13 मार्च 2020

मछुआरे की ढूटी


मछुआरे की ढूटी......!

बस्तर में काष्ठकला का विस्तार इतना व्यापक है कि हम उसकी कल्पना भी नही कर सकते है। बस्तर में जनजातीय समाजों में रोजमर्रा की अधिकांश वस्तुयें लकड़ी या बांस से ही बनी होती है। घर में खाट से लेकर नदी में सफर के लिये नाव तक सभी लकड़ी की होती है। लकड़ी और बस्तर के आदिम जीवनचर्या का साथ सदियों पुराना है। बस्तर में जब ग्रामीण धर से निकलकर मछली पकड़ने के लिये नदी तालाब की ओर कुच करता है तो उसके हाथ में बांस से बना हुआ एक आकर्षक पात्र जरूर होता है। बांस से बना चैरस एवं गोलाकार पात्र डूटी या ढूटी कहलाता है। मछुआरे का ईनाम होती है उसके द्वारा पकड़ी गई मछलियां और वह अपने ईनाम को बेहद ही आकर्षक पात्र ढूटी मंे सुरक्षित रखता है। ढूटी मछुआरे द्वारा पकड़ी गई मछलियों को रखने का पात्र होता है जिसे हम अतिश्योक्तिपूर्व मछुआरे का संदूक कह सकते है। 

मार्ग मंे आते मछुआरे के हाथ में यदि ढूटी दिखाई पड़े तो समझ जाईये कि उसमें मछुआरे की मेहनत जरूर होगी। ढूटी का निचला हिस्सा प्लास्टिक के मटके के समान होता है जिसे बांस की पतली खपचियों को बुनकर बनाया जाता है वहीं उसका मुख बांस की पतली तिलियों से गोलाकार बनाया जाता है बिल्कुल मटके की तरह। पकड़ने के लिये दोनो सिरो पर रस्सियां बंधी होती है। तो यह कहानी थी मछुआरे के संदूक ढूटी की,,,, आप बताईये किस नाम से जानते है ? इस ढूटी को। 

चलायमान देव प्रतीक - छत्र

चलायमान देव प्रतीक - छत्र......!

मंदिरों मे देवी देवताओं की प्रतिमा पर छत्र अर्पित करने की परंपरा प्राचीन काल से रही है। देवी देवताओं को सामर्थ्य अनुसार चांदी के छोटे बड़े छत्र चढ़ाये जाते रहे है। देवी देवताओ का छत्र भी चलायमान देवप्रतीक है।  देव विग्रह अपने स्थान से किसी अन्य स्थान पर ले जाना संभव नहीं होता है। तब उनके प्रतीक के रूप में छत्र को ले जाया जाता है।

बस्तर में मंडई जात्रा जैसे अवसरो पर देवी देवताओं के प्रतीक के रूप में छत्र ले जाने की परंपरा देखने को मिलती है। किसी भी जात्रा मंडई या धार्मिक उत्सव में  सम्मिलित होने हेतु गांवों के देवी देवताओं के प्रतीक छत्र को घंटा और तुरही के धुन के साथ ले जाया जाता है। मंडई मेलों में कई देवी देवताओ  के प्रतीक छत्र एकत्रित होते है। बस्तर दशहरा, आमा मउड रस्म, मुख्य मंडईयों में सम्मिलित होने के लिये देवी दंतेश्वरी के प्रतीक पवित्र छत्र  को पुजारी ससम्मान लेकर जाते है। 

छत्र का दूसरा पहलू भी काफ़ी रोचक है. छत्र का अर्थ छतरी होता है। प्राचीन काल में यह सम्राटों का गौरवचिह्र था। साधारणतया इसका उपयोग ताप और वर्षा से बचने के लिये होता है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है कि एक बार महर्षि जमदग्नि की पत्नी रेणुका सूर्यताप से बहुत विकल हुई। क्रुद्ध होकर महर्षि ने सूर्य का वध करने के निमित्त धनुष बाण उठाया। सूर्यदेव डरकर उनके समक्ष उपस्थित हुए और ताप से रक्षा के लिये एक शिरस्त्राण छत्र बनाकर उनकी सेवा में भेंट की।

छत्र का एक अन्य रूप राजकीय छत्र भी होता है. राजछत्र सामान्य छत्र से भिन्न होता है। युवराज का छत्र सम्राट् के छत्र से एक चौथाई छोटा होता है जिसके अग्रभाग में आठ अंगुल की एक पताका लगी होती है। उसे दिग्विजयी छत्र कहा जाता है। भारत में अनुष्ठान आदि में छत्र का दान मंगलकारी माना जाता है।

दलहन संग्रहण का पारम्परिक पात्र- चिपटा

दलहन संग्रहण का पारम्परिक पात्र- चिपटा.....!

अधिक मात्रा में होने वाली फसलें धान, अलसी, मंडिया, कोदो वगैरह बस्तरवासी ढुसी,डोलगी आदि में संग्रहित करते हैं....लेकिन दलहन आदि सुरक्षित रखने के लिए ये अपने पारंपरिक-प्राकृतिक पात्र "चिपटा"  का उपयोग करते हैं.....

पत्तों का आपस में लिपटा होना चिपटा कहलाता है.....इसीलिए ही यहाँ पत्ता गोभी "चिपटा गोभी" कहलाता है.....सिंयाड़ी के पत्तों को परस्पर जोड़कर एक बर्तन की शक्ल दी जाती.....जिसके भीतर उड़द,मूँग,चना आदि डालकर व ऊपर से पात्र का मुँह बंद कर फसल को सुरक्षित रखा जाता.....

संलग्न तस्वीर उड़ीद चिपटा है.....

तस्वीर:-Harendra Nag 

लेख साभार.. अशोक कुमार नेताम

खाद्य पदार्थ सुखाने का पात्र - सलप

खाद्य पदार्थ सुखाने का पात्र - सलप....!

बस्तर के गाँवो मे  सभी प्रकार के साग भाजी, माँस आदि सुखाकर बाद मे खाने की परम्परा रही हैं. उपरोक्त सभी खाद्य चीजे सुखाने के लिये बांस की पतली खपचियो से बने आयताकार सलप का प्रयोग किया जाता है. 

प्राय खाद्य वस्तुये सुखाने का  कारण भविष्य मे खासकर बरसात के दिनों मे खाने का प्रबंध करना होता है. सलप बस्तर की घरेलू काष्ठ कला का उदाहरण है. इसमे बांस की पतली सीको को रस्सी से बुनकर आयताकार स्वरुप दिया जाता है. फ़िर उसे चार कोनो से रस्सी बांध कर घर आंगन के किसी खूटी मे लटका दिया जाता है.

धुप मे सुखाने के अलावा सलप को चुल्हे के उपर लटकाया जाता है ताकि उस पर रखे खाद्य को अग्नि की धीमी आंच मिलती रहे.सलप मे सब्जी,  फ़ूटु,  मछली आदि हर वो सब्जी या मांस  जो खाया जाता है .उसे सलप पर ही सुखाया जाता है. बस्तर मे प्रायः हर घर मे सलप का उपयोग देखने को मिलता हैं.

अबुझमाड के गुफ़ा गाँव मे एक ग्रामीण के घर इस सलप मे फ़िलहाल तो नदी से पकड़ी गयी मछलियाँ काट कर सुखायी गयी...

5 मार्च 2020

बस्तर मे लूप्त प्रायः है नारंगी सेमल

बस्तर मे लूप्त प्रायः है नारंगी सेमल.....!

बस्तर मे बसंत की  बयार धीमे धीमे बह रही है। जंगलो में पत्तो की सरसाहट पतझड़ का बिगुल बजा रही है। चारो तरफ फैली महुए की मादकता रोम रोम को रोमांचित करने वाली है। टेसू के लाल दहकते फूलो ने जंगल में आग लगा दी है तो फिर भला सेमल क्यो पीछे रहे ? गुलाबी फूलो से लदे हुए सेमल के वृक्ष  राहगीरो को हर्षित करे रहे है। पत्ते विहिन सेमल पेड़ो पर खिले हुए गुलाबी पुष्प बसंत ऋतु की खुशियों में चार चांद लगा रहे है। 

बसंत .ऋतु में फूलो का राजा यदि कोई है  तो वह सेमल है। बस्तर में मुख्यतः दो रंगो के पुष्पों वाले सेमल पाये जाते है पहला है नारंगी और दुसरा गुलाबी। सेमल का एक तीसरा और प्रकार है वह पीला सेमल। बस्तर में अभी सर्वाधिक मात्रा में गुलाबी सेमल के वृक्ष बहुतायत मे देखने को मिलते है। नारंगी सेमल के वृक्ष बहुत कम      शेष है। 


नारंगी सेमल का एक वृक्ष दलपत सागर के किनारे स्थित है, वहीं कुछ वृक्ष गंगालूर के आसपास है। नारंगी सेमल पुष्प का रंग संतरे की तरफ नारंगी होता है। वृक्षों की अंधाधूंध कटाई के कारण यह नारंगी सेमल वृक्ष अब बस्तर में लूप्त प्रायः है। पीले रंग वाले सेमल पुष्प तो बस्तर में अभी तक देखने को नहीं मिला है। 

सेमल के वृक्ष से मेरी बचपन की यादे जुड़ी हुई है। इसके कांटो को तोड़कर सूपारी के रूप में खाया करते थे। इन कांटों का स्वाद भी सुपारी की तरह ही होता है। बहुत से मित्रो ने भी बचपन में सेमल के कांटे सुपारी के रूप में जरूर खाये होगे।