चलायमान देव प्रतीक - कोल्हा.......!
सदियों पूर्व बस्तर का जनजातीय समाज घुम्मकड़ जीवन ही व्यतीत करता था। विभिन्न प्राकृतिक एवं धार्मिक मान्यताओं के चलते वे एक जगह पर टिक कर नहीं रह सकते थे। इन कारणों के उनके देवस्थान या देवी देवताओं के प्रतीक भी स्थानांतरित होते थे। घुम्मकड़ जीवन के कारण उनके देवस्थान या देव प्रतीक भी चलायमान बनाये जाने लगे थे।
आज यहां का जनजातीय समाज भले ही अब घुम्मकड़ जीवन से स्थायित्व जीवन में परिवर्तित हो गया है किन्तु इनके देव प्रतीक आज भी चलायमान है। ग्रामीण एवं आदिवासी समुदायों में इनके विभिन्न स्वरूप होते हैं। मिटटी, धातु, लकड़ी और कपड़े आदि अनेक माध्यमों से बने ये चलायमान देवस्थान, देवी-देवताओं के आवागमन का महत्वपूर्ण साधन रहे हैं।
चलायमान देव प्रतीकों की परंपरा में आंगादेव, गुटाल, डोली आदि प्रमुख है.वर्ष भर में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब स्थानीय देवी-देवता किन्हीं अनुष्ठानों अथवा रस्मों की पूर्ति के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करते हैं। बस्तर मे मंडई जात्राओं में चलायमान देव प्रतीकों को देवी देवताओं के प्रतिनिधि के तौर पर लाया जाता है। मंडई जात्राओं में प्रमुख ग्रामों से आये हुए देव प्रतीकों को सम्मान पूर्वक परिक्रमा करायी जाती है।
चलायमान देव प्रतीक में गुटाल या कोल्हा भी प्रमुख है। कोल्हा एक सरल और आदिम किस्म का चलायमान देवस्थान है। इस देव प्रतीक में लंबी और मोटी लकड़ी के शीर्ष और मध्य मे मोर पंखों का गुच्छा बंधा रहता है।
बीच बीच में घंटियां भी बंधी रहती है। इसकी स्थापना भी आंगा के समान ही होती है। यह प्रतीक केवल पुरूष देवों के लिये बनाया जाता है। इस देव प्रतीक को देव का आसन या निवास स्थल माना जाता है। इसे देवगुड़ी में स्थापित किया जाता है।
जब सिरहा पर वह देव, जिसके लिए यह कोल्हा बनाया गया है, आता है, तब वह सिरहा कोल्हा उठाकर नाचने लगता है। सामान्यतः मोर पंखों को गुच्छा मुर्झाया हुआ रहता है किन्तु जब देव आता है तब मोर पंख खिल जाते है। इन पर लाल कपड़ा भी लपेटा जाता है।
एक विशेष बात यह है कि इस देव प्रतीक कोल्हा को कभी कभी जमीन पर नहीं रखा जाता है। जब कभी इन्हे जमीन पर खड़ा करना होता है तो जमीन पर कपड़ा रखा जाता है फिर इन्हे खड़ा रखा जाता है. देवगुड़ी में भी इन्हे छत से चैन द्वारा लटका कर या किसी उंचे स्थान पर रखा जाता है।











