27 अप्रैल 2019

नंदिनी की दोस्त अबाबील

नंदिनी की दोस्त अबाबील...!
परसो की बात है एक परिचित सज्जन मेरे घर मे एक घायल चिड़िया छोड़ कर चले गये. उन्हें यह चिड़िया सडक पर घायल मिली थी. यह चिड़िया अबाबील है जो कि घरो की दिवारो मे मिट्टी के घोसले बनाती है. दरअसल यह अबाबील घायल ना होकर बीमार और डरी हुई थी.


घर मे हमने इस चिड़िया को पानी पिलाया फ़िर भी यह उड़ नहीं रही थी. हमने इसे एक प्लास्टिक के खाली टोकने मे ऐसे ही खुला रख दिया फ़िर भी उसने एक बार भी उड़ने की कोशिश नहीं की. बेहद ही डरी हुई सहमी सी इस चिड़िया को मेरी चार साल की बेटी नंदिनी ने बहुत खिलाया.
इसका बहुत ध्यान रखा. लगभग दो दिन तक यह अबाबील उसी टोकनी मे पड़ी रही. हमने तो उसके जीने की उम्मीद ही छोड़ दी थी. शायद उसे बुखार था. दुसरे दिन उसका बुखार कम हुआ. अब उसे देखने से लगने लगा अब यह थोड़ी ठीक हो रही है. दुसरे दिन उसने अपने आप एक छोटी सी उड़ान भरी लेकिन वह गिर पडी. फ़िर थोड़ी देर बाद उसने पुरी ताकत से उड़ान भरी और वह फ़ुर्र से आसमान मे उड़ गयी. उस समय नंदिनी सो रही थी.

उसने जागते ही यही पुछा कि मेरी चिड़िया कहाँ है? जब उसे पता चला कि वह उड़ गई तो बहुत रोई किन्तु जब उसे समझाया कि वह अपने माँ के पास गयी है तो नंदिनी समझ गयी और मान भी गयी. शायद अबाबील को बुखार थी. बुखार दुर होते ही उसने फ़िर से आसमान मे उड़ान भर ली.

25 अप्रैल 2019

माडम सिल्ली डेम के साईफन सिद्धांत पर काम करता जादुई दिया

जादुई दिये के पीछे दाबलंघिका का सिद्धांत.....!

धमतरी के माडम सिल्ली डेम के साईफन सिद्धांत पर काम करता है यह दिया। 

कल हेमंत वैष्णव जी द्वारा जादुई दिये की दी गई संक्षिप्त जानकारी पोस्ट की थी जिसे बहुत से लोगों ने पसंद किया और साझा किया। मिटटी का बना यह दिया दो हिस्सों में है जिसमें नीचे का हिस्सा एक गोलाकार आधार के साथ दिया है जिसमें बत्ती लगायी जाती है। दुसरा हिस्सा चाय की केतली की तरह ही एक गोलाकार छोटी सी मटकी का पात्र है जिसमें तेल भरा जाता है। तेल निकलने के लिये मिटटी की नलकी इसमें बनाई गई है। इस गोलाकार पात्र में तेल भरकर दिये वाले आधार के उपर उल्टा कर सांचे मे फीट कर दिया जाता है। 


इसे इस तरह से उल्टा फीट किया जाता है कि तेल निकलने वाली नलकी ठीक दीये के उपर रहती है और उसमें से अपने आप तेल निकलकर दिये में दिये में भर जाता है और दीये में तेल भरने के बाद इसमें से तेल निकलना अपने आप बंद हो जाता है। यह बात बेहद ही आश्चर्य जनक लगती है कि जब उसमें पुरी तरह से तेल भरा हुआ है तो दीपक में तेल भरने के बाद तेल निकलना अपने आप कैसे बंद हो जाता है। यह एक तरह से जादू ही है। इसलिये इस दिये को बनाने वाले श्री अशोक चक्रधारी जी ने इसे जादुई दिया का नाम दिया है। 

हमारी भारतीय सभ्यता में ऐसी अनेकों प्राचीन विधियां ग्रंथो में उल्लेखित है जिससे आज की पीढ़ी तो लगभग भूल चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों खासकर बस्तर में भले यहां के लोगों ने प्राचीन ग्रंथ नहीं पढ़े है किन्तु इन्हें ये विधियां इन्हे सदियों से ज्ञात है। विरासत से ये विधियां आज भी बस्तर में जीवित है। जिसका उदाहरण अशोक चक्रधारी जी द्वारा बनाया गया यह दिया है। 


इस दिये में तेल भर जाने के बाद अपने आप तेल बंद हो जाने के पीछे विज्ञान का भौतिकी सिद्धांत काम करता है। भौतिकी के इस सिद्धांत में हवा का दबाव दीये में तेल भरने और बंद करने को संचालित करता है।  यह दिया भी माडमसिल्ली डेम धमतरी का पानी छोड़ने का साईफन सिस्टम जैसा ही आधारित है। इस दिये में अंदर की तरफ एक छिद्र  है। इस छिद्र से हवा अंदर जाकर उपर भरे हुए गोलाकर पात्र मे उपर की दबाव बनाने का कार्य करती है। जब दिया पुरी तरह तेल से भर जाता है वह छिद्र भी तेल से भरा रहता है। तेल जैसे उस छिद्र से कम होकर नीचे आता है तो पुनः उसमें हवा अंदर की ओर प्रवेश करती है और उपर लगे गोलाकार पात्र में तेल की ओर दबाव बनाता है और जितनी हवा अंदर जाती है उतना तेल फिर से दिये में गिरने लग जाता है। 

माडम सिल्ली अंग्रेजों के जमाने का बनाया हुआ डेम है जिसमें साईफन सिस्टम कार्य करता है। साईफन सिस्टम के बारे में विकीपीडिया से भी कुछ जानकारी प्राप्त होती है। विकीपीडिया के मुताबिक दाबलंधिका वा साइफन  न्यून कोण पर मुड़ी हुई नली के रूप का एक यंत्र होता है, जिससे तरल पदार्थ एक पात्र से दूसरे में तथा नीचे स्तर में पहुँचाया जाता है।

साइफन की क्रिया पूर्वोक्त नली के दोनों सिरों पर दाब के अंतर के कारण होती है और जब पात्र खाली हो जाता है, या दोनों पात्रों में तरल पदार्थ का स्तर समान हो जाता है, तब बहाव रुक जाता है। इस यंत्र के द्वारा बीच में आनेवाली ऊँची रुकावटों के पार भी तरल पदार्थ, शक्ति का व्यय किए बिना, भेजा जा सकता है। साधारण साइफन की नली को स्थानांतरित किए जानेवाले तरल पदार्थ से भर दिया जाता है और उसके लंबे अंग के सिरे को अंगुली से बंद कर, छोटी बाँह के सिरे को तरल पदार्थ में डुबा और लंबी बाँह के सिरे को दूसरे पात्र में कर, अंगुली हटा लेते हैं। तरल पदार्थ का दूसरे पात्र में बहना अपने आप आरंभ हो जाता है। ऐसे साइफन को प्रयोग से पहले प्रत्येक बार भरना आवश्यक होता है।


साइफन लॉक (ताला)

विविध उपयोगों के लिए इस यंत्र के अनेक रूप प्रचलित हैं। कुछ में नली को भरने के, या उसे भरे (और इस प्रकार आवश्यकता होने पर स्वयं चालू होने योग्य बनाए) रखने के, उपकरण हाते हैं। साइफन के सिद्धांत पर काम करनेवाले नलों से बहुधा जल को पहाड़ियों या टीलों पर, ऊँची नीची भूमि से होते हुए, किसी घाटी के पार पहुँचाने का काम लिया जाता है। ऐसे साइफनों में टीले या ऊँचाई पर स्थित नल में फँसी हुई वायु के निकास के लिए एक वाल्व का होना आवश्यक है। सोडावटर से भरे हुए बर्तनों में स उसे निकालने के लिए जो साइफन लगाए जाते हैं उनकी नली में एक स्प्रिंग वाल्व लगा रहता है, जो एक लीवन दबाने पर खुल जाता है और सोडावाटर की गैस के दबाव से जल बाहर निकल आता है।
                                              https://youtu.be/DRoLBokz0Vo

अशोक चक्रधारी जी कोंडागांव के बेहद ही सम्मानित हस्तशिल्पकलाकार है। कुम्हारपारा में रहने वाले अशोक चक्रधारी जी ने अपनी इन्ही कला के बदौलत देश विदेश में कई पुरस्कार जीते है। यह जादुई दिया भी अशोक चक्रधारी जी ने ही बनाया है। उनका बहुत बहुतआभार ।  जादुई दिया और उसी सिद्धांत पर काम करने वाले एक अन्य उपकरण का फोटो वीडियो और रेखाचित्र शेयर किया और साथ मुझे इस दिये के पीछे के भौतिकी के सिद्धांत को समझने में बहुत मदद की। जानकार मित्र इस दिये से जुड़ी जानकारी और वैज्ञानिक सिद्धंात की जानकारी जरूर शेयर करे।  यदि आप में से किसी को यह दिया चाहिये तो आप कोंडागांव के कुम्हार पारा में अशोक चक्रधारी जी से मुलाकात कर दिया ले सकते है।  

आलेख ओम सोनी दंतेवाड़ा

22 अप्रैल 2019

मछलियों के चार शिकारी

मछलियों के चार शिकारी....!
राह चलते फोटोग्राफ़ी 03
कुछ दुर आगे बढ़ने के बाद इन चार बच्चों से मुलाकात हो गयी. ये बच्चे कोई साधारण बच्चे नहीं ये तो शिकारी बच्चे हैं. मछलियो के चार शिकारी जब आपस मे मिल जाये तो गाँव के तालाबो की मछलियों मे हड़कम्प मचना तय है.
इन चारो बच्चों ने गरी खेल से झिल्ली भर मछली पकड़ी थी. आज तो दावत हो गई इनकी.
नदी तालाबो के किनारे रहने वाले ग्रामीणो के मनोरंजन का सबसे अच्छा साधन गरी खेलना होता है। गरी कोई छुपम छुपाई या पकड़म पकड़ाई का खेल नहीं है, गरी तो शतरंज की तरह चाल में फंसाने का खेल होता है।

वास्तव में गरी खेलने का मतलब मछली पकड़ना होता है। गरी खेल में बांस की पतली सी लगभग 10 फीट की डंडी होती है। इस डंडी के एक सिरे पर नायलान का पतला धागा बांधा जाता है। जो लगभग 10 फीट से भी ज्यादा लंबा होता है।
इसे धागे में मछली को पकड़ने के लिये लोहे का कांटा होता है। कांटे में केंचुये को चारे के रूप में फंसा कर लगाया जाता है। किस्मत अच्छी हुई तो बहुत सी मछलियां पकड़ में आ जाती है। गरी खेलने में अलग ही आनंद है।
बस्तर में नदी के किनारे जितने भी गांव है वहां के सारे ग्रामीण खाली समय में गरी जरूर खेलते है। हालांकि मछली पकड़ने के अन्य तरीके भी है पर जितना आनंद गरी खेल से मछली पकड़ने में मिलता है वो अन्य तरीको से नहीं मिलता।
गरी खेल में आदमी का धैर्य सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है। इस खेल में आपको धैर्य रखना ही होगा, आप अपने लगाये हुये दांव पर धैर्य रखिये, मछली उसमें जरूर फंसेगी, धैर्य नहीं है तो बार बार आप चारा फेंकते रहिये और आवाज करते रहिये , मछली चारा खाना तो दुर , आसपास भी नही भटकेगी।
आपने भी बचपन मे ऐसे ही गरी खेल से मछलियाँ पकडी हो तो अपना अनुभव जरुर साझा किजिये!
राह चलते फ़ोटोग्राफ़ी की कड़ी मे यह तीसरी पोस्ट है. बाईक से कुल 70 किलोमीटर की यात्रा करते समय मैने जो देखा उसे उसी अवस्था मे कैमरे मे कैद किया.
राह चलते फ़ोटोग्राफ़ी मे पहले से कुछ भी तय नहीं होता कि क्या फोटो लेना है जो भी अच्छा लगे बस क्लिक कर लो.. हाँ कैमरा हरदम हाथों मे होना चाहिए , पता नहीं अगले मोड़ पर कौन सा अच्छा पल मिल जाये!

देव फ़ूलो से महक उठा बस्तर

देव फ़ूलो से महक उठा बस्तर....!
राह चलते फोटोग्राफ़ी 02
अभी बस्तर मे देव फ़ूलो की बहार है. पुरा बस्तर इन फ़ूलो की भीनी खुश्बु से महक उठा है. ये फ़ूल बस्तर मे देव फ़ूल, ह्जारी फ़ूल और सियाडी फ़ूल के नाम से जाने जाते हैं. इन फ़ूलो का अधिकारिक नाम चम्पा है.

बस्तर मे देवी देवताओ को अर्पित किये जाने के कारण इन फ़ूलो को देव फ़ूल कहा जाता है. इस समय पुरे बस्तर मे देवी देवताओ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु जात्रा मेलो का दौर चल रहा है.
इसी समय ये फ़ूल भी खिलते है. इन्ही फ़ूलो को देवी देवताओ को अर्पित किया जाता है.

बस्तर मे गौर करने की बात है कि इन ह्जारी फ़ूलो के अधिकांश वृक्ष देव गुड़ी के पास ही मिलते हैं.
फ़ूलो से लदे इस पेड़ को देखते ही मै स्वयम को इसकी फोटोग्राफ़ी से रोक नहीं पाया.
राह चलते फ़ोटोग्राफ़ी की कड़ी मे यह दुसरी पोस्ट है. बाईक से कुल 70 किलोमीटर की यात्रा करते समय मैने जो देखा उसे उसी अवस्था मे कैमरे मे कैद किया.


राह चलते फ़ोटोग्राफ़ी मे पहले से कुछ भी तय नहीं होता कि क्या फोटो लेना है जो भी अच्छा लगे बस क्लिक कर लो.. हाँ कैमरा हरदम हाथों मे होना चाहिए , पता नहीं अगले मोड़ पर कौन सा अच्छा पल मिल जाये.

सड़क किनारे बिकते चार पाक

सड़क किनारे बिकते चार पाक (चिरोंजी) ...!

राह चलते फोटोग्राफ़ी 01

कल घर से लगभग कुछ किलोमीटर दुर जगदलपुर रोड मे, सड़क किनारे चार बेचते ग्रामीण महिलाओ से मुलाकात हुई. आम के पेड़ की छाँव मे, साथ बैठे छोटे बच्चे भी स्कूल की छुट्टी का आनंद उठाते हुए माता पिता का हाथ बंटा रहे थे.

अभी चार फ़लो का सीजन है. जंगल मे चार के पेड़ फ़लो से लदे हुए हैं. ग्रामीण बाज़ारो मे या सड़क किनारे फ़लो के बेचने लाते है. इन फ़लो के छोटे बीजो के अंदर जो गिरी होती है जिसे चिरोंजी कहते हैं. एक समय बस्तर के शोषण की पराकाष्ठा नमक के बदले चिरोंजी मे ही निहित थी. अब समय कुछ बदला है और बहुत कुछ बदलना बाकि है.
चार के फ़लो को खाना है तो यही सही समय है बाकि तो चार के पेड़ भी दिन ब दिन कम होते जा रहे है. इन फ़लो की मिठास मे बस्तर की मिट्टी की महक भी मिली हुई है.
राह चलते फ़ोटोग्राफ़ी की कड़ी मे यह पहली पोस्ट है. बाईक से कुल 70 किलोमीटर की यात्रा करते समय मैने जो देखा उसे उसी अवस्था मे कैमरे मे कैद किया.
राह चलते फ़ोटोग्राफ़ी मे पहले से कुछ भी तय नहीं होता कि क्या फोटो लेना है जो भी अच्छा लगे बस क्लिक कर लो.. हाँ कैमरा हरदम हाथों मे होना चाहिए , पता नहीं अगले मोड़ पर कौन सा अच्छा पल मिल जाये.

18 अप्रैल 2019

बस्तर की धरोहर- नारायणपाल का विष्णु मंदिर

बस्तर की धरोहर- नारायणपाल का विष्णु मंदिर......!

आज विश्व धरोहर दिवस के उपलक्ष्य में बस्तर की ऐतिहासिक धरोहरों की चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। बस्तर प्राकृतिक संसाधनो से संपन्न है। यहां की हरी भरी वादियां, नदी पहाड़ झरने अपनी खुबसूरती के कारण पुरे विश्व में अद्वितीय है। ऐतिहासिक महत्व के धरोहरों के मामले में भी संपन्न है किन्तु अनदेखी के चलते  कई पुराने मंदिर ध्वस्त हो गये या ध्वस्त होने की कगार में है। 


ऐसा ही एक मंदिर चित्रकोट जलप्रपात के पास नारायणपाल ग्राम में स्थित है। इंद्रावती और नारंगी नदी के संगम पर बसे नारायणपाल ग्राम में भगवान विष्णु को समर्पित एक विशाल मंदिर अवस्थित है। इस मंदिर की खासियत यह है कि बस्तर में भगवान विष्णु को समर्पित एक मात्र सुरक्षित मंदिर है। इस मंदिर का मंडप नष्ट हो गया था जिसके कारण यह मंदिर खंडहर में तब्दील हो गया था। 

इस मंदिर के इतिहास को जानने के लिये हमें हजार साल पीछे जाकर अतीत के पन्ने पलटने पड़ते है। 1069 ई में चक्रकोट में महाप्रतापी नाग राजा राजभूषण सोमेश्वर देव का शासन था। सोमेश्वर देव का शासन चक्रकोट (बस्तर) का स्वर्णिम युग था। सोमेश्वर देव ने अपने बाहुबल से चक्रकोट के आसपास के राज्यों पर अधिकार कर लिया था।


उसके सम्मान में कुरूषपाल का शिलालेख कहता है कि वह दक्षिण कौशल के छः लाख ग्रामों का स्वामी था। उसका यश चारों तरफ फैला था। 

सोमेश्वर देव की माता गुंडमहादेवी भगवान विष्णु की परमभक्त थी।  जब उसकी आयु 100 वर्ष से भी अधिक रही होगी तब उसने अपने दिवंगत पुत्र सोमेश्वर देव की याद में भगवान विष्णु का भव्य मंदिर बनवाया।  गुंडमहादेवी के 60 वर्षीय पौत्र कन्हरदेव के शासनकाल 1111 ई में इस मंदिर का निर्माण पुरा हुआ। मंदिर के मंडप में स्थित शिलालेख में यही इतिहास दर्ज है। 

नारायणपाल ग्राम तत्कालीन समय में नारायणपुर ग्राम के नाम से जाना जाता था। इंद्रावती और नारंगी नदी के संगम पर बसे इस ग्राम में स्थित यह मंदिर बस्तर की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर है। चित्रकोट जलप्रपात से कुछ दुर पहले ही इंद्रावती के उपर भानपुरी जाने के लिये पुल बना हुआ है। पुल पार करते ही सड़क से ही इस मंदिर के दर्शन हो जाते है। 

मंदिर की स्थापत्यकला खजुराहों के मंदिरों के सदृश्य है। मंदिर गर्भगृह अर्द्धमंडप और मंडप में विभक्त है। उंची जगती पर स्थित इस मंदिर का शिखर काफी उंचा है। मंडप अष्टकोणीय है। गर्भगृह में भगवान विष्णु की खंडित प्रतिमा स्थापित है। 

यह मंदिर काफी सालों से खंडहर बना हुआ था। मंदिर का आगे का मंडप ध्वस्त हो चुका था। मंडप को ध्वस्त होने के पीछे एक जनश्रुति जुड़ी है कि बस्तर के किसी राजा ने धन संपदा के लालच में मंदिर का मंडप तोड़वा दिया था। 

इस मंदिर का जीर्णोद्धार, कछुआ गति से लगभग सात आठ सालों में पूर्ण हुआ है। देर आये दुरूस्त आये की तर्ज पर ही सही किन्तु आज यह मंदिर कुछ हद तक अपने मूल स्वरूप में लौट चुका है। 

बस्तर में ऐसे बहुत से पुराने मंदिर है जो कि अपने जीर्णोद्धार की बाट जोह रहे है। इस मंदिर के जीर्णोद्धार गति को देखने पर यही अनुमानित होता है कि बस्तर के सारे ध्वस्त मंदिरों के जीर्णोद्धार में लगभग 200 साल तो लग ही जायेगे।

सारे फोटो मैने ही लिये है।


आलेख - ओम सोनी दंतेवाड़ा