19 फ़रवरी 2020

चलायमान देव प्रतीक - कोल्हा

चलायमान देव प्रतीक - कोल्हा.......!

सदियों पूर्व बस्तर का जनजातीय समाज घुम्मकड़ जीवन ही व्यतीत करता था। विभिन्न प्राकृतिक एवं धार्मिक मान्यताओं के चलते वे एक जगह पर टिक कर नहीं रह सकते थे। इन कारणों के उनके देवस्थान या देवी देवताओं के प्रतीक भी स्थानांतरित होते थे। घुम्मकड़ जीवन के कारण उनके देवस्थान या देव प्रतीक भी चलायमान बनाये जाने लगे थे।


आज यहां का जनजातीय समाज भले ही अब घुम्मकड़ जीवन से स्थायित्व जीवन में परिवर्तित हो गया है किन्तु इनके देव प्रतीक आज भी चलायमान है। ग्रामीण एवं आदिवासी समुदायों में इनके विभिन्न स्वरूप होते हैं। मिटटी, धातु, लकड़ी और कपड़े आदि अनेक माध्यमों से बने ये चलायमान देवस्थान, देवी-देवताओं के आवागमन का महत्वपूर्ण साधन रहे हैं।

चलायमान देव प्रतीकों की परंपरा में आंगादेव, गुटाल, डोली आदि प्रमुख है.वर्ष भर में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब स्थानीय देवी-देवता किन्हीं अनुष्ठानों अथवा रस्मों की पूर्ति के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करते हैं। बस्तर मे मंडई जात्राओं में चलायमान देव प्रतीकों को देवी देवताओं के प्रतिनिधि के तौर पर लाया जाता है। मंडई जात्राओं में प्रमुख ग्रामों से आये हुए देव प्रतीकों को सम्मान पूर्वक परिक्रमा करायी जाती है।

चलायमान देव प्रतीक में गुटाल या कोल्हा भी प्रमुख है। कोल्हा एक सरल और आदिम किस्म का चलायमान देवस्थान है। इस देव प्रतीक में लंबी और मोटी लकड़ी के शीर्ष और मध्य मे मोर पंखों का गुच्छा बंधा रहता है।
बीच बीच में घंटियां भी बंधी रहती है। इसकी स्थापना भी आंगा के समान ही होती है। यह प्रतीक केवल पुरूष देवों के लिये बनाया जाता है। इस देव प्रतीक को देव का आसन या निवास स्थल माना जाता है। इसे देवगुड़ी में स्थापित किया जाता है।

जब सिरहा पर वह देव, जिसके लिए यह कोल्हा बनाया गया है, आता है, तब वह सिरहा कोल्हा उठाकर नाचने लगता है। सामान्यतः मोर पंखों को गुच्छा मुर्झाया हुआ रहता है किन्तु जब देव आता है तब मोर पंख खिल जाते है। इन पर लाल कपड़ा भी लपेटा जाता है।
एक विशेष बात यह है कि इस देव प्रतीक कोल्हा को कभी कभी जमीन पर नहीं रखा जाता है। जब कभी इन्हे जमीन पर खड़ा करना होता है तो जमीन पर कपड़ा रखा जाता है फिर इन्हे खड़ा रखा जाता है. देवगुड़ी में भी इन्हे छत से चैन द्वारा लटका कर या किसी उंचे स्थान पर रखा जाता है।

14 फ़रवरी 2020

कमर का आभूषण - झलाझल

कमर का आभूषण - झलाझल......!

बस्तर की धातु शिल्पकला बेहद ही उन्नत है। यहां आज भी पीतल, कांसा, तांबा जैसे धातुओं से बने ऐसें कई आभूषणों का प्रयोग किया जाता है जो कि बेहद ही दुर्लभ है। यूं कहे कि अन्यत्र जगहों में ऐसे आभूषण देखने को नहीं मिलते है। ऐसा एक आभूषण है कमर में बांधा जाने वाला कमर पटटा आभूषण। कमर में आपने सामान्यतः करधन ही पहने देखा होगा । किन्तु कमर में झलाझल भी पहना जाता है। यहां स्थानीय भाषा में इसे घुलघुली भी कहते है। 

यह आभूषण मंडई जात्राओं में सिर्फ सिरहा द्वारा पहना हुआ देखा जा सकता है। सिरहा अपने परंपरागत वेशभूषा एवं आभूषणों से सुसज्जित होकर मंडई जात्रा में सम्मिलित होते है। इन आभूषणों में कमर पटटा भी प्रमुख है। कमर पटटा एक चैन की तरह होता है जिसमें गोल गोल पदक होते है और उन पदकों में घुंघरू लटकते रहते है। इन घुुुंघरू और पदको को गुलुरका कहते है। कहीं कही झलाझल का नाम कटिकिंकणीमाल में उल्लेखित है।  देवी आने पर सिरहा जब नृत्य करते है तो कमर पटटे के घुंघरूओं से भी पवित्र संगीत की धुने निकलती रहती है।



4 फ़रवरी 2020

मेड़ारम जातरा - आदिवासियों का ऐतिहासिक कुंभ

मेड़ारम जातरा - आदिवासियों का ऐतिहासिक कुंभ.......!

मेड़ारम समक्का सारलम्मा जातरा दक्षिण भारत में आदिवासियों का सबसे बड़ा जातरा है। यह एक तरह से कुंभ मेले के समान है। तेलंगाना के वारंगल के पास मेड़ारम एक छोटा सा ग्राम है। इस ग्राम में समक्का सारलम्मा देवी का देव स्थान है। हर दो साल में यहां पर समक्का सारलम्मा देवी के सम्मान में विशाल जातरा का भव्य आयोजन होता है। इस जातरा में लगभग 01 करोड़ से अधिक लोग सम्मिलित होते है। तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के हजारो लोग इस जातरे में शामिल होते है। पुरे विश्व में मेड़ारम जातरा आदिवासियों का सबसे बड़ा संगम है। कुंभ के बाद मेड़ारम जातरा ही इतना बड़ा धार्मिक उत्सव है जिसमें करोड़ो लोग सम्मिलित होते है। 

समक्का सारलम्मा ये दो  महिलाये थी उन्होने कोया आदिवासियों के भलाई के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी। ऐसी किंवदंतीं है कि दंडकारण्य के जंगलो में कोया आदिवासियों का समूह भ्रमण कर रहा था  तब उन्होने देखा कि एक छोटी बच्ची शेरनी के साथ खेल रही थी। तब उन आदिवासियों ने उस बच्ची की अदभूत वीरता से प्रभावित होकर उसे गोद ले लिया और उसे नाम दिया - समक्का

समक्का जब बड़ी हुई तो उसका विवाह पास के दुसरे समुदाय के मुखिया से उसका विवाह कर दिया। विवाह उपरांत समक्का की एक बेटी हुई जिसका नाम सारलम्मा रखा गया।  एक बार गोदावरी नदी पुरी तरह से सुख गई थी जिसके कारण कोया आदिवासियों के खाने के लाले पड़ गये थे। उसी समय काकतीय राजा प्रतापरूद्र ने कर में वृद्धि कर दी जिसे कोया समुदाय देने में समर्थ नहीं थे।  समक्का और सारलम्मा दोनों ने इस करवृद्धि का डटकर विरोध किया। काकतीय राजा ने आदिवासियों को सबक सिखाने के लिये अपनी सेना भेजी। दोनों पक्षो में भयंकर लड़ाई हुई, तब इस युद्ध में समक्का देवी घायल हो गई।  

उसने आदिवासियों से कहा कि जब जब आप मुझे याद करोगे तब तब मैं आपकी रक्षा करूंगी। मैं श्राप देती हूॅ कि काकतीय  राजवंश का विनाश हो जाये। यह कहकर वापस जंगल में गायब हो गई। जब कोया आदिवासियों ने जंगल में समक्का को खोजने का प्रयास किया तो उन्हे  चुड़ियां और एक बाघिन के पैर निशान ही देखने को मिले।  इसके बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों ने  वारंगल पर आक्रमण कर काकतीय राजवंश का साम्राज्य ध्वस्त कर दिया। इसी घटना के  बाद समक्का सारलम्मा देवी की याद में प्रति दो वर्ष में जातरा का आयोजन किया जाता है। इस जातरे में देवी को गुड़ अर्पित किया जाता है। इस साल  05 से 08 फरवरी तक मेड़ारम जातरा आयोजित है। 

3 फ़रवरी 2020

देवगुड़ियो मे स्थापित देवी झुला

देवगुड़ियो मे स्थापित देवी झुला......!

झूला प्रतिष्ठा एवं वैभव का प्रतीक माना जाता है। पुराने समय से ही झूला, देवी-देवताओं के साथ जुड़ा रहा है। सभी समाजों में यह देव स्थान एवं धार्मिक अनुष्ठानों का महत्वपूर्ण अंग रहा है। भगवान श्री कृष्ण को झुले में बैठाकर झुला झुलाना हिन्दु धर्म का महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है।
बस्तर में भी सदियों से झुला देवगुड़ियों एवं धार्मिक अनुष्ठानों का महत्वपूर्ण अंग है। बस्तर में अधिकांश देवगुड़ियों के सामने काष्ठ का बना झुला देखने को मिलता है। काष्ठ के बने इन झुलों को देवी झुला कहा जाता है। देवी झुले की महत्वूपर्ण विशेषता यह है कि झुले पर सिर्फ देवियां ही झुलती है। किसी देव को झुले पर बैठने का अधिकार नही होता है।

ये झुले दो प्रकार के होते है - कांटा झुला और दुसरा माता झुला। कांटा झुला सामान्य झुले की तरह ही होता है। लकड़ी से बने इस झुले की सीट पर लोहे की नुकीली कीले लगी होती है। माता झुला एक प्रकार से तराजू की तरह होता है। इसमें एक मजबूत काष्ठ स्तंभ में दो तरफ झुले होते है। जिसमें एक झुले की सीट पर लोहे की नुकीली कीले लगी होती है। वहीं दुसरा झुले की सीट सादी होती है।
झुले में लगी लोहे की नुकीली कीलों पर देवी आया हुआ गुनिया बैठकर झुला झुलता है। कभी कभी दो देवियां के एक साथ एक के उपर एक बैठकर झुला झुलती है। देवी के आर्शीवाद से गुनिया को लोहे की नुकीले कीले बिल्कुल भी नहीं चुभती है। ये झुले मूलतः एक परीक्षण उपकरण होते है। जिसे देव गुड़ी के प्रांगण में इसलिए स्थापित किया जाता था कि यह जांचा जा सकें कि गुनिया पर आई हुई देवी सत्य है अथवा नहीं।
देवीगुड़ी के प्रांगण में स्थापित देवी झुले बस्तर की आदिवासी संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग है। इनके प्रति अगाध श्रद्धा को सादर नमन।

बस्तर में कृष्णदेवराय के स्वर्ण सिक्के

बस्तर में कृष्णदेवराय के स्वर्ण सिक्के.....!

बस्तर में पिछले साल सुकमा जिले के किन्दरवाड़ा में एक व्यक्ति को स्वर्ण सिक्कों से भरे दो कलश मिले था। उसमें से अधिकांश सिक्के विजयनगर साम्राज्य के महान सम्राट कृष्णदेवराय के थे। इन स्वर्ण सिक्को में एक तरफ भगवान बालकृष्ण की आकृति अंकित है जिसमें उपर की तरफ शंख और चक्र का अंकन किया गया है। दुसरे तरफ देवनागरी लिपि में श्री प्रताप कृष्ण राया अंकित है। किन्दरवाड़ा में मिले उन सिक्को को संबंधित व्यक्ति ने शासन के पास जमा कर दिया था।


विजय नगर साम्राज्य में सालूव वंश का शासन था। सालुव नरसिंह ने अपने अल्प वयस्क पुत्र के संरक्षक के रूप में नरसा नायक को नियुक्त किया। अवसर पाकर नरसा नायक ने संपूर्ण सत्ता पर अधिकार कर लिया और नियनगर का वास्तविक शासक बन गया। नरसा नायक ने विजयनगर में तुलूव वंश की सत्ता स्थापित की। इसी वंश में कृष्णदेवराय विजयनगर के राजा बने। कृष्णदेवराय भारत के महान सम्राटो में से एक है। कृष्णदेवराय ने विजयनगर साम्राज्य को अपने चरम पर पहंुचा दिया जिसके कारण पुरे विश्व में विजयनगर की धाक जम गई थी। कृष्णदेवराय ने 1509 से 1529 ई तक शासन किया। उनके समय स्वर्ण सिक्के प्रचलित रहे है जिस पर उनका नाम अंकित है।
इन सिक्को को पहचानने में मेरी मदद की है श्री हरिओम अग्रवाल जी ने। श्री हरिओम सर को प्राचीन सिक्को को संग्रह करने का नायाब शौक है।