23 अप्रैल 2018

बस्तर का माटी तिहार

बस्तर का माटी तिहार ......!

विश्व पृथ्वी दिवस पर विशेष .....!!
बस्तर के जनजातीय समाज मे मिट्टी य़ा माटी (धरती) को भगवान माना जाता है, अपनी मां माना जाता है। धरती से मिलने वाली हर वस्तु को सबसे पहले माटी को समर्पित की जाती है। आदिवासी धरती के प्रति अपने ऋण को चुकाने के लिये , माटी के सम्मान मे उत्सव मनाता है. आज के दिन हम धरती दिवस मना रहे है इसलिये क्योकी बढ़ती जनसंख्या , अंधाधुंध वृक्षो की कटाई , धरती से प्राप्त संसाधनो का असीमित दोहन के कारण हमारी पृथ्वी विनाश की ओर अग्रसर हो रही है. पृथ्वी दिवस मनाकर हम धरती को विनाश से बचाने की मुहिम चला रहे है.



बस्तर का जनजातीय समाज आज हजारो साल से धरती को विनाश से बचाने के लिये , माटी के प्रति अपने ऋण उतारने के लिये प्रतिवर्ष माटी तिहार मनाता है. माटी तिहार के अंतर्गत मार्च से लेकर जून तक धरती मां को समर्पित त्योहार मनाये ज़ाते है. जनजातीय समाजो मे आम महुआ ईमली आदि वनोपज को सबसे पहले अपने माटी देवी को अर्पित करने के बाद ही स्वयं के लिये उपयोग किया जाता है।
माटी तिहार को बीज पूटनी य़ा बीज पंडुम भी कहा जाता है। माटी तिहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह त्यौहार सामान्यत: चैत्र माह मे मनाया जाता है। इस तिहार के लिए शुक्ल पक्ष की किसी तिथी को सभी ग्रामवासी अपने गांव की माटी देव गुडी मे एकत्रित होते है. सभी ग्रामीण बीजो (धान) को पलाश के पत्तो मे सियाड़ी की रस्सी से बांध कर पोटली (चिपटी) बना लेते है. वहीं देव गुडी परिसर मे ही एक गड्ढा खोदकर उसमे पानी डालते है. फिर उस कीचड़ वाले गड्ढे मे अपनी बीज की पोटली डाल देते है फिर माटी को समर्पित अपनी बीज पोटली को प्रसाद स्वरूप ग्रहण् करते हैं.


यह सारी पूजा माटी पूजारी के देख रेख मे, उसके निर्देशानुसार सम्पन्न होती है. माटी पुजारी एवं ग्रामीण इस पूजा के माध्यम से अच्छी फसल की कामना करते है. पूजा के बाद ग्रामीण उस बीजो की पोटली को घर के मुख्य द्वार पर बांध देते है , फसल बोने के समय उन बीजो को मिलाकर बोनी कार्य किया जाता है। कुछ अन्य जनजातीय समाज मे यह त्योहार विज्जा पंडुम के रुप में जून माह मे भी मनाया जाता है।
यहां धरती को मां मानकर इसकी आराधना की जाती है। आवश्यकता पड़ने पर हम सभी अपने प्रियजन खासकर मां की सौगंध खाते है अपनी बात का सौगंध द्वारा विश्वास दिलाते है. वहीं बस्तर मे धरती मां की सौगंध सबसे बड़ी होती है , एक बार यदि आदिवासी ने माटी किरिया कर ली मतलब उसकी बात शत प्रतिशत सही एवं विश्वसनीय होती है.


माटी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने का यह माटी तिहार हम सभी मे धरती के प्रति सम्मान एवं उसकी रक्षा का भाव जागृत करता है. पुरी दुनिया को सेव अर्थ का संदेश देता है. यह लेख कापी पेस्ट करके अपने वाल य़ा पेज पर पोस्ट ना करे , अधिक से अधिक शेयर करे !
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फोटो - संदिप बघेल जी , बस्तर गांव की माटी गुडी !

20 अप्रैल 2018

आमा तिहार

बस्तर का आमा तिहार ......!


ये आम देखकर कई लोगों का मन इसे खाने के लिये ललचा रहा होगा। आप सभी इन कच्चे हरे आम,को काटकर नमक मिर्ची लगाकर खाने के लिये मन ही मन सोच रहे होगें। दोस्तों आज हम बात करते है बस्तर के आमा तिहार की।
बस्तर में इन दिनों नदी नालों के किनारे आम के पेड़ लगाने वाले अपने पूर्वजों को याद कर आमा तिहार मनाया जा रहा है। इस आमा तिहार द्वारा पेड़ लगाकर सदा के लिये अमर होने की बात बस्तर में अक्षरशः सिद्ध हो रही है।
अपने पूर्वजों के सम्मान में आमा तिहार जैसा उत्सव आपको और कहीं भी दिखाई नहीं देगा। आमा तिहार में किसी एक आम पेड़ के नीचे सभी ग्रामीण एकत्रित होते है। उस पेड़ की पूजा करते है। फिर पहली बार उस पेड़ से आम तोड़े जाते है। वहीं पूजा स्थल पर महिलायें आम की फाकियां बनाकर इसमें गुड़ मिलाती है। फिर सभी को आम की फांकियां प्रसाद स्वरूप वितरित की जाती है।


बस्तर मे ऐसी परंपरा है कि जब तक आम, महुआ या ईमली जैसे फलों के तोड़ने लिये ऐसे तिहार (त्यौहार) ना मना लिया जाये तब तक पेड़ो से इन फलों को तोड़ा नहीं जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि बिना पूजा किये फल तोड़ने से ग्राम देवता नाराज हो जायेंगे। महामारी फैल जायेगी। सारे पशु मर जायेंगे। इसलिये पहले पूर्वजों को फल अर्पित करने एवं ग्राम देवता की पूजा के बाद ही पेड़ो से फल तोड़ा जाता है।

आमा तिहार में पूर्वजों की श्राद्ध करने की पंरपरा भी यहां प्रचलित है। गांव के सभी लोग किसी नाले के पास एकत्रित होकर पूर्वजों के याद में वहां आम की फांकियां नाले में विसर्जित करते है। फिर वहां जामून की लकड़ी गाड़कर उसके नीचे धान से भरे दोने रखते है। उन दोनो पर दीपक जलाये जाते है। फिर अपने पितरों को याद करते हुये सुख समृद्धि की कामना करते है।
बस्तर के विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग जनजातीय समाजों द्वारा विभिन्न तिथियों को आमा तिहार मनाते है। सामान्यतः आमा तिहार के लिये अक्षय तृतीया अंतिम दिन होता है। इस दिन जो ग्रामीण आमा तिहार नहीं मना पाते है वे पुरे साल भर आम नहीं खा पाते है। आमा तिहार को आमा जोगानी के नाम से भी जाना जाता है।


बस्तर का जनजातीय समाज प्रकृतिपूजक है। प्रकृति प्रदत्त हर वस्तु का सम्मान करता है, उसकी पूजा करता है। बिना भगवान की अनुमति के बिना उसका उपभोग नहीं करता है। बस्तर के ऐसे प्रकृतिपूजक जनजातीय समाज आपको और कहीं देखने को नहीं मिलेगें।
इस आमा तिहार की यह पेंटिंग लतिका वैष्णव जी ने बनाया है। लतिका जी बस्तर की प्रसिद्ध लोक चित्रकार है। उन्होने बेहद ही सुंदर रंगीन चित्रों से बस्तर के आमा तिहार को दर्शाया है।
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19 अप्रैल 2018

"गढ़" और "गढ़िया"

"गढ़" और "गढ़िया" ......!
विश्व विरासत दिवस पर विशेष !
मैने जोधपुर के मेहरानगढ़ किले को कई बार देखा है। आप में से कुछ लोगो ने इसे जरूर देखा होगा। कितना विशाल , भव्य एवं अभेद्य सुरक्षित किला है यह. यह किला विश्व का सबसे ऊँचा किला है. इसे जीतना हर किसी के लिये संभव नही था.
इस किले को देखकर मुझे प्राचीन बस्तर मे राजाओ के आवास को जानने की इच्छा होती है. हालांकि बस्तर से जुडी किताबो मे यहां के किलो य़ा महलो की चर्चा कम ही मिलती है।



लगभग दो हजार साल पहले बस्तर मे आदिवासी कबीलो का उल्लेख मौर्य राजाओ के लेखो मे मिलता है. वे आदिवासी आज की तरह ही जंगलो मे छोटे छोटे समुहो मे रहा करते थे. सातवाहनो के समय कमोबेश यही स्थिती रही होगी. उसके बाद तीसरी सदी से लगभग आठवी सदी तक बस्तर मे नल वंश के राजाओ ने राज किया. नल राजाओ के महल पक्की इंटो के बनते थे. जैसे हम आज के पक्के मकान मे रहते है लगभग वैसे ही उनके महल होते थे. गढधनोरा मे नल राजाओ के टीलो से निकले आवासीय संरचना यही संकेत देते है. मन्दिर , घर सब इंटो से ही बनते थे. छत घास फुस की होती थी. नलो के अधिकांश बस्तियां ऊँचे मैदानी क्षेत्र मे य़ा नदी से घिरे टापू पर होती थी. किंतु आक्रमण की दशा मे ज्यादा सुरक्षित नही होती थी.


अब बात करते है नागो की. इनकी शासन अवधि 760 ई से 1324 ई तक थी. इन्होने पुरे राज्य को 100 से अधिक गढो मे बांट दिया. ये गढ़ प्राकृतिक रुप से सुरक्षित होते थे. चारो तरफ से ऊँचे पहाड़ो एवं गहरी खाईयो से घिरे हुए होते थे. सिर्फ चुनिन्दा कुछ गढ़ो मे ही पत्थरो के किले बने हुए थे. किले की दिवारे 20 फीट तक ऊँची होती थी. इन किलो के चारो तरफ खाईया होती थी. किले के दीवारो के अन्दर पत्थरो के बने बने छोटे छोटे कमरे होते थे. गढ़ की प्राकृतिक सुरक्षा दिवारे ऊँची पहाड़िय़ां होती थी जिस पर धनुर्धर तैनात रहते थे.
मेहरानगढ़ के समान ऊँचे किले बस्तर मे कहीं भी नही है. हाँ कांकेर के गढ़िय़ा पहाड पर बना किला बस्तर का सबसे ऊँचाई पर बना किला हो सकता है। परंतु यह किला ना होकर सिर्फ चार दिवारी थी जो कि अब पुरी तरह से नष्ट हो गई , बचा है सिर्फ उसका द्वार.

दरअसल बस्तर को ऐसे मेहरानगढ़ जैसे किलो की ज़रूरत ही नही पड़ी क्योकि बस्तर की भौगोलिक स्थिती इसे एक मजबुत प्राकृतिक किला बनाती है. यहां मैदानी क्षेत्र का अभाव है. चारो तरफ ऊँची पर्वत चोटिय़ां , सैकड़ो फीट गहरी खाईया ये बस्तर की प्राकृतिक सुरक्षा दीवारे है. इसे पार कर पाना किसी भी हमलावर के वश की बात नहीं थी.उनके लिये यहां का मौसम भी प्रतिकूल होता था. इन प्राकृतिक सुरक्षा दिवारों को पार करने मे ही शत्रु सेना विफल हो जाती थी , यदि पार हो भी गई तो बस्तर मे प्रविष्ट होते ही उन पर तीरों की बौछार हो जाती थी. इन प्राकृतिक रुप से सुरक्षित गढ़ो के कारण नाग लम्बे समय तक बस्तर मे राज करने मे सफल रहे.
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17 अप्रैल 2018

दीमक की बांबी

बुढ़ादेव के रूप में पूजी जाती है दीमक की बांबी.......!


दीमक की बांबियों के बारे में हम सभी जानते है। लेकिन बहुत कम लोगों ने 10 फिट की उंचाई वाले दीमक की बांबियों को देखा होगा। बस्तर के जंगलों में दीमक की बड़ी बड़ी बांबियां आज भी देखने को मिलती है। कुछ बस्तियों के आसपास भी ऐसी बड़ी बांबिया आज भी दिखाई पड़ती है। यहां के आदिवासी प्रकृति पूजक है। इसका प्रमाण उनके विभिन्न धार्मिक उत्सवों में देखने को मिलता है। 

अपनी श्रद्धा के कारण दीमक की बांबी को भी देव मानकर पूजा की जाती है। यहां के जनजातीय समाज में इन दीमक की बांबियों के बुढ़ादेव मानकर पूजा की जाती है। ग्रामीण इनकी पुरी सुरक्षा करते है। इनके इस धार्मिक विश्वास के कारण इन बांबियों में रहने वाले नाग सर्पो की सुरक्षा होती है। यहां के स्थानीय भाषा में इन बांबियों को डेंगुर कहा जाता है। इन बांबियों को बुढ़ादेव का निवास अर्थात भगवान शिव का घर माना जाता है। हरियाली अमावस्या एवं नवाखानी में इन बांबियों की पूजा की जाती है। यहां दुध चढ़ाया जाता है। ग्रामीण इन बांबियों की सुरक्षा कर नाग देवता को बचाते है। नाग कई आदिवासियों का गोत्र भी है। इसलिये अपने गोत्रदेवता की सुरक्षा के लिये बांबियों की रक्षा करते है।  बेहद पवित्र मानने के कारण इन्हे कभी तोड़ा नहीं जाता है। 
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प्रवीर का राजतिलक

प्रवीर का राजतिलक 
बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव बस्तर को नयी दिशा देने वाले सबसे सम्मानीय व्यक्तित्व है। इनकी माता प्रफुल्लकुमारी बस्तर की पहली शासिका थी। प्रवीर के पिता प्रफुल्लचंद्र भंजदेव ओड़िसा के भंजदेव राजघराने के सदस्य थे। प्रवीर का जन्म 12.06.1929 को शिलांग में हुआ थे। ये आपस में चार भाई बहन थे। ये द्वितीय संतान एवं ज्येष्ठ पुत्र थे। 1936 ई में इनकी माता प्रफुल्लकुमारी की असमय एवं रहस्यमय परिस्थितियों में लंदन में ही मृत्यु हो गई थी, उनके निधन के बाद लंदन में ही, महारानी के अंत्येष्ठि से पूर्व ही प्रवीर का औपचारिक रूप से राज तिलक कर दिया गया। उस समय प्रवीर महज सात वर्ष के ही थे।
21 अप्रैल को अंग्रेज अधिकारी डाॅ मिशेल प्रवीर को उनके भाई बहनों के साथ बस्तर ले आये। 24 अप्रैल 1936 को राजगुरू के द्वारा पुरे रीति रिवाजों के साथ प्रवीर की ताजपोशी की गई। ताजपोशी में हजारो आदिवासी, जमींदार, मांझी, चालकी, अंग्रेज अधिकारी आदि लोगो उपस्थित थे। बेहद ही भव्य समारोह का आयोजन कर प्रवीर को बस्तर के राजगददी पर बैठाकर महाराजा घोषित किया गया। प्रवीर की अल्पव्यस्कता में रियासत का शासन एडमिनिस्टेªटर की अध्यक्षता में गठित एक समिति के द्वारा संचालित किया जाता रहा।



प्रवीर की शिक्षा दीक्षा , लालन पालन पुरी तरह से अंग्रेजी परिवेश में हुई। इनके अभिभावक के रूप में एक अंग्रेज अधिकारी गिब्सन की नियुक्ति की गई थी। राजकुमार कालेज रायपुर, इंदौर एवं देहरादुन जैसे जगहो में प्रवीर ने अपनी पढ़ाई पूर्ण की। प्रवीर को क्रिकेट एवं टेनिस खेलना बहुत पसंद था। वे एक अच्छे खिलाड़ी थे। खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन में वे भरपुर मदद किया करते थे।
प्रवीर जब अट्ठारह वर्ष के हुए और जुलाई 1947 में उन्हें पूर्ण राज्याधिकार दे दिये गये। 15.12.1947 को सरदार वल्लभ भाई पटेल ने मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर में छत्तीसगढ़ की सभी चैदह रियासतों के शासकों को भारतीय संघ में सम्मिलित होने के आग्रह के साथ आमंत्रित किया। महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने सहर्ष अपनी रियासत के विलयन की स्वीकृति देते हुए स्टेटमेंट ऑफ सबसेशन पर हस्ताक्षर कर दिये। 1.01.1948 को बस्तर रियासत का भारतीय संघ में औपचारिक विलय हो गया।
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16 अप्रैल 2018

कांगेर धारा जल प्रपात

कांगेर धारा जल प्रपात, बस्तर......! 

कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान का नाम सुनते ही हमारे मन मस्तिष्क मे तीरथगढ़ के झरने , विश्व प्रसिद्ध कुटूमसर गुफा , से जुड़ी स्मृतिय़ाँ घुमने लगती है. कांगेर घाटी पार्क मे एक बेहद शानदार झरना जिसकी जानकारी अधिकांश लोगो को नही होगी.
कांगेर धारा नाम से ही मशहुर यह झरना बेहद ही खुबसुरत है. यह झरना कांगेर नदी पर बना है. इस नदी के नाम के कारण यह राष्ट्रीय उद्यान कांगेर घाटी के नाम से जाना जाता है.

उद्यान में बहने वाली इस कांगेर नदी में तीन चरणो में बना यह छोटा झरना अपने प्राकृतिक सौंदर्य से किसी का भी मन मोह लेता है. इसकी अधिकतम ऊँचाई 30 फीट के करीब है. घने जंगल मे झरने की मधुर ध्वनि मन को बेहद प्रसन्नचित कर देती है.
चट्टानो को गहरायी से काट कर कांगेर नदी ने बहुत ही सुन्दर झरनो का निर्माण किया है. इस झरने की आवाज दो किलोमीटर की दुरी से ही सुनाई देने लगती है. घने जंगलो में यह छोटा झरना बहुत ही सुंदर पिकनिक स्पाट है.
कुटुमसर जाने वाले नाके से सिर्फ 6 किलोमीटर अन्दर पार्क मे ही है. स्वयं के वाहन से अप्रेल माह तक जाकर इसकी खुबसुरती को निहारा जा सकता है। 
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13 अप्रैल 2018

बस्तर की प्राचीन तोप बांडाबाघ बनी ओडिसा की ठकुरानी देवी

बस्तर की प्राचीन तोप बांडाबाघ बनी ओडिसा की ठकुरानी देवी.......!


रियासतकाल में बस्तर और पड़ोसी राज्य जैपोर दोनो के संबंध में कई उतार चढ़ाव आते रहे है। दोनो कभी एक हो जाते तो कभी दोनो एक दुसरे के परम शत्रु। इन दोनो राज्यों में कई बार युद्ध हुये है जिसमें दोनो की हार जीत होती रही है।  हार जीत में एक दुसरे के बहुमूल्य वस्तुओं की लूटकर ले जाने की परंपरा बेहद ही प्राचीन है।


बस्तर और जैपोर राज्य के मध्य ऐसे ही एक युद्ध होने की दंतकथा मिलती है। इस युद्ध में विजयी राज्य जैपोर ने बस्तर की दो तोपों को विजय प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गये थे। ये तोप आज देवी के रूप में पूजी जा रही है। श्रद्धा महत्वपूर्ण होती है, ना कि पूजी जानी वाली प्रतिमा या अन्य कोई प्रतीक। लोहे की प्राचीन तोप को देवी के रूप में पूजे जाने के कारण यह बात अक्षरशः सिद्ध हो जाती है। 


जैपोर राजमहल के सामने बांडाबाघ ठकुरानी देवी का मंदिर है। सामान्यतः मंदिर में प्रतिमा, फोटो को प्रतीक मानकर पूजा की जाती है। परन्तु इस ठकुरानी देवी के मंदिर में प्रतिमा के बजाय लौहे की प्राचीन तोप को देवी मानकर पूजा की जाती है। स्थानीय लोग तोप को बांडाबाघ ठकुरानी देवी के नाम से पूजा करते है। 


यहां इस प्राचीन तोप के संबंध में एक दंतकथा मिलती है। दंतकथा के अनुसार लगभग 500 साल पहले जैपोर के राजा ने बस्तर पर आक्रमण किया था। बस्तर राजा की युद्ध में हार हुई थी। जैपोर के राजा ने बस्तर राजा की दो तोप जय गोपाल और बांडाबाघ को विजय प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गये। रास्ते में जयगोपाल तोप का पहिया टूट गया , अत्यंत वजनदार होने के कारण उस तोप को सैनिको ने जैपोर के मुरूल्ल पहाड़ पर ही छोड़ दिया और दुसरी तोप बांडाबाघ को जैपोर के राजमहल के सामने रख दिया। हालांकि किस राजा के समय ये तोपें बस्तर से लायी गई थी उन्हे इसकी कोई जानकारी नहीं है।


ऐतिहासिक महत्व की इस तोप को स्थानीय निवासी देवी के रूप में पूजते है। बांडाबाघ ठकुरानी देवी , इस नाम में तोप के नाम के साथ देवी का नाम भी जुड़ा हुआ है।

बस्तर में ऐसा कभी कोई युद्ध हुआ हो जिसमें ये तोपे जैपोर ले जायी गई हो, ऐसी कोई जानकारी यहां के इतिहास में उपलब्ध नहीं है, ना ही अभी तक जयगोपाल तोप को खोजने की कोई कोशिश कभी की गई है।  

लेख - ओम सोनी
फोटो - बसंत कुमार मिश्रा के सौजन्य से। 


12 अप्रैल 2018

लोक देवताओं के आपसी संबंध

लोक देवताओं के आपसी संबंध......!


हर क्षेत्र विशेष में वहां के स्थानीय निवासियों के अपने देवी देवता होते है। प्रत्येक शुभ कार्य उनकी अनुमति से ही होते है। हर धार्मिक कार्यक्रम में लोक देवी देवता की उपस्थिति अनिवार्य रूप से होती है। 
बस्तर के जनजातीय समाज में लोक देवी देवताओं की पूजा की जाती है। प्रत्येक ग्राम में उनके देवी देवताओं का स्थान होता है। हर गोत्र के अनुसार सभी जनजातीय समाज के अपने अपने देवी देवता होते है। डंगईया, प्रतिमायें, काष्ठ स्तंभ या सिर्फ सिंदुर से सने हुये प्रस्तर लोक देवी देवताओं के प्रतीक के रूप में पूजे जाते है।



ग्राम में एक देवगुड़ी होती है जो कि देवताओं का पवित्र स्थान होती है। यह कच्चे घास फूंस या पक्के मंदिर स्वरूप में भी होती है। इन्हे देवगुड़ी या पंडवाल भी कहते है। प्रत्येक ग्राम के देवता की उत्पत्ति से संबंधित लोक कथाये होती है।
गांव में होने वाले हर शुभ कार्य एवं धार्मिक उत्सव इनकी सहमति एवं आराधना से ही संपन्न होता है। प्रत्येक वर्ष देवताओं के सम्मान में जात्रा एवं मंडईयां आयोजन की जाती है। किसी भी गांव में होने वाले मेले में आसपास के सभी लोक देवता शामिल होते है। मुख्य पुजारी उनका प्रतीक लेकर मेले मे स्वयं जाता है। मेले में उस ग्राम के देवता की तरफ से अन्य ग्रामों के देवताओं को निमंत्रण भेजा जाता है। कई मेलों में तो देव की उपस्थिति बेहद ही अनिवार्य होती है उनके आगमन के बिना मेला होता ही नहीं है। मेले में नाच गाना उत्सव होता है। मेले के बाद सभी देवी देवताओं को ससम्मान विदाई दी जाती है।
आदिवासी मान्यताओं मेंलोक देवताओं के आपसी संबंध भी हम मनुष्यों की तरह ही होते है। बीजापुर में अभी कुछ दिनों पूर्व चिकटराज मेला संपन्न हुआ है। चिकटराज बाबा बीजापुर क्षेत्र के लोक देवता है। चिकटराज बाबा के चार भाई है। इनमें सबसे छोटे भाई कोंडराज बाबा बीजापुर, बमड़ा बाबा चिन्नाकवाली, पोतराज चेरपाल एवं कनपराज गोंगला ग्राम के देव है। इन पांचो भाईयों के पिता धर्मराज एवं माता धूरपूता देवी पुजारी कांकेर में विराजित है। वे वहां के देव है। इस प्रकार लोक देवी देवताओं के आपसी संबंध होते है। 


मां दंतेश्वरी की कई बहने है जो कि विभिन्न ग्रामों में विराजित है। नंदराज (बैलाडिला पर्वत पर विराजित ) मां दंतेश्वरी का बेटा है। भांसी के हुर्रेमारा मां दंतेश्वरी के दामाद है। हुर्रेमारा भांसी में अपनी पत्नी मावोलिंगों के साथ विराजित है। मां दंतेश्वरी (सास) और हुर्रेमारा (दामाद) की आपस में बनती नहीं है। दोनो अब तक एक दुसरे से नाराज है। यहां की आदिवासी मान्यताओं में भैरम बाबा को मां दंतेश्वरी के पति माना जाता है।

आधुनिक समाज की तरह लोक देवताओं के भी आपसी रिश्ते नाते है। इनका पुरा परिवार होता है जिसके विभिन्न सदस्य अलग अलग ग्रामो मे पूजे जाते है। ये हमारी तरह लड़ते है, नाराज होते है, एक दुसरे को मनाते है। एक दुसरे के उत्सवों में सम्मिलित होते है। यहां के लोकदेवताओं की कहानियां बेहद ही रूचिपूर्ण होती है। इन्हे जितना समझो उतने ही उनके रिश्ते नाते एवं अदभुत कथायें जानने को मिलती है।
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11 अप्रैल 2018

बस्तरिया ईमली

बस्तरिया ईमली......!

बस्तर के आदिवासियों के आय का सबसे प्रमुख श्रोत वनोपज ही है। वनों से खाद्य एवं दैनिक उपयोगी में जरूरी चीजे वनोपज के रूप में बहुतायत में प्राप्त होती है। महुआ, तेंदुपत्ता, लाख, चार, टोरा, ईमली आदि वनोपज को ग्रामीण एकत्रित कर बाजारो में बेचने के लिये लाते है जिससे उन्हे अच्छी खासी आमदनी हो जाती है।


आज हम बात करते है ईमली की। ईमली का नाम सुनते ही कईयों के मुंह में पानी आ गया होगा। खटटी खटटी मीठी मीठी ईमली किसे अच्छी नहीं लगती है। बस्तर में ईमली का जबरदस्त पैदावार होती है। यहां घने जंगलो में इमली के लाखों पेड़ है जिनसे प्राप्त ईमली पुरे देश दुनिया में भेजी जाती है। बस्तर की जलवायु ईमली के लिये फायदेमंद है जिसके कारण हर साल टनों ईमली का उत्पादन एवं व्यापार बस्तर में होता है।


अपने रिकार्ड पैदावार के कारण बस्तर का जगदलपुर एशिया का सबसे बड़ी ईमली मंडी के नाम से जाना जाता है। ग्रामीण अपने गांवों में ईमली के पेड़ों को विशेष संरक्षण करते है। गर्मी के शुरूआती दिनों में इमली की आवक चालू हो जाती है। आसपास के गांवो में लगने वाले हाट बाजारो में ग्रामीण टोकने या बोरो में भर भरकर ईमली बेचने के लिये आते है। यहां पर गल्ला व्यापारी होते है जो इन ग्रामीणों से उचित मूल्य पर ईमली खरीदते है। ये गल्ला व्यापारी फिर आगे दुसरे व्यापारियों को ईमली बेचते है।


जगदलपुर में सारे संभाग की ईमली एकत्रित होती है फिर यहां से दक्षिण एवं उत्तर भारत के राज्यो में इमली की सप्लाई होती है। वहां से फिर पाकिस्तान , श्रीलंका, मलेशिया, वियतनाम जैसे देशो में यहां की ईमली निर्यात की जाती है। बस्तर की ईमली की गुणवत्ता बेहद अच्छी होने के कारण विदेशो मे इसकी बहुत मांग है।
इमली का उपयोग एवं इसके गुण तो आप सभी जानते ही है। अच्छी गुणवत्ता की ईमली से कैंडी भी बनती है। बस्तर की ईमली आकार में बड़ी और भूरे रंग , गुदेदार एवं चटपटी स्वाद के कारण बेहद ही लोकप्रिय है।

10 अप्रैल 2018

लुप्त होती तुंबा संस्कृति

लुप्त होती तुंबा संस्कृति......!

प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं के कारण जंगल में जीवन जीने में आसानी होती है। बस्तर में यहां के आदिवासियों के जीवन में प्रकृति का सबसे ज्यादा योगदान रहता है। जहां आज हम प्लास्टिक, स्टील एवं अन्य धातुओं से बने रोजमर्रा की वस्तुओं का उपयोग करते है वहीं बस्तर में आज भी आदिवासी प्राकृतिक फलों , पत्तियों एवं मिटटी से बने बर्तनों का ही उपयोग करते है।

इन प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं में तुम्बा हर आदिवासी के पास दिखाई पड़ता है। दैनिक उपयोग के लिये तुम्बा बेहद महत्वपूर्ण वस्तु है। बाजार जाते समय हो, या खेत में हर व्यक्ति के बाजु में तुम्बा लटका हुआ रहता है। तुम्बे का प्रयोग पेय पदार्थ रखने के लिये ही किया जाता है। इसमे रखा हुआ पानी या अन्य कोई पेय पदार्थ सल्फी , छिन्दरस , पेज आदि में वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ता है। यदि उसमे सुबह ठंडा पानी डाला है तो वह पानी शाम तक वैसे ही ठंडा रहता है। उस पर तापमान का कोई फर्क नहीं पड़ता है और खाने वाले पेय को और भी स्वादिष्ट बना देता है। खासकर सोमरस पाने करने वाले हर आदिवासी का यदि कोई सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी है तो वह है तुंबा। तुंबा में अधिकांशत सल्फी, छिंदरस, ताड़ी जैसे नशीले पेय पदार्थ रखे जाते है। तुंबे के प्रति आदिवासी समाज बेहद आदर भाव रखता है। माड़िया समाज की उत्पत्ति में डडे बुरका का सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी तुंबा ही था। जब धरती पर चारो तरफ जल ही जल था तब डडे बुरका तुंबे पर ही तैर रहे थे।


तुम्बा को स्थानीय बोली में बोरका भी कहा जाता है। तुम्बा लौकी से बनता है। इसको बनाने के लिये सबसे गोल मटोल लौकी को चुना जाता है ज़िसका आकार लगभग सुराही की तरह हो। ज़िसमे पेट गोल एवं बडा और मुंह वाला हिस्सा लम्बा पतला गर्दन युक्त हो। यह लौकी देशी होती है। हायब्रीड लौकी से तुम्बा नहीं बन पाता है। उस लौकी में एक छोटा सा छिद्र किया जाता है फिर उसको आग में तपाकर उसके अन्दर का सारा गुदा छिद्र से बाहर निकाल लिया जाता है।
लौकी का बस मोटा बाहरी आवरण ही शेष रहता है। आग में तपाने के कारण लौकी का बाहरी आवरण कठोर हो जाता है। उसमे दो चार दिनो तक पानी भरकर रखा जाता है ज़िससे वह अन्दर से पुरी तरह से स्वच्छ हो जाता है। यह तुंबा बनाने का यह काम सिर्फ ठंड के मौसम में किया जाता है। ज़िससे तुम्बा बनाते समय लौकी की फटने की संभावना कम रहती है।
तुम्बा के उपर चाकु या कील को गरम कर विभिन्न चित्र या ज्यामितिय आकृतियां भी बनायी जाती है। बोरका पर अधिकांशतः पक्षियो का ही चित्रण किया जाता है। आखेट में रूचि होने के कारण तीर धनुष की आकृति भी बनायी जाती है। इन तुम्बों की सहायता से मुखौटे भी बनाये जाते है। इन मुखौटो का प्रयोग नाटय आदि कार्यक्रमों मे किया जाता है। तुम्बे को कलात्मक बनाने के लिये उस पर रंग बिरंगी रस्सी भी लपेटी जाती है। तुंबे से विभिन्न वाद्ययंत्र भी बनते है।तुम्बा आदिवासियों की कला के प्रति रूचि को प्रदर्शित करता है।

पहले आदिवासियो के पास पानी या किसी पेय पदार्थ को रखने के लिये कोई बोतल या थर्मस नहीं होता था तब खेतो में या बाहर या जंगलो में पानी को साथ में रखने के लिये तुम्बा का ही सहारा था। अब आधुनिक मिनरल बोतलो ने तुम्बा का स्थान ले लिया है ज़िससे अब तुम्बा कम देखने को मिलता है। पहले किसी भी साप्ताहिक हाट, मेले आदि में हर कंधे मे तुम्बा लटका हुआ दिखाई पड़ता था अब इसकी जगह प्लास्टिक के बोतलो ने ले ली है। वह दिन अब दुर नहीं जब हमें तुंबा संग्रहालयों में सजावट की वस्तु के रूप में दिखाई देगा । इस तुंबा संस्कृति का संरक्षण आवश्यक है। आने वाली पीढ़ी को भी तुंबा बनाने एवं इसके उपयोग की जानकारी होनी चाहिये। 
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9 अप्रैल 2018

बस्तर की पहचान - गौर माड़िया नृत्य

बस्तर की पहचान - गौर माड़िया नृत्य .....!



दण्डामी माडिया जनज़ाति का यह नृत्य अब बस्तर की पहचान बन चुका है.इसकी विशेषता यह है कि अन्य नृत्यों की तुलना में अधिक खुशी के साथ नृत्य किया जाता है।



गौर नृत्य बस्तर के नृत्यों में एक बेहद ही लोकप्रिय लोक नृत्य है। हर उत्सव , आयोजन मे यह नृत्य किया जाता है। गौर नृत्य दक्षिण बस्तर के माड़ियो में बहुत लोकप्रिय है.
इस नृत्य मे गौर के सिंगो से मुकुट तैयार किया जाता है. मुकुट में सामने कौड़ियो की लड़िया लटकती रहती है. जो कि चेहरे को ढ़क देती है. भृंगराज पक्षी के पंखो को मुकुट में लगा कर सजाया जाता है. पुरूष गले में बडा ढ़ोलक बजाते हुए मदमस्त होकर गौर की तरह सिर को हिलाते हुए नाचते है.


इस नृत्य मे महिलाये भी भाग लेती है.वे लोहे की छड़ी ज़िसे तिरड्डी कहते है उसे ज़मीन पर पटकते हुए पुरूषो के साथ कदम से कदम मिलाकर नृत्य करती है.
मैं अक्सर यह नृत्य देखते रहता हूँ. किसी भी धार्मिक कार्यक्रम य़ा विशिष्ट व्यक्ति के आगमन पर इनके समुह नृत्य करते है. ढोल की जबरदस्त थाप , तिरड्डी की छनछनाहट , घूंघरू की मधुर आवाज मन को आनन्द से भाव विभोर कर देती है. यह नृत्य बिलकुल शाही पन का अहसास कराता है.

7 अप्रैल 2018

बस्तर महारानी - प्रफुल्ल कुमारी

बस्तर की प्रथम महिला शासिका - महारानी प्रफुल्ल कुमारी

बस्तर के इतिहास में यदि किसी महिलाशासिका का उल्लेख मिलता है तो वे महारानी प्रफुल्लकुमारी। इसे पूर्व नागों एवं नलों के समय कोई स्त्री राजसिंहासन पर आरूढ़ हुई ऐसी कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। यद्यपि बस्तर के नाग इतिहास में राजकुमारी मासक देवी का वर्णन मिलता है परन्तुउनका जारी किया हुआ शिलालेख से उनके शासक होने की कोई जानकारी प्राप्त नहीं होतीहै। अतः औपचारिक रूप से महारानी प्रफुल्ल कुमारी को ही बस्तर की प्रथम महिला शासिका होने का गौरव प्राप्त है। बस्तर में सन से 1324 ई से 1947 ई तक वारंगल से आये काकतीय चालुक्य राजवंश का शासन था। इस राजवंश मे 1947 ई तक कुल 20 राजा हुये जिसमें 19 पीढ़ी में महारानी प्रफुल्ल कुमारी बस्तर की प्रथम महिला शासिका के रूप में राजसिंहासन पर आसीन हुई।


महारानी प्रफुल्ल कुमारी राजा रूद्रप्रतापदेव की पुत्री थी। राजा रूद्रप्रताप देव की शासन अवधि 1891 ई से 1921 ई तक थी। राजकुमारी प्रफुल्ला का जन्म 1910 ई में हुआ। इनकी माता का नाम कुसुमलता था। प्रफुल्ला के जन्म के दो वर्ष बाद ही उनकी मां कुसुमलता का देहांत हो गया। प्रफुल्ला का एक छोटा भाई भी था किन्तु वह भी नवजात आयु में ही चल बसा था।
प्रफुल्ला का लालन पालन उनकी विमाता चंद्रकुमारी देवी ने किया। निःसंतान चंद्रकुमारी देवी ने प्रफुल्ला को कभी भी सौतेलेपन का अहसास नहीं होने दिया। राजकुमारी के लालन पालन में उन्होने कभी कोई कमी नहीं आने दी। इनकी शिक्षा दीक्षा के अंगेज शिक्षिकाओं की नियुक्ति की गई थी। आंग्ल संस्कृति के प्रभाव के बावजूद भी राजकुमारी में आदर्श भारतीय नारी के समस्त उच्च संस्कार थे। रानी की बालिका शिक्षा के प्रति गहरी रूचि थी। बहुत विरोध के बावजूद भी रानी ने बालिका शिक्षा के लिये विद्यालय खुलवाया था। बस्तर में सभी आदिवासी राजकुमारी के प्रति बेहद प्रेमभाव रखते थे। राजकुमारी को बस्तर में बड़े प्रेमपूर्वक बाबीधनी कहकर बुलाया जाता था।
सन 1921 में राजा रूद्र्रप्रताप देव की असामयिक मृत्यु हो गयी। उस समय राजकुमारी प्रफुल्ला की आयु महज 11 वर्ष थी। राजा की मृत्यु के बाद पुत्र के अभाव में बस्तर के राज सिंहासन पर कौन बैठेगा ऐसा प्रश्न राज्य के समक्ष उपस्थित हो गया था।
तत्कालीन दीवान विलायतुल्ला बड़े धर्म संकट में फंस गये थे। राजा की मृत्यु के बाद बस्तर के सारे आदिवासी राजमहल के सामने एकत्रित हो गये थे। वे सब बस्तर की लाडली बाबीधनी को बस्तर का राजसिंहासन सौंपना चाहते थे। आदिवासी अड़ गये कि राजा का अंतिम संस्कार तभी होगा जब राजकुमारी प्रफुल्ला सिंहासन पर बैठेगी।
       दीवान समयाभाव के कारण अंग्रेजी सरकार से संपर्क स्थापित नहीं कर पा रहे थे। कोई निर्णय न होता देखकर दीवान राजमहल को अपने हाल पर छोड़कर अपने निवास पर चले गये। उसके बाद आदिवासियों ने महज 11 वर्ष की प्रफुल्ला को राजसिंहासन बैठाकर उन्हे बस्तर की रानी घोषित कर दिया।
बाद में अंग्रेजी सरकार ने भी प्रफुल्ला को बस्तर की रानी के रूप में मान्यता दे दी। वर्ष 1922 में अंग्रेजों ने विशेष दरबार बुलाकर प्रफुल्लकुमारी को बस्तर की रानी घोषित कर दिया। 1933 ई में अंग्रेजी सरकार ने रानी की उपाधि बढ़ाकर महारानी कर दिया। रानी प्रफुल्लकुमारी अब बस्तर की महारानी प्रफुल्लकुमारी थी।
ब्रिटिश भारत में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी राजपूत कन्या को राजसिंहासन पर बैठाकर राजसत्ता सौंपी गई हो। साथ ही वे बस्तर की पहली शासक थी जिसने वायसराय से मुलाकात की थी। उन्होने वायसराय के सामने बस्तर की कई समस्याओं को रखा था। जगदलपुर का महारानी अस्पताल का नामकरण भी महारानी प्रफुल्ल कुमारी के नाम पर ही है।
महारानी का विवाह 1927 में मयुरभंज के राजपरिवार के प्रफुल्लचंद भंजदेव के साथ हुआ। इनके दो पुत्र एवं दो पुत्रियां हुई। जिसमें प्रवीरंचद्र भंजदेव बाद में बस्तर के महाराजा बने थे।
महारानी ने युरोप के कुछ नगरों का भ्रमण भी किया था। उन्होने लंदन में तीन साल से अधिक समय बिताया था। 1936 ई में महारानी की तबियत खराब होने के कारण वे अपने ईलाज के लिये पुनः लंदन चली गयी थी। जहां अपेंडिस रोग के कारण , ईलाज के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी।
बाद में अंग्रेजी सरकार के कुछ गोपनीय पत्र उजागर हुये जिसमें से महारानी की सुनियोजित तरीके से हत्या करने का संकेत मिलता है। अंग्रेजो की निगाह बैलाडिला के लौह खदानों पर था जिन्हे वे हैदराबाद के निजाम को देना चाहते थे। उनके इस कार्य में महारानी प्रफुल्ल कुमारी सबसे बड़ी रूकावट थी।
महारानी प्रफुल्ल कुमारी त्याग एवं वात्सल्य की प्रतिमूर्ति थी। वे अत्यंत उदार स्वभाव की थी। वे राज्य की प्रजा का बेहद ख्याल रखती थी। राज्य में सामाजिक सुधारों एवं स्त्री शिक्षा की सबसे बड़ी पक्षधर थी।

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सागर में शिव .....भूपालेश्वर महादेव

सागर में शिव .....भूपालेश्वर महादेव !

बस्तर में जगदलपुर सबसे बड़ा शहर है। लगभग ढाई सौ साल पहले बस्तर के काकतीय चालुक्य राजा दलपतदेव ने जगदलपुर की नींव रखकर अपनी राजधानी बनाई। महाराज दलपतदेव ने राजधानी जगदलपुर में विशाल तालाब खुदवाया जो कि महाराज के नाम पर ही दलपतसागर के रूप में प्रसिद्ध है। 


महाराज दलपत देव के चार पांच पीढ़ियो बाद बस्तर के राजा बने भूपालदेव। इनकी शासन अवधि 1842 से 1853 ई. तक मात्र ग्यारह वर्ष थी। महाराज भूपालदेव भगवान शिव के परमभक्त थे। इन्होने अपनी रानी वृंदकुंवर बघेलिन की प्रेरणा से दलपत सागर के मध्य शिवमंदिर बनवाया था। यह मंदिर उनके नाम पर भूपालेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। यह छोटा सा शिवमंदिर दलपतसागर के मध्य में एक टापू पर स्थित है। यहां सिर्फ नाव द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। 



महाराज भूपालदेव को लगभग 34 वर्ष की उम्र में पुत्र भैरमदेव के पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पुत्र प्राप्ति को भगवान शिव का आर्शीवाद मानते हुये उन्होने दलपत सागर के मध्य यह शिवमंदिर बनवाया था। लगभग 170 वर्ष से अधिक पुराना यह मंदिर बस्तर के काकतीय चालुक्य राजवंश की कुछ चुनिंदा स्थापत्य कला का सुंदर उदाहरण है। 

सन 1962 तक इस मंदिर तक पहुंचने के लिये डोंगी की व्यवस्था रहती थी। अब महाशिवरात्रि के दिन श्रद्धालुओं के लिये नगर निगम द्वारा मंदिर तक पहुंचने के लिये बोट की सुविधा रहती है। यह मंदिर एक टापू पर है। इस पर बहुत से हरे भरे वृक्ष लगे हुये है जिसके कारण यह टापू विभिन्न पक्षियों का आदर्श रहवास स्थल बन गया है। यह स्थान बेहद ही रमणीक एवं मनभावन दृश्यों से युक्त है। यह लेख किसी की बौद्धिक संपदा है। इसे कापी पेस्ट करके अपने वाल या पेज पर पोस्ट ना करें। 

6 अप्रैल 2018

नागों के भगवान विष्णु

नागों के भगवान विष्णु......!

बस्तर में 760 ई से 1324 ई तक छिंदक नागों की अलग अलग शाखाओं ने शासन किया। तत्कालीन नाग नृपतियों अपने राजत्व काल में अपने ईष्ट देव या देवी के अनेकों मंदिर बनवाये और कई प्रतिमायें स्थापित करवायी। नाग सोमेश्वर देव का राजत्व काल 1069 ई से 1108 ई तक था। नाग सोमेश्वर की माता एवं राजा धारावर्ष की पत्नी गुंड महादेवी भगवान विष्णु की परम भक्त थी। गुंडमहादेवी ने प्रसिद्ध चित्रकोट जलप्रपात के पास ही नारायणपाल ग्राम में 1111 ई में भगवान विष्णु का भव्य मंदिर बनवाया था। वह मंदिर आज भी सुरक्षित अवस्था में है। यह मंदिर बस्तर का एकमात्र विष्णु मंदिर है। मंदिर की स्थापत्य कला की चर्चा फिर कभी करेंगे।

मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की बेहद ही कलात्मक प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा एक चौकी पर स्थापित है। इसकी उंचाई लगभग दो फिट है। काले प्रस्तर से निर्मित प्रतिमा समभंग मुद्रा में प्रदर्शित है। प्रतिमा चर्तुभुजी है। जिसमें उपर के दोनो हाथों में शंख एवं चक्र धारण किये हुये है। नीचे के दोनो हाथ खंडित है। सिर पर पांच सर्प फणों वाला छत्र है। प्रतिमा के दोनो तरफ उपर की ओर विद्याधरों का अंकन है। विभिन्न आभुषणों जैसे सिर पर मुकुट,, कानों में कुंडल, गले में हार, गेवेक्य, कमर में कटिमेखला, वनमाला, पैरों पर धोती से सुसज्जित है। 
भगवान विष्णु की यह प्रतिमा नागयुगीन श्रेष्ठतम मूर्तिकला की उत्तम उदाहरण है। साथ ही साथ सोमेश्वरदेव युगीन बस्तर के वैष्णव धर्म के परम वैभव की प्रतीक है।
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5 अप्रैल 2018

दुर्लभ हो चुकी डूढूम मछली

बस्तर में दुर्लभ हो चुकी डूढूम मछली.....!


नदियों में पाये जाने वाले जलीय जीवों को खाने से शरीर रोगमुक्त रहता है, इसी मान्यता के चलते बस्तर में बहुत से जलीय जीवों को प्रमुखता से एवं बड़े शौक से खाया जाता है। इन जीवों में मछली, केकड़ा, झींगा आदि है। मछली की कई प्रजातियां बस्तर के नदियों में पायी जाती है। इनमें से एक मछली है जो देखने में बिलकुल सांप के जैसी डरावनी लगती है परन्तु रोगों के दवा के रूप में इस मछली को चाव से खाया जाता है। यह मछली है डूढूम मछली।
यह मछली ईल मछली की एक प्रजाति है। ईल मछलियों में कुछ मछलियां जोरदार करंट का झटका भी देती है। परन्तु डरिये मत इस मछली को पकड़ने से करंट का झटका नहीं लगता वरन सांप जैसी दिखने के कारण डर जरूर लगता है।
नदी नालों के खोह में रहने वाले डुढूम मछली अब विलुप्ति के कगार पर है। बरसात के दिनों में ये मछलियां अपने खोह से निकलकर नदियों के खुले पानी में आ जाती है। जिस कारण उस समय इन मछलियों का अत्यधिक शिकार किया जाता है। जिससे यह डुढूम मछली अब बस्तर में दुर्लभ हो चुकी है।



यह मछली आकार में बिलकुल सांप की तरह दिखाई देती है। पहली बार देखने से तो यह मछली कम सांप ही ज्यादा लगती है। स्थानीय स्तर पर इसे डुढूम या कोचिया मछली के नाम से भी जाना जाता है।
आम तौर पर यह मछली नदी नालों के कीचड़ भरे खोह में रहती है जिसके कारण इसे पकड़ना आसान नही होता है। बस्तर में अक्सर मछुआरे कीचड़ भरे गढडो में इन मछलियों को पकड़ते हुये दिखाई देते है।
बारिश के दिनों में नदियो में बाढ़ आने के कारण यह बाहर आती है तब बड़े पैमाने में इसको पकड़कर मछुआरे बाजार में बेचने के लिये लाते है। इसके औषधीय गुणों के कारण ग्रामीण बड़े चाव से इसे खाते है। इसे खाने वालों का मानना है कि यह मछली खाने से ह्दय रोग, टी0बी0, अस्थमा जैसे रोगों का असर कम होता है। इसके खुन का उपयोग कुछ लोग मालिश करने के लिये भी करते है।
समय रहते इन मछलियों के संरक्षण में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है, अन्यथा यह मछली बस्तर के प्राकृतिक पर्यावास से पुरी तरह से विलुप्त हो जायेगी।


मैने मावलीभाठा के पास एक सुखे हुये तालाब में कुछ स्थानीय मछुआरों में को यह डूढूम मछली पकड़ते हुये देखा तो उनमें से एक युवा पढ़ा लिखा था। वह इन मछलियों को पकड़ते हुये एक छोटा सा गाना गुन गुना रहा था। मैने उसको गाते हुये वीडियो रिकार्ड कर लिया था। उसके गाने के बोल कुछ इस तरह से है :-
डूढूम डूढूम, डगर डगर
मिले ना मुझको इधर उधर
दिन भर ढूंढता हूं नालों मे,
मिले तो मुझको खा लू मैं

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4 अप्रैल 2018

चार (चिरौंजी) के पेड़

तेजी से कम हो रहे है, चार (चिरौंजी) के पेड़ ......!

बस्तर में एक समय में चार के पेड बहुतायत में पाये जाते थे। किंतु अब धीरे धीरे इन पेड़ो की संख्या कम होती जा रही है। दरअसल यहां के स्थानीय लोग इन पेडो से चार के फल तोडने के लिये पुरे वृक्ष को ही काट देते है। अंधाधुंध वृक्षो की कटाई भी प्रमुख कारण है।


चार के पेड़ पर गोल और काले कत्थई रंग का एक फल लगता है। यह फल पकने पर मीठा और स्वादिष्ट होता है और उसके अन्दर से बीज प्राप्त होता है। बीज या गुठली का बाहरी आवरण मजबूत होता है। इसे तोड़कर उसकी मींगी निकलते है। यह मींगी ही चिरौंजी कहलाती है और एक सूखे मेवे की तरह इस्तेमाल की जाती है। चिरौंजी के अतिरिक्त, इस पेड़ की जड़ों , फल , पत्तियां और गोंद का भारत में विभिन्न औषधीय प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जाता है। चिरौंजी का उपयोग कई भारतीय मिठाई बनाने में एक सामग्री की तरह इस्तेमाल किया जाता है।



चिरौंजी एक बेहद ही महंगा मेवा है। एक समय ऐसा था कि बस्तर में आदिवासी पहले नमक के बदले चिरौंजी देते थे। नमक के भाव में चिरौंजी का मोल था। अब स्थिति बदल गयी है। बस्तर में जगदलपुर का टाकरागुड़ा ऐसा स्थान है जहां के 500 एकड़ के जंगल में 80 प्रतिशत चार के पेड़ है। वहां के ग्रामीण चिरौंजी बेचकर अच्छा खासा मुनाफा कमाते है। स्व रोजगार के लिये चार के पेड़ों का संरक्षण बेहद आवश्यक है। शासन स्तर पर इसके प्रोत्साहन के लिये योजनायें बनाकर क्रियान्वयन किये जाने की आवश्यकता है।

3 अप्रैल 2018

छेरीगुडा

छेरीगुडा .....!
दोस्तो बस्तर मे लगभग सभी आदिवासी पशुपालक है. गरीब से गरीब आदिवासी के यहां 10 - 20 जानवर तो होते ही है. सम्पन्न लोगो के पास तीन सौ तक जानवर होते हैं. जानवरो मे गाय ,बैल , भैंस बकरी प्रमुखत: से पाले ज़ाते हैं. जानवरो से दूध नही निकाला जाता है। इनका उपयोग सिर्फ कृषि कार्य मे या मांस प्राप्त करने मे होता है।
घरो के सामने ही खुले आसमान के तले य़ा फिर खुले कमरे मे जानवरो को बांधा जाता है। बकरिया भी घरो मे ऐसे ही खुले मे बांधी जाती है।

मैने सुदुर दक्षिण बस्तर मे बकरियो को बांधने का एक प्राचीन तरिका देखा. सामान्यत: लगभग बस्तर अौर अन्य सभी जगह मे बकरिया खुले मे ही बांधी जाती है। परंतु यहां दक्षिण बस्तर मे बकरियो को बांधने के लिए लकड़ीयो का एक छोटा सा घर बनाया जाता है। इन्हे छेरीगुडा कहते है.
लकडियो के बीच मे खाली जगह रहती है ताकि पर्याप्त रोशनी एवं हवा मिलती रहे. छत को घासफुस से ढक दिया जाता है। इस छेरी गुडा को जमीन से एक फीट उपर रखा जाता है। ताकि बरसात मे अन्दर पानी ना घूसे.
छेरीगुडा घर के सामने ही रखते है. इसमे बकरिय़ां हिंसक जानवरो से सुरक्षित रहती हैं. घर मे इनकी बदबू भी नही आती है. ये पुरातन पद्धति लगभग अब विलुप्त हो गई है. बस माड़ के कुछ गांवो मे बची है.

2 अप्रैल 2018

कोटपाड़ जो कभी बस्तर में था

कोटपाड़ जो कभी बस्तर में था......!

जगदलपुर से ओडिसा जैपोर जाने के मार्ग में सबसे पहला कस्बा कोटपाड़ आता है। इस कोटपाड़ का बहुत ऐतिहासिक महत्व है। इस पर अधिकार के लिये जैपोर और बस्तर राज्य में कई खुनी संघर्ष हुये है। ओडिसा का कोटपाड़ जो कभी बस्तर में था वह आज ओड़िसा में है। इसके पीछे बस्तर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख मिलता है। 
बस्तर के राजा दलपत देव ने अपनी युवावस्था में ही अपनी पटरानी के पुत्र अजमेर सिंह को ड़ोंगर का उतराधिकारी बना दिया था। दलपत देव ने जगदलपुर में अपनी राजधानी बनायी थी और दलपत सागर भी इन्ही की देन है। राजा दलपत देव की मृत्यु के बाद उसके दुसरे पुत्र दरियादेव जो कि स्वयं राजा बनना चाहता , उसने अजमेर सिंह पर चढाई कर दी ,परंतु अजमेर सिंह ने अपने मामा कांकेर के राजा से सैन्य सहायता प्राप्त कर जगदलपुर पर अधिकार कर लिया । 




दरियादेव पराजित होकर जैपौर भाग गया। सन 1774 में अजमेर सिंह ने बस्तर राज्य की सत्ता संभाली। दरियादेव ने बस्तर का राजा बनने के लिये जैपौर के राजा विक्रम देव से मित्रता कर ली। उसने विक्रम देव के माध्यम से भोंसले शासन , ईस्ट इन्डिया कंपनी के अधिकारियो से मिलकर एक गुप्त योजना बनायी। उस योजना में कुछ शर्तो के अधीन तीनो ने संयुक्त रूप से अजमेर सिंह के विरुद्ध हमला कर दिया। सन 1777 में कंपनी सरकार प्रमुख ज़ॉनसन व जैपौर की सेना ने पूर्व की तरफ से एवँ भोंसले के अधीन नागपुर सेना ने उत्तर से राजधानी जगदलपुर को घेर लिया। भीषण युद्ध में अजमेर सिंह परास्त होकर ड़ोंगर की तरफ भाग गया। दरियादेव ने अजमेर सिंह का पीछा किया और डोंगर में अजमेर सिंह को मौत के घाट उतार दिया। 

अजमेर सिंह को मारकर दरियादेव बस्तर का राजा बन बैठा। बस्तर का सिंहासन प्राप्त करने के लिये ईस्ट इंडिया कंपनी, भोंसले और जैपोर के राजा के साथ हुई संधि शर्तों के मुताबिक राजा दरियादेव ने जैपौर के राजा को कोटपाड़ , चुरूचुन्दा , पोड़ागड, उमरकोट , रायगडा ये पांच परगने सौंप दिये। 
संधि के अनुसार जैपौर के शासक यदि बस्तर आते है तो उनको य़थोचित सम्मान दिया जायेगा और बस्तर के राजा को इन परगनों में पारवहन शुल्क लेने का अधिकार रहेगा। यह पारवहन शुल्क व्यापारी माल पर लगा के देता था। ज़िसकी दर सौ बैलो के लदान पर 25 रूपये होती थी।
कोटपाड़ परगने को जैपौर राजा को सौंपने के बाद पांच वर्ष के भीतर ही सन 1782 में बस्तर राजा दरियादेव ने जैपौर नरेश पर आक्रमण कर दिया। कारण यह था कि जैपौर नरेश रामचन्द्र ने अपने पिता विक्रमदेव के द्वारा 1778 में की गई कोटपाड संधि का उल्लंघन किया था। बस्तर और जैपोर दोनो राज्य की सेनाओ में भीषण युद्ध हुआ। अंततः बस्तर की सेना विजयी हूई। दरियादेव ने पांच परगनो में से रायगड़ा , पोडागड़ ओर उमरकोट पर वापस अधिकार कर लिया। दरियादेव कोटपाड़ पर भी अधिकार करना चाहता था किंतु उसकी इसी बीच में मृत्यु हो गयी और कोटपाड़ बस्तर में वापस सम्मिलित नहीं हो पाया।
बाद में भी कोटपाड़ को बस्तर में पुनः सम्मिलित करने की कई कोशिशें की गयी परन्तु सारे प्रयास असफल हो गये। और इस प्रकार कोटपाड़ हमेशा के लिये ओडिसा में चला गया।