6 मार्च 2018

दंतेवाड़ा की अनोखी होली

         दंतेवाड़ा की अनोखी होली

पुरी दुनिया में बस्तर की अद्भूत आदिवासी संस्कृति , यहां की विशेष परम्पराआें को जानने की उत्सुकता रही हैं। यहां त्यौहारों को मनाने की अनोखी मान्यतायें प्रचलित है जो कि बस्तर की सांस्कृतिक समृद्धि की प्रतीक है। जैसे बस्तर का दशहरा , जहां एक ओर पुरे देश मे ,दशहरे के अवसर पर रावण के पुतले का दहन किया जाता है और दशहरे को बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाया जाता हैं वहीं बस्तर के दशहरे में लाखो आदिवासी जगदलपुर में एकत्रित होकर रथ खींचते है। बस्तर का दशहरा 75 दिनों तक चलने वाला सबसे बड़ा दशहरा है जिसमें रोज नयी नयी रस्में निवर्हन की जाती है।  ऐसे ही अलग अंदाज में यहां दशहरा मनाया जाता हैं ज़िसके कारण बस्तर का दशहरा पुरे विश्व में एक अलग पहचान रखता हैं।
फोटो - भूपेन्द्र सिंह
बस्तर में विभिन्न त्योहारो को अपने अलग अंदाज में मनाने की अदभुत परम्पराये हैं ज़िससे आज भी बाहरी दुनिया अनभिज्ञ है। बस्तर में हमारे पसंदीदा त्यौहार रंग पर्व होली भी अलग अंदाज मे मनायी जाती है। 

आमतौर पर होली के मौके पर लोग रंग और गुलाल से होली खेलते है। दंतेवाड़ा में भी होली रंग-गुलाल से खेली तो जाती है, परंतु यहां दंतेवाड़ा में माई दंतेश्वरी के सम्मान में चलने वाला फागुन मेले के नवे दिन, होलिका दहन से भी जुडी एक अनोखी रस्म हैं। यहां प्रचलित एक मान्यता के अनुसार बस्तर की एक राजकुमारी की याद में, जलाई गई होली की राख और दंतेश्वरी मंदिर की मिट्टी से होली खेली ज़ाती हैं। यह अनोखी रस्म ,जौहर करने वाली राजकुमारी के सम्मान में की जाती है।
सती शिला
दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी के मुताबिक, एक राजकुमारी ने अपनी इज्जत बचाने के लिए आग में कुदकर जौहर कर लिया था. राजकुमारी का नाम तो मालूम नहीं पर प्रचलित कथा के अनुसार सैकड़ों सालों पहले बस्तर की एक राजकुमारी को किसी हमलावर ने अगवा करने की कोशिश की थी। राजकुमारी ने अपनी अस्मिता बचाने के लिये मंदिर परिसर में आग जलवाई और मां दंतेश्वरी का नाम लेते हुए आग में कूद गई। उस राजकुमारी की कुर्बानी को यादगार बनाने के लिए उस समय के राजा ने एक सती स्तंभ बनवाया जिसमे स्त्री पुरूष की बडी प्रतिमाये बनी हैं., इस स्तंभ को ही सती शिला कहते हैं।

हजार साल पुरानी इस सती शिला के पास ही,राजकुमारी की याद में होलिका दहन की ज़ाती हैं. होलिका दहन के लिए 7 तरह की लकड़ियों जिसमे ताड, बेर, साल, पलाश, बांस , कनियारी और चंदन के पेड़ों की लकड़ियो का इस्तेमाल किया जाता है। सजाई गई लकड़ियों के बीच मंदिर का पुजारी केले का पौधे को रोपकर गुप्त पूजा करता है। यह केले का पौधा राजकुमारी का प्रतीक होता है।

होलिका दहन से आठ दिन पहले ताड़ पत्तों को दंतेश्वरी तालाब (मेनका डोबरा )में धोकर भैरव मंदिर में रखा जाता है। इस रस्म को ताड़ फलंगा धोनी कहा जाता है। पास के ग्राम चितालंका के पांच पांडव परिवार के सदस्य ही होलिका दहन करते हैं. दंतेश्वरी मन्दिर में सिंहद्वार के पास इन पांडव परिवार के कुल देवी के नाम पर पांच पांडव मन्दिर भी है।

होलिका दहन के मौके पर हजारों ग्रामीण उपस्थित रहते हैं। होली जलाने के बाद लोगो में आग की लौ के साथ उड़ कर गिर रहे ,जलते ताड़ पत्रों को एकत्रित करने की होड लग ज़ाती हैं। लोक मान्यता है कि मंत्रोच्चार के बाद प्रज्वलित होली का यह जला हुआ हिस्सा काफी पवित्र माना जाता है। इसलिए लोग इसे सुख समृद्धि की उद्देश्य से ताबिज बनाकर पहनते है।

दुसरे दिन रंगोत्सव में एक व्यक्ति को फूलों से लादकर तथा होली गाली देते हुए होलिका दहन स्थल में लाया जाता हैं. यहां होली स्थल की परिक्रमा की ज़ाती हैं। परिक्रमा पश्चात लोग होली की राख का टीका एक दूसरे को लगाकर होली की शुभकामनाएं देते हैं, फिर ग्रामीण दंतेश्वरी मंदिर परिसर में मिट्टी और होलिका दहन की राख एवं टेसु को फूलो से तैयार रंग के घोल से होली खेलते हैं।
फोटो - भूपेन्द्र सिंह
इस तरह दंतेवाड़ा में एक अनोखी होली खेली ज़ाती हैं। अलग तरह की रस्मो से त्योहार मनाने का यह अंदाज बस्तर की सांस्कृतिक संपन्नता का सूचक हैं, जो यह दर्शाता है कि बस्तर के आदिवासी भी ,बाहरी दुनिया की तरह त्योहारो से न केवल परिचित भी हैं अपितु अदभुत मान्यताओ के साथ कई गुना हर्षो उल्लास एवँ भाई चारे से त्योहारो का आनन्द भी लेते हैं।



.....ओम सोनी