31 जनवरी 2020

मां सरस्वती की प्राचीन प्रतिमा

मां सरस्वती की प्राचीन प्रतिमा......!

बस्तर के अंतर्गत कांकेर क्षेत्र में ग्याहरवी सदी में सोमवंशी शासकों का शासन था। सोमवंशी राजाओं ने बारहवी सदी में सिहावा के पास देउरपारा में कई मंदिरों का निर्माण कराया था। ये मंदिर सोमवंशी राजा कर्ण के नाम पर कर्णेश्वर मंदिर समूह के नाम से विख्यात है। इस मंदिर प्रांगण में बहुत सी ऐतिहासिक प्रतिमायें रखी हुई हैं जिसमें से यह प्रतिमा मां सरस्वती की है।

विद्या की देवी मां सरस्वती की प्राचीन प्रतिमायें बहुत ही कम देखने को मिलती है। बारहवी सदी में निर्मित यह प्रतिमा कांकेर के सोमवंशी शासन काल की मूर्तिशिल्प की परिचायक है। बसंत पंचमी के शुभ अवसर पर सभी मित्रों पर मां सरस्वती का आर्शीवाद बना रहे , यही कामना है।

27 जनवरी 2020

बस्तर की आर्थिक संपन्नता की प्रतीक है चिकमाला

बस्तर की आर्थिक संपन्नता की प्रतीक है चिकमाला.....!

बस्तर के इतिहास को खंगालने से पता चलता है कि बस्तर में कभी लेन देन के लिये सोने के सिक्के चलते थे। तीसरी चौथी सदी के नल वंशी शासकों से लेकर ग्यारहवी सदी के नाग शासकों ने लेन देन के लिये स्वर्ण सिक्के चलवाये। नलवंशी राजा वराहदत्त, अर्थपति के सोने के सिक्के मिले है वहीं नाग राजाओं में जगदेकभूषण और सोमेश्वर देव के स्वर्ण सिक्के प्राप्त हो चुके है। बस्तर के सिक्के बिलासपुर और ओडिसा के कुछ जगहों से प्राप्त हो चुके है। स्वर्ण सिक्के चलन में होना कोई मामूली बात नहीं है। यह प्राचीन बस्तर की आर्थिक संपन्नता को दर्शाता है।

सिक्को की रूपया माला तो लगभग सभी ने देखी होगी है किन्तु बस्तर में महिलायें स्वर्ण सिक्कों की एक माला पहना करती थी। जिसमें चारों ओर पतली गोलाकार डंडियों की माला होती थी एवं बीच में एक स्वर्ण सिक्का पदक के रूप में होता था। वह चलन आज से 50 साल पहले तक था। समय के साथ वे सिक्के अब प्रतीकात्मक हो चुके है। अब सोने के पतले गोलाकार सिक्के बनाकर माला पहनी जाती है। इस माला को यहां चिकमाला कहा जाता हैं। चिकमाला सिक्कामाला की ही अपभ्रंश है। सिक और चिक में बोली का ही फर्क है। चिकमाला बस्तर की आर्थिक संपन्नता की

23 जनवरी 2020

पत्तों का बना आरामदायक चेमूर

पत्तों का बना आरामदायक चेमूर.....!

बस्तर की जनजातीय समाज की महिलायें बहुत ही ज्यादा मेहनत का कार्य करती है। चाहे जंगलों से टोकरी मे वनोपज एकत्रित करना हो या आग जलाने के लिये लकड़ियों का वजनदार लटठा लाना हो।
इन सभी कामों में महिलाओं के सिर पर अधिक जोर पड़ता है। क्योंकि सारे वजनदार सामान वे सिर में ही ढोकर लाती है। सिर पर कम वजन लगे इसलिये वे पत्तों की गोलाकर गुंडरी तैयार कर लेती है जिसे यहां स्थानीय हल्बी बोली में चेमूर कहा जाता है।
ये चेमूर सिर पर ढोये वजन के लिये बैलेंस बनाने का काम भी करते है और विशेष तरीके से लकड़ी ढोने के कारण, चेमूर सिर पर ज्यादा वजन नहीं पड़ने देता है। जंगलों से लकड़ी या वनोपज लाने के समय सिर पर पत्तों का चेमूर रख लाया जाता है।

पानी भरते समय कपड़े का गुंडरी तैयार किया जाता है। कुली मजदूरी के समय में सीमेंट की बोरियों का इस्तेमाल चेमूर के रूप में किया जाता है।
यहां तो चेमूर कहते है आप इसे किस रूप में जानते है। आज भी यहां पत्तों के चेमूर अधिक प्रचलित है आपके क्षेत्रों में किन किन चीजों का उपयोग होता है चेमुर बनाने के लिये ?
ओम

9 जनवरी 2020

अड़गेड़ा

अड़गेड़ा...!


जी हाँ अड़गेड़ा.अड़ यानी कि आड़ा और गेड़ा यानी कि मोटा डंडा.जोहार एथनिक रिसोर्ट कोण्डागाँव में इसे देखकर बचपन याद आ गया।यहां इसे मुरिया जनजाति के घर के आँगन पर प्रदर्शित किया गया है.
पर कुछ समय तक घरों-घर अड़गेड़ा दखाई देता था.इसमें दो खंभे गड़े होते हैं.दोनों खंभों में बराबर ऊँचाई पर लगभग 5 से.मी. व्यास के गोल छेद बने होते हैं.इसकी संख्या 5 या 6 होती है.
दोनों खंभों के मध्य गेड़ा यानी कि मोटा डंडा फँसाकर गेट बंद किया जाता है.गेट खोलते समय गेड़ा को किनारे सरका दिया जाता है.बस्तर के छेर-छेरा पर्व में इससे संबंधित एक गीत भी गया जाता है।
पहली पंक्ति मैं भूल रहा हूं।आपको पता हो तो जरुर पूरा करिएगा.......... अड़गेड़ा हो अड़गेड़ा पावली अड़गेड़ा डेंगा दादा जाते रलो पावली अड़गेड़ा
अड़गेड़ा हो अड़गेड़ा पावली अड़गेड़ा।।


6 जनवरी 2020

छत्तीसगढ़ का एकमात्र नारियल विकास बोर्ड--कोपाबेड़ा कोंडागाँव

छत्तीसगढ़ का एकमात्र नारियल विकास बोर्ड--कोपाबेड़ा कोंडागाँव....!

कोंडागाँव से दक्षिण-पश्चिम दिशा में कोपाबेड़ा स्थित है,जो ऐतिहासिक शिवमंदिर के लिए तो प्रसिद्ध है ही साथ ही यहाँ स्थित नारियल विकास बोर्ड छत्तीसगढ़ प्रदेश का इकलौता नारियल विकास बोर्ड है.
छत्तीसगढ़ के अलावा मध्य प्रदेश,और झारखंड राज्य के लिए नारियल की आपूर्ति यहीं से होती है.यहाँ 100 एकड़ के बगीचे में कुल 6000 नारियल के पेड़ लगे हैं.जिनके तनों पर काली मिर्च की की फलियाँ लटक रही हैं.
यहाँ 100 पौधेे कॉफी के हैं,जिनमें लाल-गुलाबी कॉफी के फल लटक रहे हैं.कुछ कामगार कॉफी के बीज धोते हुए दिखे.यहाँ 3000 पौधे कोको के हैं,यह कैडबरी चॉकलेट बनाने नें प्रयुक्त होता है.अनानास के भी 3000 पौधे हैं.

यहाँ नारियल-अनानास के पौध भी तैयार किए जाते हैं.पौधों के लिए ग्रीन हाउस बने हुए हैं.तेजपत्ते,नींबू,सिंदूर जैसे और भी कई पौधे हैं.यहाँ आपको केवल नारियल और नारियल के पौधे ही मिल सकते हैं.बड़ा ही सुन्दर बगीचा है.इस बगीचे के बीच से पक्की सड़क जाती है.
बगीचे के पीछे नारंगी नदी पत्थरों से टकराती हुई बहती है.यह जगह खड़क घाट कहलाता है,जोकि स्थानीय लोगों के लिए एक सुन्दर पिकनिक स्पॉट भी है.आजकल हल्के अँधेरे में नारियल के पेड़ों के बीच से छनकर आती सूरज की किरणें मन को मोह लेती है.
यहाँ के रंग-बिरंगे फूल खासकर सिंदूर,राइमुनिया और कागज़ के फूल तो आपसे बात ही करने लगेंगे.कोपाबेड़ा नारियल विकास बोर्ड कभी जरूर जाइएगा...
अशोक कुमार नेताम

3 जनवरी 2020

ऐतिहासिक धरोहर है रियासत कालीन बस्तर स्टांप

ऐतिहासिक धरोहर है रियासत कालीन बस्तर स्टांप......!

रियासत कालीन बस्तर में अपनी खुद की स्टांप भी चलती थी। इस बहुमूल्य स्टाम्प पर महारानी प्रफुल्ल कुमारी की तस्वीर अंकित है जिसमें नीचे बस्तर स्टेट लिखा है। यह स्टांप आठ आने का है। महारानी प्रफुल्ल कुमारी 1921 से 1936 तक बस्तर की प्रथम महिला शासिका रही है।

एक अन्य कोर्ट फी जिस पर जार्ज पंचम का चित्र अंकित है ,इसकी कीमत एक आना मात्र है.यह स्टांप केशरीयल महाजन को दिनांक 14.11.1934 को जारी की गई थी। इस स्टांप में जार्ज पंचम की चित्र लगी हुई हैं जिस पर बस्तर स्टेट लिखा हुआ है।
एक अन्य सामान्य स्टांप पर बस्तर स्टेट एवं माई दंतेश्वरी का सिंह पर सवार चित्र बना हुआ है। अंग्रेजी में श्री दंतेश्वरी माई लिखा हुआ है। इसका मूल्य भी एक रूपया था।
एक स्टांप का मूल्य एक रूपये का है। जिसे आठ भाषाओ में लिखा हुआ है। इस पर जार्ज षष्ठम का चित्र अंकित है।
बस्तर स्टेट की ऐतिहासिक स्टांपो की फोटो भेजी है कबि चंद्रा महंता ने। कबि चंद्र महंता जी राउरकेला ओडिसा के निवासी है। उन्हें स्टांप और सिक्कों के कलेक्शन का शौक है।
अपने बहुमूल्य कलेक्शन से उन्होने बस्तर स्टेट की स्टांप की तस्वीर भेजी है। इस बहुमूल्य धरोहर को संग्रहित करने एवं चित्र भेजने के लिये महंता जी का दिल से बहुत बहुत आभार ।
ओम!





2 जनवरी 2020

बस्तर में अब नहीं बनते है मिट्टी के दो मंजिले मकान

बस्तर में अब नहीं बनते है मिट्टी के दो मंजिले मकान....!

अपना घर सभी को प्यारा होता है। भले ही वह आलीशान हो या एक साधारण सी झोपड़ी। देश काल की परिस्थिति के अनुसार अलग अलग क्षेत्रों में घरों की बनावट और और उसमें प्रयुक्त सामग्री में भिन्नता दिखाई पड़ती है। साधारणतया घरों का आकार प्रकार एवं घर बनाने की सामग्री का चयन मौसम की अनुकूलता के हिसाब से तय होता रहा है।
किन्तु समय के साथ घर बनाने की तकनीक और सामग्री में अब बहुत परिवर्तन आ चुका है। प्रारंभ में लकड़ी से होते हुए मिट्टी और आज सीमेंट इंटों से बने पक्के मकानों का जमाना है। घरों के निर्माण और उनके बनावट में आमूल चूल परिवर्तन से बस्तर भी अछूता नहीें है।

बस्तर के अंदरूनी गांवों में पहले लकड़ी और मिट्टी से बने घर देखने को मिलते थे वहीं अब पक्के मकान बनने लग गये है। कुछ गांवों में मिट्टी से बने मकान आज भी देखने को मिलते है। ये घर प्रायः दो या तीन कमरों के ही होते है।
बिना चार दिवारी का लकड़ी के खंबो पर टिका एक कमरा घर का प्रमुख हिस्सा होता है। जिसमें प्रायः घरेलू कार्य निपटाये जाते है। बस्तर के गांवों में लगभग सभी जगह एक मंजिला घर ही देखने को मिलता है। कुछ प्रमुख जगहों पर प्रतिष्ठित लोगों का घर दो मंजिला होता था।
मिटटी से बने हुए ऐसे दो मंजिले घर अब बस्तर में बहुत ही कम देखने को मिलते है। इन दुमंजिला मिटटी के मकानों की जगह अब पक्के आलीशान बहुमंजिला घरों ने ले ली है।
दंतेवाड़ा के पास बालूद में मिट्टी से बना हुआ दो मंजिला घर आज भी स्थित है। इस मकान की दीवारे पूर्णतः मिट्टी की बनी हुई है। ये दीवारे काफी मोटी है। बीच में लकड़ी का पाटेशन तैयार कर इसे दो मंजिला बनाया गया है। ऐसे मकान सिर्फ संपन्न लोगों या इलाके के मुख्य व्यक्ति के ही होते थे।
वैसे यह मकान अब काफी पुराना एवं जर्जर हो चुका है। मिट्टी से बने ऐसे दो मंजिले मकान बनाने का यह तरीका बस्तर में अब चलन में नही रहा। कुछ सालों में शायद यह मकान भी सिर्फ तस्वीरों में रह जायेगा।