30 अक्टूबर 2019

छत्तीसगढ़ में दीवाली : ग्वालिन



छत्तीसगढ़ में दीवाली : ग्वालिन

दीप धारण किये हुए इस तरह की यह मूर्ति हमारे यहां ग्वालिन कहलाती है। कुछ समय पहले तक यह हर तुलसी चौरा में विराजती थी। यह तीन, पांच, सात और नौ दियों के संग निर्मित होती है। इन विषम संख्याओं का कारण मुझे यह समझ आता है कि सिर के ऊपर के एक दीये के कारण यह स्थिति बनती है। शास्त्री इसे ग्रह या दिनों आदि से जोड़कर इसका अर्थ विस्तार करते हैं। ग्वालिन की मूर्तियां कुछ साल पहले तक बाजार में दिख रही थी पर पिछले सालों से मुझे नही दिखती। इनकी जगह धन की देवी लक्ष्मी को पद्मासन में प्रदर्शित किया गया है। एक मूर्तिकार दुकानदार से मैंने पूछा तो बोली, अब नहीं बनाते। क्यों ? इसका वह जवाब नही दे सकी। इसे मार्क्सवादी ढंग से देखें तो यह श्रम पर पूंजी की विजय है।

ग्वालिन का लक्ष्मीपूजन के दिन अनिवार्यता के पीछे यह प्रतीत होता है कि पुराने समय मे लक्ष्मी की पूजा लक्ष्मीपुत्रों अर्थात सम्पन्न वर्ग में प्रचलित रहा होगा। इसलिए श्रमिक वर्ग ने, सामाजिक - आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग ने अपनी श्रम परंपरा से विकसित कर ग्वालिन को लक्ष्मी मान लिया होगा। वैसे भी लक्ष्मी की मूर्ति सोने चांदी तथा अन्य धातुओं से बन सकती है पर ग्वालिन की मूर्ति हमेशा ही मिट्टी की बनती है। इसका चक्र एक दीवाली से दूसरी दीवाली तक रहता है। यह दूसरी दीवाली आते तक विसर्जित कर दी जाती है। माटी, माटी में एकाकार हो जाती है। भारत के मैदानी क्षेत्रों में ग्वालिन पूजा की परंपरा रही है। लोक की दीवाली को अगर दो सौ साल पीछे देखें तो वहां वर्तमान के ताम झाम होने के कम ही लक्षण दिखते हैं। छत्तीसगढ़ में आज दीवाली का दिन 'सुरहुती' के रूप में प्रचलित है। कल और परसों गोवर्धन पूजा और फिर 'मातर' मनाया जाएगा। इन तीनो दिनों में गौपालक समाज की सबसे बड़ी भूमिका इस प्रकाशोत्सव में हम देख पाते हैं।
उत्तर आधुनिक ग्लोबल और तकनीकी युग मे श्रम और श्रमिक का महत्व निरंतर घटता जा रहा है, ऐसे में पारंपरिक ग्वालिन की मूर्ति पूजन का कम होना भी स्वभाविक है। उपभोक्तावाद और पूंजी ने श्रमिक परंपराओं और प्रतीकों का स्थान नए रूप में ग्रहण कर लिया है। यह परिवर्तन आंखों से दिख रहा है। छत्तीसगढ़ी लोक में दीवाली के जो प्रतीक हम दिखते हैं, वह कृषि आधारित श्रमिक वर्ग के उत्सव के अधिक करीब हैं। इस लिहाज से ग्वालिन पूजा का यहां महत्व स्थापित होता है। इस विषय पर आप सुधीजनों से अनुरोध है कि कुछ और भी बताएं।
देवारी पर कामना है कि मन मे मया अउ कोठार में धान भरा रहे... 🙏.
लेख - पीयुष कुमार सर से साभार..!

छत्तीसगढ़ लोक में आलोकपर्व...मातर तिहार

छत्तीसगढ़ लोक में आलोकपर्व...मातर तिहार..!

गोवर्द्धन पूजा के बाद के दिन छत्तीसगढ़ में मातर लोकपर्व मनाया जाता है।यह लोक पर्व यहां के मूल गोपालक समुदाय राऊत जाति के अगुवाई में होता है।
रंगबिरंगे परिधान में सजे राऊत भाई के इस पर्व में पूरा गांव शामिल होता है।मातर लोक उत्सव के कार्यक्रम स्थल पर पूरा गांव एकत्रित होता है।इस कार्यक्रम स्थल पर लोक देव के रूप में 'खुड़हर 'स्थापित किया जाता है।'खुड़हर' लकड़ी से बनाया जाता है।हल्की नक्काशी के साथ।
यह 'खुडहर' लोक देव का प्रतीक है।इस लोकदेव में ही मातर का भाव समाहित है।मातर का अर्थ होता है लोकमाता के प्रति समर्पण।
इस प्रतीक में राउत समुदाय की अटल आस्था है।मातर कार्यक्रम का शुभारंभ गोवर्धन पूजा के दिन खुड़हर स्थापना के साथ शुरू होता है।
अब मातर के मूल आकर्षण की ओर आते हैं।छत्तीसगढ़ के राऊत बन्धु के मूल अस्त्र तेंदू का लाठी होता है।रंगबिरंगे परिधान में सजावट का अंग मयूर पंख की शोभा के साथ कौड़ी(समुद्री सीप की आकृति का) होता है।मानो कृष्ण कन्हैया पूरे गोप ग्वालों के साथ गाँव में उतर आये हो।

सभी ग्रामवासी राऊत बन्धुओं की शौर्य और लोक सौन्दर्य की अगुवाई में सामने मड़ई को बलिष्ठ व्यक्ति लेकर चलता है।रुककर दौड़ता भी है।जो काफी चित्ताकर्षक होता है।यह मड़ई(यह बांस का बना होता है जिसमें काशी(कुश घास) की रस्सी को हाथ में भांजकर ,पुरे बांस की ऊंचाई तक क्रमशः सजाते हैं।पश्चात मड़ई के रस्सी में नदी किनारे नम भूमि में मिलने कन्दिल कांदा का उपयोग किया जाता है।इस कांदा को परत दर परत निकालकर मड़ई को सजाया जाता है।
मेरे गाँव में मड़ई ढीमर और केवन्ट जाति के बन्धुओं द्वारा बनाया जाता है।इनका प्रबल विश्वास है कि मड़ई में आदिशक्ति का वास होता है और यह तमाम अनिष्ट शक्ति से ग्राम की रक्षा करता है।यह जन कल्याण का प्रतीक है।
मड़ई और खुड़हर कथा के बाद अब पुनः आते हैं।मातर पर सभी ग्राम वासी तालाब के किनारे एकत्रित होते हैं।एकत्रित होने का मूल कारण है मातर के मुख्य आकर्षण -अखाड़ा के आयोजन से युवा पीढ़ी को जोड़ना और लोक मनोरंजन को बल प्रदान करना।
अखाड़े में हमारे गाँव के नव जवान और बुजुर्ग अखाडेबाज अपना शौर्य
लाठी का चालन,
तलवारबाजी,
आग से सम्बंधित प्रदर्शन के अनेक रूप द्वारा दिखाते हैं।

अखाड़े के साथ साथ ग्रामवासियों को राऊत बंधू गिलास में दूध भरकर अपने हाथों से पिलाने के लिए आमंत्रित करते हैं।आज के दिन मातर स्थल पर राउत बन्धु मेजबान बन जाता है और गाँव मेहमान।अद्भुत है यह परंपरा।
समय के साथ मातर के स्वरूप में परिवर्तन आया है।अब लोग दूध से अधिक शराब की ओर आकर्षित है।
मातर लोकपर्व हम सबके अंदर सामूहिकता और उत्सवधर्मिता बची रहे इस लोककामना का सजीव प्रतीक है।राऊत भाइयों के दोहे में कहुँ तो-
"पान खायेन सुपारी मालिक,
सुपारी के दुई कोर।
तुम तो बइठो रंगमहल में,
राम राम लेव मोर।
आवत दिएन गारी गोढा,
जावत दिएन असीस।
दुधे खाव पूते बिहाव,
जुग जुग जियो लाख बरिस!!"
छत्तीसगढ़ के राउत बन्धु गढ़वा बाजा के शक्ति धुन में छत्तीसगढ़ी के साथ कबीर,तुलसी ,रहीम सबके दोहे पारते हैं।जिससे समूचा वातावरण वास्तविक भारत के रूप का हमें दर्शन करा जाता है।

कभी छत्तीसगढ़ आएं तो सुरहुत्ती के उजाले गौरा गौरी बारात में जरूर शामिल हो।गोवर्धन पूजा के असल गोबरधन को माथे पर टीके और दूसरे को भी लगाएं।मातर तिहार से शौर्य अखाड़े का आनंद ले और राउत बंधुओं के दोहे के महाभाव को महसूस करें।
शुभ दीपावली।
भुवाल सिंह
ग्राम-भटगांव -खोरपा
पुराना धमतरी रोड से...

छत्तीसगढ़ लोक में आलोकपर्व: गोबरधन पूजा

छत्तीसगढ़ लोक में आलोकपर्व:  गोबरधन पूजा

लक्ष्मीपूजन के दूसरे दिन देश के अधिकांश हिस्सों में गोवर्धन पूजा मनायी जाती है।छत्तीसगढ़ में गोवर्धन पूजा में लोक की विशिष्टता है।गौरी गौरा विवाह (सुरहुत्ती)में अगर आदिवासी समुदाय की प्रधानता होती है तो गोबरधन पूजा में यादव जिसे छत्तीसगढ़ में राउत कहा जाता है की प्रधानता मुख्य है।
यह पर्व राउत बंधुओं को समर्पित है जो छत्तीसगढ़ के गांवों के पशुपालक और पशुरक्षक दोनों है।मनुष्य और पशु के सहअस्तित्व की अद्भत बानगी है गोबरधन पूजा।राउत बन्धु जो सुबह पूरे गांव को जगाने के कारण पहटिया(पहट के समय जगाने वाले)कहलाते हैं।पहटिया पूरे गांव के पशु को समूह में ले जाकर वर्षभर चराते हैं।पशु के आरोग्य का ख्याल रखते हैं।गांव की व्यवस्था में महत्वपूर्ण हिस्सा होने के कारण इन्हें पवनी पसारी कहा जाता है क्योंकि गांव के पशुधन का ये रखवाला है।राउत बन्धु अपने पूरे कुनबे के साथ आज के दिन को विशेष रूप से उत्सवधर्मी बनाता है।

वे रंगबिरंगे कौड़ी लगे नए परिधान पहनकर,हाथ में तेंदू की लाठी लेकर और पशु धन के लिए विभिन्न रंगों से बने मयूरपंख से शोभायमान सोहई लेकर पशुमालिक के घर जाता है!
गोबरधन पर्व के सारांश पर प्रकाश डालते हुए छत्तीसगढ़ लोक जीवन के अध्येता पीयूष कुमार लिखते हैं-
"हमारे यहाँ छत्तीसगढ़ के गाँवों में आज जितनी ख़ुशी पशुपालकों की होती है, उससे अधिक ताव और उल्लास राउतों में होता है। आज किसान पशुओं को खिचड़ी खिलाते हैं और खुद भी खाते हैं। खिचड़ी में नए चावल का भात, सोहारी रोटी (नए चावल का), उड़द का बड़ा, कोचई (अरबी) और मखना (कद्दू) की सब्जी और उड़द की दाल अनिवार्य हैं।
राउत भाई सुन्दर छींट का कुरता पहन पहले तो अपने घर में इष्ट की पूजा करते हैं फिर चटख सिंगार कर मड़ई लेकर शान से निकलते हैं। अब तो वह आठ दिनों का राजा है। साल भर उसने पशुओं को चराया है, अब वह आनंद मनायेगा। वे अपने हाथ से बनाई बांख की बनी सोहई बांधते हैं और पशु मालिकों को आशीष देते हैं -
जैसे मईया-लिहा दिया, तईसे देबो असीसे!
घर-दुवार भण्डार भरे अउ जिवय लाख बरीसे !!

शाम को पशुओं से गोबर खुंदा कर उसका टीका एक दुसरे को लगाकर लोग गले मिलते हैं। बुजुर्ग कह उठते हैं - "जियत रबो त इही दिन मिलबो जी..!" यह आप्तवाक्य तब अर्थपूर्ण लगता है जब साल भर बाद गाँव जाने पर पता लगता है कि फलाना कका रेंग दिस...
त्यौहार प्रकृति के संग सहस्तित्व का प्रतीक हैं। प्रकृति के प्रति उल्लासमय कृतज्ञता है!"
भुवाल सिंह
गोबरधन पूजा २०१९

21 अक्टूबर 2019

बस्तर महाराजा भूपालदेव और उनका राजत्व काल

बस्तर महाराजा भूपालदेव और उनका राजत्व काल.......!

बस्तर के चालुक्यवंशी नृपतियों के क्रम मे 1842 ई में महाराजा भूपालदेव बस्तर के सोलहवें राजा बने। भूपालदेव बस्तर महाराजा महिपालदेव के बड़ी रानी पदमकुंवर चंदेलिन के पुत्र थे। महिपाल देव की दुसरी रानी हरकुंवर के पुत्र दलगंजन सिंह थे। भूपालदेव आयु में बड़े थे सो वे 36 वर्ष की अवस्था में बस्तर की राजगद्दी पर बैठे। (संदर्भ काकतीय युगीन बस्तर)

भूपालदेव का राजत्वकाल सन 1842 से 1853 ई तक मात्र ग्यारह वर्षों का ही था। इनके शासनकाल में बस्तर के पड़ोसी राज्य जैपुर से कोटपाड़ परगने के लिये अनवरत विवाद चलता रहा। बस्तर भूषण में केदारनाथ ठाकुर दोनों राज्यों में कोटपाड़ परगने को लेकर विवाद के संबंध में लिखते है कि भूपालदेव महाराज के समय जैपुर से लड़ाई होते होते बची। दोनों राज्यों के लड़ाके सिपाही आमने सामने खड़े थे। यदि उस समय मान्यवर पंडित लोकनाथ राजगुरू दोनों के बीच जाकर खड़े न हो जाते और अपने दुरदृष्टि और मधुर शिक्षा से दोनों राजाओं को ना समझाते तो ना जाने उस समय बस्तर की क्या गति हुई होती। अपने जीवन काल में भूपालदेव जैपुर राज्य से कोटपाड़ परगने को वापस प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाये थे। 

महाराज भूपालदेव भगवान शिव के परमभक्त थे। इन्होने अपनी रानी वृंदकुंवर बघेलिन की प्रेरणा से दलपत सागर के मध्य शिवमंदिर बनवाया था। यह मंदिर उनके नाम पर भूपालेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। यह छोटा सा शिवमंदिर दलपतसागर के मध्य में एक टापू पर स्थित है। यहां सिर्फ नाव द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। 

महाराज भूपालदेव को लगभग 34 वर्ष की उम्र में पुत्र भैरमदेव के पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पुत्र प्राप्ति को भगवान शिव का आर्शीवाद मानते हुये उन्होने दलपत सागर के मध्य यह शिवमंदिर बनवाया था। लगभग 170 वर्ष से अधिक पुराना यह मंदिर बस्तर के चालुक्य राजवंश की स्थापत्य कला का सुंदर उदाहरण है। 

47 वर्ष की आयु में महाराजा भूपालदेव की मृत्यु हो गई थी। उनके मृत्यु उपरांत उनके अल्पव्यस्क पुत्र भैरमदेव राज्याभिषेक किया गया। 

आलेख - ओम सोनी। 

5 अक्टूबर 2019

सुकमा की माँ रामारामिन चिटमिटीन अम्मा देवी

सुकमा की माँ रामारामिन चिटमिटीन अम्मा देवी..!

बस्तर के सुकमा जिले मे सुकमा के पास ही रामाराम मे चिटमिटीन अम्मा देवी का प्राचीन मंदिर स्थित है. इस क्षेत्र के लोगो मे देवी के प्रति गहरी आस्था है जिस कारण रामा राम सुकमा का बेहद मह्त्वपूर्ण धार्मिक स्थल है.
रामाराम मे लोगो के मध्य सदियो से यह मान्यता स्थापित है कि त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपने वनवास काल के दौरान दक्षिण की ओर बढ़ने के दौरान रामाराम पहुँचे थे, वर्तमान में यहाँ मंदिर है यही पर श्री राम ने भू-देवी की आराधना की थी।
श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान न्यास, नई दिल्ली द्वारा श्रीराम वनगमन स्थल के रूप में रामाराम को सालों पहले चिन्ह्ति कर दिया था.

छत्तीसगढ़ में भगवान श्रीराम अपने वनगमन के वक्त कुटुमसर से सुकमा होते हुए शबरी नदी के तट पर स्थित रामाराम पहुंचे, आज यह स्थल माँ रामारामीन चिट्मिटिन अम्मा देवी मंदिर से क्षेत्र के तौर पर प्रसिद्ध है।
बीते 700 सालों से यहां मेले का आयोजन होता आ रहा है.सुकमा जमीदार परिवार रियासत काल से यहां देवी-देवताओं की पूजा करता आ रहा है.रामारामिन देवी सुकमा जमीदारो की ईश्ट देवी है. यहां पर प्रतिवर्ष फरवरी माह में भव्य मेले का आयोजन होता है, जिसमें क्षेत्र के श्रद्धालु मंदिर पहुंचकर माता के दर्शन करते है.
सुकमा जिले में लगने वाला यह पहला और सबसे बडा मेला होता है। इसके बाद पूरे क्षेत्र में मेले का दौर प्रारंभ होता है।