28 सितंबर 2018

डेरी गड़ाई

बस्तर दशहरा की दुसरी कड़ी - डेरी गड़ाई रस्म......!

बस्तर दशहरा में पाटजात्रा के बाद दुसरी सबसे महत्वपूर्ण रस्म है डेरी गड़ाई। बस्तर का दशहरा 75 दिनों तक चलने वाला विश्व का सबसे लंबा दशहरा है। बस्तर दशहरा की शुरूआत पाटजात्रा (11 अगस्त 2018) की रस्म से हो चुकी है। पाटजात्रा के बाद डेरी गड़ाई की रस्म बेहद महत्वपूर्ण रस्म है। जगदलपुर के सिरासार भवन में (22 सितंबर 2018) को माझी चालकी मेंबर मेंबरिन की उपस्थिति में पुरे विधि विधान के साथ डेरी गड़ाई रस्म पूर्ण की गई।


डेरी गड़ाई रस्म बिरिंगपाल के ग्रामीण साल की दो शाखा युक्त दस फीट की लकड़ी लाते है जिसे हल्दी का लेप लगाकार प्रतिस्थापित किया जाता है। इसे ही डेरी कहते है। इसकी प्रतिस्थापना ही डेरी गड़ाई कहलाती है। सिरासार भवन में दो स्तंभों के नीचे जमीन खोदकर पहले उसमें अंडा एवं जीवित मोंगरी मछली अर्पित की जाती है। फिर उन गडढो में डेरी को स्थापित किया जाता है।

दशहरा की विभिन्न रस्मों मे मोंगरी मछली की बलि दी जाती है जिसकी व्यवस्था समरथ परिवार करता है। वहां उपस्थित महिलाओं ने हल्दी खेलकर खुशियां मनाती है। इस रस्म के बाद बस्तर दशहरा के विशालकाय काष्ठ रथों का निर्माण कार्य प्रारंभ हो जाता है। विगत छः सौ साल से डेरी गड़ाई की रस्म मनाई जा रही है। बेड़ा और झार उमरगांव के लगभग 150 कारीगर मिलकर विशाल रथों का निर्माण करते है।

रथ निर्माण में कोई विघ्न ना हो इसलिये देवी को याद कर डेरी गड़ाई की रस्म पुरी की जाती है। ज्ञात हो कि बस्तर में राजा पुरूषोत्तम देव (1409) के काल से बस्तर दशहरा मनाया जा रहा है। इस दशहरा में रावण ना जलाकर रथ खींचने की अनूठी परंपरा का निवर्हन किया जाता है। 75 दिनों तक चलने वाले इस दशहरें में विभिन्न रस्मों की अदायगी की जाती है। जिसमें से डेरी गड़ाई दुसरी प्रमुख रस्म है। इतने सुंदर फोटो के लिये भाई अजय सिंह जी का बहुत शुक्रिया।

27 सितंबर 2018

बस्तर पर्यटन

बस्तर पर्यटन.....!
27 सितंबर विश्व पर्यटन दिवस पर विशेष।
आज के समय में पर्यटन उद्योग किसी भी देश या राज्य के आर्थिक स्थिति को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। कई देशो का नाम दुनिया में सिर्फ पर्यटन के लिये जाना जाता है। हाल के कुछ सालो में भारत में भी पर्यटन उद्योग में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई। हमारे देश के कई राज्य पर्यटन क्षेत्रों में बेहद ही लोकप्रिय है जहां हर साल विदेशी सैलानी धुमने आते है।


छत्तीसगढ़ में पर्यटन उद्योग की अपार संभावना है। छत्तीसगढ़ में बस्तर एक ऐसा क्षेत्र है जहां पर्यटन के लिहाज से असीम संभावनायें है। बस्तर को तो ईश्वर ने स्वर्ग बनाया है। हरी भरी वादियां, उंचे चौड़े झरने, घाटियां, ऐतिहासिक स्थल और आदिवासी संस्कृति बस्तर को पर्यटन क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान देती है।

माओवादी घटनाओं के कारण लोग बस्तर आने में कतराते थे किन्तु अब समय बदल गया है। अब अन्य राज्यों के पर्यटकों के अलावा विदेशी सैलानी भी बस्तर आने लगे है। बस्तर का चित्रकोट जलप्रपात, तीरथगढ़, कुटूमसर की गुफाये, बारसूर दंतेवाड़ा जैसे स्थानों ने हमेशा पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। मध्य बस्तर के बाद दक्षिण बस्तर प्राकृतिक रूप से बेहद ही संपन्न है।

यहां का हांदावाड़ा जलप्रपात, नंबी जलधारा आने वाले सालो में एशियन नियाग्रा चित्रकोट जलप्रपात को भी पर्यटक संख्या में पीछे छोड़ देगा। बस्तर दशहरा, फाल्गुन मेला बस्तर की सांस्कृतिक पूंंजी है जिसे देखने और समझने के लिये विदेशी सैलानियों को आना पड़ता है। बस्तर को जानने वाला हर कोई ढोलकल जरूर जाना चाहता है।

यहां बनने वाले घडवा आर्ट के सजावटी वस्तुयें देश विदेश के लोगो के घरो में बस्तर के पहचान के तौर पर जरूर मिलती है। पर्यटन उद्योग के फलफूलने से यहां के स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध हो रहे है जो बेहद ही सुखद संकेत है।

मां दंतेश्वरी के आर्शीवाद से ही बस्तर आज स्वर्ग के समान सुंंदर है। मुझे पुरा यकिन है कि आने वाले सालों में बस्तर पुरे देश में पर्यटन स्थलों की सूची में सबसे उपर रहेगा। बस्तर को स्वच्छ और सुंदर बनाये रखने का दायित्व हमारा है जिसे बखूबी निभाना है।

26 सितंबर 2018

चांदी के कड़े

अब नहीं पहने जाते है चांदी के कड़े....!

महिलाओं की तरह पुरूषों को भी गहनों से खासा लगाव रहा है। पुराने दिनों में पुरूष भी महिलाओं की तरह ही सोने चांदी के गहने पहनते थे। जिसका प्रमाण हमें आज भी बस्तर में देखने को मिलता है। यहां के जनजातीय समाज के पुरूषों में महिलाओं की तरह, कान , गले, हाथ, पैर जैसे अंगों में महिलाओं की तरह ही सोने चांदी के आभूषण पहनने की आदिम परंपरा रही है। 


पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण, अब बस्तर के नौजवानों को अपने पूर्वजों की तरह गहनों से कोई खास लगाव नहीं रहा। धीरे धीरे बस्तर से भी पुरूषों द्वारा पहने जाने वाले परंपरागत आभूषण लूप्त होते जा रहे है। किसी खास आयोजन पर ही पुराने बुढ़े बुजुर्ग ही सोने चांदी के गहने पहने हुये दिख जाते है। केशकाल के भंगाराम जातरा में पुरूषों द्वारा पहने जाने वाले गहनों की खोज में बहुत कुछ नया मिला।  


यहां मैने कुछ बुजुर्गो के हाथों में चांदी के कड़े देखे जो कि पुराने चांदी के सिक्को से बने हुये थे। ये साधारण कड़े शुद्ध ठोस चांदी से बने हुये है। आजकल के लड़को में भी कड़े पहनने का फैशन है लेकिन सिर्फ तांबे या गिलट के ही। चांदी के कड़े बहुत पुराने समय से पहने जा रहे है। आज के समय जहां सिर्फ एक हाथ में ही कड़ा पहना जाता है वहीं पुराने समय में दोनो हाथो में कड़े पहने जाते थे। 

बस्तर के आदिवासी पुरूषों के गहनो में कड़ा एक प्रमुख आभूषण रहा है जो आज सिर्फ बुजूर्गो के हाथो में दिखलाई पड़ता है। इन आभूषणों का चलन अब कम हो गया है जिसके कारण भविष्य ऐसे गहने पहनने वालों की सिर्फ फोटो ही एकमात्र प्रमाण होगी....ओम सोनी ! 

24 सितंबर 2018

आंगादेव पर जड़े है ब्रिटिशयुगीन सिक्के

आंगादेव पर जड़े है ब्रिटिशयुगीन सिक्के.....!

बस्तर के जनजातीय समाज में विभिन्न देवी देवताओं के प्रतीक के रूप में आंगादेव , पाटदेव बनाने की प्रथा है। आंगादेव कटहल की लकड़ी से बनाया जाता है। जिसमें आठ हाथ लंबी दो गोलाकार लकड़ियों पर दोनो सिरों पर चार हाथ लंबी गोलाकार लकड़ी से बांधा जाता है। इन्हे कभी भी सीधे जमीन पर नहीं रखा जाता। इनके रखने का विशेष स्थान और चौकी होती है।


ग्रामीण आंगादेव और पाटदेव को जागृत मानते हैं और इन्हे हर संभव खुश रखने का प्रयास करते हैं। किसी गांव या किसी के घर में आपत्ति आने पर बाकायदा इन्हे आमंत्रित किया जाता है। चार सेवादार इन्हे कंधों पर रख नियत स्थान तक पहुंचाते हैं।
आंगादेव का मुख्य पुजारी जो भी निर्णय लेता है या फैसला सुनाता है। वह सर्वमान्य होता है।आंगादेव पर चांदी के नाग, चांदी के आभूषण जड़े होते हैं। पुराने सिक्कों को भी इसमें टांक कर इसे सुन्दर दिखाने का प्रयास किया जाता है।
देवी देवताओं को सोने चांदी के आभूषण भेंट करने की पुरानी परंपरा है। अब वनांचल में रहने वाले ग्रामीण इतने सक्षम नहीं रहे कि वे सोने चांदी की श्रृंगार सामग्री भेंट कर सकें, इसलिए वे अपने घरों वर्षों से सहेज कर रखे चांदी के पुराने सिक्कों को मनौती पूर्ण होने पर अर्पित करते हैं। देव को अर्पित ऐसे सिक्कों को देवों में जड़ दिया जाता हैं, चूंकि ऐसा करने से चोरी की संभावना भी नहीं रहती।
चांदी के सिक्को में ब्रिटिशकालीन सिक्के, तांबे के सिक्के आंगादेव में जड़े जाते हैं।
भंगाराम जातरा केशकाल में एक आंगादेव पर मुझे ऐसी जार्ज षष्ठम का चांदी का सिक्का जड़ा हुआ दिखा। जार्ज षष्ठम 1936 से 1952 तक ब्रिटेन के सम्राट थे।


यह चांदी का सिक्का एक रूपये का है जिसमें जार्ज षष्ठम का चित्र अंकित है। यह सिक्का 1942 के आसपास जारी हुआ जो वजन में लगभग 12 ग्राम के आसपास है।
बस्तर के कई ग्रामों में ऐसे ही आंगादेव पाटदेव में ब्रिटिशकालीन चांदी के सिक्के जड़े हुये मिलते है जिसके कारण आंगादेव पाटदेव बस्तर में सिक्को के चलते फिरते संग्रहालय बन गये है----ओम सोनी।

22 सितंबर 2018

लिंगई माता- यहाँ लिंग के रूप में होती है देवी की पूजा

लिंगई माता- यहाँ लिंग के रूप में होती है देवी की पूजा.....!

छत्तीसगढ़ के अलोर ग्राम में देवी का एक अनोखा मन्दिर विद्यमान है। इस मन्दिर में देवी की पूजा लिंग के रूप में होती है। या ऐसा कहें कि यह ऐसा शिवलिंग है जो देवी के रूप में पूजा जाता है। इस मंदिर में देवी की पूजा लिंग रूप में क्यों होती इसके पीछे मान्यता यह है कि इस लिंग में शिव और शक्ति दोनों समाहित हैं। यहाँ शिव और शक्ति की पूजा सम्मिलित रूप से लिंग स्वरूप में होती है। इसीलिए इस देवी को लिंगेश्वरी माता या लिंगई माता कहा जाता है।


कोंडागॉव जिले मे फरसगॉव से बड़े डोंगर के तरफ नौ किलोमीटर की दुरी पर अलोर ग्राम से लगभग 2 किमी दूर उत्तर पश्चिम में एक पहाड़ी है। इस पहाड़ी को लिंगई गट्टा कहा जाता है। इस छोटी पहाड़ी के ऊपर विस्तृत फैला हुआ चट्टान के उपर एक विशाल पत्थर है। इस पत्थर की संरचना भीतर से कटोरानुमा है। इस मंदिर के दक्षिण दिशा में एक सुरंग है जो इस गुफा का प्रवेश द्वार है। इस सुरंग का द्वार इतना छोटा है कि बैठकर या लेटकर ही यहां प्रवेश किया जा सकता है। गुफा के अंदर 25 से 30 आदमी बैठ सकते हैं। गुफा के अंदर चट्टान के बीचों-बीच निकला शिवलिंग है जिसकी ऊंचाई लगभग दो फुट है। कहा जाता है कि इसकी ऊंचाई पहले बहुत कम थी जो समयानुसार बढ़ रही है!! परम्परानुसार इस प्राकृतिक मंदिर में प्रतिदिन पूजा नहीं होती है। इस मन्दिर का द्वार वर्ष में केवल एक दिन के लिए ही खुलता है, और इसी दिन यहाँ विशाल मेला लगता है। 

संतान प्राप्ति की मन्नत लिये यहां हर वर्ष हजारों की संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष नवमीं तिथि के पश्चात आने वाले बुधवार को इस प्राकृतिक देवालय को खोल दिया जाता है, तथा दिनभर श्रद्धालुओं द्वारा दर्शन तथा पूजा अर्चना की जाती है।

इस देवी धाम से जुड़ी दो विशेष मान्यताएं प्रचलित हैं। पहली मान्यता संतान प्राप्ति के बारे में है। यहाँ आने वाले अधिकांश श्रद्धालु संतान प्राप्ति की मन्नत मांगने आते है। यहां मनौती मांगने का तरीका अनूठा है। संतान प्राप्ति की इच्छा रखने वाले दंपति को खीरा चढ़ाना होता है । प्रसाद के रूप में चढ़े खीरे को पुजारी, पूजा के बाद दंपति को वापस लौटा देता है। दम्पति को शिवलिंग के सामने ही इस ककड़ी को अपने नाखून से चीरा लगाकर दो टुकड़ों में तोड़कर इस प्रसाद को दोनों को ग्रहण करना होता है। चढ़ाए हुए खीरे को नाखून से फ़ाडकर शिवलिंग के समक्ष ही (क़डवा भाग सहित) खाकर गुफा से बाहर निकलना होता है।

यहाँ प्रचलित दूसरी मान्यता भविष्य के अनुमान को लेकर है। एक दिन की पूजा के बाद जब मंदिर बंद कर दिया जाता है तो मंदिर के बाहर सतह पर रेत बिछा दी जाती है। इसके अगले साल इस रेत पर जो चन्ह मिलते हैं, उससे पुजारी अगले साल के भविष्य का अनुमान लगाते हैं। उदाहरण स्वरूप दृ यदि कमल का निशान हो तो धन संपदा में बढ़ोत्तरी होती है, हाथी के पांव के निशान हो तो उन्नति, घोड़ों के खुर के निशान हों तो युद्ध, बाघ के पैर के निशान हो तो आतंक तथा मुर्गियों के पैर के निशान होने पर अकाल होने का संकेत माना जाता है।

चूँकि प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष नवमीं तिथि के पश्चात आने वाले बुधवार को इस प्राकृतिक देवालय को खोल दिया जाता है, यहां दर्शन के लिये एक बार जरूर जाये---!

20 सितंबर 2018

नलों के नरसिंह

नलों के नरसिंह......!

गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के समय बस्तर महाकांतार कहलाता था। हरिषेण कृत प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त द्वारा महाकांतार के व्याघ्रराज को परास्त किये जाने की जानकारी श्लोक की इस पंक्ति से प्राप्त होती है -’कौसलक महेंद्र महाकांतार व्याघ्रराज, कौरल (ड) क मंटराज पैष्ठपुरक महेंद्र गिरि।’ अर्थात कौसल के राजा महेन्द्र, और महाकांतार के व्याध्रराज को समुद्रगुप्त ने पराजित किया।
समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के 12 राज्यों के प्रति ग्रहणमोक्षानुग्रह की नीति अपनायी जिसके तहत इन राजाओं को परास्त इन्हे इनका राज्य वापस लौटा दिया और उन राजाओं ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। प्रयाग प्रशस्ति में जिस कौसल का नाम आया उसे विद्वानों ने वर्तमान छत्तीसगढ़ क्षेत्र और महाकांतार को बस्तर क्षेत्र माना है।



समुद्रगुप्त का शासन काल 335 से 375 ई तक माना गया है। प्रयाग प्रशस्ति एवं समुद्रगुप्त के राजत्वकाल के आधार पर यह प्रमाणित होता है कि चौथी सदी में बस्तर में नलवंशी शासक व्याध्रराज का शासन था।
नलवंशी शासकों का शासन क्षेत्र उत्तर में राजिम , दक्षिण में गोदावरी इंद्रावती एवं गोदावरी शबरी का संगम, पूर्व में कोरापुट जयपोर एवं दक्षिण में गढ़चिरोली महाराष्ट्र तक विस्तृत था। इतने बड़े क्षेत्र में नलवंशी शासको ने अपनी सत्ता कायम की। चौथी सदी से छठवी सदी तक इन्होने बहुत ही शानदार तरीके से शासन किया। छठवी सदी में दक्षिण से चालुक्यों के आक्रमणों ने नल सत्ता को कमजोर कर दिया और नागो ने बस्तर में घुसपैठ प्रारंभ कर दिया जिसके कारण नलों का राज्य सिकुड़ता चला गया।
छत्तीसगढ़ में राजिम लोचन मंदिर नलकालीन स्थापत्यकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जो कि आठवी सदी के मध्य में बना हुआ है वहीं इसके पूर्व नल राजाओं ने इंटो से मंदिर बनवाये थे जो आज भी बस्तर के कोने कोने में टीलो के रूप में मिलते है। नलों ने शैव , वैष्णव और बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया जिसके कारण नलों के टीलो से शिवलिंग, बौद्ध मूर्तिया और विष्णु नरसिंह की प्रतिमायें ही मिलती है। बस्तर में उत्तर एवं मध्य बस्तर क्षेत्र में नलकालीन प्रतिमायें आज भी देखने को मिलती है।
केशकाल में भगवान नरसिंह एवं विष्णु की नलयुगीन प्रतिमायें आज भी उपेक्षित पड़ी है। ये दोनो प्रतिमायें लगभग 1500 वर्ष से अधिक पुरानी प्रतीत होती है। आकार में ये प्रतिमायें तीन फीट से कुछ अधिक बड़ी है। नरसिंह की प्रतिमा तो बेहद ही दुर्लभ है।

भगवान नरसिंह की यह प्रतिमा मुद्राओं के आधार पर योग नरसिंह की प्रतिमा के काफी करीब लगती है। केशकाल क्षेत्र में भगवान नरसिंह की ऐसी और भी प्रतिमायें देखने को मिलती है। भगवान विष्णु की प्रतिमा की बात करे तो चतुर्भुजी विष्णु के हाथ खंडित होने के कारण उनके आयुध के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है मात्र शंख ही स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
कीरिट मुकूट भी बहुत सादा है जो कि चौरस आकार में बना है। पैरों में पुरी धोती की बजाय सिर्फ घुटने तक ही धोती पहनी हुई जिस पर गमछा बांधा हुआ है। शिल्पकार ने विष्णु प्रतिमा में उस समय के पहनावें का अंकन किया। पंद्रह सौ साल पहले और आज भी बस्तरिया इस प्रकार धुटनों तक धोती पहनता है जिस पर गमछा बांधा हुआ रहता है। ये प्रतिमा बहुत ही दुर्लभ है जिनका संरक्षण किया जाना आवश्यक है। 
........ओम सोनी

11 सितंबर 2018

बादलों का नगर - आकाश नगर

बादलों का नगर - आकाश नगर....!

बस्तर पूर्णतः पहाड़ी क्षेत्र है जो कि घने वनों से आच्छादित है। इन गगनचूंबी पहाड़ियों के कारण यहां का मौसम वर्ष भर सुहाना रहता है। बस्तर की बैलाडिला पहाड़ी श्रृंखला  अपने शुद्ध लौह अयस्क के लिये पुरे विश्व में मशहूर है। यहां की लौह खदान पुरे एशिया में सबसे बड़ी लौह खदानों में से एक है। बैलाडिला  पर्वत श्रृंखला में नंदीराज की चोटी पुरे बस्तर में पहली एवं छत्तीसगढ़ में दुसरी सबसे उंची चोटी है



इसकी उंचाई लगभग 3000 फिट तक है। नंदीराज पर्वत की आकृति बैल के कुबड़ के समान है जिसके कारण इस क्षेत्र को बैलाडिला के नाम से जाना जाता है। 1966 ई में एनएमडीसी ने बचेली और किरन्दुल से लौह अयस्क का खनना प्रारंभ किया था। पहाड़ों पर एनएमडीसी ने कर्मचारियों के रहने के लिये बचेली शहर में पहाड़ के उपर आकाश नगर एवं किरन्दुल में पहाड़ के उपर कैलाश नगर बसाये थे। ये बस्तर के पहले हिल स्टेशन थे। इन हिल स्टेशनों का मौसम बेहद ही सुहावना होता है। यहां समय बिताने का एक अलग ही अनुभव होता है। 



बैलाडिला की पुरी पहाड़ियां घने वनों से ढकी हुई है जिसके कारण यहां  साल भर वर्षा होते रहती है। अधिक उंचाई के कारण ये पहाड़ियां साल में अधिकतर समय बादलों से ढकी रहती है। आकाशनगर में बरसात के समय तो  बादल पुरी तरह से छा जाते है। बादलों का जमावड़ा हो जाता है जिसके कारण भरे दिन में भी एक फीट की दुरी का दृश्य भी नजर नही आता है। 


बादल घरों का दरवाजा खटखटाते है ऐसी अनोखी घटना सिर्फ आकाश नगर में ही होती है।  बादलों की दौड़ देखना हो तो आकाश नगर में ही इसका आनंद लिया जा सकता है। चेहरे पर पड़ती हल्की फुहारे तन मन को प्रफुल्लित कर देती है। आकाश नगर को बादलों का नगर कहे तो यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सचमूच बादलों से बाते और मित्रता सिर्फ आकाश नगर में ही की जा सकती है। 



बचेली से पहाड़ पर स्थित आकाश नगर तक जाने की कुल दुरी 30 किलोमीटर है। 30 किलोमीटर की धुमावदार सर्पीली घाटियों से जाते समय तन का रोम रोम रोमांचित हो जाता है। एक तरफ तो सुहावने मनमोहक दृश्य तो दुसरी तरफ गहरी खाईया ये दोनो के दृश्यों से भय  एवं रोमांच का मिश्रित भाव उत्पन्न होता है। तन पर पड़ती पानी की हल्की फुहारे तो खुशी को दुगुनी कर देती है। 

प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर को पुरे देश में विश्वकर्मा जयंती बड़े धुमधाम से मनाई जाती है। बैलाडिला के इन औद्योगिक नगरों में भी विश्वकर्मा जयंती के दिन विश्वकर्मा भगवान की प्रतिमा स्थापित कर पूजा अर्चना की जाती है। इस दिन लौह अयस्क खनन कार्य पूर्णतः बंद रहता है। नक्सली घटनाओं के कारण आकाश नगर पूर्णतः खाली कर दिया गया है एवं आम लोगों की आवाजाही बंद है। 


17 सितंबर को ही मात्र एक दिन के लिये आकाश नगर सैलानियों के लिये खोल दिया जाता है जिसमें अपनी चारपहिया वाहनों या दोपहिया वाहनों से पर्यटक वहां जा पाते है। एनएमडीसी प्रबंधन के द्वारा भी पर्यटकों के आने जाने के लिये बस की व्यवस्था रहती है। खदान क्षेत्र में लगी भीमकाय वाहनों को देखने का अवसर इस दिन प्राप्त हो पाता है। इन दानवाकार वाहनों का आकार किसी तीन मंजिला भवन से कम नहीं होता है। इनके पहियें की उंचाई मात्र ही 10 फिट तक होती है। 



भक्तिमय वातावरण में , सर्पिलाकार घाटियों में बादलो के साथ सफर करने का अनुभव काफी रोमांचकारी होता है। ऐसा अनुभव लेना है तो 17 सितंबर को विश्वकर्मा जयंती के उपलक्ष्य मे आकाशनगर जरूर आये। रायपुर से बचेली की कुल दुरी 450 किलोमीटर है। रायपुर से बैलाडिला की सीधी बसे उपलब्ध है। रायपुर से मात्र 12 घंटे के सफर से बैलाडिला पहुंचा जा सकता है। 


बैलाडिला , विशाखापटनम से यह सीधे रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है जिसके कारण ओडिसा एवं बंगाल से आप रेल के माध्यम से पहुंच सकते है। दुर्ग से रायपुर  होते हूये उडिसा के रास्ते से रेल के माध्यम से जगदलपुर और बैलाडिला पहुंचा जा सकता है.......ओम!
कृपया पोस्ट कापी ना करे, इस पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करें। 

10 सितंबर 2018

पिसवा बांस से बना एक बैग

पिसवा- बैग......!

पिसवा कोई खाने पीने की चीज नहीं है और ना ही कोई मनोरंजन की वस्तु। पिसवा बांस से बना एक बैग है। एक झोले की तरह है जिसे कंधे पर लटका कर रखा जाता है। जहां आज नायलोन, चमड़े एवं कपड़े से बने हुये झोले या छोटे बैग का चलन है वही बस्तर के जनजातीय समाज में आज भी यदाकदा बांस से बने पिसवा बैग कंधे पर लटका दिखाई देता है।
बांस का आदिवासी जीवन में महत्व इतना अधिक है कि जनजातीय समाज में रोजमर्रा जीवन की अधिकांश उपयोगी वस्तुये बांस से ही बनायी जाती है। यह पिसवा भी बांस की पतली खपचियों से बना हुआ है जिसे छोटे से बैग के आकार में बनाया गया है। ।
इस पिसवा बैग में पानी की बोतल, पैन , डायरी आदि उपयोगी वस्तुये रखी जाती है। सदियों से बस्तर के जनजातीय समाज में इस तरह के बांस से बने सामानों का चलन रहा है किन्तु वर्तमान समय में अन्य विकल्पों के कारण पिसवा जैसे अन्य कई उपयोगी वस्तुये अब चलन से बाहर हो गई है।
कभी कभार किसी मेले या अन्य आयोजन में किसी के कंधे पर लटका पिसवा दिख जाता है। कल केसकाल के भंगाराम माई के दरबार में मुझे एक व्यक्ति के कंधे पर लटका पिसवा दिखाई दिया तो कुछ तस्वीरे ले ली। आप भी कुछ बताईये पिसवा के बारे में.......ओम!

5 सितंबर 2018

बस्तर में जैन धर्म

बस्तर में जैन धर्म......!

बस्तर में राजभूषण महाराज सोमेश्वर देव (1069 ई से 1110 ई) ने चक्रकोट राज्य में जैन धर्म संरक्षण प्रदान किया था। तत्कालीन समय के चक्रकोट राज्य मेंजैन साधु निवास करते थे। छिंदक नाग राजाओं ने बस्तर में पारसनाथ, नेमिनाथ, आदिनाथ आदि जैन तीर्थंकरों की बहुत सी प्रतिमायें बनवायी थी। कुरूषपाल, बारसूर, नारायणपाल, बोदरा आदि स्थानों में आज भी ये प्रतिमायें देखने को मिलती है।
बस्तर के आसपास ओडिसा क्षेत्र में खारवेल के समय से ही जैन धर्म का प्रभाव स्थापित हो गया था परन्तु बस्तर में सिर्फ नागवंशी शासक सोमेश्वर देव ने जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया था। ग्यारहवी सदी से पूर्व की जैन धर्म की कोई भी प्रतिमा या अवशेष बस्तर में प्राप्त नहीं होते है। सोमेश्वरदेव का राज्य कोरापुट एवं जयपोर से आगे तक विस्तृत था। इस क्षेत्र में उसके सामंत चंद्रादित्य का शासन था। इस क्षेत्र में पूर्व से प्रचलित जैन धर्म को सोमेश्वरदेव ने भरपूर संरक्षण एवं सहयोग दिया था।
बस्तर के पास जयपोर - कोरापुट क्षेत्र में जैन तीर्थंकरों की पुरानी प्रतिमा एवं जिनालय आज भी सुरक्षित अवस्था मे मिलते है। जयपोर से आगे अरकु जाने वाले मार्ग में नंदपुर ग्राम है इस नंदपुर ग्राम के पास ही मुख्य सड़क पर सुबई नामक छोटा सा गांव है। इस सुबई गांव में जैन मंदिर बने हुये है।
ये मंदिर एक समुह में है जिसमें कुल 5 मंदिर है। जिसमें सभी मंदिर सुरक्षित एवं सही अवस्था में है। आकार में ये छोटे मंदिर मात्र गर्भगृह युक्त है। जिसमें यक्षिणी, ऋषभदेव, की प्रतिमायें स्थापित है। ये सभी मंदिर आठवी सदी में निर्मित माने गये है। बस्तर से सबसे पास में ही सुबई के ही जैन मंदिर है जो सबसे पुराने है।
ये बस्तर कोरापुट क्षेत्र में सदियों से प्रचलित जैन धर्म के मूक गवाह है जो आज भी शान से खड़े है। सड़क मार्ग से जयपोर से अरकु जाते समय इन मंदिरों को देखा जा सकता है....ओम!

1 सितंबर 2018

अनजाना बस्तर- पोन्दुम झरना

अनजाना बस्तर- पोन्दुम झरना......!


बस्तर की खोज कभी ना खत्म होने वाली खोज है। बस्तर को जितना जानने की कोशिश करेंगे उतनी नयी जानकारी पाओगे, जितना बस्तर में घुमोगे उतना ही बस्तर की अनजानी जगहों को देखने का मौका मिलेगा। बस्तर में प्रकृति ने झरनो, जंगलो, पुराने मंदिरों, रीति रिवाजों के साथ अपनी अनुपम छटा बिखेरी है। 



झरने तो बस्तर में अनगिनत है। इन झरनो ने बस्तर को दुनिया भर में मशहूर किया है। पर्यटकों में बस्तर के झरने देखने की ललक इतनी है कि वे हजारों किलोमीटर दुर से इन्हे देखने आते है। 

कुछ झरने आज मशहूर पर्यटन केन्द्र बन गये है और कुछ आज भी पर्यटकों की नजरों से ओझल है। ऐसा ही एक अनजाना सा झरना है पोन्दुम झरना। जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा से कटेकल्याण मार्ग पर 08 किलोमीटर की दुरी पोन्दुम नामक छोटा सा ग्राम है। 


इस गांव के बाहर ही मुख्य सड़क से दाये तरफ एक कच्चा मार्ग झरने की तरफ जाता है। सड़क से 10 मिनट की पैदल यात्रा के बाद झरने तक पहुंचा जा सकता है। मार्ग मे अत्यंत छोटी सी पहाड़ी है जहां से झरने की मधुर कल कल ध्वनि सुनाई देती है। 

यह झरना एक नाले पर है। इसकी उंचाई 50 से 60 फिट तक है। झरना आकार में भले ही थोड़ा छोटा है परन्तु यहां का प्राकृतिक दृश्य बहुत ही मनमोहक है। उपर नीला आसमान, कल कल बहती धाराये, चारां तरफ फैली कुश की झाड़ियां ये दृश्य मन को आनंदित कर देते है।


यह पोन्दुम झरना पिकनिक के लिये आदर्श स्थल है। दंतेवाड़ा से सबसे पास पोन्दुम का झरना है जिसे पर्यटन केन्द्र के रूप  में विकसित किया जाना चाहिये। झरने तक जाने के लिये पक्की सड़क एवं जानकारी सूचक बोर्ड लगाये जाने चाहिये। इस पोन्दुम को दंतेवाड़ा के पर्यटन नक्शे में शामिल कर प्रमुखता से प्रचारित किया जाना चाहिये। जुलाई से लेकर मार्च तक इस झरने की खुबसूरती को बिना भय के निहारा जा सकता है.....ओम।