22 जुलाई 2019

बारसूर के गनमन तराई का शिवमंदिर

बारसूर के गनमन तराई का शिवमंदिर..........!

प्राचीन काल में बारसूर मंदिर और तालाबों की नगरी रही है। बारसूर चक्रकोट के नाग शासकों की राजधानी रही है। जनश्रूति है कि बारसूर में नाग राजाओं द्वारा 147 तालाब और 147 मंदिर बनवाये गये थे। आज भी यहां कई ऐतिहासिक तालाबों और मंदिर और उनके ध्वंशावशेष प्राप्त होते है।
मंदिर के साथ तालाब खुदवाना पूण्य का कार्य माना जाता है। इसी तरह बारसूर में भी मंदिरों के निर्माण के साथ साथ तालाब भी खुदवाये गये थे। बारसूर के गणेश मंदिर के पास ही एक पुराना तालाब है। इस तालाब को स्थानीय लोग गनमन तराई के नाम से जानते है।

गनमन तराई बारसूर का एक मात्र ऐसा तालाब है जिसके मध्य में हजार वर्ष पुराना मंदिर आज भी विद्यमान है। इस तालाब के मध्य में भगवान शिव को समर्पित शिव मंदिर ध्वस्त अवस्था में दर्शनीय है। संरक्षण के अभाव में यह मंदिर पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है। इसका आधार और एक स्तंभ सुरक्षित है।
गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग आज भी उसी जगह पर स्थापित है। कैमरे को जूम करके मंदिर में स्थापित शिवलिंग को देखा जा सकता है। ग्रीष्मकाल में जब तालाब का पानी कम हो जाता है तब नाव के द्वारा या तैर कर यहां तक पहुंचा जा सकता है।
तालाब में नाव या किसी सुविधा के अभाव में मंदिर तक आम श्रद्धालु नहीं पहुंच पाते है जिसके कारण यह मंदिर जलीय पक्षियों का आरामगाह बन चुका है।
प्रश्न यह उठता है कि तालाब के अंदर मंदिर का निर्माण कैसे संभव हुआ होगा जिसका सीधा सा जवाब यही है कि पहले मंदिर को बनाया गया फिर उसके चारों तरफ तालाब खुदवा दिया गया।
इसी तरह कुटरू के पास एक ग्राम में भी तालाब के मध्य एक प्राचीन मंदिर अवस्थित था जिसके अवशेष आज भी देखने को मिलते है। इस मंदिर का आधार काफी उंचा और मजबूत है जिसके कारण सदियों से यह मंदिर आज भी अपना अस्तित्व बचा पाया है।
इस तालाब का सौंदर्यीकरण कर मंदिर तक पहुंचने के लिये नाव की व्यवस्था होनी चाहिये और साथ ही इस मंदिर का जीर्णोद्धार भी आवश्यक है नहीं तो इसके सारे पत्थर एक एक करके बिखरते चले जायेगे।

ओम....!

मन्द मन्द बनती है मंद


मन्द मन्द बनती है मंद.....!

बस्तर मे महुआ की शराब को मंद कहा जाता है. मन्द मन्द जो बने वो है मंद. मंद पीने वाला मन्दहा कहलाता है. मंद का असर भी काफ़ी मन्द मन्द उतरता है. 

एक बार मंद पीने से मन्द हो चुकी जीवन की गाड़ी तेज हो जाती है. मंद बनाने की प्रक्रिया भी काफ़ी मन्द गति से चलती है.मंद बनाने के लिए सबसे पहले महुए को धुप मे सुखाया जाता है. सुखाकर महुए को एकत्रित कर लिया जाता है, महुए को फ़िर 4-5 दिन तक इसे फ़र्मनटेशन के लिए रखा जाता है...फिर तैयार महुवे का आसवन किया जाता है...

हंडी से निकली मंद की बुन्दे एक छिद्र से निकलकर दुसरे पात्र मे टपक कर एकत्रित होने लगती हैं. यही महुए की शराब है. इसे बनाने मे लकड़ी की काफ़ी खपत होती है. इस शराब का उपयोग घर मे पीने और बेचने के लिये भी किया जाता है.

12 जुलाई 2019

1888 की प्राथमिक शाला बड़े डोंगर

1888 की प्राथमिक शाला बड़े डोंगर......!

बस्तर को आज भी शिक्षा के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले कमतर माना जाता है। आज हालात बदल गये है। यहां के बच्चे आईआईटी, नीट, इंजीनियरिंग, यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में अपनी सफलताओं का डंका बजा चुके है। धीरे धीरे ही सही शिक्षा के क्षेत्र में बस्तर भी आगे आ रहा है। वर्तमान प्रयासों के किनारे रखकर यदि हम रियासतकालीन बस्तर की शिक्षा व्यवस्था में ध्यान केन्द्रित करते है तो हम पाते है कि आज से 150 साल पहले भी तत्कालीन शासकों ने बस्तर में शिक्षा व्यवस्था के दुरूस्ती के लिये कदम उठाये थे। 

शिक्षा के क्षेत्र में हरसंभव प्रयास करने वाले बस्तर प्रमुखों के क्रम में राजा रूद्रप्रतापदेव का नाम सबसे पहले आता है। राजा रूद्रप्रताप देव ने बस्तर को शिक्षित करने के लिये प्रमुख ग्रामों में विद्यालय खुलवाये। पठन पाठन में रूचि जगाने के लिये पुस्तकालयों का निर्माण कराया। इसके बाद रूद्रप्रतापदेव की पुत्री महारानी प्रफुल्ल कुमारी ने भी बस्तर में शिक्षा की अलख जगाने के लिये विद्यालय खुलवाये और बालिकाओं के शिक्षा पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया। 

रियासतकाल में बने बहुत से विद्यालय संरक्षण के अभाव में खंडहर बन चुके है या फिर नष्ट होने की कगार में है। नारायणपुर क्षेत्र के बड़े डोंगर में रियासतकालीन प्राथमिक शाला आज भी सुरक्षित अवस्था मे विद्यमान है। बस्तर महाराजा भैरमदेव के शासनकाल में सन 1888 ई में निर्मित इस विद्यालय की नींव आज भी इतनी बुलंद है कि लगभग 150 साल पहले जलाई गई शिक्षा की लौ आज भी जल रही है।  इन रियासतकालीन धरोहरों का संरक्षण के साथ साथ यहां की शिक्षा व्यवस्था में और भी सुधार करना आवश्यक है। 
इस अमूल्य छायाचित्र के लिये श्री चंद्रा मंडावी सर का बहुत बहुत आभार । 

11 जुलाई 2019

*तुपकी लोकमन की सलामी*

*तुपकी लोकमन की सलामी*
मित्रो गोंचा पर्व की भूमि बस्तर से शुभ रथयात्रा।
पुरी के मुख्य रथोत्सव का आनंद शाही परम्परा का रूप है।लेकिन जगदलपुर में मनाये जाने वाला गोंचा पर्व रथयात्रा भगवान जगन्नाथ की लोकपरम्परा को नया अर्थ देता है।

गोंचा शब्द उडिया भाषा के शब्द गुंडिचा से आया प्रतीत होता है।मित्रो गोंचा का एक नाम नेत्रोत्सव भी है। बस्तर के चतुर्थ काकतीय नरेश पुरषोत्तम देव का अभिषेकोत्सव पर्व भी।ये तो हुई छिटपुट इतिहास ।कई धार्मिक कहानियाँ भी है।जिसके विषय मे अकादमिक चर्चा मेरा लक्ष्य नहीं है।
लेकिन मूल आशय की ओर लौटते हैं।दंतेवाड़ा का यह वनराही गोंचा के हृदय प्रदेश में जो देखा वह इस पर्व की तुपकी चालन की परम्परा है।तुपकी क्या ये तो धर्म, जाति, वर्ण, सम्प्रदाय, वर्ग सबकी दीवारो को तोड़कर उत्सव में रम जाने की अनूठी परम्परा का नाम है।तुपकी बंदुकनुमा समझाने के वास्ते कह रहा हु। पिचकारी की तरह की आकृति वाला उत्सव लोक यन्त्र है।जिसमे जंगल के हरे छोटे कच्चे फलो को भरकर पिचकारी की तरह फलो को भरकर जगन्नाथ के स्वागत में छोड़ा जाता है।मूल रूप से इसमें अंगूर की आकार का मालकागिनी लता का प्रयोग होता है। तुपकी पहले बना तो बन्दूक से तुलना जायज नही।तुपकी हिंसक भी नही। 
यह तुपकी बस्तर और उड़ीसा क्षेत्र के अतिरिक्त कही नही बनाई जाती।


वनांचल की फागुन मड़ई की आवला मार की याद दिला गयी। यह गोंचा।जब दंतेश्वरी के दरबार में आरण्यक शबर पुत्र फलों के मार से उत्सव को रूप देते हैं।गोंचा में मालकांगिनी के फलों को उड़ाकर।फल तो उड़ते ही हैं ।तुपकि की सामूहिक ध्वनि भी उड़ती है।लोकजीवन भी उड़ता है।मानो विश्व चैतन्य हो रहा हो । बस्तर की गोंचा में वाणी ,राग रस ,गंध के साथ। 
भौतिक दुनियावी संसार से अलग प्रकृति की गोद में ईश्वर को मनुष्य रूप में प्रस्तुत करता है यह गोंचा उत्सव ।हम सबको कैमरे के नजरो से हटकर हृदय के नजरों से देखने के लिए बस्तर बुला रहा है।

ऐसा रथ जिसमें प्रकृति का सामूहिक लोकलय हो।अपने आपमें विशिष्ट है। मेरा मन कहता है ऐसा उत्सव देखने आज बस्तर भगवान जगन्नाथ ,भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा जरूर आये होंगे।गजामूंग के पारंपरिक प्रसाद के साथ फनसकोषा(पका कटहल फल )का प्राकृतिक स्वाद लोक और जन का रस है। तुपकी की हर सलामी बारूद से जुदा प्रकृति की सलामी है।
इंद्रावती की प्रवाह से
भुवाल सिंह

संगम मे स्थित भैरव देव के चरण चिन्ह

संगम मे स्थित भैरव देव के चरण चिन्ह.....!

दंतेवाडा मे दन्तेश्वरी मंदिर के पीछे शंखिनी और डंकिनी नदियों का संगम स्थित है ! इसी संगम स्थल पर भगवान भैरव के पैरों के निशान मौजूद हैं ! भैरव देव के चरण चिन्हो के पीछे जनमानस मे मान्यता व्याप्त है कि गाय का बछड़ा नदी मे डूब रहा था जिसे बचाने के लिये भैरव देव ने पहाड़ी से सीधे नदी मे उभरी उस चट्टान पर छलांग लगा दी!

तब उस चट्टान पर भैरव देव के चरण चिन्ह अंकित हो गये जो आज भी दर्शनीय है ! नदी मे जब कम पानी होता है तब आप भैरव देव के चरण चिन्हो का दर्शन कर सकते हैं!
छायाचित्र सौजन्य - श्री चन्द्रा मंडावी जी से साभार!

एक गोंड गांव में जीवन: वेरियर एल्विन

एक गोंड गांव में जीवन: वेरियर एल्विन
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भारतीय जनजातियों पर शोध करने वाले मानवशास्त्रियों में वेरियर एल्विन(1902-64) का विशिष्ट स्थान है।वे काफी लोकप्रिय हुए और कई मामलों में विवादास्पद भी रहें।मुरिया जनजाति पर उनका शोध 'मुरिया एंड देयर घोटुल' विश्व स्तर पर चर्चित हुआ।उनकी पद्धति से कुछ लोगों को असहमति भी रही है, खासकर काम सम्बन्धो के नियमन के उनके चित्रण को लेकर।बाद में जनजातीय 'नेशनल पार्क' के उनकी अवधारणा और उनके वैवाहिक संबंधों को लेकर भी उनकी आलोचना की जाती रही है।मगर जहां तक हमारी जानकारी और समझ है उनकी पद्धति और दृष्टि से किसी को असहमति हो सकती है, लेकिन जनजातियों के प्रति उनका प्रेम और समर्पण निःसन्देह है।वे इंग्लैंड से भारत मुख्यतः मिशनरी कार्य के लिए आए थे, मगर अपने अंतर्द्वंद्वों, गांधी जी के विचार और सानिध्य, जनजातियों की स्थिति, मिशनरियों के कार्यों के तरीकों को देखकर उनके विचार बदल गए।फिर उन्होंने जनजातियों के बीच रहकर उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए काम करने का निश्चय किया;और इसी दौरान अपने विख्यात मानवशास्त्रीय शोध कार्य किए।
'एक गोंड गांव में जीवन'(Leaves from the jungle,1936 का हिंदी अनुवाद) एल्विन के शुरुआती जीवन(1932-35) के अनुभव हैं, जो उन्होंने अपनी डायरी में दर्ज किया था। यह डायरी उन्होंने मध्यप्रदेश के अमरकंटक के निकट 'करंजिया' गांव में रहते हुए लिखा था। डायरी तिथिवार लिखी गई है, और उसमे ब्यौरे अधिक हैं; रचनात्मक विश्लेषण कम।फिर भी कहीं-कहीं वर्णन में रोचकता है और युवावस्था की अल्हड़ता भी।चूंकि मूल कृति अंग्रेजी में है, इसलिए अनुवाद की अपनी सीमा भी है।एल्विन अभी मध्यभारत के जनजातीय जीवन मे प्रवेश कर रहे थें। पुस्तक में दो भूमिकाएं हैं; प्रथम संस्करण के समय और द्बितीय संस्करण(1956) के समय।द्वितीय संस्करण की भूमिका इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि एल्विन के अनुसार प्रथम संस्करण की भूमिका में उन्होंने ब्रिटिश शासन और चर्च के प्रति अपने दृष्टिकोण को ब्रिटिश शासन होने के कारण पुर्णतः व्यक्त नही किया था। इसलिए इस भूमिका में उन्होंने कई बातों का 'खुलासा' किया है।
एल्विन भारत आने(1927) से पूर्व विद्यार्थी जीवन से भारत के प्रति सहानुभूति रखते थे और चाहते थे कि 'उनकी जाति' ने यहां जो नुकसान पंहुचाया है उसकी कुछ भरपाई कर सकें। इस कारण भारत आने पर वे पूना के क्रिश्चियन विचारों पर आधारित ऐसे आश्रम से जुड़े "जिसमे भारतीय और यूरोपीय लोगों को पूर्ण समानता के आदर्श पर सदस्यता देने का प्रावधान था(उन दिनों यह असमान्य था)और जिसका लक्ष्य धर्म-परिवर्तन न होकर विशुद्ध विद्यानुराग था"। एल्विन मानते हैं कि 1928 में साबरमती आश्रम में गांधी जी से मिलने के बाद उनका "जीवन ही बदल गया"। वे अब गांधी जी और कांग्रेस के करीब आने लगें। गांधी जी भी उनसे पुत्रवत स्नेह करते थे।उनके गांधी और कांग्रेस प्रेम से जाहिर है ब्रिटिश प्रशासकों को असुविधा होने लगी। वे एल्विन की आलोचना करने लगे और उन्हें धर्म की राह से भटका हुआ माने जाने लगा। यहां तक कि 1932 में ही जब वे इंग्लैंड गए तो सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फ़ॉर इंडिया सेम्युअल होर ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया और उन्हें पासपोर्ट देने से इंकार किया गया। अंततः उन्हें राजनीति में भाग न लेने और सरकार की आलोचना न करने के शर्त पर ही पासपोर्ट दिया गया। चर्च की प्रचलित मान्यताओं से उनकी असहमति बढ़ती जा रही थी और अंततः "मैंने 1936 में इंग्लैंड जाकर आर्क बिशप टेम्पिल की सलाह पर 'डीड ऑफ़ रेलिकविश्मेन्ट' पर हस्ताक्षर कर और औपचारिक रूप से अंततः मैंने चर्च ऑफ इंग्लैंड से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया"।
एल्विन ब्रिटिश साम्राज्यवाद और धर्म के सम्बंध को पहचानते थे। लिखा है " मैं यह बात स्पष्ट करना चाहता हूं कि चर्च ऑफ इंग्लैंड और ब्रिटिश साम्राज्यवाद में मिलीभगत थी। दोनों की नीति भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति दमनकारी थी। इस कारण इसमें मेरा विश्वास टूट गया। सारी मिशनरी गतिविधि से मुझे ऊब होने लगी"। और भी "चर्च के साथ मेरे झगड़े का मूल कारण यही था: मैंने भारतीयों का धर्म परिवर्तन करने से मना कर दिया था"।
एल्विन के शोध कार्य मे उनके मित्र शामराव हिवाले का महत्वपूर्ण योगदान है:कई किताबों में एल्विन के साथ उनका नाम भी है। इस डायरी में उनका जिक्र बार-बार है क्योंकि करंजिया आश्रम में दोनों साथ-साथ रहें। एल्विन ने भूमिका में भी उनका जिक्र किया है "शामराव का शोलापुर के निकट माधे में जन्म हुआ था और जब यह डायरी शुरू की गई उसकी उम्र तीस बरस थी। मुम्बई के विल्सन हाई स्कूल और कोल्हापुर के राजाराम कालेज में उसने शिक्षा पाई थी।.....1929 में गुजरात जांच के लिए शामराव मेरे साथ था और तब से हम दोनों ने मिलकर कार्य किया।"
शामराव द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने जब गांधी जी इंग्लैंड जा रहें थे, तब उसी जहाज में थे। गांधी जी से प्रभावित होकर वे उन्ही के साथ इंग्लैंड से वापस आ गए और कांग्रेस से जुड़ गए। डायरी में शामराव मुख्यतः चिकित्सक की भूमिका में अधिक दिखाई देते हैं। इस रूप में जनजातियों से उनकी गहरी सहानुभूति दिखती है। प्रारम्भिक चिकित्सा के साथ-साथ वे आश्रम के बच्चों के शिक्षक के रूप में भी अपना योगदान देते दिखाई देते हैं।डायरी में एल्विन के एक अन्य सहयोगी मित्र श्रीकांत का भी जिक्र आता है,मगर उनके बारे में अधिक जानकारी नही है।

एल्विन के अनुसार उन्होंने गोंड शब्द पहली बार 1931 में जमनालाल बजाज से सुना था। उन्होंने ही उन्हें सेंट्रल प्रोविंसेस जाकर आदिवासियों के कल्याणार्थ कार्य करने को प्रेरित किया जिसे गांधी जी ने सहमति दी।इस तरह विभिन्न स्थानों की तलाश करते अंततः विशप वुड की सलाह पर उन्होंने 'करंजिया' को आश्रम के लिए चुना। इस स्थान के चुनाव का एक और कारण एल्विन के अनुसार " उन्होंने (बिशप) बताया जिन पाँच यूरोपीय लोगों ने वहां जाकर डेरा जमाया उनमे से चार एक बरस के अंदर ही चल बसे। ऐसे ही स्थान की हमे तलाश थी और 28 जनवरी, 1932 में शामराव और मैंने वहां का रुख किया और इसके साथ ही मेरी डायरी भी शरू हुई ।"
प्रथम संस्मरण की भूमिका में एल्विन ने उन चरित्रों के बारे में लिखा है जो आश्रम और आस-पास के गांव के रहे थें, और जिनसे उनका सम्पर्क हुआ। इनमे आदिवासियों के गुनिया 'पंडा बाबा' है, नौजवान 'तूता' है, 'फुलमत' है, 'गणेश' है, 'हैदर अली' है। इनमे से अधिकांश जनजाति हैं। एल्विन इन चरित्रों के 'खूबियों' को उद्घाटित करते हैं, जो जाहिर है तत्कालीन जनजातीय परिवेश संस्कृति के मुताबिक है। उनकी लोक मान्यताएं है, विश्वास-अंधविश्वास है, चिकित्सा है, प्रेम है, झगड़े हैं। मगर इन सबके बीच एक निर्दोषिता है। यहां स्वार्थ नही है। यदि 'चालाकी' है भी तो सीमित है, महज सामान्य सुविधाओ के लिए। एल्विन इन सबको कौतूहल से देखते हैं। जिन परम्पराओं, संस्कृति पर आगे जाकर उन्होंने विस्तृत रूप से लिखा है अभी उनसे परिचय हो रहा था, कई कर्मकांडो का यहाँ उल्लेख है।मगर इन सबके बीच आदिवासियों के प्रति उनका प्रेम बराबर दिखाई देता है। वे करंजिया आश्रम में उनके लिए स्कूल, हॉस्पिटल खोलते हैं; धीरे-धीरे उसका दायरा आस-पास के गांव में फैलाने का प्रयास करते हैं। कुष्ठ आश्रम खोलते हैं। देश-विदेश से संसाधन जुटाने का प्रयास करते हैं। कई बार बीमार पड़ते हैं, खतरे में पड़ते हैं। शामराव बराबर उनका साथ देते हैं। दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ दिखती है।
डायरी में अमरकंटक का कई बार जिक्र है। यहां का मेला, नर्मदा नदी, साधु का जिक्र है। उसी तरह।पेंड्रा रेलवे स्टेशन का जिक्र है, क्योकि रेल यात्रा का उस क्षेत्र के लिए वह अंतिम पड़ाव था। फिर वहां से अक्सर पैदल या बैल गाड़ी से जाना पड़ता था। करंजिया में रहते एल्विन ने कई बार बम्बई-पूना की यात्रा की। तीस के दशक में जंगली पशुओं की भरमार थी इसलिए जगह-जगह बाघ, तेंदुआ,सांप,भालू के दिखाई देने और मनुष्यों पर उनके हमले का जिक्र है।
डायरी में मुख्यतः गोंड, बैगा और अगरिया जनजाति का जिक्र है, जो उस परिवेश में थे। एल्विन ने आगे जाकर उन पर किताबे लिखी। 'द बैगा' (1939), 'अगरिया' (1942)। इस क्षेत्र की लोक संस्कृति और लोकगीत और लोककथाओं पर भी उन्होंने किताबें लिखी। इस तरह यह किताब मानवशास्त्र के विद्यार्थियों के साथ-साथ सछ्त्तीसगढ़ के लोक संस्कृति पर रुचि रखने वालों के लिए भी उपयोगी और रोचक है।
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पुस्तक- एक गोंड गांव में जीवन(अनुवाद)
लेखक- वेरियर एल्विन(1936)
प्रकाशन- राजकमल ,नई दिल्ली
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# अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ. ग.)
मो. 9893728320