14 दिसंबर 2017

हरिहरहिरण्यगर्भपितामह

हरिहरहिरण्यगर्भपितामह की सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा

ओम सोनी 

               आज बस्तर में जितनी भी बिखरी हुयी प्रतिमायें मिलती है वे सभी प्रतिमायें नाग शासन काल की देन है। छिंदक नाग राजाओं ने अपने राजत्वकाल में देवी देवताओं की हजारो, उत्तम कोटि की प्रतिमाये बनवायी थी। बस्तर का नागयुग मूर्तिकला के लिये स्वर्णकाल था। इन प्रतिमाओं को देवालयों के गर्भगृह एवं बाहरी आलिंदों में स्थापित करवाया गया था। विभिन्न आक्रमणकारियों एवं तस्करों ने इन प्रतिमाओं को तोड़ा, लूटा और चोरी किया। आज जो भी प्रतिमायें बची है वे या तो खंडित हो गयी या फिर किसी देवगुड़ी में सुरक्षित है। खंडित ही सही, ये प्रतिमायें आज भी नागयुगीन उत्तम मुर्तिकला को प्रदर्शित करती है।
        बस्तर के एक ग्राम में मुझे यह खंडित दुर्लभ प्रतिमा मिली जो वास्तव में नागयुगीन श्रेष्ठ मूर्तिकला का प्रतिनिधित्व करती है। इस प्रतिमा का स्थान संग्रहालय में होना चाहिये, जो दुर्भाग्य से यूं ही नष्ट होने के लिये छोड़ दी गयी है।

       यह प्रतिमा हरिहरहिरण्यगर्भपितामह की है । इस प्रतिमा में भगवान विष्णु, शिव , ब्रहमा और सूर्य चारों देवताओं का सम्मिलित रूप दर्शाया गया है। प्रतिमा में मुख के पीछे सूर्य का प्रभावलय  , सिर पर किरीट मुकुट का धारण एवं कानो में कुंडल पहने हुये है। गले में हार, कौस्तुभमणि और गे्रवेक्य पहने हुये है। कौस्तुभमणि का अंकन विष्णु प्रतिमाओं और ग्रेवेक्य का अंकन शिव प्रतिमाओं में होता है। कमर बंद , धोती एवं लंबे बुट पहने हुये है। पैरों के नीचे सात घोड़े बने हुये है। इन घोड़ों की लगाम सारथी अरूण के हाथों में है जो कि तीन मुख वाला था जिसका एक मुख क्षरित हो गया। पैरों के पास ही दायें तरफ दंड और बायें तरफ पिंगल का अंकन किया गया है। प्रतिमा अष्टभूजी थी जिसमें बायें तरफ के दो हाथ खंडित हो गये है। दायें और बांये तरफ दोनो प्रमुख हाथों में खिले हुये कमल फूल पकड़े हुये है। दाये तरफ के हाथों में उपर से नीचे क्रमश शु्रक, त्रिशुल और शंख पकड़े हुये है। वहां इस प्रतिमा के खंडित अंश बिखरे पड़े है जिसके आधार पर बायें हाथ में उपर से नीचे क्रमशः वेद, खटवांग और चक्र पकड़े हुये है।
            दो प्रमुख हाथों को छोड़कर बाकी हाथों में उपर के दोनो हाथ जिसमें शु्रक एवं वेद है वे भगवान ब्रहमा, मध्य के दो हाथ जिसमें त्रिशुल और खटवांग है वे भगवान शिव और नीचे के दोनो हाथ जिसमें शंख और चक्र है वे भगवान विष्णु के रूप को प्रदर्शित करते है। प्रतिमा के दोनो मुख्य हाथ जिसमें खिला हुआ कमल हैे,  पैरों में बुट , सारथी, दंड पिंगल और अश्व रथ भगवान सूर्य के रूप को दर्शाते है। 
              अपराजितपृच्छा और रूपमंडन ग्रंथो के अनुसार हरिहर हिरण्यगर्भ पितामह की प्रतिमा,  चार मुख एवं अष्ट भुआजों से युक्त होनी चाहिये। परन्तु इस प्रतिमा में एक मुख, अष्टभुजाओं एवं अन्य विशेषताओं को मिलाकर ब्रहमा शिव विष्णु और सूर्य चारों का सम्मिलित रूप प्रदर्शित किया। वास्तव में यह हरिहरहिरण्यगर्भपितामह की सर्वश्रेष्ठ और बेहद ही दुर्लभ प्रतिमा है। 

6 दिसंबर 2017

नाग स्थापत्य कला का अनुपम उदाहरण - मामा भांजा मंदिर बारसूर

नाग स्थापत्य कला का अनुपम उदाहरण - मामा भांजा मंदिर





बारसूर का ऐतिहासिक मामा भांजा मंदिर आज बारसूर का पर्याय बन चुका है।  मामा भांजा नाम की यह ऐतिहासिक धरोहर आज के समय में नागकालीन स्थापत्य कला का जीवंत उदाहरण के रूप में हमारे सामने है। यह मंदिर बारसूर में नाग युग के स्वर्णिमकाल से वर्तमान तक के कई घटनाओं का साक्षी रहा है।इस मंदिर की स्थापत्यकला , इसके समान ही निर्मित समलूर, नारायणपाल, गढ़िया के मंदिरो की स्थापत्यकला में सर्वश्रेश्ठ है। 



यह मंदिर पूर्वाभिमुख है जो कि गर्भगृह एवं अंतराल में विभक्त है। गर्भगृह की दीवारों पर कीर्तीमुख एवं जंजीरो में टंगी हुयी घंटियां बनी हुयी है। द्वार शाखा के मध्य में चतुर्भुजी गणेशजी का अंकन किया गया है।
यह मंदिर मूल रूप से भगवान शिव को समर्पित था। वर्तमान में गर्भगृह में भगवान गणेश एवं भगवान नरसिंह की दो छोटी प्रतिमायें स्थापित है। जो कि बाद में ग्रामीणों के द्वारा रखी गयी है। 


मंदिर के बाहरी तरफ बने हुये मनुष्य के मुख से किंवदंती जुड़ी हुयी है जिससे मंदिर का नाम मामा भांजा पड़ गया। बस्तर भूषण में केदारनाथ ठाकुर ने इस मंदिर के बारे मंे बडे ही रोचक जानकारी दी है। उनके अनुसार उत्कल देश के गंग राजा की छः संताने थी एवं एक संतान दासी से उत्पन्न हुयी थी। राजा की दासी ने राजा को वश मेें कर अपने पुत्र को राजा बनवा दिया। राजा की अन्य संतानों को राज्य से बाहर खदेड़ दिया। वे सभी छः भाईयों ने तत्कालीन चक्रकोट में आकर बालसूर्य नगर की स्थापना की। बालसूर्य नगर की स्थापना के बाद गंग राजाओं ने कई कारीगरों को बुलाकर इस नगरी में कई मंदिर बनवाये। कई तालाब भी खुदवाये। गंग राजा का भांजा बहुत ही बुद्धिमान था। भांजे ने उत्कल देश से कारीगरों को बुलवा कर मंदिर बनवाया। मंदिर की उच्च कोटी की बनावट और सुंदरता को देखकर गंग राजा के मन में जलन की भावना उत्पन्न हो गयी। राजा में मंदिर पर अपना अधिकार स्थापित करने की कोशिश की जिसके फलस्वरूप मामा और भांजे में युद्ध हुआ । युद्ध में भांजे की जीत हुयी , गंग राजा को जान से हाथ धोना पड़ा। बाद में भांजे ने मामा के मुख की मूर्ति बनवा कर मंदिर के सामने लगा दी और स्वयं की मूर्ति मंदिर के अंदर स्थापित करवायी।


        हालांकि यह सिर्फ एक किंवदंती है। इस किंवदंती ने ही मंदिर को मामा भांजा जैसा अदभुत नाम दिया । वर्तमान में यह मंदिर बारसूर के अतीत की गौरव गाथाओं को संजोये हुये शान से खड़ा है। शासन प्रशासन के प्रयासों के कारण सुरक्षित यह मंदिर आज भी हमें बस्तर के  स्वर्णिम युग का स्मरण कराता रहता है।
--- ओम सोनी

29 नवंबर 2017

बालोद का कुकुर देव मंदिर। Dog's Temple

अनोखा मंदिर - कुकुर देव मंदिर

बालोद में कुत्ते का ऐतिहासिक मंदिर। 

छत्तीसगढ़ के बालोद जिले मे बालोद से राजनादंगांव रोड में मालीधोरी एवं खपरी नाम के दो गांव है।  इस  खपरी गांव में कुकुरदेव नाम का एक प्राचीन मंदिर स्थित है। यह मंदिर मूलतः एक शिव मंदिर है।  मंदिर के बाहर कुत्ते की  दो प्रतिमाये लगी हुयी है।  मंदिर के नाम के अनुरूप् ही यह मंदिर कुत्ते का मंदिर के नाम से जाना जाता है ।  इस मंदिर में एक वफादार कुत्ते की समाधि है। मान्यता है कि मंदिर की  फेरी लगाने एवं यहाँ दर्शन करने से कुकुर खांसी व कुत्ते के काटने का कोई भय नहीं रहता है।

My Hand in Dog's Mouth





इस मंदिर का निर्माण 14 वीं 15 वीं शताब्दी में माना गया मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर दोनों ओर कुत्तों की प्रतिमा लगाई गई है। मंदिर में शिखर पर चारों दिशाओं में नागों के चित्र बने हुए हैं। मंदिर के पास  उसी समय के शिलालेख भी रखे हैं लेकिन स्पष्ट नहीं हैं। इन पर बंजारों की बस्ती, चांद सूरज और तारों की आकृति बनी हुई है। राम लक्ष्मण और शत्रुघ्न की प्रतिमा भी रखी गई है। इसके अलावा एक  दो फीट की गणेश प्रतिमा भी मंदिर में स्थापित है।

इस मंदिर से जुड़ी एक जनश्रुति के अनुसार कभी यहां बंजारों की बस्ती थी। मालीघोरी नाम के बंजारे के पास एक पालतू कुत्ता था। अकाल पड़ने के कारण बंजारे को अपने प्रिय कुत्ते को साहूकार के पास गिरवी रखना पड़ा। इसी बीच साहूकार के घर चोरी हो गई। कुत्ते ने चोरों को साहूकार के घर से चोरी का माल समीप के तालाब में छुपाते देख लिया था। सुबह कुत्ता साहूकार को चोरी का सामान छुपाए स्थान पर ले गया और साहूकार को चोरी का सामान भी मिल गया।

कुत्ते की वफादारी से अवगत होते ही उसने सारा विवरण एक कागज में लिखकर उसके गले में बांध दिया और असली मालिक के पास जाने के लिए उसे मुक्त कर दिया। अपने कुत्ते को साहूकार के घर से लौटकर आया देखकर बंजारे ने डंडे से पीट पीटकर कुत्ते को मार डाला।


कुत्ते के मरने के बाद उसके गले में बंधे पत्र को देखकर उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और बंजारे ने अपने प्रिय स्वामी भक्त कुत्ते की याद में मंदिर प्रांगण में ही कुकुर समाधि बनवा दी। बाद में किसी ने कुत्ते की मूर्ति भी स्थापित कर दी। आज भी यह स्थान कुकुरदेव मंदिर के नाम से विख्यात है।

मंदिर के सामने की सड़क के पार से मालीधोरी गांव शुरू होता है जिसका नामकरण मालीधोरी बंजारा के नाम पर हुआ है। इस मंदिर में वैसे लोग भी आते हैं जिन्हें कुत्ते ने काट लिया हो। यहां हालांकि किसी का इलाज तो नहीं होता लेकिन ऐसा विश्वास है कि यहां आने से वह व्यक्ति ठीक हो जाता है।

                                                                                                                                                                         ---ओम सोनी

28 नवंबर 2017

बारसूर का बत्तीसा मंदिर Battisa Mandir Barsur

बारसूर का बत्तीसा मंदिर

वीर सोमेश्वरा एवं गंगाधरेश्वरा नामक दो शिवालयों का संयुक्त मंडप युक्त बस्तर में एक मात्र मंदिर।


ओम सोनी


       बारसूर का बत्तीसा मंदिर बस्तर के सभी मंदिरों में अपना विशिश्ट स्थान रखता है। बारसूर नागकालीन प्राचीन मंदिरों के लिये पुरे छत्तीसगढ़ में प्रसिद्ध है। यहां के मंदिरों की स्थापत्य कला बस्तर के अन्य मंदिरों से श्रेश्ठ है। बारसूर का यह युगल षिवालय बस्तर के सभी षिवालयों मंे अपनी अलग पहचान रखता है। बत्तीसा मंदिर में दो गर्भगृह , अंतराल एवं संयुक्त मंडप है। 


महाराजाधिराज स्वयं उपस्थित !

यह मंदिर पुरे बस्तर का एकमात्र मंदिर है जिसमें दो गर्भगृह एवं संयुक्त मंडप है।  मंडप बत्तीस पाशाण स्तंभों पर आधारित है जिसके कारण इसे बत्तीसा मंदिर कहा जाता है। मंडप में प्रवेश करने के लिये तीनों दिषाओ में द्वार है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है जो कि तीन फूट उंची जगती पर निर्मित है।  मंदिर में दो आयताकार गर्भगृह है। दोनो गर्भगृह में जलहरी युक्त शिवलिंग है। शिवलिंग त्रिरथ शैली में है। शिवलिंग की जलहरी को पकड़ पुरी तरह से घुमाया जा सकता है।

वीर सोमेश्वरा शिवलिंग

       गर्भगृहों के दोनो द्वार शाखाओं के ललाट बिंब में गणेशजी का अंकन है। दोनो गर्भगृहों के सामने एक एक नंदी स्थापित है। प्रस्तर निर्मित नंदी की प्रतिमायें बेहद अलंकृत है। मंदिर के चारों तरफ प्रदक्षिणा पथ है। मंदिर का शिखर नश्ट हो चुका है। अवशिश्ट शिखर पर द्रविड़ कला का प्रभाव दिखाई देता है। मंदिर का शिखर शिव मंदिर गुमड़पाल के शिखर के भांति रहा होगा। 

       मंदिर की दिवारें बेहद सादी है जिस पर किसी प्रकार का कोई अंकन या प्रतिमाये जड़ी हुयी नही है। यह मंदिर पुरी तरह से ध्वस्त हो चुका था , पुरातत्व विभाग द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया है।
       
महाराजाधिराज आराम करते हुये 

इस मंदिर से एक शिलालेख प्राप्त हुआ है। शिलालेख के अनुसार सोमेश्वरदेव की पटट राजमहिशी गंगामहादेवी द्वारा दो शिवमंदिरो  का निर्माण कराया जिसमें एक शिवालय अपने पति सोमेश्वरदेव के नाम पर वीर सोमेश्वरा एवं दुसरा शिवालय स्वयं के नाम पर अर्थात गंगाधरेश्वरा के नाम से जाना जाता है। शिलालेख के अनुसार दिन रविवार फाल्गुन शुक्ल द्वादश शक संवत 1130 जिसके अनुसार 1209 ई इस मंदिर का निर्माण काल है। मंदिर के खर्च एवं रखरखाव के लिये केरामरूका ग्राम दान में दिया गया था। 


 इस कार्य में मंत्री मांडलिक सोमराज, सचिव दामोदर नायक, मेंटमा नायक , चंचना पेगाड़ा, द्वारपाल सोमीनायक, गुडापुरऐरपा रेडडी, विलुचुदला प्रभु, प्रकोटा कोमा नायक गवाह के रूप में उपस्थित थे। यह षिलालेख वर्तमान में नागपुर के संग्रहालय में सुरक्षित है।

25 नवंबर 2017

समलूर का शिव मंदिर Shiva Temple Samloor

झुकने लगा 11 वीं सदी का समलूर का शिव मंदिर

Shiva Temple Samloor


छत्तीसगढ के दंतेवाडा जिले के समलूर स्थित 11 वीं शताब्दी के प्राचीन करली महादेव मंदिर का दक्षिण-पश्चिमी कोना जमीन में धंसने की वजह से एक तरफ झुकने लगा है। झुकने की यह रफ्तार जारी रही तो मंदिर के जल्द ही जमींदोज होने की आशंका बनी हुई है, लेकिन मंदिर के संरक्षण का जिम्मा लेने वाला केंद्रीय पुरातत्व विभाग आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया ने अब तक कोई एहतियाती उपाय शुरू नहीं किए हैं। दो साल पहले विभाग की टीम ने इस मंदिर के केमिकल प्रीजर्वेशन के नाम पर पत्थरों पर चूना और अन्य रंगरोगन की परत हटाने का काम किया था। इसी दौरान बलुई पत्थरों से निर्मित मंदिर की दीवारों में मसाला भरकर दरारों को ढंक दिया, जिससे समस्या का स्थायी समाधान नहीं निकाला जा सका है।




इस प्रक्रिया के दो साल बाद मंदिर का दक्षिण-पश्चिमी कोना दबने का सिलसिला फिर शुरू हो गया है। गर्भगृह में स्थित शिवलिंग और कलात्मक जलहरी भी एक तरफ हल्की झुकी हुई है। मंदिर के मंडप में मूर्तियों के आले भी हल्के झुके हुए हैं। स्थानीय युवा और पुरातत्व के जानकार ओम सोनी ने भी मंदिर की दशा को चिंतनीय बताते कहा कि मंदिर की दबती नींव को ठीक नहीं किया गया, तो इस ऐतिहासिक धरोहर को ध्वस्त होने से बचाना मुश्किल होगा।

समलूर निवासी ईश्वर ठाकुर ने भी मंदिर के झुकने की पुष्टि करते बताया कि कुछ समय से ऐसा देखा जा रहा है। समय रहते कोई उपाय करना जरूरी है। इस बारे में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कंजर्वेशन असिस्टेंट विजय कुमार का कहना है कि बीते साल केमिकल प्रिजर्वेशन का काम हुआ है, मरम्मत के बारे में अभी कोई इस्टीमेट नहीं बना है। बारसूर के मामा-भांजा मंदिर की तर्ज पर समलूर में नागर शैली में निर्मित मंदिर 11 वीं शताब्दी में तत्कालीन नागवंशी शासक सोमेश्वर देव की महारानी सोमलदेवी ने बनवाया था।


सोमलदेवी के नाम पर ही समलूर गांव बसाया गया था। इस मंदिर की जलहरी व शिवङ्क्षलग बत्तीसा मंदिर की जलहरी से मिलती जुलती शैली में बनी है। विशिष्ट नक्काशीदार जलहरी वाले इस शिवालय को देखने बड़ी संख्या में सैलानी व दर्शनार्थी पहुंचते हैं। मंदिर में सावन सोमवार के अलावा महाशिवरात्रि, माघपूर्णिमा जैसे खास अवसरों पर दर्शनार्थियों की कतार लगती है। महाशिवरात्रि पर मंदिर परिसर के बाहर मेला लगता है। ऐसे में भीड़ के वक्त कोई हादसा होने की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

बस्तर का बास्ता..... Bastar Ka Basta

बस्तर का बास्ता.....
Bastar  Ka Basta
- ओम सोनी

बस्तर में यहां के आदिवासी समाज पहले खान पान पर पुरी तरह से जंगलो पर ही निर्भर थे। अब भी बहुत से खादय पदार्थ जंगलो से ही प्राप्त होते है। जब बात सब्जी की हो तो यहां के आदिवासी जंगलो से मिलनी वाली सब्जियों को पहले प्राथमिकता देते है। यहां जंगलो से मिलने वाला एक ऐसे ही पौधा है जिसे खाया जाता है। वह पौधा है बांस। बस्तर में बांस की कोपलों को बडे चाव से सब्जी बनाकर खाया जाता है। इन कोपलों को बास्ता या करील कहा जाता है। 


जून से अगस्त तक बांस के झुरमुटो में नयी कोपलों (बास्ता) को निकाला जाता है। जिसे बाजार में बेचा जाता है। बास्ता में सायनोजेनिक ग्लुकोसाईठ, टैक्सीफाईलीन एवं बेंजोईक अम्ल पाया जाता है। जो कफ निःसारक, उत्तेजक, तृशाषामक होता है। इसलिये लोग इसका उपयोग खाने में करते है। बास्ता का उपयोग खाने अचार बनाने के लिये होता है।



 औशधी गुणों के कारण बडे पैमाने में इसकी तस्करी होती है। बास्ता को तोडकर इसकी तस्करी करना प्रतिबंधित है। 
तीन सौ से चार सौ रू तक प्रति टोकरी में इसे बेचा जाता है। एक टोकरी में लगभग 20 किलो बास्ता होता है। 

बस्तर के 'अकुम'

बस्तर के  'अकुम'  की ध्वनि अब सुनाई नहीं पड़ती!!

Bastar ka Akum

ओम सोनी

बस्तर की आदिम संस्कृति के विभिन्न पहलू आज भी दुनिया के लिये शोध का विषय है. बस्तर में  पहले के जन जीवन के कुछ परम्परागत उपकरण आज अपना महत्व खोते जा रहे है.बस्तर की आदिम संस्कृति में आज आधुनिकता एवं भौतिकता के कारण धीरे धीरे परम्परागत आवश्यक उपकरण अब लुप्त होते जा रहे है. हजारो वर्षो से ये  उपयोगी उपकरण , अब तो विरले ही दिखाई पड़ते है.

बस्तर का एक ऐसा ही परम्परागत उपकरण है 'अकुम' जो अब देखने को नहीं मिलता है. यह एक महत्वपूर्ण उपकरण है ज़िसकी ध्वनि दुर खडे साथी को सतर्क कर देती है. अकुम जंगली भैंस के सींग से बना आदिवासियो का एक सूचना या चेतावनी पहूँचाने का महत्वपूर्ण उपकरण है. सींग को गर्म करके चिकना बनाया जाता है. इसके नोक वाले सिरे पर एक छोटा सा छेद किया जाता है. उसमे बांस का टुकडा डालते है. फिर इसे बजाया जाता है. इसको बजाने में बहुत ताकत लगानी पड़ती है.


इसकी ध्वनि शंख के समान होती है. इसको बजाने के लिये फेफडो का मजबुत होना ज़रूरी है. आदिवासी हर्ष उल्लास के समय इसे बजाते है. इसका ज्यादा उपयोग शिकार के समय होता है. गांव में अकुम की आवाज सुनकर सभी लोग इकठ्ठा हो जाते थे. शिकार के समय, समुह में 10 - 12 लोग एक साथ परम्परागत  हथियार जैसे तीर धनुष , भाले आदि लेकर जंगल में निकलते है. तब दो तीन के समुह में सब लोग , शिकार करने के लिये बंट जाते है. इन प्रत्येक छोटे समुहो में एक व्यक्ति के पास अकुम होता है. अकुम की ध्वनि से ये एक दुसरे समुह को  सिग्नल (ईशारा) देते है. शिकार के लिये अकुम महत्वपूर्ण एवं ज़रूरी उपकरण होता था.

पहले बस्तर में जंगली जानवर बहुत हुआ करते थे. बस्तर में जंगली भैसे बहुत पाये जाते थे. अत्यधिक शिकार के कारण अब ये लगभग लुप्त हो चुके है.आज भी बस्तर के इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान में जंगली भैंसो के बहुत से झूंड विचरण करते है. अब बस्तर में अब  पहले की तरह शिकार नहीं खेला जाता है. 

ना ही अब वनभैंसो का शिकार होता है. ज़िनके सींग से अकुम बनाया जाता था. इस कारण जो अकुम पहले आदिवासियो के गले में  लटका रहता था अब यह अकुम देखने को भी नहीं मिलता है. अभुझमाड के अन्दरूनी गांवो में आज भी इन परम्परागत उपकरणो का उपयोग होता है.वहाँ के घरोें की दिवारो मे टंगे   अकुम आज भी बस्तर के शिकार खेलो की गौरव गाथाओ का स्मरण कराते है.

बस्तर का तक्षक नाग Flying Snake of Bastar

 बस्तर का तक्षक नाग

Flying Snake of Bastar

ओम सोनी


बस्तर घने जंगलो के कारण वन्य जीवों से समृद्ध रहा है। अत्यधिक षिकार एवं जंगलो की कटाई से बहुत से वन्य जीव बस्तर से लुप्त हो चुके है। आज भी बस्तर के कुछ क्षेत्रों की वन संपदा आमजनों से अछुती है। दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा के बैलाडीला के जंगल आज भी वन्य जीवों के रहवास के आदर्ष स्थल है। जब बात रेंगने वाले जीवों  अर्थात सर्प प्रजाति की होती है तो भी उस मामले में भी बस्तर के जंगल अव्वल है। दक्षिण बस्तर में बैलाडिला की पहाड़ियों के जंगल में एवं बस्तर के अन्य जंगलो  में  आज भी पौराणिक सांप तक्षक कभी कभी उडते हुये दिखायी पड़ता है। स्थानीय स्तर पर इसे उड़ाकू सांप भी कहा जाता है। 



महाभारत के बाद राजा परीक्षित इस तक्षक नाग से जुड़ा एक प्रसंग है जिसके अनुसार श्रंृगी ऋशि ने महाराज परीक्षित को श्राप दिया था कि तुम्हारी मृत्यु तक्षक नाग के डसने से होगी। तक्षक नाग के डसने से राजा परीक्षित की मृत्यु हो गयी तब परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने तक्षक नाग से बदला लेने के लिये सर्प यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में सभी संप आकर गिरने लगे तब तक्षक नाग डरकर इंद्र की षरण में गया। जैसे ही यज्ञ करने वाले ब्राहमण ने तक्षक नाग की आहुति डाली वैसे ही तक्षक नाग देवलोक से यज्ञ में गिरने लगा। किन्तु आस्तीक ऋशि ने अपने मंत्रो से तक्षक नाग को आकाष में ही रोककर स्थिर कर दिया। 

मैने इस सर्प को तीन बार देखा है। यह बड़ी तेजी से एक पेड़ से दुसरे पेड़ तक लंबी छलांग मारता है। जैसे ही पलक झपके वैसे ही यह दुर अगले वृक्ष में दिखाई पड़ता है। सर्प वैज्ञानिकों के अनुसार यह तक्षक नाग अपनी पसलियों को फैला लेता है। षरीर के निचले भागों को अंदर कर उसमें हवा भर लेता है। जिससे यह हल्का हो जाता है। ऐसा करने के बाद वह पेड़ो से लंबी छलांग लगाता है। छलांग लगाते समय यह अपने षरीर को अंग्रेजी के एस अक्षर की तरह मोड़ लेता है। इसकी छलांग बहुत लंबी होती है। मैने इसकी छलांग लगभग 50 से 60 फिट तक देखी है। यह इससे भी कई गुना अधिक लंबी छलांग मारता है। 

सरीसृपों के मषहुर वैज्ञानिक श्री एच0के0एस0 गजेन्द्र सर ने बस्तर के सरीसृपों पर बहुत षोध किया है। दक्षिण बस्तर में पहली बार तक्षक नाग की खोज भी उन्होने ही की है। उनके अनुसार इस प्राचीन तक्षक नाग का वैज्ञानिक नाम क्राइसोपेलिया आर्नेटा या ग्लाईडिंग स्नेक भी कहा जाता है। बैलाडिला की पहाडियों का जंगल इस सर्प के रहवास के लिये बेहद उपयुक्त है।  उन्होने अब तक सरीसृपों की 59 प्रजातियों की पहचान की है जो बस्तर में पाये जाते है। जिसमें 5 सांपो की एवं 1 कछुये की प्रजाति जो प्रदेष के लिये नई है। डॉण् गजेंद्र ने तक्षक के अलावा इस क्षेत्र में रूखचघा सांप ;डेण्ड्रीलेफिस ट्रिसटिसद्धए पेड़ चिंगराज ;बोइगा गोकुल. पूर्वी मांजराद्धए पानी चिंगराज ;बोइगा फारेस्टेनी. फार्सटन मांजराद्धए बेशरम सांप ;ट्राइमेरिसुरस ग्रेमिनियस द्ध जिसे हरा गर्तघोणा या ग्रीन पिट वाइपर की खोज की है। उन्होंने ही बैलाडीला पहाड़ के पश्चिमी घाटए जो बीजापुर जिले का क्षेत्र हैए वहां दुर्लभ सितारा कछुए की खोज की है। इस कछुए का जुलॉजिकल नेम जिओचिलोन एलिगेंस है।

फोटो , कथा - नेट से , हम तो बस उस सांप के उड़ान को देखते ही रह गये , फोटो खीचने का मौका ही नहीं मिला। 

बस्तर का बोड़ा Bastar Ka Boda

बस्तर का बोड़ा

बस्‍तर  के जंगलों में मिलने वाला बोड़ा की सब्जी खाने के लिए मानसून आने का इंतजार करते है यहां के लोग
- Om Soni


आज पुरा भारत जहां मानसून के फुहारों में सराबोर हैं वहीं बस्‍तर में लोगों के चेहरों पर मानसून आने के बाद एक अलग खुशी नजर आती  है और वह खुशी है एक ऐसी सब्‍जी, जिसे खाने के लिये सालभर लोग मानसून आने का इंतजार करते है. मानसुन के शुरूआती दिनों मे, बस्‍तर के जंगलो में ,जमीन के अंदर से गांठ नुमा ,छोटे छोटे आलु ,की तरह एक विशेष प्रकार का जंगली खादय  मिलता है जिसे यहां बोडा के नाम से जाना जाता है. बोडा की सब्‍जी बेहद ही लोकप्रिय एवं स्‍वादिष्‍ट होती है.बाजार में बोडा आते ही लोग खरीदने के  लिये टूट पड़ते  है.बोडा में खनिज लवण एवं काबोहाईड्रेट भरपुर मात्रा  में होता है.



बस्‍तर को सालवनों का द्वीप कहा जाता है. साल के पेडो के नीचे जमीन में बोडा का अपने आप प्रक़ति द्वारा उत्‍पादन होता है. बारिश की कुछ बुंदो के बाद जब हल्‍की सी धुप पडती है तब इन साल के पेडो के नीचे जमीन में हल्‍की दरारे पड जाती है इन दरारों को खोदकर यहां के स्‍थानीय लोग जमीन से बोडा को इकटठा कर बाजार में बेचने के लिये लाते है. यूं तो पुरे बस्‍तर में बोडा मिलता है परन्‍तु बस्‍तर में कोंडागांव के आसपास सर्वाधिक बोडा का उत्‍पादन होता है

शुरूआती आवक होने पर इसकी कीमत अत्‍यधिक होती है. प्रति पायली पांच सौ से छ सौ रू एवं चोली 150 रू से 200 रू एवं किलो में प्रतिकिलो 500 रू तक के दाम में बोडा बिकता है.धीरे धीरे अधिक आवक होने पर बोडा के दाम कम होते जाते है.

बस्तर का भेड़ाघाट

बस्तर का भेड़ाघाट - सातधार जलप्रपात ........!


इंद्रावती बस्तर की प्राणदायिनी नदी है। यह नदी उड़िसा के कालाहांडी से निकलकर भोपालपटनम के आगे गोदावरी में विलीन हो जाती है। इस नदी में दो जलप्रपात निर्मित है पहला जगदलपुर के पास विश्वप्रसिद्ध चित्रकोट एवं दुसरा ऐतिहासिक नगरी बारसूर के पास सातधार जलप्रपात।


सातधार जलप्रपात इतिहास और प्रकृति की सुंदरता का अदभुत मेल है। इसी नदी के आगे नागो की राजधानी बारसूर है। जहां आज भी कई ऐतिहासिक महत्व के मंदिर है। इस जलप्रपात के पास ही नागों के किले के निशान बिखरे पड़े है।

बारसूर के लगभग 04 किलोमीटर की दुरी सातधार गांव है। इस गांव के पास ही इंद्रावती नदी में अभुझमाड़ को जोड़ने के लिये पुल बना हुआ है। इस पुल से एक कच्चा मार्ग अबुझमाड़ के तुलार की तरफ जाता है। इस मार्ग में पुल से लगभग 01 किलोमीटर की दुरी पर इंद्रावती नदी में सातधार जलप्रपात बने हुये है।


इस स्थान में इंद्रावती नदी सात अलग अलग धाराओ में बंटकर  बेहद ही मनमोहक छोटे छोटे झरनो का निर्माण करती है। इस कारण यह गांव एवं जलप्रपात दोनो सातधार के नाम से जाना जाता है।

इंद्रावती के तीव्र वेग ने विशाल प्रस्तरों वाले इस जगह  को काटकर गहरी खाईयों में बदल दिया है। इन गहरी खाईयों के कारण इंद्रावती नदी जलधाराओं के रूप में बंटकर सात छोटे छोटे जलप्रपात बनाती है।


बरसात के दिनो में अत्यधिक मात्रा में जलराशि होने के कारण नदी इन जलप्रपातों की चटटानों से तीव्र वेग से टकराती है। जिसके कारण चारों तरफ पानी की फुहारें आसमान की तरफ उड़ती रहती है। इन फुहारों के कारण जलप्रपात वाले क्षेत्रों में वातावरण पुरी तरह से नम हो जाता है। बरसात में सातधार जलप्रपात का दृश्य नर्मदा के भेड़ाघाट जलप्रपात के समान ही मनमोहनी हो जाता है।

जनवरी फरवरी माह में जब नदी का पानी कम हो जाता है, तब इन गहरी खाईयों में बहती हुई जलधाराये चांदी के समान चमकती है। जलधाराओं का नीला रंग चांदी के समान सफेद हो जाता है।
हर मौसम मे इन जलप्रपातों की सुंदरता का आनंद लिया जा सकता है। खासकर दिसंबर से मार्च तक का समय इस जलप्रपात के मनमोहक दृश्यों के देखने के लिये सबसे उपयुक्त है।

इस जलप्रपात के विकास के लिये अभी तक कोई ठोस कार्य या प्रचार प्रसार नहीं हुआ है जिसके कारण  अधिकांश पर्यटक नदी पर बने पुल से ही नदी के दृश्यो को सातधार समझ कर वास्तविक सातधार जलप्रपातों के देखे बिना ही लौट जाते है। जिला प्रशासन और पर्यटन मंडल को पुल से जलप्रपात तक पक्की सड़क बनानी चाहिये। जलप्रपात के पास ही पर्यटकों के विश्राम स्थल बनाये जाने की आवश्यकता है। बारसूर महोत्सव में मंदिरों के अलावा सातधार जलप्रपात को भी प्रमुखता से प्रचार किये जाने की महती आवश्यकता है।
Om Soni Dantewada

8 नवंबर 2017

मलाजकुडुम जलप्रपात, कांकेर MalajKudum Waterfall Kanker

मलाजकुडुम जलप्रपात, कांकेर


- ओम सोनी

           बस्तर का पठारी क्षेत्र बहुत से प्राकृतिक जलप्रपातों का निर्माण करता है। आज बस्तर में कई जलप्रपात है जो बेहद ही खुबसुरत एवं मनमोहक है। कई जलप्रपात ऐसे है जहां जाना बेहद ही दुर्गम है और कुछ ऐसे भी कई जलप्रपात है जहां जाना बेहद ही आसान है परन्तु समुचित प्रचार प्रसार के अभाव में वे गुमनामी के अंधेरे में कहीं खोये हुये है। ऐसा ही एक बेहद ही सुंदर एवं उंचा जलप्रपात है कांकेर जिले का मलाजकुंडुम जलप्रपात । यहां जाना बेहद ही आसान है परन्तु जानकारी के अभाव में पर्यटक इसके सौंदर्य को निहार नहीं पाते है। 





         कांकेर शहर के गढ़ पिछवाड़ी की तरफ से मुख्य सड़क हटकर से बांये तरफ , एक पक्की सड़क जाती है। इस सड़क में 20 किलोमीटर आगे मलाजकुडुम नामक बेहद ही छोटा सा गांव है। इस गांव के पास ही पहाड़ी पर कई भागों में विभक्त बेहद उंचा जलप्रपात है। वास्तव में यह जलप्रपात, दुध नदी का उदगम है जो कि कांकेर शहर के मध्य से बहती है। 


         जलप्रपात के उपर जाने के लिये पास ही पहाड़ी पर पक्की सीढ़ियां बनी हुयी है। जलप्रपात के उपर पहुंचने पर दो पहाड़ों को मध्य से चीरती हुई दुध नदी सीधे 60 फीट नीचे गिरती है। जलप्रपात तीन हिस्सों में नीचे गिरता है। जिसमें उपरी हिस्सा 60 फिट, मध्य का 30 फिट एवं अंतिम वाला लगभग 20  फिट उंचा है। जलप्रपात के उपर नदी का बहाव अत्यंत तेज है। जलप्रपात के उपर से देखने पर चारों तरफ हरे भरे पर्वत श्रृंखलाओं के मनमोहक दृश्य दिखायी पड़ता है। शहर के कोलाहल से दुर चारों तरफ फैली शांति, हरितिमा युक्त मनमोहक प्राकृतिक दृश्य , जलप्रपात में गिरती हुई असंख्य धाराओं की मधुर संगीत मन को बेहद ही शांति प्रदान करते है। 
       
  
मलाजकुडुम जलप्रपात टेªकिंग के शौकिन व्यक्तियों के लिये बेहद ही आदर्श स्थल है। जलप्रपात में नीचे गिरती धाराओं के साथ-साथ नीचे उतरने का आनंद ही कुछ और है। टेकिंग में सावधानी बरतना बेहद आवश्यक है। जलप्रपात की फिसलन वाली चटटाने दुर्घटना की कारण बनती है। 



          जलप्रपात के नीचे नदी पर झुला बनाया गया है। जिसमें उत्साही एवं साहसी युवक एवं युवतियां लोहे की रस्सियों में लटक कर उफनती नदी पार करने का प्रयास करते है।  पास ही मलाजकुडुम बस्ती में छत्तीसगढ़ एवं बस्तर की मिली जुली संस्कृति की स्पष्ट झलक दिखलायी पड़ती है। सर्पिलाकार घाटी एवं घने वनों के कारण गढ़पिछवाड़ी से जलप्रपात तक का सफर बेहद ही रोमांचकारी हो जाता है।
          साल के किसी भी मौसम में यहां आसानी से जाया जा सकता है। रायपुर से जगदलपुर के मुख्य सड़क में कांकेर के पास से, स्वयं के वाहन द्वारा ,यहां पहुंचा जा सकता है। मात्र दो तीन घ्ंटे के समय में इस जलप्रपात के सौंदर्य को निहारा जा सकता है।

21 मार्च 2017

बस्तर का बाहूबली झरना - हांदावाड़ा जलप्रपात

बस्तर का बाहूबली झरना - हांदावाड़ा जलप्रपात......!


प्रकृति ने बस्तर में जी भर कर अपना सौंदर्य लुटाया हैं। अद्वितीय प्राकृतिक खुबसूरती ने बस्तर को सर्वोत्तम पर्यटन स्थल बनाया है। यहां की हरी भरी वादियां , गगनचुम्बी चोटियाँ  ,  खुबसुरत झरने किसी भी व्यक्ति का मनमोह लेते हैं। बस्तर में दंतेवाड़ा जिला भी पर्यटन स्थलों के मामले में अग्रणी  है।


दंतेवाड़ा में जहां घने जंगलो में ऊँची पर्वत चोटी पर गणेश जी विराजित हैं वहां प्रकृति एवँ इतिहास का अनूठा संगम दिखाई देता हैं , इसके साथ ही विशाल, भव्यतम झरना हांदावाड़ा जाने का मार्ग भी दंतेवाड़ा से ही जाता है। बस्तर के युवाओं में और बस्तर को करीब से जानने वालों लोगों में ढोलकल के बाद हांदावाड़ा जाने की इच्छा देखने को मिलती है। 

कुछ दिनो पूर्व यहां पर बाहूबली 2 की शूटींग की बात चली थी जिसके फलस्वरूप पर्यटकों में  हांदावाड़ा जलप्रपात को देखने की इच्छा अधिक हो गई।  अपनी इसी इच्छा के कारण स्थानीय लोगो ने इस जलप्रपात के सौंदर्य को करीब से निहारा हैं। हर सप्ताह यहां स्थानीय पर्यटको का मेला सा लगने लग गया था।
यह जलप्रपात बाहुबली फिल्म के जलप्रपात की विशालता के तुलना में  किसी भी तरह से कम नहीं हैं। पास के गांव हांदावाड़ा के कारण यह जलप्रपात हांदावाड़ा जलप्रपात के नाम से जाना जाता हैं, परंतु बाहुबली फिल्म की शूटींग एवँ बस्तर का विशाल झरना होने के कारण स्थानीय युवाओं में यह बाहुबली जलपर्वत के रूप में चर्चित है। 

हांदावाड़ा जलप्रपात नारायणपुर जिले के ओरछा विकासखण्ड में आता हैं। जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा से २० किलोमीटर की दुरी पर ऐतिहासिक नगरी बारसूर स्थित है। बारसूर से ०४ किलोमीटर की दुरी पर मूचनार नामक ग्राम में बस्तर की जीवनदायिनी इन्द्रावती बहती हैं।


इंद्रावती नदी के पार लगभग २५ से ३० किलोमीटर की दुरी पर अबूझमाड़ में हांदावाड़ा नाम का  छोटा सा ग्राम है। इस ग्राम से ०4 किलोमीटर की दुरी पर धारा डोंगरी की पहाड़ी में गोयदेर नदी लगभग 350 फीट की ऊंचाई से गिरकर बहुत ही खूबसूरत एवं चरण बद्ध विशाल जलप्रपात का निर्माण करती है।

बांस के झुरमुटों से निकलते ही पर्यटकों को हांदावाड़ा झरने की विशालता एकदम से अचंभित कर देती है। इसकी विशालता के सामने मुख से धीमी आवाज में बस एक शब्द निकलता है अदभूत ! झरने खूबसूरती में पर्यटक इतना रम जाता है कि उसे वहाँ से हटने का मन ही नहीं करता है।

बस एकटक इस झरने की विशालता को देखते रहो। बहुत ही रोमांचक एवं मन को आनंदित करने वाला यह दृश्य कई दिनों तक आँखों के सामने घुमता रहता है।जलप्रपात तक पहूँचने के लिये चार किलो मीटर के घने जंगल में  पैदल चलना पड़ता है। जंगल बेहद घना एवँ डरावना हैं। गांव वालो की मदद के बिना यहां जाना असंभव एवँ खतरनाक हैं।

जलप्रपात की विशालता , अप्रतिम सुन्दरता चार किलोमीटर की पैदल थकान दूर कर देती हैं। झरने की फुहारे तन मन को पुनः ताजा कर देती है।   इस जलप्रपात के  ऊपर एक छोटा सा झरना भी है। झरना छोटा है आसपास की कुश की झाडियां के कारण वह काफी सुन्दर लगता है। झरने के ऊपर से घाटी में चारो तरफ फैली हरियाली एवं नीचे गिरते पानी की कल कल आवाज मन को बहुत ही रोमांचित कर देती है।

इस झरने की आवाज 4 किलोमीटर की दुरी पर स्थित बस्ती में  साफ साफ सुनाई देती है। बरसात के दिनों में यह जलप्रपात अपने विशाल रूप को पा लेता है। गर्मी के दिनों में नदी में पानी कम होने के कारन इसकी विशालता थोड़ी काम हो जाती है। वर्षाकाल में इन्द्रावती नदी अपने उफान पर होती है। इसलिए उस समय यहाँ पहुचना बहुत ही कष्ट दायक होता है। नवम्बर से मार्च तक के समय  में इस झरने का पर्यटन का किया जा सकता है। यहाँ पहुचने के लिये पैदल ही जाना  पड़ता है ।

माओवाद से प्रभावित क्षेत्र होने के कारण नदी के उस पार सड़क नहीं है।  पतली पगडण्डी में चलते हुए यहाँ पंहुचा जा सकता है। दोपहिया वाहन से अगर जाना हो तो मूचनार में इन्द्रावती नदी पार कर जाना पड़ता है। डोंगी से बाईक समेत नदी पारकर हांदावाड़ा जा सकते है।  यहाँ जाने के लिए किसी जानकार व्यक्ति को साथ ले जाना ही उचित है अन्यथा कई दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। 

आलेख ओम सोनी दंतेवाड़ा 
मो- 8878655151

चन्द्रादित्य सरोवर बारसुर

सरोवर के किनारे, नागवंशी राजा जगदेकभूषण धारावर्ष और सामंत चन्द्रादित्य का वार्तालाप !!


नागवंशियो का ऐतिहासिक ताल , जलक्रीड़ा करते उसमें बाल!!
खिला किनारे उसके पलाश , बारसुर ने किया हैं मोहपाश !!

छिन्दक नागवंशी शासको ने बस्तर में कई सदियो तक शासन किया हैं. आज के बारसुर को तत्कालीन छिन्दक नागवंशी शासको की राजधानी होने का गौरव प्राप्त हैं. नागवंशी शासनकाल में बारसुर बस्तर का सर्वाधिक बड़ा एवँ महत्वपूर्ण नगर था. विभिन्न शासको ने बारसुर में अनेको मन्दिरो एवँ तालाबो का निर्माण करवाया था. बस्तर भूषण के अनुसार मन्दिरो की संख्या 147 थी एवँ इतने ही तालाब भी बनवाये गये थे. सच में , बारसुर में 147 मन्दिर एवँ इतने ही तालाब ज़रूर रहे होंगे , इसमें ज़रा भी संदेह नहीं हैं. 


आज भी कुछ मन्दिर सही अवस्था में विद्यमान हैं , कुछ ध्वस्त अवस्था में हैं , कुछ मन्दिरो के तल के अवशेष ही हैं , और कुछ तो अभी टीलो में दबे हुए हैं जो आज भी  दुनिया के सामने आने के लिये इंतजार में हैं. छिन्दक नागवंशी शासको ने मन्दिरो के साथ साथ जन कल्याण के लिये सैकड़ो तालाब भी खुदवाये थे. उनमे से कुछ तालाब आज भी हैं , कुछ सुख गये , तो कुछ खेतो में तब्दील हो चुके हैं. गूगल अर्थ की सहायता से बारसुर के तालाब देखे ज़ा सकते हैं.



बारसुर में ऐसा ही एक विशाल तालाब हैं जिसे आज बुढ़ा तालाब कहा जाता हैं. यह तालाब लगभग एक हजार वर्ष पुराना हैं. तत्कालीन समय  राजधानी होने के कारण बारसुर बहुत ही बड़ा नगर था. राज परिवार , शासन के बड़े अधिकारी एवँ हजारो लोग बारसुर में ही निवास करते थे. उनकी पेयजल एवँ जल से सम्बंधित सारी आवश्यकताये इन तालाबो से ही पुरी होती थी.
बारसुर के इस बुढा तालाब का अपना एक इतिहास हैं. बारसुर में मिले एक शिलालेख के अनुसार 1060 ईस्वी में छिन्दक नागवंशी राजा जगदेकभूषण धारावर्ष का शासन था. उनके एक सामंत थे चन्द्रादित्य महाराज. वे अम्मा ग्राम के स्वामी थे.ये बडे ही दयालू , भगवान की भक्ति में लीन रहने वाले लोकप्रिय व्यक्ति थे. इन्होने बारसुर में भगवान शिव को समर्पित एक मन्दिर का निर्माण करवाया था जो उनके नाम पर चन्द्रादित्य मन्दिर के नाम से जाना जाता हैं. यह मन्दिर वर्तमान में  सुरक्षित अवस्था में आज भी बारसुर में विद्यमान हैं. धुप में लोगो के विश्राम हेतु विशाल उपवन भी बनवाया था. मन्दिर के पास ही जनकल्याण के लिये एक विशाल तालाब खुदवाया था यह तालाब उनके नाम पर चन्द्र सरोवर के नाम से जाना जाता था. वर्तमान में यह बुढ़ा तालाब के नाम से अध्यतन लोगो की जल सम्बंधी आवश्यकताओ की पूर्ति कर रहा हैं.



महाशिवरात्री के दिन तुलार से वापसी के समय मैं और मेरे मित्र कुलेश्वर दोनो इस प्राचीन तालाब और किनारे लगे टेसू के वृक्ष की खूबसुरती को निहारने हेतु , कुछ समय के लिये इसके पास रुक गये थे. वहां मैं अपनी कल्पना में खो गया था. हम दोनो के बीच कुछ बाते भी हूई थी. आईये अाप भी मेरी कल्पना में खो जाईये.
तत्कालीन  राजधानी बारसुर में महाशिवरात्री के दिन सभी शिवालयो में प्रजा भगवान शिव की पूजा अर्चना में व्यस्त थे, राजधानी की सारी प्रजा शिव की भक्ति में डूबी हूई थी , पुरा बारसुर शिवमय हो गया था. पलाश (टेसू) के लाल , भगवा रंग के फूलो से पुष्पित हजारो वृक्ष राजधानी और चन्द्रसरोवर की खूबसूरती को बढ़ा रहे थे.
राजा धारावर्ष और सामंत चन्द्रादित्य आज राजधानी में शिवालयो में पूजा अर्चना कर रथ में सवार होकर राजधानी से कुछ दुरी पर स्थित तुलार के गुहा में स्थापित शिवलिंग के दर्शन हेतु गये थे. वापस राजधानी में आने में उन्हे सायं हो गयी थी.
राजा धारावर्ष ने राजधानी में प्रवेश करते ही सारथी को चन्द्रसरोवर के पास रोकने का आदेश दिया. रथ के पहिये सरोवर के सामने रुक गये.
सायं 4 बजे का समय था, आसमान में काले बादल छाये हुए थे , सूर्य की रोशनी मद्धम पड गयी थी, सरोवर का जल  ह्ल्का सुनहरा दिखाई पड रहा था , आसमान में छाये काले बादलो के कारण  कालिमा युक्त वातावरण था , चारो तरफ टेसू के लाल फूलो से लदे वृक्ष सरोवर की खूबसूरती को दुगुना कर रहे थे , ह्ल्की हवा चल रही थी .
दोनो रथ से नीचे उतरकर सरोवर के सामने पहूँच गये , दोनो में वार्तालाप होने लगा ...
सामंत चन्द्रादित्य - प्रभु ,  क्षमा चाहता हूँ ,परंतु यहां सरोवर के सामने इस प्रकार विचरण करने का उद्धेश्य जान सकता हूँ.
राजा धारावर्ष - सामंत , मैं आपके निर्देशन में बने इस सरोवर  की खूबसूरती को निहारना चाहता था. वाह ! यहां की खूबसूरती को देख कर बहुत आनन्द हो रहा हैं.
सामंत - प्रभु , भगवान शिव के आशिर्वाद से आज यह आनन्दित दृश्य हमे दिखाई दे रहा हैं.
सामंत चन्द्रादित्य - महाराज , इतने आरामदायी रथ होने के बाद   भी शरीर के अंगो में हल्का दर्द हो रहा हैं, प्रभु , आपके मुख पर भी दर्द परिलक्षित हो रहा हैं.
राजा धारावर्ष - तुलार के मार्ग की  कष्टदायी यात्रा से उत्पन्न मेरा  यह दर्द तो कुछ समय में दूर हो जायेगा. आपने तो इस सरोवर का  निर्माण करवा कर , यहां की प्रजा की जल समस्या का निवारण कर उनका दर्द दूर किया हैं.
सामंत - महाराज, यह सब आपकी कृपा हैं. अाप बहुत महान हैं जो जन कल्याण से जुडे कार्यो के लिये मुक्तहस्तो से धन उपलब्ध कराते हैं.
सामंत  - (सरोवर में जल क्रीडा करते हुये बालको की तरफ इशारा करते हुए कहा) , राजन , वहां  देखिये ,  नन्हे राजकुमार, अपने मित्रो के साथ , निर्वस्त्र  होकर जलक्रीडा कर रहे हैं.


राजा - सामंत , यह आपकी मेरे उपर बहुत बडी कृपा हैं. इस सरोवर के निर्माण के बाद आज नन्हे राजकुमार और उसके मित्रो की जल क्रीडा करने में मिल रहे खुशी को देख कर मेरा मन बेहद प्रफुल्लित हो गया. आज उनके चेहरो की यह हँसी बहुत ही मुल्यवान हैं. उनके मुख पर जल के अपव्यय का अब भय नहीं हैं. बडी नीडरता एवँ उन्मुक्त होकर वे जलक्रीडा कर रहे हैं.
सामंत  जलक्रीडा में व्यस्त राजकुमारो को निर्वस्त्र देखकर अपनी हँसी को ना रोक पाये और जोर जोर से हँसने लगे.
राज़ा - सामंत , अपनी इस तेज हँसी पर लगाम रखो , आज़ हम जलक्रीडा करते बालको की खुशी में किसी भी प्रकार का व्यवधान नहीं चाहते हैं. उन्हे जी भर कर जल क्रीडा करने दो.
सामंत - क्षमा चाहता हूँ राजन , मैं पहली बार राज़कुमारो को इस प्रकार निर्वस्त्र होकर जल क्रीडा करते देखा , इस कारण अपनी हँसी रोक नहीं पाया.
राजा - भविष्य में इस बात का ध्यान रखे ,सामंत. बालको की यह आनन्दबेला बहुत ही मुल्यवान हैं. मैं आपके अन्तरमन की कल्पनाओ को समझ सकता हूँ.
सामंत - (थोडी चापलूसी करते हुए ) राजन, आपके राजत्व काल में प्रजा बेहद सुखी हैं, चारो तरफ सुखमय वातावरण हैं. प्रजा सम्पन्न हैं. आज  प्रजा सभी शिवालयो में यही मन्नत मांग रही हैं कि अगले जन्म में भी हम परम प्रतापी , वीर ,  परम महेशवर , जगदेकभूषण श्रीमंत धारावर्ष ही हमारे राजा के रूप में प्राप्त हो.
राजा - मुख पर ह्ल्की सी मुस्कुराहट.
सामंत - सत्य प्रभु , आपके शासन में प्रजा निर्भीक एवँ नीडर होकर रहती हैं. वही यहां के पशु - पक्षी भी बेहद नीडर होकर जीवन का  सुख् भोग रहे हैं.  (सामंत ने एक टेसू के वृक्ष में फूलो के रसास्वादन करते हुए पक्षी की तरफ इशारा किया) 


वो देखिये राजन ! एक पक्षी भी आपके इस सुखमय शासन में नीडर होकर टेसू के लाल फुलो का रसपान कर रहा हैं जो इस बात का सबूत हैं कि आपके राजत्व काल में प्रजा के साथ पशु पक्षी भी पुरी स्वतंत्रता से जीवन य़ापन करते हैं. उन्हे अकारण परेशान नहीं किया जाता हैं. सभी को अभय प्राप्त है. वे पुरी नीडरता से विचरण कर सकते हैं , अपनी बात कह सकते हैं.
राजा के मुख पर गर्व झलकने लगा , गर्विली मुस्कान छा गयी. वे पक्षी की तरफ एकटक देखने लग गये.
तभी सामंत ने राजा को जोर से हिलाया , राजा का ध्यान पक्षी पर से हट गया.
राजा ने  सामंत से पुछा- क्या हुआ ? 


सामंत (कुलेश्वर)- ओम ,कौवा को क्या देख रहा हैं ? घर नहीं चलना हैं क्या? लेट हो रहा हैं.
राजा धारावर्ष (ओम) - हां , हां , चल-चल निकलते हैं. मैं भी कहां खो गया था यार.
सीना तानकर  , चेहरे पर गर्व से भरी मुस्कान लेकर , रथ (बाईक) पर सवार होकर हम घर की ओर निकल पडे.
यह बुढ़ा तालाब हजार सालो से नगर के लोगो एवँ पशुओ के पीने ,स्नान आदि ज़रूरत को पुरा कर रहा हैं. कई सालो से यह तालाब गंदगी एवँ ज़लीय पौधो से भरा हुआ था , तालाब के आसपास गंदगी का आलम था किन्तु ज़िला प्रशासन एवँ स्थानीय लोगो ने इस तालाब को वैसे ही साफ सुथरा एवं स्वच्छ कर दिया ,जैसा यह हमारे अर्थात राजा धारावर्ष के शासन अवधि में था

17 मार्च 2017

भोंगापाल , बुद्ध और सम्मोहन चूर्ण !! Bhongapal Buddha

भोंगापाल , बुद्ध और  सम्मोहन चूर्ण !!
- ओम सोनी


भोंगापाल में खुदायी में प्राप्त बौद्ध चैत्यगृह तथा मंदिरों के भग्नावशेष  बस्तर में बौद्ध भिक्षुओं के आवागमन तथा निवास के प्रमाणों को पुष्टि प्रदान करते हैं।भोंगापाल जहां खुदाई में बौद्धकालीन चैत्य मंदिर, सप्त मात्रीका मंदिर और शिव मंदिर के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं!!

कोंडागांव जिले के केशकाल और कोंडागांव के मध्य स्थित फरसगांव से 16 किलोमीटर पश्चिम में बड़े डोंगर से आगे ग्राम भोंगापाल स्थित है। भोंगापाल से तीन किलोमीटर दूर तमुर्रा नदी के तट पर एक टीले में विशाल चैत्य मंदिर सप्तमातृका मंदिर और शिव मंदिर के भग्न अवशेष प्रापत हुए हैं। बौद्ध प्रतिमा टीले को यहां के स्थानीय लोग डोकरा बाबा टीला के नाम से भी जानते हैं!!
सप्त मात्रीका  टीला या रानी टीला, बौद्ध प्रतिमा टीला से 200 गज की दूरी पर स्थित है। इसके अतिरिक्त यहां एक बड़ा शिव मंदिर एवं अन्य प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष हैं  किन्तु उनकी कोई प्रतिमा प्राप्त नहीं हुई है!!
यहां से प्राप्त बौद्ध चैत्य तथा प्राचीन मंदिर 5-6वीं शताब्दी के हैं। चैत्य मंदिर का निर्माण एक ऊंचे चतूबरे पर किया गया है। मंदिर पूर्वाभिमुखी है। इस चबूतरे के मंदिर के भग्नावशेषों का पिछला हिस्सा अद्र्ध-वृत्ताकार है जिस पर मंदिर का गर्भगृह, प्रदक्षिणा पथ, मंडप तथ देवपीठिका के भग्नावशेष हैं। यह कहा जा सकता है कि संभवत: यह बौद्ध भिक्षुओं का निवासस्थल रहा होगा!! खुदाई से पहले यहां एक विशाल बौद्ध प्रतिमा प्राप्त हुई थी। यह प्रतिमा प्राचीन होने के साथ-साथ खंडित अवस्था में है। चैत्य मंदिर ईटों से निर्मित है और यह छत्तीसगढ़ का प्रथम व एकमात्र चैत्य मंदिर है जो महत्वपूर्ण पुरातात्विक धरोहर है!!

 यहां के स्थानीय सिरहा लोग इस प्राप्त बौद्ध प्रतिमा को तंत्र विद्या के देवता गांडादेव के नाम से संबोधित करते हैं तथा सप्तमातृका को गांडादेव की पत्नियां मानते हैं!!

भोंगापाल में प्राप्त द्विभुजी बुद्ध की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में है। दोनों हाथ खंडित है।  विशाल ठोस प्रभामंडल और सिकुड़ा हुआ पेट है। मुखमंडल सौम्य अंडाकार है!!

सप्तमातृका मंदिर के भग्नावशेष चैत्य मंदिर टीले से दो सौ गज की दूरी पर मिलते हैं। ईंटों से निर्मित एक मंदिर पश्चिमाभिमुखी है। इस मंदिर का समय 5वीं शताब्दी ईस्वी माना जाता है। इसके उत्तरी भाग में एक अन्य अत्यंत प्रचीन पूर्वाभिमुखी मंदिर के भग्नावशेष प्राप्त होते हैं यह मंदिर ईटों से निर्मित था, किन्तु यहां कोई प्रतिमा नहीं मिली है!!

प्राचीन टीले के दक्षिणी भाग में ईटों से निर्मित एक अन्य पूर्वाभिमुखी मंदिर है, जिसे यहां के लोग बड़े शिव मंदिर के नाम से पुकारते हैं. इस मंदिर में गर्भगृह है, गर्भगृह में जलहरी युक्त शिवलिंग है। जलहरी धरातल पर स्थित है!!

यहां के लोग बुद्ध की प्रतिमा को भोंगा देवता के नाम से भी पूजते हैं. यहां तांत्रिक शक्तियो की प्राप्त के लिये लोग शिवलिंग ओर बुद्ध की प्रतिमा का प्रयोग करने लगे थे. यहां उड़ी अफवाह के अनुसार लोगो ने सम्मोहन शक्ती की प्राप्त के लिये बुद्ध प्रतिमा की नाक ओर शिवलिंग का उपरी हिस्सा घिस कर प्राप्त दोनो चूर्ण को मिला कर सम्मोहन चूर्ण बनाने लग गये थे. ओर इस चूर्ण का खासकर प्रेमियो ने अपनी प्रेमिका को प्राप्त करने में उपयोग करने लग गये थे. विभिन्न तांत्रिको ने भी इन पुरा प्रतिमा को घिस कर सम्मोहन चूर्ण का नाम देकर बहुतो को मूर्ख बनाया. बुद्ध की प्रतिमा का नाक ओर शिवलिंग का उपरी हिस्सा पुरी तरह से सम्मोहन चूर्ण बनाने में घिस गया  किंतु बाद में गांव वालो ने एक कमरे में इस बुद्ध प्रतिमा को स्थापित कर दिया!!

बौद्ध चैत्यगृह तथा मंदिरों के भग्नावशेष  बस्तर में बौद्ध भिक्षुओं के आवागमन तथा निवास के प्रमाणों को पुष्टि प्रदान करते हैं। निश्चित ही तातकालिन समय में बस्तर में बौद्ध धर्म का बोलबाला रहा होगा. पास के जैपौर , बोरीगुम्मा एवँ आसपास के ओडिसा के गांव में बौद्ध प्रतिमाये एवँ बौद्ध अवशेष प्राप्त होते हैं.  दक्षिन बस्तर में वर्तमान में अभी तक बौद्ध धर्म के कोई ठोस अवसेष प्राप्त नहीं हुए खोज जारी हैं.