदिवासियों के बाल कभी सफेद नहीं होते है। गाय भैंस भी टोरे फल को बड़े चाव से खाते है। मैने तो टोरे का उपयोग बता दिया कुछ तो आप भी बताईये और क्या काम आता है टोरा ? अधिक से अधिक शेयर करो मित्रो ।

6 जून 2018

कांकेर के भालू

कांकेर के भालू.....!

कांकेर के भालू शीर्षक से मतलब सिर्फ कांकेर के भालू से नहीं वरन पूरे बस्तर में पाये जाने वाले भालूओं से है। बस्तर में कांकेर ऐसा क्षेत्र है जहां भालू की सर्वाधिक उपस्थिति देखने को मिलती है। कांकेर कुल 12 पहाड़ियों में बसा हुआ शहर है। इन पहाड़ियों के बनी हुई प्राकृतिक गुफायें भालूओं के रहवास के लिये आदर्श स्थल है। कांकेर में आप हर जगह , किसी भी समय भालू देख सकते है। सप्ताह में शायद ही ऐसा कोई दिन नहीं होगा जिस दिन कांकेर में भालू ना दिखाई दे।

भालू भारत में लगभग हर जगह पाये जाते है। छत्तीसगढ़ के अधिकांश जंगली क्षेत्रों में भालू विचरण करते हुये दिखाई पड़ते है। बस्तर में कांकेर के अलावा कटेकल्याण, भैरमगढ़, बारसूर, नारायणपुर , कांगेरघाटी लगभग सभी जगह भालू दिखाई पड़ते है। कांकेर में भालू आपको सड़क पार करते हुये, पहाड़ो पर दौड़ लगाते हुये, सुबह मार्निग वाक में, कुयें में नहाते हुये, पेड़ पर धमाल मचाते हुये, मौसमी फल खाते हुये , बगीचों में टहलते हुये जरूर दिखाई देंगे। कांकेर वासी भी भालूओं के साथ घुलमिल गये है। वन विभाग के कर्मचारी आये दिन भालूओं को रहवास क्षेत्रों से दुर करने की मशक्कत करते रहते है।
भालू के लंबे लंबे काले घने बाल, पैने नुकीले नाखुन, सुंधने की गजब क्षमता वाली लंबी सी नाक होती है। उनका अन्य प्रसिद्ध नाम रीछ भी है। रामायण में जामवंत जो कि रीछो के सरदार थे ने अपनी पुरी रीछ सेना के साथ भगवान राम का साथ दिया था।

इनकी सूंघने की शक्ति बहुत तीव्र होती है। देखने में भारी भरकम लगने के बावजूद भालू तेज़ी से दौड़ सकते हैं और इनमें पेड़ों पर चढ़ने और पानी में तैरने की भी अच्छी क्षमता होती है।भालू झुण्ड के बजाय अकेला रहना पसंद करते हैं। भालू ज़्यादातर दिन के समय ही सक्रिय होते हैं। अपने छोटे भालू शावकों की सुरक्षा के लिये मादा भालू ज्यादा खतरनाक होती है उससे दुर ही रहना ज्यादा उचित है।
मेरा दो तीन बार भालू से आमना सामना हो चुका है। क्या आपने कभी भालू देखा है यदि हां तो कहां और न हीं तो कभी कांकेर आईये भालू से मुलाकात हो जायेगी। अधिक से अधिक शेयर करें। आप हमें इंस्टाग्राम में भी फालो कर सकते है। 

5 जून 2018

बस्तर का कोई विद्रोह

बस्तर का कोई विद्रोह......!

आज पर्यावरण दिवस पर विशेष जानकारी।

बस्तर में आदिवासियों ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध 1859 में साल के वृक्षों को बचाने के लिये व्रिदोह किया था जिसे कोई विद्रोह के नाम से जाना जाता है। 

बस्तर में आदिवासी जनजीवन पूर्णतः वनो एवं उससे मिलने वाले वनोपज पर ही आधारित है। वन और आदिवासियों का अटूट गठबंधन हजारो साल पुराना है। वनों के लिये आदिवासी जान दे भी सकते है और जान ले भी सकते है। रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव का शासन था। उस समय अंग्रेजी हुकुमत बस्तर की वन संपदा पर गिद्ध की नजरे गड़ाये हुई थी।बस्तर को साल वनों का द्वीप कहा जाता है। साल वनों को काटने के लिये ब्रिटिश शासन ने हैदराबाद की निजाम की कंपनी को ठेका दे दिया। 


 साल वनों की कटाई के विरोध में वर्तमान बीजापुर जिले के फोतकेल के जमींदार नागुल दोर्ला ने आसपास के  भोपालपटनम भीजी आदि के जमींदारों को एकत्रित किया एवं ब्रिटिश शासन के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। विद्रोही एक वृक्ष के पीछे एक सर का नारा देकर वृक्षों की कटाई करने वाले ठेकेदारों का सर कलम करने लग गये। ग्लसफर्ड स्वयं सेना लेकर इन विद्रोहियों के दमन के लिये बस्तर पहुंचा। परन्तु यहां स्थिति को समझकर एवं विद्रोहियों को भारी पड़ता देख ब्रिटिश हुकुमत ने हैदराबाद के कंपनी के सारे ठेके निरस्त कर दिये। 

यह विद्रोह बस्तर का पहला पर्यावरण आंदोलन था। बीजापुर जिले में नागुल दोर्ला ने इसे नेतृत्व दिया। दोरला आदिवासियों ने इस विद्रोह में बढ चढ़ कर हिस्सा लिया। दोरलाओं का अन्य नाम कोई भी है जिसके कारण 1859 का यह विद्रोह कोई विद्रोह के नाम से जाना जाता है। लेख ओम सोनी।कापी पेस्ट ना करे।

एक सुरा - “सुराम“

एक सुरा - “सुराम“
आज की पोस्ट राज शर्मा जी के द्वारा, इस पोस्ट के लिये राज शर्मा को विशेष धन्यवाद एवं हृदय से आभार।

सुराम एक पेय पदार्थ है जो मुख्यतः बस्तर संभाग के सभी जिलों में पीया जाता है। दिखने में ये गहरा भूरा एवं लाल रंग का होता है। स्वाद में हल्का मीठा-खट्टा एवं कसैला सा होता है। इसे बस्तर के आदिवासी बढ़े चाव से पीते है, इनका मानना है कि इसके पीने से शरीर मे खून की मात्रा बढ़ती है एवं शरीर बलिष्ट बनता है। 


हर मौको पे पिये जाने वाला ये सुराम घर में ही तैयार किया जाता है। आदिवासी महिलायें सुराम को हाट बाजार में बेचने के लिये लाती है जिससे उन्हे अच्छी खासी आमदनी हो जाती है।



“सुराम बनाने के लिये मुख्य आवश्यकता है महुवे की। महुवे को धो कर इसे सुखा लिया जाता है फिर इसे कड़ाई में भूनकर देर शाम तक पानी के साथ उबाला जाता है तथा फिर उसे उतार कर ढक लिया जाता है। अब इसे छान कर दूसरी हांडी में डाल दिया जाता है। इसमें कुछ लोग आम की फांक का भी कभी कभी प्रयोग करते हैं। जितनी देरी से इसका सेवन होगा उतना ही अधिक नशा सिर पर चढेगा।

4 जून 2018

कमर के आभूषण- करधन

करधन.....!
आज बात करते है कमर के आभूषण करधन की। कमर में भारी और चौड़े कमरबंद-करधन पहनने की परंपरा प्राचीन काल से है। विभिन्न प्राचीन प्रतिमाओं में कमर बंद करधन का अंकन दिखाई पड़ता है।
कमर में सामान्यतः चांदी का करधन पहना जाता है। संपन्न लोग सोने का भी करधन पहनते है। आज कल बस्तर में भी महिलायें करधन पहनती हुई दिखाई देती है।


करधन झालर वाले या सादे चौड़ी पटटी के होते है। सोने चांदी के अलावा ये गिलट के भी बनते है। करधन को कंदोरा भी कहते है। करधन का वजन आधे किलो से उपर ही रहता है। करधन में चांदी के जंजीरों के चार पांच लड़ होती है। सामने इसे पेच के द्वारा बांधा जाता है। चांदी का करधन महिलाओं के श्रृंगार का मुख्य हिस्सा है। आज कल पतले एवं हल्के करधन भी बाजार में उपलब्ध है जिसका चलन तेजी से बढ़ रहा है। कुछ समाजो के विवाह में करधन का होना अतिमहत्वपूर्ण माना जाता है। उसके बिना विवाह की रस्में संपन्न नहीं होती है। कमर में करधन इसलिये पहने जाते है कि महिलाओं को भरी हुई मटकी उठाने में आसानी होती है। छोटे बच्चों को भी छोटे छोटे पतले से करधन पहनाये जाते है। 
चित्र अलामी स्टाक फोटो। 

2 जून 2018

बस्तरिया मोर

बस्तरिया मोर.....!

मोर प्रारंभ से इंसानों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। मोर को हिन्दु धर्म में सर्वोच्च पक्षी माना गया है।  श्री कृष्ण के मुकुट में लगा मोर पंख इस पक्षी के महत्व को दर्शाता है। कार्तिकेय का वाहन भी मोर है। सिर पर इसकी कलगी इसके ताज को दर्शाती है जिससे मोर अपनी सुंदरता के कारण पक्षियों का राजा कहलाता है। अपने पंख फैलाकर एक टांग में नाचता हुआ मोर बेहद ही खुबसूरत लगता है। अनेक राजाओ ने मोर को अपने सिक्को में स्थान दिया। मोर के अद्भुत सौंदर्य के कारण ही भारत सरकार ने 26 जनवरी 1963 को इसे राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया। मोर का वैज्ञानिक नाम पावो क्रिस्टेटस है। 


बस्तर के जंगलो में मोर कभी बहुतायत में पाये जाते रहे है। आज भी देखने को मिल जाते है। बस्तर के कई गांवों में मोर को पाला जाता है। जंगल में मोरनी के घोसलों से अंडे लाकर मुर्गी के अंडो के साथ रख दिये जाते है। फिर उनसे मोर के छोटे छोटे चुजे निकलकर गांव भर में घुमते रहते है। नर और मादा मोर की पहचान बिलकुल सरल है। नर मोर नीले, जामुनी रंग के अपने सुंदर पंखों के कारण पक्षियों का राजा कहलाता है वहीं मोरनी बड़ी सी मुर्गी की तरह बिल्कुल सौंदर्य हीन होती है। 

मोर के पंखों से झाड़फूंक करने वाले चंवर भी बनाये जाते है। तीरों में भी पीछे मोर के पंख ही लगाये जाते है। मैने बस्तर के कई गांवो में मोरों को देखा है। मोर का प्रस्तुत चित्र तुमनार के पास के कासोली पारा में लिया गया है। देश के लगभग सभी हिस्सो में मोर पाये जाते है। उत्तरी भारत राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, हरियाणा आदि राज्यो के  गांवो में मोर निडरता से विचरण करते हुये दिखाई पड़ते है। 


छत्तीसगढ में बालोद से दल्ली राजहरा जाने वाले रोड में भी मैने कई बार मोर भागते हुये देखे है। जंगल में मोर नाचा किसने देखा मैने देख मैने देखा।  आप ने मोर देखा है तो कहां देखा है ? 

1 जून 2018

कुसूम की उपेक्षा

कुसूम की उपेक्षा.....!

शीर्षक देखकर किसी कुसूम नाम की युवती की पोस्ट ना समझिये, मैं बात कर रहा हूं कुसूम फल की। जिसे आप में अधिकांश लोगो ने खाया होगा। बस्तर में मौसमी फलों की बंपर पैदावार होती है। आदिवासी जंगलों से इन फलों को लाकर बेचते है जिससे उन्हे अच्छी खासी आय हो जाती है। कुछ फल ऐसे है जिनकी उत्पादकता बहुत है परन्तु खपत शून्य है। वैसा ही एक फल है कुसूम। 

कुसुम गोल गोल हरा सा बेर के आकार का फल होता है। उपर हरा आवरण होता है अंदर बीज के उपर नारंगी रंग खटटी मीठी गुदे की परत चढ़ी होती है जिसे खाया जाता है। बाजार में इस फल की बहुत ही कम डिमांड है जिसके कारण ये पेड़ो पर सड़ जाते है। इस फल से विटामिन सी की प्राप्ति होता है। इसका स्वाद खटटा मीठा होता है। मीठे कुसुम फल ज्यादा अच्छे लगते है। मेरी ढाई साल की बेटी ने कल पहली बार छिंद का फल खाया है जल्द ही कुसूम फल का भी स्वाद चखाना है।  आप ने कुसूम फल खाया है कि नहीं ? किस नाम से जानते है आप? फोटो नेट से लिया गया है जिस किसी सज्जन ने यह फोटो लिया उसके लिये धन्यवाद।