13 मार्च 2020

चलायमान देव प्रतीक - छत्र

चलायमान देव प्रतीक - छत्र......!

मंदिरों मे देवी देवताओं की प्रतिमा पर छत्र अर्पित करने की परंपरा प्राचीन काल से रही है। देवी देवताओं को सामर्थ्य अनुसार चांदी के छोटे बड़े छत्र चढ़ाये जाते रहे है। देवी देवताओ का छत्र भी चलायमान देवप्रतीक है।  देव विग्रह अपने स्थान से किसी अन्य स्थान पर ले जाना संभव नहीं होता है। तब उनके प्रतीक के रूप में छत्र को ले जाया जाता है।

बस्तर में मंडई जात्रा जैसे अवसरो पर देवी देवताओं के प्रतीक के रूप में छत्र ले जाने की परंपरा देखने को मिलती है। किसी भी जात्रा मंडई या धार्मिक उत्सव में  सम्मिलित होने हेतु गांवों के देवी देवताओं के प्रतीक छत्र को घंटा और तुरही के धुन के साथ ले जाया जाता है। मंडई मेलों में कई देवी देवताओ  के प्रतीक छत्र एकत्रित होते है। बस्तर दशहरा, आमा मउड रस्म, मुख्य मंडईयों में सम्मिलित होने के लिये देवी दंतेश्वरी के प्रतीक पवित्र छत्र  को पुजारी ससम्मान लेकर जाते है। 

छत्र का दूसरा पहलू भी काफ़ी रोचक है. छत्र का अर्थ छतरी होता है। प्राचीन काल में यह सम्राटों का गौरवचिह्र था। साधारणतया इसका उपयोग ताप और वर्षा से बचने के लिये होता है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है कि एक बार महर्षि जमदग्नि की पत्नी रेणुका सूर्यताप से बहुत विकल हुई। क्रुद्ध होकर महर्षि ने सूर्य का वध करने के निमित्त धनुष बाण उठाया। सूर्यदेव डरकर उनके समक्ष उपस्थित हुए और ताप से रक्षा के लिये एक शिरस्त्राण छत्र बनाकर उनकी सेवा में भेंट की।

छत्र का एक अन्य रूप राजकीय छत्र भी होता है. राजछत्र सामान्य छत्र से भिन्न होता है। युवराज का छत्र सम्राट् के छत्र से एक चौथाई छोटा होता है जिसके अग्रभाग में आठ अंगुल की एक पताका लगी होती है। उसे दिग्विजयी छत्र कहा जाता है। भारत में अनुष्ठान आदि में छत्र का दान मंगलकारी माना जाता है।