31 दिसंबर 2018

लाई लड्डू वाला गीदम जात्रा

लाई लड्डू वाला जात्रा.....!

प्रतिवर्ष अगहन माह में धान कटाई के बाद बस्तर में जात्रा का आयोजन प्रारंभ हो जाता है। निर्विघ्न धान कटाई के बाद देवी को कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिये देव गुड़ी में ग्रामीण जात्रा का आयोजन करते है। ग्राम देवी से कृषि बाड़ी की समृद्धि और घातक बीमारियों से सुरक्षा के लिये देवी से प्रार्थना की जाती है। ग्राम देवी को अपनी शक्ति के अनुसार नारियल फल प्रसाद आदि का चढ़ावा चढ़ाते है।

सदियों पुरानी परंपरानुसार ग्रामीण देवी के सम्मुख चढ़ावा के रूप में बकरा, मुर्गा, बतख आदि की बलि भी देते है। छोटे स्तर पर मेले का आयोजन भी होता है। अगहन माह में  बस्तर की मुख्य देवगुड़ियों में इस प्रकार के जात्रा का आयोजन होता है। जात्रा में आसपास के ग्रामों के देवी देवताओं के छत्र डंगईयां एवं ध्वजा भी शामिल होने के लिये आते हैं। विभिन्न देव गुड़ियों के मुख्य पुजारी बैगा सिरहा भी  देवी की सामुहिक वंदना करते है। 

माहरा समुदाय के वादकों द्वारा देवी के सम्मान में मोहरी बाजा बजाते है। मोहरी बाजा की कर्ण प्रिय आवाज से पुरे जात्रा का माहौल भक्तिमय हो जाता है।  देवी से सुख समृद्धि की कामना करने हेतु भक्तों की भीड़ लगी रहती है। विभिन्न मिठाईयों , सामानों एवं खिलौने की दुकाने सजती है। आवश्यकतानुसार ग्रामीण जरूरतों का सामान लेते है।  आदिवासी बालायें नृत्य संगीत के माध्यम से अपनी खुशियां जाहिर करती है और जात्रा का आनंद लेती है। 

दंतेवाड़ा में जात्रा के आयोजन के बाद गीदम के मातागुड़ी में शीतला माता के सम्मान में प्रतिवर्ष जात्रा का आयोजन होता है। यहां के जात्रा में मेले के ही तरह काफी भीड़ होती है। कई दुकाने सजती है। परंपरा के चलते ग्रामीण जात्रा से कुछ ना कुछ सामान अवश्य खरीद कर ले जाते है।


गीदम के जात्रे में मै हर वर्ष जाता हूं। बचपन में तो जात्रा में जाने का काफी शौक था। स्कुल से जल्दी आने की कोशिश करते, फिर दौड़कर जात्रा में घुमने जाते थे। दरअसल जात्रा जाने का मेरा उद्देश्य देवी दर्शन के साथ लाई लडडू भी खाना होता था। गीदम के इस जात्रे में लाई लड्डू का चलन सालों पुराना है। यहां के दुकानों में हाथो हाथ लाई और गुड़ के घोल से लड्डू बनाकर बेचा जाता है।


दस रू. के दर से तीन या चार लड्डू मिल जाते थे। जात्रा में अधिकांश ग्रामीण और बच्चों का पसंदीदा खाजा यही लाई लडडू होता है। मैं तो बस इसी लडडू के लिये जाता हूं। इस बार तो पचास रू. में 15-20 लड्डू मिल गये और हमने तो लाई लड्डू खाकर  अगहन जात्रा का आनंद लिया। आप ने कभी लाई लड्डू खाया है कि नहीं ? अपना कोई अनुभव जरूर शेयर करें।

आलेख ओम सोनी


29 दिसंबर 2018

लावा बटेर का शिकार

लावा बटेर का शिकार......!


धान कटाई कार्य लगभग पूर्ण हो गया है। खेतों में धान के कुछ दाने बिखरे हुये बच जाते है उन दानों को चुगने के लिये  प्रवासी पक्षी जैसे लावा बटेर बड़ी संख्या में आ रहे है। इन पक्षियों को शिकार बस्तर में आम बात है। बटेर भूमि पर रहने वाले जंगली पक्षी हैं। ये ज्यादा लम्बी दूरी तक नहीं उड़ सकते हैं और भूमि पर घोंसले बनाते हैं। इनके स्वादिष्ट माँस के कारण इनका शिकार किया जाता है।



खेतों में धान चुगने पहुंचने वाले इन पक्षियों का शिकार भी लगातार हो रहा है। गुलेल तीर धनुष से शिकार तो हो ही रहा है साथ ही ग्रामीण डंडे में गोंद लगाकर छोड़ देते हैं इस पर बैठते ही बटेर के पैर चिपक जाते हैं। इन्हें ग्रामीण पकड़ लेते हैं। कुछ को मारकर खा लेते हैं और कुछ को बेच भी देते हैं। एक पक्षी की कीमत सौ रुपए तक होती है। 

इन पक्षियों का शिकार करने के सबसे प्रचलित तरीका जाल में पक्षियों को फंसाना होता है। यह जाल मछली पकड़ने वाले जाल से दस गुना से अधिक बड़ा होता है। बांस के बड़े से ढांचे के सहारे जाल बांधा जाता है। जाल के बीच में शिकारी के लिये जाल पकड़ने लायक जगह होती है।

 वह जाल उठाकर खेतों में धुमता है और जाल को जमीन पर पटक देता है जिससे लावा पक्षी जाल में दब कर फंस जाती है। इसके अतिरिक्त शिकरा बाज पक्षी के मदद से भी इन पक्षियों का शिकार किया जाता है। पक्षीविदों के मुताबिक लावा.बटेर स्थानीय नहीं बल्कि प्रवासी पक्षी हैं जो यूरोपीय देशों से यहां आती हैं। 

लावा.बटेर पक्षियों को कॉमन क्वेल कहा जाता है। ये यूरोपीय देशों अल्बानिया साइप्रस हंगरी पुर्तगाल यूक्रेन और स्पेन का मूल पक्षी है। आमतौर पर ठंड के दिनों में धान की कटाई के बाद कुछ दाने खेतों में बच जाते हैं जो इनका भोजन होते हैं। 

यही धान के दाने चुगने वे यहां पहुंचते हैं और शिकारियों द्वारा बिछाए जाने वाले जाल में वे फंस जाते हैं।आईयूसीएन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक लावा.बटेर या कॉमन क्वेल अब विलुप्त हो रहे पक्षियों में शामिल है। 

विदेशों में बटेर उत्पादन एक विकसित व्यवसाय का रूप ले चुका है। भारत में इसका विकास धीरे.धीरे हो रहा है।  चूजे 6 से 7 सप्ताह में ही अंडे देने लगते हैं। मादा प्रतिवर्ष 250 से 300 अंडे देती है। 80 प्रतिशत से अधिक अंडा उत्पादन 10 सप्ताह में ही शुरू हो जाता है। 

इसके चूजे बाजार में बेचने के लिए चार से पांच सप्ताह में ही तैयार हो जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि बटेर को किसी भी प्रकार के रोग निरोधक टीका लगाने की जरूरत नहीं होती है।

फिलहाल तो बस्तर में इनके संरक्षण के लिये भी उदासीनता ही दिख रही है। 

आलेख ओम सोनी दंतेवाड़ा

28 दिसंबर 2018

बस्तर की प्राणदायिनी - इंद्रावती

बस्तर की प्राणदायिनी - इंद्रावती.....!

इंद्रावती, बहुत ही प्यारा नाम है बस्तर की इस सरस सलिला का। बस्तर के लाखों लोगों को जीवन देने वाली इस इंद्रावती से हर बस्तरिया उतना ही प्रेम करता है जितना अपनी मां से। बस्तर में ना जाने कितनों को बनते बिगड़ते देखा है इस इंद्रावती ने। इंद्रावती ने बस्तर की इस धरती को सींच सींच कर हरा भरा बनाया है। 

वर्षा काल में जब इंद्रावती अपने रौद्र रूप को धारण कर लेती है तो पुरा बस्तर उसके सामने नतमस्तक हो जाता है। गर्मी के दिनों में यह पुरे बस्तर की प्यास बुझाती है वहीं शीतकाल में अपने नीले जल की सुंदर छटा बिखेरते हुये हर किसी का मनमोह लेती है। बस्तर की प्राणदायिनी इंद्रावती के बिना बस्तर की कल्पना नहीं की जा सकती है। 


इंद्रावती नागयुगीन बस्तर की इंद्रनदी है जिसके तट पर नागों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया। नागों ने भी इंद्रावती को अपनी मां मानकर इसके तट पर ही अपनी राजधानियां स्थापित की थी। 

इंद्रावती नदी  गोदावरी नदी की सहायक नदी है। इस नदी का उदगम स्थान उड़ीसा के कालाहन्डी जिले के रामपुर थूयामूल में है। नदी की कुल लम्बाई 240 मील  है। जगदलपुर के पास ही विश्व प्रसिद्ध चित्रकोट जलप्रपात का निर्माण करती है। इतना चैड़ा झरना पुरे एशिया में कहीं नहीं है। विश्व प्रसिद्ध चित्रकोट जलप्रपात बस्तर को इंद्रावती का अनमोल उपहार है। 


धने जंगलों में बहती हुई इंद्रावती बारसूर को प्राचीन राजधानी का स्वरूप देती है। सातधाराओं मंे बंटकर इंद्रावती सतरंगी इन्द्रधनुष बनाकर लोगों के दिलो दिमाग पर राज करती है। भैरमगढ़ के पास इंद्रावती अबूझमाड़ की ओर मुड़ जाती है। माड़ के घने जंगलों में में माड़ियां आदिवासियों के साथ लाखो पशु पक्षियों के जीवन की एकमात्र सहारा बन जाती है।


महाराष्ट्र और बस्तर की सीमा निर्धारित करते हुये भोपालपटनम के पास बेहद ही विशाल रूप धारण कर लेती है। माड़ के जंगलो में गहरी खाईयों से होकर पुरे वेग से इंद्रावती आगे बढ़ती है वहीं भोपालपटनम के पास इंद्रावती धीरे धीरे कदमों से आगे बढ़ती है। यहां वियोग का मार्मिक दृश्य उत्पन्न होता है। इंद्रावती भद्रकाली से थोड़ी दुर आगे गोदावरी में विलीन हो जाती है। 


कोंटा से कुछ आगे बस्तर की दुसरी नदी शबरी भी गोदावरी में विलीन होती है। गोदावरी की दोनों बेटियां इंद्रावती और शबरी बस्तर की धरती को नया जीवन दान देती है। 

इन्द्रावती की प्रमुख सहायक नदियों में कोटरी निबरा बोराडिग नारंगी उत्तर की ओर से तथा नन्दीराज चिन्तावागु इसके दक्षिण एवं दक्षिण.पूर्वी दिशाओं में मिलती हैं। दक्षिण.पश्चिम की ओर डंकनी और शंखनी इन्द्रावती नदी में मिलती हैं। 

इंद्रावती सदा स्वच्छ रहे इसका दायित्व हम सभी का है। हमें अपने स्तर पर भी इंद्रावती को प्रदूषण से मुक्त बनाये रखना है। इंद्रावती के प्रति यही हमारी सच्ची कृतज्ञता है। 

आलेख ओम सोनी दंतेवाड़ा

27 दिसंबर 2018

आज भी राजाज्ञा का पालन करते है ग्रामीण

आज भी राजाज्ञा का पालन  करते है ग्रामीण.......!

बागलकोट के सिन्द नागवंशी सामंतो ने आठवी सदी के मध्य चक्रकोट में अपनी सत्ता कायम की । नाम में अपभ्रंश के कारण सिन्द शाखा सेन्द्रक और बाद में छिंदक नाग वंश के रूप में जानी गई। सिंदो का गांव सिंद गांव जो बाद में छिंदगांव के नाम से जाना गया। इंद्रावती के तट पर बसा छिंदगांव वर्तमान में एक छोटा सा ग्राम है जिसका नाम आज कई लोगों के लिये बिल्कुल नया होगा। 

छिंदक नागयुगीन चक्रकोट में छिंदगांव एक महत्वपूर्ण गढ़ था। गढ़ के अवशेष तो अब शेष नहीं रहे किन्तु एक जीर्ण शीर्ण मंदिर नागों के इतिहास को संजोये हुये अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है। इस शिव मंदिर की स्थिति इतनी दयनीय हो गयी है कि एक हल्के झटके से पुरा ढांचा भरभराकर गिर जायेगा। 


यह मंदिर एक उंची जगती पर बना है। मंदिर गर्भगृह अंतराल और मंडप में विभक्त था। मंडप के सभी स्तंभ गिर चुके है। अब मात्र गर्भगृह ही शेष है। गर्भगृह के बाहर भगवान गणेश की प्रतिमा रखी हुई है। द्वार के ललाट बिंब पर नृत्य गणेश की प्रतिमा अंकित है।  छः सीढ़ियां उतर कर गर्भगृह में प्रवेश किया जा सकता है।  गर्भगृह में शिवलिंग प्रतिस्ठापित है। 


ग्रामीण यहां स्थापित शिवलिंग को गोरेश्वर महादेव के नाम से पूजा अर्चना करते है। मंदिर के जीर्णोद्धार के प्रति पुरातत्व विभाग बहुत ही उदासीन है जिसके कारण सालों से इसके जीर्णोद्धार के लिये कोई ठोस कार्य प्रारंभ नहीं हो पाया है। इस मंदिर को शीध्र ही जीर्णोद्धार की आवश्यकता है नहीं तो गर्भगृह भी ढह जायेगा और यह मंदिर पत्थरों का टीला बनकर रह जायेगा। 

इस मंदिर के पास ही स्थानीय ग्रामवासियों ने एक नया मंदिर बनवाया है। इस मंदिर में देवी कंकालीन की प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में भगवान नरसिंह की खंडित प्रतिमा भी रखी हुई है। नागो के राजत्व काल में बनी नरसिंह की यह प्रतिम बहुत भव्य है।

हिरण्यकश्यपु का वध करते हुये भगवान नरसिंह के मुख की दिव्य आभा परिलक्षित हो रही है। ये प्रतिमायें पहले बाहर ही रखी हुई थी। बाद में ग्रामीणों ने नया मंदिर बनवाकर प्रतिमाओं को मंदिर  में प्रतिस्ठापित किया। 

इस नये मंदिर में लकड़ी की एक तख्ती दिवार पर टंगी हुई है जिसमें बस्तर दरबार की राजाज्ञा अंकित है। बस्तर दरबार के हुकूम के अनुसार किसी को भी इन प्रतिमाओं के छुने के लिये मनाही है। रियासत कालीन बस्तर में छिंदगांव की प्रतिमाओं के संरक्षण के लिये 1942 ई में  राजदरबार द्वारा राजाज्ञा जारी की गई थी।

सागौन की लकड़ी में अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में यह आज्ञा खोदकर लिखी गई है। तब से अब तक राज परिवार  में श्रद्धा के कारण ग्रामीण आज भी उस राजाज्ञा का पालन करते आ रहे है। सालों से प्रतिमाओं की सुरक्षा का दायित्व यहां के ग्रामीण उठाते आ रहे है। 

इस मंदिर में हर साल जात्रा का भी आयोजन होता है। मंदिर परिसर में शीतला माता का मंदिर भी बना हुआ है। 

पुजारी ने बताया कि इस मंदिर में एक शिलालेख भी था जो कि मंदिर के प्रस्तर अवशेषों में दब गया है। मुख्य सड़क से  छिंदगांव तक पहुंचने का मार्ग भी मनोरम दृश्यों से परिपूर्ण है। दुर  फैली पर्वत श्रृंखलाओं और  जगह जगह लगे छिंद के पेड़ मन को आनंदित करने में कोई कमी नहीं रखते हैं.

 हां छिंद पेड़ों की अधिकता भी छिंदगांव की एक विशेषता है। छिंदगांव चित्रकोट रोड में उसरी बेड़ा से पहले  05 किलोमीटर अंदर की तरफ है। पक्की सड़क मंदिर तक गई हुई है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार कर इसे चित्रकोट के पर्यटन रूट में शामिल करना चाहिये। 

आलेख - ओम सोनी गीदम

20 दिसंबर 2018

बस्तर दशहरा

नारफोड़नी एवं पिरती फारा की रस्म.......!

विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व में सिरासार चैक में विधि-विधानपूर्वक नारफोड़नी रस्म पूरी की जाती है। इसके तहत कारीगरों के प्रमुख की मौजूदगी में पूजा अर्चना की जाती है। इस मौके पर मोगरी मछली,अंडा व लाइ-चना अर्पित किया जाता है।  साथ ही औजारो की पूजा की जाती है। । 




पूजा विधान के बाद रथ के एक्सल के लिए छेद किए जाने का काम शुरू किया जाता है। विदित हो कि रथ के मध्य एक्सल के लिए किए जाने वाले छेद को नारफोड़नी रस्म कहा जाता है। गौरतलब है कि 75 दिनों तक चलने वाला यह लोकोत्सव पाटजात्रा विधान के साथ शुरू हुआ था। इसके बाद डेरीगड़ाई व बारसी उतारनी की रस्म पूूरी की गई।

पिरती फारा

बस्तर दशहरा के लिए इस बार चार पहियों वाला रथ सिरहासार के सामने तैयार किया जाता है। इस कार्य में झारा और बेड़ा उमरगांव से पहुंचे करीब 150 कारीगर लगते हैं। पिरती फारा की रस्म में पहले निर्माणाधीन रथ के सामने बकरे की बलि दी जाती हैं। 



रथ निर्माण में लगे कारीगरों ने सॉ मिल से चिरान कर लाकर करीब 25 फीट लंबे तथा वजनी फारों को बड़ी सावधानी से ऊपर चढ़ाया जाता है।  बताया जाता है कि इस कार्य के दौरान कोई अप्रिय वारदात न हो, इसलिए फारा चढ़ाने के पहले रथ की पूजा- अर्चना की जाती है। 

19 दिसंबर 2018

हिड़पाल के भगवान पारसनाथ

हिड़पाल के भगवान पारसनाथ.....!

बस्तर में ग्यारहवी सदी में छिंदक नाग शासक राजभूषण महाराज सोमेश्वर देव ने जैन धर्म को संरक्षण दिया था। उनके शासनकाल में पुरे चक्रकोट राज्य में जैन साधु निवास करते थे। तत्कालीन समय में जैन तीर्थंकरों की बहुत सी प्रतिमायें बस्तर के कोने कोने में स्थापित करवायी गयी थी। 

सोमेश्वर देव की राजधानी कुरूषपाल के आसपास आज भी जैन तीर्थंकरों की बहुत सी प्रतिमायें देखने को मिलती है। उप राजधानी बारसूर में भी कुछ प्रतिमायें संग्रहालय में सुरक्षित है। 


बारसूर के पास ही हिड़पाल नामक छोटा सा वन ग्राम है। बारसूर से 16 किलोमीटर दुर हिड़पाल ग्राम में भालूनाला के पास भगवान पारसनाथ और सिंह पर सवार माता दुर्गा की प्रतिमा रखी हुई थी। स्थानीय ग्रामीण इन्हे भगवान विष्णु और दुर्गा के रूप में पूजा करते आ रहे है। भगवान विष्णु की प्रतिमा वास्तव में 23 वें जैन तीर्थंकर भगवान पारसनाथ जी की है। प्रतिमा में पीछे की तरफ सात फण युक्त सर्प उकेरा गया है। 

ये प्रतिमायें 1982 के आसपास हिड़पाल में कुसुम पेड़ के नीचे रखी हुई थी। पास के गांव वाले इन प्रतिमाओं को उठाकर अपने ग्राम ले जा रहे थे। लेकिन वे इस कार्य में असफल रहे। ग्रामीणों ने इन प्रतिमाओं को भालूनाले के पास ही एक छोटी सी देवगुड़ी में स्थापित कर दिया था। वे सालों से इनकी पूजा अर्चना करते आ रहे है। 


बारसूर जाने से पहले एक कच्चा मार्ग हिडपाल की ओर जाता है। हिड़पाल के घने जंगलों में भालूनाले के पास ही ये प्रतिमायें वर्तमान में एक नवीन मंदिर स्थापित कर दी गई है। हिड़पाल जाने का मार्ग भी घने जंगलों से घिरा हुआ है। 

जिस नाले के किनारे यह मंदिर है वहां भालू पानी पीने आते है जिसके कारण उसे भालूनाला कहा जाता है। ग्यारहवी सदी की ये प्रतिमायें आज भी श्रद्धा एवं विश्वास के साथ हिड़पाल के जंगलों में सुरक्षित है। किसी जानकार व्यक्ति के साथ हिड़पाल की इन प्रतिमाओं को देखने जा सकते है। ओम। 

17 दिसंबर 2018

बस्तर का अनजाना सा तोयर झरना

बस्तर का अनजाना सा तोयर झरना......!

शानदार मनमोहक झरनों से बसी हुई दुनिया कोई है तो वह बस्तर ही है। हर दस किलोमीटर में एक झरना अपनी कलकल ध्वनि से पर्यटक को अपनी ओर आकर्षित करता है। ऐसा ही एक झरना है तोयर जलप्रपात जो कि सिर्फ आवाज से ही अपनी ओर लोगों को खींचता है। 

झाड़ियों की झुरमूट से ही इस निर्झर की आवाज कानो तक पहुंचती है। जब झाड़ियो में बनी पगड़डी से आगे बढ़ते है तब इसे झरने के पूर्ण सौंदर्य का दीदार हो पाता है। 

50 फीट की उंचाई लिये यह झरना बेहद ही खुबसूरत है। चारो तरफ धने जंगलो से घिरा यह झरना जंगल में मधुर संगीत सुनाता है। अधिक प्रचार प्रसार ना होने के कारण बहुत ही कम लोग इस झरने की सुंदरता से परिचित है। 

दंतेवाड़ा से कटेकल्याण फिर थोड़ा आगे परचेली के पास ही तोयनार ग्राम है इस ग्राम में ही तोयर नाले पर बना यह तोयर झरना है। कम उंचाई होने के बावजूद भी बेहद ही मनमोहक है। बस्ती से बेहद लगा हुआ है फिर घनी झाड़ियों के कारण नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। झरने के उपर एक छोटी सी गुफा है। 

इस झरने को प्रकाश में लाने का श्रेय मेरे मित्र जितेन्द्र नक्का को है। उन्होने ही मुझे इस झरने के बारे में बताया था। कटेकल्याण से परचेली के रास्ते लगभग 12 किमी और बस्तर जिले के छिंदावाड़ा से 17 किमी दूरी पर यह जलप्रपात स्थित है।कांगेरघाटी राष्ट्रीय उद्यान से लगा हुआ होने की वजह से यहां की जलवायु भी एक समान है। दरभा-कटेकल्याण स्टेट हाईवे पर तीरथगढ़ ग्राम से यह स्थान लगभग 17 किलोमीटर दूर है।

वैसे इस झरने में अप्रैल तक पानी रहता है। दंतेवाड़ा से कटेकल्याण होते हुये तीरथगढ़ जाने पर आप पोन्दुम झरना, तोयर झरना और चिंगीतराई के ऐतिहासिक मंदिर के दर्शन करते हुये नीजि वाहन से कभी भी जा सकते है।

14 दिसंबर 2018

गुरू घासीदास और बस्तर

बस्तर में अहिंसा का संदेश लाये थे गुरू घासीदास......!

गुरु घासीदास भारत के छत्तीसगढ़ राज्य की संत परंपरा में सर्वोपरि हैं। बाल्याकाल से ही घासीदास के हृदय में वैराग्य का भाव प्रस्फुटित हो चुका था। समाज में व्याप्त पशुबलि तथा अन्य कुप्रथाओं का ये बचपन से ही विरोध करते रहे। समाज को नई दिशा प्रदान करने में इन्होंने अतुलनीय योगदान दिया था। सत्य से साक्षात्कार करना ही गुरु घासीदास के जीवन का परम लक्ष्य था।

 गुरू घासीदास 1756 में रायपुर जिले के गिरौदपुरी में एक गरीब और साधारण परिवार में पैदा हुए थे।उनके पिता का नाम मंहगू दास तथा माता का नाम अमरौतिन था और उनकी धर्मपत्नी का सफुरा था।  संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का बचपन से ही विरोध किया। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के विरुद्ध  समानता का संदेश दिया। छत्तीसगढ़ राज्य में गुरु घासीदास की जयंती 18 दिसंबर से माह भर व्यापक उत्सव के रूप में समूचे राज्य में पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाई जाती है.


 गुरु घासीदास ने समाज के लोगों को सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने न सिर्फ सत्य की आराधना की, बल्कि समाज में नई जागृति पैदा की और अपनी तपस्या से प्राप्त ज्ञान और शक्ति का उपयोग मानवता की सेवा के कार्य में किया।इसी प्रभाव के चलते लाखों लोग बाबा के अनुयायी हो गए।  गुरु घासीदास के मुख्य रचनाओं में उनके सात वचन सतनाम पंथ के सप्त सिद्धांत् के रूप में प्रतिष्ठित हैं। 

गुरू घासीदास का बस्तर से भी एक गहरा नाता रहा है। सन 1806 ई. में गुरू घासीदास छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थलों की यात्रा करते हुये बस्तर आये थे। बस्तर में जगदलपुर से 11 किलोमीटर की दुरी पर चिड़ईपदर नामक छोटा सा ग्राम है। 1806 ई में गुरू घासीदास ने चिड़ईपदर में लोग अहिंसा एवं शांति का उपदेश दिया। यहां उन्होने आसपास बसे सतनामी समुदाय के लोगों की रावटी भी ली थी। 

उसके बाद गुरू घासीदास दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी मंदिर भी गये। वहां घासीदास बाबा ने पुजारियों से मंदिर में पशु बलि बंद करने की अपील की थी। लगभग 70 साल पहले गुरुवंश के बाबा अगमदास अपनी पत्नी मिनीमाता के साथ चिड़ईपदर आए थे और जिस स्थान पर गुरु घासीदास ने करीब 211 साल पहले रावटी ली थी, वहां पर उनके बस्तर आगमन की स्मृति में जैतखंब की स्थापना की थी। तब से पुरानी बस्ती के लोग यहीं पर बाबा की जयंती मनाने आ रहे हैं। दो - तीन साल पहले ही पुराने स्मारक का जीर्णोद्घार किया गया है। (संदर्भ नई दुनिया समाचार पत्र बस्तर अंचल)

डॉ. सुभाष दत्त झा का एक आलेख पुस्तक - बस्तर एक अध्ययन में प्रकाशित हुआ है। संदर्भ दिया गया है कि  छत्तीसगढ के प्रसिद्ध संत गुरु घासीदास के बारे में एक विवरण प्राप्त होता है जिसमें उन्हें बलि हेतु पकड़ लिया गया था परंतु रास्ते में उनकी उंगली कट गयी थी अत अंग भंग वाली बलि न चढाने के रिवाज के कारण उन्हें छोड दिया गया (पृ 77)। जानकार मानते हैं कि गुरु घासीदास ने रियासतकाल में परम्परा की तरह दंतेश्वरी मंदिर में होने वाली नर-बलि को रोकने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। (संदर्भ राजीव रंजन प्रसाद - बस्तर की अनकही कहानियां)

गुरु घासीदास का जीवन-दर्शन युगों तक मानवता का संदेश देता रहेगा। ये आधुनिक युग के सशक्त क्रान्तिदर्शी गुरु थे। इनका व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से प्रकट है।
ओम सोनी !

13 दिसंबर 2018

ढेकी की आवाज

अब नहीं गूंजती ढेकी की आवाज.......!


आज हम लोगों में से बहुत लोग ढेकी का नाम भी नहीं सुने होगे, और ना ही कभी देखे होंगे कि ढेकी आखिर चीज क्या है?  आज गेहूं पीसने , धान कूटने के लिये बड़ी बड़ी राईस मिले, आटा चक्की मशीने उपलब्ध है। पहले के जमाने में जब ये मशीने नहीं थे तब धान कूटने के लिये लकड़ी से बनी ढेकी का ही सहारा था। 


ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग प्रत्येक धर में ढेकी होती थी, ढेकी के लिये अलग से कमरा होता था जिसमें सिर्फ धान कूटने का ही काम किया जाता था। अधिकांशत धरों के बरामदे में किनारे ढेकी को स्थापित किया जाता था। 


पैर से ढेकी एक सिरे को दबाया जाता है , तो दुसरे तरफ धान पर ढेकी की चोट पड़ती है और धान कूटने का कार्य परंपरागत तरीके से हो जाता था। ढेकी से कुटे हुये धान में पौष्टिक तत्व भी अधिक मात्रा में रहते है और खाने में भी स्वादिष्ट होता है।  

बिना किसी मशीनरी से धान कूटने की यह परंपरागत ढेकी अब देखने को भी नहीं मिलती है और ना ही ढेकी की आवाज अब सुनाई  देती है। 


ग्रामीण क्षेत्रो में धान कूटने की मशीनरी दुकान उपलब्ध नहीं होने पर बस्तर में भी आदिवासी ढेकी से ही धान कूटते थे। धरो घर ढेकी होती थी। किन्तु अब ढेकी संस्कृति अपने अंतिम दौर पर है। ढेकी तो अब सिर्फ म्यूजियम की वस्तु बन चुकी है। 

छायाचित्र सौजन्य - हयूमन्स आॅफ गोंडवाना । 

10 दिसंबर 2018

अंतागढ़ का चर्रे मर्रे झरना

अंतागढ़ का चर्रे मर्रे झरना..............!

बस्तर में हर जगह झरने ही झरने है। बस इन्हे खोजने वाला साहसी पर्यटक की जरूरत है। बस्तर के सातों जिले में कई झरने है। जगदलपुर में चित्रकोट तीरथगढ़ तो दंतेवाड़ा में हांदावाड़ा, फूलपाड़ जैसे बड़े झरने है।


नारायणपुर जहां अपनी अबूझमाड़ियां संस्कृति के लिये विश्व भर में प्रसिद्ध है वहीं नारायणपुर प्राकृतिक दृश्यों से भी संपन्न है। नारायणपुर में कई झरने है जो आज भी पर्यटकों की नजरों से ओझल है। 

नारायणपुर के प्रसिद्ध जलप्रपातों में एक है  चर्रे मर्रे जलप्रपात। चर्रे मर्रे  नारायणपुर जिले के अंतागढ़-आमाबेड़ा वनमार्ग पर पिंजारिन घाटी में स्थित है ।इस जलप्रपात की खासियत ये है कि यहां का कलकल करता झरना पर्यटकों को साल भर आकर्षित करता है।  

उत्तर पश्चिम दिशा में जलप्रपात का गिरता हुआ पानी अलग-अलग कुंडों के रूप में एकत्रित होकर दक्षिण दिशा में लंबा फासला तय कर कोटरी नदी में मिलता है.

चर्रे मर्रे  का सुन्दर झरना कांकेर में अन्तागढ़ से 17 किमी की दूरी पर स्थित है। आमाबेड़ा के रास्ते पर एक चर्रे मर्रे नाम का स्थान पड़ता है। यह झरना जोगीधारा नदी पर बनता है। इस झरने की ऊँचाई लगभग 20 मीटर है। 

यह झरना ज्यादा उंचा तो नही है परन्तु उबड खाबड चटटानों से नदी का गिरता पानी मनमोह लेता है। आसपास की हरितिमा नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करती है। यह प्रमुख पिकनिक स्पॉट भी है। जुलाई से लेकर फरवरी माह तक चर्रे मर्रे झरने के सौंदर्य का आनंद लिया जा सकता है। 

कांकेर से सड़क मार्ग से कुल 85 किलोमीटर दुरी पर है। नीजि वाहन से यहां पहुंचा जा सकता है। 

7 दिसंबर 2018

लूप्त हो रही बस्तर की कौड़ी शिल्प कला

लूप्त हो रही बस्तर की कौड़ी शिल्प कला........!

आज बस्तर की हस्तशिल्प कलाये दुनिया भर में प्रसिद्ध है। बस्तर की काष्ठकला , घड़वा कला या टेराकोटा से बनी वस्तुये देश विदेश के कई लोगों के घरों की शान बढ़ा रही है। हस्तशिल्प कला के अंतर्गत आज कौड़ी शिल्पकला लगभग विलूप्त सी हो गई है। 
चाहे बैगा के कपड़े हो, गौर माड़िया हार्न मुकूट हो या फिर चोली-घाघरा या छोटी टोकरी पर कौड़ी लगाकर उसे सजाने की एवं गूंथने यह परंपरागत कला को अब कोई पूछने वाला भी नही है। परिधान में चोली.घाघरा साड़ी आदि तथा टोकरी अथवा झोले में कौड़ियों को गूंथने की कला को कौड़ी शिल्प कहा जाता है।
कौड़ी शिल्प प्राचीन काल से बस्तर में प्रचलित रही है। जब बायसन हार्न माड़िया गौर के सींगों से बना मुकूट पहनता है तो उसके चेहरे के सामने सफेद कौड़ियों की लड़े लटकती दिखाई देती है। मेले जातरा में बैगा रंग बिरंगे परंपरागत कपड़े पहनकर देव आराधना करते है तो कपड़े पर गुंथी हुई कौड़ियों की सफेदी किसी का भी ध्यान आकर्षित कर लेती है। 
कौड़ियों से सजी हुई छोटी टोकनी या झोला हर कोई उपयोग करना चाहता है। बाजारों में जब कौड़ी शिल्प युक्त परिधान या चीजें बिकने के लिये आती है तो उसका मूल्य भी कौड़ियों के दाम ही मिलता है जिसके कारण कौड़ी शिल्पकार अब ये परंपरागत कौड़ी शिल्प को छोड़ने लगे है जिससे अब कौड़ी शिल्प की एक लूप्त हस्तशिल्पकला में शामिल हो चुकी है। 

6 दिसंबर 2018

छिंदरस की बहार

छिंदरस की बहार.......!

बूंद-बूंद से घड़ा भरता है यह कहावत बस्तर में बिल्कुल चरितार्थ होते हुये आप देख सकते है। आजकल बस्तर में हर जगह छिंदरस से घड़े भरे हुये दिखाई दे रहे है।हर बार की तरह ठंड का मौसम अपने साथ छिंदरस का उपहार साथ लाया है। बस्तर में छिंद के पेड़ों की भरमार है। इन छिंद पेड़ो से मिलने वाला रस बस्तर के जनजातीय समाज के खान-पान में मुख्य रूप से सम्मिलित है।
छिंदरस पीने से कोई खास नशा नही होता है बल्कि उसका हल्का सा सुरूर छाया रहता है। इसका स्वाद भी खट्टा मीठा होता है। छिंदरस निकालने के लिये पेड़ पर चाकू से चीरा लगाया जाता है। उस स्थान से रस टपकने लगता है। वहां पर ग्रामीण एल्युमिनियम या मिट्टी की हंडी टंगा देते है। उस हंडी में बूंद-बूंद कर छिंद का रस भरते जाता है। बूंद-बूंद से घड़ा भरने की यह कहावत यहां पर सही साबित होते हुये देखी जा सकती है।
बस्तर में अभी हर जगह छिंदरस की मधुर ब्यार बह रही है। जनजातीय समाजों में छिंद रस निकालने के लिये सिर्फ एक ही व्यक्ति नियत किया जाता है। वह व्यक्ति अपने ईष्ट की पूजा अर्चना करने के बाद ही छिंदरस निकालता है। सीमित मात्रा में छिंदरस पीने से स्वास्थ्य के लिये लाभकारी है।
बासी रस शरीर को नुकसान भी पहुंचाता है। छिंदरस का व्यावसायिक उत्पादन भी होता है। एक गिलास छिंद रस 10 रू प्रति गिलास की दर बाजारों में बिकता है। छिंदरस से गुड़ भी बनाया जाता है। दंतेवाड़ा जिले मे छिंदरस से गुड़ बनाकर किसानों को लाभान्वित करने की योजना भी चल रही है।
छिंद शब्द छिंदरस, पेड़ और उसके फल की ही पहचान नहीं वरन बस्तर में प्राचीन काल में छिंदक नागवंशी शासको का ही शासन रहा है। 1023 ई में तिभूषण नाम के किसी छिंदक नागवंशी राजा के शासन होने की जानकारी एर्राकोट के शिलालेख से मिलती है।
छिंदक नागवंशियों ने तो 1324 ई तक बस्तर में शासन किया है। छिंद के नाम से बस्तर में बहुत से ग्रामों का नामकरण देखने को मिलता है जैसे छिंदनार, छिंदगांव, छिंदगढ़, छिंदपाल, छिंदगुफा और छिंदबहार।
छिंदक नागवंश, छिंदफल, छिंदरस और छिंद नाम युक्त ग्रामों से एक बात निकलकर आती है कि छिंद और बस्तर का गहरा नाता सदियों से है और सदियों तक रहेगा।