28 अगस्त 2019

मछली पकड़ने का साधन ...........चोरिया.....!

मछली पकड़ने का साधन .....चोरिया....!

👉बस्तर की संस्कृति में कई ऐसी मान्यताएँ व परंपराएँ जीवित हैं, जो आधुनिक समय में भी अपनी महत्ता को बनाए हुए हैं। बस्तर में कई परंपरागत साधन आज भी मौजूद हैं,जो ग्रामीण संस्कृति के विभिन्न अंग के रूप में सर्वोपरि हैं। हालिया दिनों में विलुप्त होती संस्कृति के संरक्षण व संवर्धन की आवश्यकता आन पड़ी है। पारंपरिक हल से लेकर मूसल तक के साधन बस्तर की जीवित परंपरा के हिस्सा हैं, उन्हीं में से एक है बाँस से बनी चोरिया।
ग्रामीण संस्कृति में मछली पकड़ने के महत्वपूर्ण साधन के रूप में इसका इस्तेमाल किया जाता है। मानसून की पहली बारिश होते ही बस्तर के अधिकांश गाँवों में लोग मछली पकड़ने का साधन जुटाना शुरू कर देते हैं। बाँस की तिनकों से बनी चोरिया को हाथ से बुनने की परंपरा है, बुनने के लिए रस्सी भी पारंपरिक तरीके से ही तैयार किये जाते हैं। जंगलों में मिलने वाली सिहारी वृक्ष के छाल की रस्सी चोरिया कातने में उपयुक्त होता है। धान की लहलहाती फसलों के बीच खेतों के अधटुटे मेड़ या दरारों में चोरिया लगाकर मछली पकड़ने की परंपरा बहुत पुरानी है।

छोटी से छोटी मछलियाँ इसे भेद नहीं सकतीं। बहुत ही कारगर तरीके से तैयार चोरिया अब धीरे-धीरे विलुप्तप्राय स्थिति में आ गई है। फिर भी बस्तर के अंदुरुनी गाँवों में आज भी चोरिया का प्रचलन है। बाजार में वैसे तो मछली पकड़ने के लिए तरह-तरह के साधन उपलब्ध हो चुके हैं, लेकिन गाँवों में लोग मछली पकड़ने के लिए चोरिया को ही अच्छा साधन मानते हैं। सिर्फ एक या दो दिन नहीं, बल्कि पूरे चार महीने तक चोरिया से आखेट कर मछली पकड़ा जाता है।
कभी-कभी रात या अलसुबह ग्रामीणों के सामने गंभीर खतरा भी उत्पन्न हो जाता है, जब चोरिया के साथ बने ठोड़हा में कोई जहरीला साँप घुस जाए। पूर्व में ऐसी घटनाएँ घट चुकी हैं, जिससे लोगों की जान तक चली गई है,फिर भी ग्रामीण जनजीवन में चोरिया का महत्व बरकरार है। यह मछली पकड़ने का अच्छा साधन भी है।
बस्तरिया संस्कृति में लकड़ी से बने हल,चोरिया, ढेकी,मूसल,जाता, बाहना,धीर आदि न जाने कितने अनगिनत साधन हैं, जो धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं। चाहे तीज-त्यौहार की बात हो या किसी साधन की। आज पहले जैसे बात नहीं रही। बल्कि परंपरागत साधनों को आधुनिक जीवनशैली ने पूरी तरह बदलकर रख दिया है। कुछ गिने-चुने परंपरागत साधन ही मौजूद हैं,जिन्हें सहेजने की जरूरत है।
स्रोत- मुकेश बघेल
दुर्गूकोंदल, कांकेर

23 अगस्त 2019

लकड़ी के पुल

लकड़ी के पुल.....!

अत्यधिक वर्षा के कारण बस्तर की नदी नालो मे साल भर पानी रहता है. भौगोलिक स्थिति बेहद दुरुह होने एवं सदानीरा होने के कारण आज भी मार्गो मे आने वाले नदी नालो पर पुल नहीं बने हुए हैं जिससे ग्रामीणो को कठिनाईयो का सामना करना पड़ता है. आज आधुनिक युग मे बस्तर मे जहाँ तक पहुंच हुई वहाँ वहाँ नदी नालो पर छोटे बड़े पुल बन चुके हैं.
वही हम लगभग आज से दो सौ तीन सौ साल पीछे के बस्तर के आवागमन मार्गो का इतिहास देखते हैं तब लगता है कि यहां नदी नालो को पार करने का सिर्फ़ एक ही साधन रहा होगा वह है सिर्फ़ छोटी नावे... और आज भी सिर्फ़ यही विकल्प ही दिखता है.

हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि यहां ग्रामीणो ने नदियो पर लकड़ी के पुल शायद ही बनाये होगे किन्तु अबुझमाड मे एक नदी पर बना यह पुल अबुझमाडियो के परम्परागत इंजीनियरिग कौशल का जीवन्त उदाहरण हैं. इस लकड़ी के पुल के पिल्लर बेहद मजबूत है जैसे किले के कोई बुर्ज हो. उपर पैदल या सायकिल से आराम से निकला जा सकता है.
वही इन्द्रावती पर यह लकड़ी का छोटा पुल भी बेहद मजबूत है जिस पर दोपहिया वाहन भी बड़ी आसानी से निकल जाती है. अंग्रेजी इंजीनियरो जिन्होंने यहाँ के नदियो पर मजबूत पुलो का निर्माण किया उनसे ज्यादा कुशल यहाँ के ग्रामीण है. जिसका प्रमाण लकड़ी के ये पुल है.
बस्तर मे राजा रुद्रप्रताप देव के शासनकाल मे लगभग 120 साल पहले प्लम्बली ने भी बस्तर मे लकड़ी के पुलो का निर्माण किया. उन्होंने लकड़ी के इतने मजबूत पुल बनाये थे जिस पर बड़े बड़े ट्रक आसानी से निकल जाते थे. उस समय पुरे बस्तर मे लगभग 1500 सौ लकड़ी के पुल बनाये गये थे.
ओम!

19 अगस्त 2019

साहित्यऋषी लाला जगदलपुरी


साहित्यऋषी लाला जगदलपुरी 
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साहित्यऋषी लाला जगदलपुरी को आज उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन । उनका जन्म 17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर (बस्तर ) में हुआ था । अपने जन्म स्थान और गृहनगर जगदलपुर में ही निधन 93 वर्ष की आयु में 14 अगस्त 2013 को उनका निधन हो गया। साहित्य जगत में जगदलपुर शहर की पहचान लाला जगदलपुरी के नाम से होती थी ।
अपनी साहित्य साधना में उन्होंने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में असंख्य रचनाओं का सृजन किया । वह बस्तर अंचल की आदिवासी लोकसंस्कृति के अध्येता और विद्वान थे । यहाँ की लोकभाषा हल्बी और भतरी में भी उन्होंने कई रचनाएँ लिखी। उनके साहित्यिक जीवन पर हिन्दी वेबसाइट "कविता कोश " में विस्तार से जानकारी दी गयी है ,जिसका एक अंश यहाँ साभार प्रस्तुत है --लाला जी का लेखन कर्म 1936 में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि थे। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं – मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश (1983);पड़ाव (1992 आँचलिक कवितायें (2005); ज़िन्दगी के लिये जूझती ग़ज़लें तथा गीत धन्वा (2011)और वर्ष 1986 में प्रकाशित सहयोगी काव्य संग्रह हमसफ़र । 

उनके लोक कथा संग्रह हैं – हल्बी लोक कथाएँ (1972); बस्तर की लोक कथाएँ (1989); वन कुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990); बस्तर की मौखिक कथाएँ (1991)। उन्होंने अनुवाद पर भी कार्य किया है तथा प्रमुख प्रकाशित अनुवाद हैं – हल्बी पंचतंत्र (1971); प्रेमचन्द चो बारा कहानी (1984); बुआ चो चीठीमन (1988); रामकथा (1991) आदि। लाला जी ने बस्तर के इतिहास तथा संस्कृति को भी पुस्तकबद्ध किया है जिनमें प्रमुख हैं – बस्तर: इतिहास एवं संस्कृति (1994); बस्तर: लोक कला साहित्य प्रसंग (2003) तथा बस्तर की लोकोक्तियाँ (2008)। लाला जी की रचनाओं पर दो खण्डों में समग्र (2014) यश पब्लिकेशन से प्रकाशित किया गया है। 

यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का बहुत सा कार्य अभी भी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्यवश या तो नष्ट हो गए त फिर कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर लिये गये। वर्ष 1971 की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से बाहर गये थे कि एक गाय ने यह सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये।
लाला जगदलपुरी के कार्यों व प्रकाशनों की सूची यहीं समाप्त नहीं होती अपितु उनकी रचनायें कई सामूहिक संकलनों में भी उपस्थित हैं जिसमें समवांय, पूरी रंगत के साथ, लहरें, इन्द्रावती, हिन्दी का बालगीत साहित्य, सुराज, छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन, गुलदस्ता, स्वरसंगम, मध्यप्रदेश की लोककथायें आदि प्रमुख हैं। 

लाला जी की रचनायें देश की अनेक प्रमुख पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में भी स्थान बनाती रही हैं जिनमें नवनीत, कादम्बरी, श्री वेंकटेश्वर समाचार, देशबन्धु, दण्डकारण्य,युगधर्म, स्वदेश, नई-दुनिया, राजस्थान पत्रिका, अमृत संदेश, बाल सखा, बालभारती, पान्चजन्य, रंग,ठिठोली, आदि सम्मिलित हैं। लाला जगदलपुरी ने क्षेत्रीय जनजातियों की बोलियों एवं उसके व्याकरण पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। लाला जगदलपुरी को कई सम्मान भी मिले जिनमें मध्यप्रदेश लेखक संघ प्रदत्त "अक्षर आदित्य सम्मान" तथा छत्तीसगढ़ शासन प्रदत्त "पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान’ प्रमुख है। 

उन्हें अन्य अनेक संस्थाओं ने भी सम्मानित किया है जिनमें बख्शी सृजन पीठ, भिलाई; बाल कल्याण संस्थान, कानपुर; पड़ाव प्रकाशन, भोपाल आदि सम्मिलित है। यहाँ 1987 की जगदलपुर सीरासार में घटित उस अविस्मरणीय घटना को उल्लेखित करना महत्वपूर्ण होगा जब 'काला जल ' जैसे कालजयी उपन्यास के सुप्रसिद्ध लेखक गुलशेर अहमद खाँ ' शानी ' को को सम्मानित किया जा रहा था। शानी जी स्वयं हार ले कर लाला जी के पास आ पहुँचे और उनके गले में डाल दिया; यह एक शिष्य का गुरु को दिया गया वह सम्मान था जिसका कोई मूल्य नहीं; जिसकी कोई उपमा भी नहीं हो सकती। यहाँ उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी के नाम पर शोधसंस्थान भी बन चुकी है ।। #डाॕ रुपेन्द्र कवि_जगदलपुर।🙏

बस्तर के नाग

बस्तर के नाग .........!
बस्तर में नागो ने बहुत लंबे समय तक शासन किया। बस्तर में नागो की छिंदक शाखा का शासन था। डा हीरालाल शुक्ल के अनुसार नाग मध्यप्रदेश के बाद कर्नाटक में बस गये। यहां उनकी सेन्द्रक, सेनावार, तथा सिन्द तीन शाखाये थी। सिन्द शाखा की उपशाखाओ का शासन विभिन्न छः जगहो पर था जिसमें बागलकोट, एरमबिगगे, बेलगवटिट, बेल्लारी, चक्रकोट एवं भ्रमरकोट। जिसमे से चक्रकोट एवं भ्रमरकोट दोनो शाखाये बस्तर से संबंधित है। सिन्द नाग के अपभंरश से ही छिंदक शब्द बना और बस्तर में सेन्द्रक शाखा के ये नागशासक छिंदकनाग कहलाये।
बस्तर में छिंदक नागों के शासन के अंतर्गत दो घरानों का शासन था जिसमें से एक घराने का शासन चक्रकोट एवं दुसरे घराने का शासन भ्रमरकोट में था। चक्रकोट के शासको के मुकुट पर सवत्सव्याघ्र प्रतीक अंकित था। इनका ध्वज फणिध्वज था। भ्रमरकोट के शासक धनुशव्याघ्रलांछन युक्त मुकुट चिन्ह एवं कमल के फूल एवं कदली पत्र के ध्वज चिन्ह का प्रयोग करते थे। भ्रमरकोट के शासक के रूप मे मधुरांतक देव का उल्लेख मिलता है। बाद में चक्रकोट के शासक धारावर्श के पुत्र सोमेश्वर देव ने मधुरांतक देव का वध कर दिया और भ्रमरकोट को चक्रकोट में मिला कर एक छत्र शासन किया।

बस्तर के सभी नागवंशी शासक भोगवतीपुरेश्वर की उपाधि धारण करते थे। वे स्वयं को भोगवतीपुर का स्वामी कहते थे। इन शासकों में नृपतिभूशण, धारावर्श, सोमेश्वर देव, कन्हरदेव प्रमुख थे। सोमेश्वर देव का शासन काल बस्तर में स्वर्ण काल था।
बस्तर में आज भी नागो की बहुत सी प्रतिमायें, एवं मंदिर मिलते है जो कि तत्कालीन छिंदक नागों के शासन में निर्मित माने गये है। बारसूर जाने वाले मार्ग में नागफनी ग्राम में नाग देवता को समर्पित एक मंदिर है। यहां दो तीन मंदिरों के अवशेष बिखरे पड़े है। एक मंदिर के अवशेष पर ग्रामीणों ने एक मंदिर बनाया है जिसमें नाग देवता की बड़ी बड़ी प्रतिमाये स्थापित हेै।
इसके अलावा बारसूर के सिंगराज तालाब में नागदेवता की खंडित प्रतिमा आज भी वहीं स्थित है। दंतेवाड़ा, समलूर, भैरमगढ़ एवं बारसूर में नाग प्रतिमाये मिलती है। बस्तर के छिंदक नागों ने नाग को बहुत सम्मान दिया। उनके मंदिर और कई प्रतिमायें बनवायी।
आज नागपंचमी के अवसर पर सभी जगह नागदेवता की पुजा होती है। नागमंदिरों में पूजा प्रार्थना हेतु लंबी लंबी कतारे लगी है। नाग पंचमी का त्यौहार आज ग्रामीण अंचलो में आज भी धुमधाम से मनाया जाता है। स्कुलो में एवं सार्वजनिक स्थानों पर कुश्ती प्रतियोगिता का आयोजन होता है। गांवों में नागपंचमी के दिन लोग अपने अपने घर के दरवाजों एवं दिवारों पर गाय के गोबर से सर्पो की आकृति बनाते है।
नाग लक्ष्मी के अनुचर होते हेै। इसलिये कहा जाता है कि जहां नागदेवता का वास होता हैं, वहां लक्ष्मी का वास होता है। नाग प्रकृति की अनुपम उपलब्धि है। पर्यावरण रक्षा तथा वनसंपदा में नागों की महत्वपूर्ण भूमिका है। ये नाग हमारी कृषी संपदा की विषैले जीव जंतुओं से रक्षा करते है। नागों का सम्मान कीजिये, इन्हे मारिये मत। इनका सम्मान एवं संरक्षण करना ही नागपंचमी का प्रमुख उददेश्य है।

3 अगस्त 2019

अविश्वसनीय चित्रकोट

अविश्वसनीय चित्रकोट .......!
चित्रकोट जलप्रपात आज पुरी दुनिया में बस्तर की पहचान बन चुका है। इस झरने की विशालता ने दुनिया भर से पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। इसकी जलधाराओं की गर्जना ने पर्यटको को रोमांचित किया है।
इसकी असीम खुबसूरती ने पर्यटकों को भाव विभोर कर दिया। अगर दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो बस यही है इस बात को चित्रकोट जलप्रपात अपनी खुबसूरती और विशालता से प्रमााणित करता है।
इंद्रावती नदी की करोड़ों बुंदो की जलधारायें नब्बे फीट की उंचाई से जिस गर्जना के साथ गिरती है उसकी आवाज पर्यटकों के धड़कनों को तेज कर देती है। उस गर्जना को सुनकर देखकर कोई भी सैलानी बिल्कुल अवाक रह जाता है। उसके मुख से सिर्फ एक ही शब्द निकलता है वाह चित्रकोट वाह।


चित्रकोट का झरना आज पुरी दुनिया में मशहूर है। इसके पीछे का कारण इसकी खुबसूरती और इसकी विशालता है। यह झरना जगदलपुर से 30 किलोमीटर की दुरी पर चित्रकोट ग्राम में स्थित है। बस्तर की प्राणदायिनी इंद्रावती पर बना यह झरना लगभग 90 फीट की उंचाई से गिरता है। यह झरना ना केवल भारत वरन एशिया का सबसे चौड़ा झरना है।
इसकी चौड़ाई आधे किलोमीटर से भी ज्यादा लगभग 750 मीटर तक मापी गई है। पुरे विश्व में नियाग्रा जलप्रपात की चौड़ाई सबसे अधिक है। उसके बाद दुसरे नंबर का खिताब चित्रकोट को हासिल है और पुरे एशिया महाद्वीप में चित्रकोट झरने की चौड़ाई का कोई भी झरना नहीं है इस कारण चित्रकोट झरने को एशिया का नियाग्रा जलप्रपात भी कहा जाता है। इसका आकार घोड़े की नाल के समान है।
वर्ष भर में चित्रकोट के अनेकों रूप देखने को मिलते है। मानसून के दिनों में नदी में अत्यधिक जलराशि के कारण यह झरना अपनी विशालता के चरम पर होता है। शीतकाल में इसकी कई जलधारायें रजत मोतियों की धाराओं के रूप में गिरती है।
चांदनी रात में तो चित्रकोट की खूबसुरती का कहना ही क्या, सैलानी तो सारी रात जलधाराओं के सौंदर्य को देखते हुए ही गुजार देता है। पहली बार जिस किसी ने भी चित्रकोट झरने को देखा है उसके दिलो दिमाग में कई दिनों तक सिर्फ चित्रकोट की छवि ही घुमते रहती है।
वहीं ग्रीष्मकाल में दो धारायें ही चित्रकोट का नाम कायम रख पाती है। इस साल अत्यधिक गर्मी, और इंद्रावती में बने हुए बांधों के कारण चित्रकोट का झरना सुख गया था। जहां तक लोगों को ज्ञात है कि ऐसी भयावह स्थिति पहली बार देखने को मिली थी।
जनवरी के बाद से नीचे बने गहरी झील में स्थानीय नाविकों द्वारा नावे और डोंगियां चलाई जाती है। इन नावों की सवारी करते हुए पर्यटक जब जलधाराओं के पास पहुंचता है तब जलधाराओं की फुंहारे तन और मन दोनों को ही शीतल कर देती है।
सूर्य की रोशनी भी चित्रकोट की धाराओं के साथ ऐसा तालमेल बैठाती है कि पानी की हर बुंदों में इंद्रधनुष के सातो रंग निखर उठते है। चित्रकोट के पास ही भगवान शिव को समर्पित मंदिर है।

चित्रकोट का झरना प्राकृतिक सौंदर्य के साथ भक्ति रस अपने में समाहित करते हुए सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। क्या बुढ़ा, क्या बच्चा, क्या पुरूष और क्या महिला, सभी इसकी सुंदरता के कायल है। बस्तर के सभी निवासियों के दिलों में चित्रकोट का झरना राज करता है।
इस चित्रकोट के झरने की विशालता विदेशी पर्यटकों को भी अपनी ओर खिंचती है। हर साल देश विदेश के कोने कोने से हजारो सैलानी चित्रकोट के सौंदर्य को निहारने आते है। तो अब आप कब आ रहे है चित्रकोट ..............!