30 मई 2018

बस्तर का गोबर बोहारनी तिहार

बस्तर  का गोबर बोहारनी तिहार.......!

बस्तर में धान बोनी की शुरूवात के साथ गांवों में माटी तिहार बीज पंडुम और गोबर बोहरानी उत्सव प्रारंभ हो गया है। इसके चलते वनांचल में ग्रामीणों ने खेतों की पहली जुताई कर तीन दिनों तक उत्सव मनाया. सबसे पहले यहां के किसानों ने बोनी के उद्देश्य से अपने खेतों की पहली जुताई की।
साजा पेड़ के नीचे जमीन में कीचड़ कर तथा धान के बीज मिला कर धरती में बीज गर्भाधान की परंपरा पूरी की। इसके बाद गांव के सभी देवी देवताओं की आराधना की गई उसके बाद दर्जनों ग्रामीण पारद करने जंगल गए।

महिलाओं ने इनके पीठ में गोबर से अपनी हथेली का निशान बनाया । इधर जो लोग पारद में नहीं गए उनके ऊपर गोबर फेंक कर परंपरानुसार गालियां दीं गईं। इधर जंगल से मार कर लाए गए जंगली चूहों पकाकर सामूहिक भोज किया गया।
सैकड़ों किसान धान बीज लेकर देवगु़ड़ी पहुंचे । यहां ग्रामीणों द्वारा लाए गए बीज का कुछ हिस्सा भूमि में अर्पण करने के बाद शेष बीज ग्राम पुजारी ने लौटा दिया जिसे किसान अपने खेतों में छिड़क आए। वहीं बैलों को खेतों में चलाकर गो़ड़ खुंदनी रस्म पूरी की गई।
इस संबंध में किसानों का मानना है कि जब तक खेतों में बैंलों के पांव नहीं प़ड़ते कृषि कार्य शुभ नहीं माना जाता। इसके साथ ही गांवों में धान बोनी परंपरानुसार प्रारंभ हो गई।धान बोनी के इस त्यौहार को कहीं माटी तिहार तो कही बीज पंडुम कहा जाता है। वैसे ही सुकमा जिला के धुरवा क्षेत्र में इसे गोबर बोहरानी कहते हैं। अधिकतम शेयर करें।

28 मई 2018

वामन विष्णु बौने विष्णु

वामन विष्णु बौने विष्णु....!

बस्तर में एक गाँव में मुझे भगवान विष्णु के बौने स्वरूप अर्थात वामन विष्णु की यह प्रतिमा देखने को मिली है। वामन अवतार का नाम सुनते ही यह कथा याद आ जाती है कि भगवान विष्णु ने वामन रूप धर कर राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी थी। वामन अवतार के नाम सुनते ही मन मस्तिष्क में छाता और कंमडल लिये हुये भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा वाली छवि घुमने लगती है। 


लेकिन यह प्रतिमा उस छवि से काफी भिन्न है। ओम सोनी दंतेवाड़ा कहते है कि देखने में तो विष्णु की यह आम प्रतिमाओं जैसे ही है, परन्तु गौर से देखने पर इस प्रतिमा में भगवान विष्णु को बौने के स्वरूप में प्रदर्शित किया गया है। यह प्रतिमा बीच से खंडित हो चुकी है। इसमें भी विष्णु की अन्य प्रतिमाओं की तरह ही आयुधों का अंकन है। चतुर्भुजी विष्णु के हाथों में क्रमशः शंख , चक्र , गदा का अंकन हैं , प्रतिमा का एक हाथ खण्डित है। सिर पर किरीटमुकुट , कानो में कुण्डल, गले में हार वन माला, कमर में मेखला एवं पैरों में  का अंकन है। साथ में वाहन गरूड़ भी बैठे हुये है। यह इस प्रकार की बौने स्वरूप में भगवान विष्णु की यह प्रतिमा बेहद ही दुर्लभ है। इस प्रतिमा का निर्माण काल छिंदक नाग राजाओं के शासन अवधि में लगभग 11 वी सदी के अंतिम में होना चाहिये। 

कामत पोटपुर्री और 1976 का बस्तर


(Kamat's Potpourri)

कामत पोटपुर्री इंटरनेट जगत में बस्तर को सामने लाने वाली पहले चुनिंदा वेबसाईट में से एक है। आज हम इंटरनेट में ब्लैक एंड व्हाईट पुराना बस्तर देखते है यह देन कामत सर की है। कामत सर मूलत कर्नाटक के रहने वाले है। इनका पुरा नाम कृष्णानंद एल कामत है। ये पेशेवर लेखक फोटोग्राफर है। इन्होने कामत पोटपुर्री नाम की वेबसाईट बना रखी है।



उसमें इनके सभी यात्रा विवरण मय फोटो सहित उपलब्ध है। 1976 में इन्होने भी बस्तर की यात्रा की थी। अपनी बस्तर यात्रा में इन्होने बस्तर की आदिवासी संस्कृति एवं ऐतिहासिक संपदा को बड़ी खुबसुरती के साथ कैमरे में कैद किया था। उस समय उनके कैमरे ने बस्तर की जो श्वेत श्याम तस्वीरे कैद की थी वो आज कामत पोटपुर्री वेबसाईट में देखने को मिलती है।
उस वेबसाईट में बस्तर में उनके रोचक यात्रा विवरण पढ़ने को मिलते है। वे तस्वीरे अब 1976 के बस्तर को देखने एवं समझने की दुर्लभ माध्यम बन चुकी है। 1976 के बस्तर और आज के बस्तर में काफी परिवर्तन हो चुका है। तस्वीरों के देखने के बाद आप स्वयं समझ सकते है। आप भी देखिये और शेयर करके दुसरों को भी दिखाये कि 1976 में बस्तर कैसा दिखता था। अधिकतम शेयर करें। साभार कामत पोटपुर्री....!































26 मई 2018

पुरानी पीढ़ी का पुराना गहना - सूता

पुरानी पीढ़ी का पुराना गहना - सूता....!

चलो आज हम बात करते है गहनों की। गहने पहनना किसे अच्छा नहीं लगता। नर हो या नारी सभी गहने पहनना पसंद करते है। मनुष्य प्राचीन काल से आभूषण पहनने का शौकिन रहा है। अपने शरीर के हर अंगो को आभूषणों से अलंकृत करता आया है। गहने पहनने के मामले में पुरूषों की अपेक्षा महिलायें अधिक भाग्यशाली एवं आगे है। आभूषण महिलाओं के श्रृंगार है। नारी के सोलह श्रृंगार आभूषणों के बगैर पुरे नहीं होते है। शरीर के प्रत्येक अंग के लिये अलग अलग गहने होते है। सोने, चांदी, तांबे , पीतल एवं रत्न हीरे मोती जड़ित आभूषणों की लंबी श्रृंखला है जो कि सर्वप्रिय है। वैसे गले में हार, कंठाहर , मोतीहार, सिक्को की माला जैसे कई गहने पहने जाते है और प्राचीन प्रतिमाओं में भी गहनों का अंकन दिखाई देता है। गले में वैसे सोने के हार ही ज्यादा पहने जाते है परन्तु गले के कुछ गहने चांदी के ही अच्छे लगते है जैसे सूता। आज हम बात करते है गले का आभूषण सूता की। 

बस्तर अंचल और छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अधिकांशत पुरानी पीढ़ी की महिलाओं के गले में सूता पहना हुआ दिखाई पड़ता है। बस्तर अंचल में सूता बहुत पहले से प्रचलन में रहा है। ढोकरा कला में बनी स्त्री प्रतिमाओ में आप सूता का अंकन जरूर देखेंगे। यह चांदी का ठोस एवं गोलाकार होता है। जिसे सिर्फ गले में ही पहना जाता है। यह लगभग 250 ग्राम से 500 ग्राम तक या उससे भी अधिक वजनी होता है। चांदी के अलावा गिलट का भी बनाया जाता है। इसके सिरो के हुक की तरह बनाया जाता है जिसे यह मजबूती से आपस में बंधा रहता है। इस प्रकार के वजनी सूता पहनने का कारण चांदी के ठोस गहने के प्रति लगाव होता है। आर्थिक मुसीबत के समय में इन बेचकर अधिक धन भी प्राप्त किया जा सकता है। अब तो धीरे धीरे सूता भी चलन से बाहर होता जा रहा है। सिर्फ पुरानी पीढ़ी की बुढ़ी महिलाओं के गले में ही अब सुता दिखाई देता है। अब तो सूता भी बीते दिनों की बात सी हो गई है कभी गले में महिलायें सूता पहना करती थी। हमने तो सूता के बारे में बता दिया कुछ तो आप भी बताईये सूता के बारे में, फोटो हो तो जरूर शेयर करें। फोटो बसंत कुमार मिश्रा जी के सौजन्य से। 

25 मई 2018

सुकमा के जमींदार

सुकमा के जमींदार - रामराज और रंगाराज

आज हम बात करते है सुकमा की। सुकमा 2012 में दंतेवाड़ा से अलग होकर नया जिला बना है। सुकमा का नाम लगभग आप सभी ने माओवादी घटनाओं के कारण ही सुना होगा। सुकमा का अपना अलग इतिहास रहा है। सुकमा रियासत कालीन बस्तर में एक बड़ी जमींदारी रही है। चक्रकोट (प्राचीन बस्तर) में सन 1324 में अन्नमदेव ने अंतिम नाग शासक राजा हरिशचंद्र देव पर विजय पाकर बस्तर में चालुक्य वंश की नींव रखी। सुकमा राजपरिवार की अन्नमदेव से पूर्व यहां आने के कुछ सुत्र मिलते है। 


सुकमा राजपरिवार ने अन्नमदेव की अधीनता स्वीकार कर बस्तर राज परिवार से अपने वैवाहिक संबंध स्थापित किये। सुकमा राजपरिवार की कुल 09 राजकुमारियां बस्तर राज परिवार को ब्याही गई ऐसी जानकारी बस्तर इतिहास में मिलती है। रियासत काल में सुकमा को जमींदारी बना दी गई। सुकमा राजपरिवार से जुड़ी एक बेहद रोचक मिलती है वो यहां के जमींदारों के नामों के क्रमिकता। भारत की आजादी तक सुकमा के लगभग 11 पीढ़ियों में जमींदारों के नाम रामराज और रंगाराज मिलते है। यदि पिता का नाम रामराज तो बेटा रंगाराज कहलाता। 

इस संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी बस्तर के मशहुर साहित्यकार राजीव रंजन प्रसाद सर ने अपनी पुस्तक बस्तर नामा में उल्लेखित की है। बस्तरनामा के अनुसार .सुकमा के तहसीलदार ने 25 अगस्त 1908 को बस्तर रियासत के दीवान पंड़ा बैजनाथ को एक पत्र भेजा था। इस पत्र मे एक दंतकथा का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार पाँच सौ वर्ष पहले जब रंगाराज यहाँ शासक थे और उनके चार पुत्र . रामराज मोतीराज सुब्बाराज तथा रामराज थे । ये चारों बेटे राज्य को ले कर विवाद कर बैठे। विवश हो कर रंगाराज ने सुकमा जमीन्दारी को  सुकमा भीजी राकापल्ली तथा चिन्तलनार चारों हिस्सों में बांट दिया। कहते हैं राजा ने इसके बाद अपने पुत्रों को शाप दिया कि अब सुकमा की गद्दी के लिये एक ही पुत्र बचेगा और आनेवाली पीढ़ियों के केवल दो ही नाम रखे जायेंगे रामराज और रंगाराज।

 प्रस्तुत चित्र सुकमा राज परिवार के सदस्य रामराज मनोज देव एवं पुरानी तस्वीर रंगाराज वृंदावन सिंह देव की है जो कि नेट से ली गई है। लेख ओम सोनी। अधिक से अधिक शेयर करें। 

24 मई 2018

छिन्द में छुपा है बस्तर

छिन्द में छुपा है बस्तर.....!

बस्तर में लगभग सब जगह छिन्द के पेड़ आपको दिखाई देंगे। यह खजुर की पेड की ही एक उप प्रजाति है। किन्तु खजुर से अलग है। यह पेड़ पांच फीट से चालीस फीट तक का ऊँचा होता है। अप्रेल के अंत में इन पेडो पर गुच्छो में फल लगने लग जाते है। बस्तर में इस फल को छिन्दपाक कहा जाता है। अभी पुरे बस्तर के छिन्द पेडो में हरे हरे छोटे छोटे छिन्दपाक लगे हुए है। ये फल मई माह के अंत तक पक जायेंगे।

फल लगने से लेकर पकने तक ये फल तीन बार अपना रंग बदलते है, शुरूआत में हरा , मध्य में स्वर्ण की तरह पीला , और पकने पर भूरे कथ्थई रंग के हो जाते है। अभी कहीं कहीं छिन्द के फल पीले हो चुके है , जब सूर्य की रोशनी इन पीले छिन्द के गुच्छो पर पड़ती है तब ये फल सोने से बने फल जैसे लगते है। कहीं कहीं छिन्द पाक पक कर बाजारो में आ चुके है.। यह मीठा एवं खजुर की तरह होता है पर खजुर से भिन्न होता है। खजुर का आकार बड़ा होता है इसका आकार छोटा होता है। सुखने पर इसका खारक नहीं बनता है। छिन्द पाक को खाने से पानी प्यास बहुत लगती है। इसे सुखा कर भी रखा जाता है ताकि वर्ष भर खाया जा सके।
छिन्द के पेडो से फल के अतिरिक्त और भी एक चीज मिलती है वो है इसका रस। छिन्द के पेडो से रस निकाला जाता है जो की हलके नशे के लिये पीया जाता है। बस्तर की आदिम जनजाति का प्रकृति से बेहद गहरा रिश्ता है। यहां की वन संपदा यहां के जनजाति के जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। छिन्द के रस से जहां एक तरफ ह्ल्का नशा होता है वही दुसरी तरफ इसकी सीमित मात्रा स्वास्थ्य के लिये भी लाभदायक होती है। आदिवासियो में छिन्द के पेड से रस निकालने के लिये एक ही व्यक्ति नियत होता है सिर्फ वही व्यक्ति छिन्द का रस निकालता है। रस निकालने से पहले अपने देवता की पूजा की जाती है , उनका स्मरण करने के बाद ही रस निकालने की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है।

छिन्द के पेड में पत्ते कांटेदार नुकीले होते है जो की पेड के शीर्ष में ही होते है। छिन्द के पेडो से रस निकालने के लिये उपर के पत्तो के भाग में नीचे एवं पेडो के तने के सबसे उपर इन दोनो के मध्य बडे चाकु से छिलाई की जाती है ज़िस कारण वहां उपर फलो तक जाने वाला रस छिलाई वाले जगह से रिसने लगता है वहां एक हंडी बांध दी जाती है ज़िसमे छिन्द का रस एकत्रित होने लगता है। मटके से समय समय पर रस निकालकर पीया जाता है।
रस निकालना भी आसान काम नहीं है 40 फीट ऊँचे पेड पर ऐसे ही चढना या बांस के सहारे चढने में बेहद जोखिम का कार्य है। छिन्द रस निकालने के चक्कर में कई लोगो ऊँचाई से गिर कर घायल हुए है। ताजा रस ही पीने में अच्छा लगता है, बासी रस नुकसान दायक है। अधिकतर सुबह या शाम को ही पेड में लटके मटको से रस निकाला जाता है। साल में वर्षा काल को छोड कर सब समय में रस निकाला जाता है. गर्मी के दिनो में इसकी मांग ज्यादा रहती है।
छिन्द के रस का व्यावसायिक उत्पादन ज्यादा होने लगा है एक गिलास दस से बीस रूपये में मिलता है और एक अच्छे पेड से 5 हजार तक की आमदनी हो जाती है। किंतु एक बार रस निकालने के बाद छिन्द के पेड से दुबारा रस नहीं मिलता और ना ही उसमे फल लगता है.
छिन्द के रस से गुड भी बनाया जाता है जो की बेहद अच्छा होता है ,यहां दंतेवाड़ा में शासन के द्वारा छिन्द के रस गुड बनाये जाने को प्रोत्साहन भी दिया जाता है ज़िससे कई किसान लाभान्वित हो रहे है।
छिन्द का बस्तर से शुरू से ही गहरा नाता है. यह मात्र एक संयोग ही है बस्तर में नौ वी सदी से तेरहवी सदी तक शासन करने वाले , ज़िनके बनाये मन्दिर , तालाब आज बस्तर की एतिहासिक पहचान है उस छिन्दक नागवंश एवं छिन्द पेड में आज नाम की साम्यता दिखाई देती है।
वही दुसरी ओर बस्तर में बहुत से गांवो के नाम में छिन्द का होना भी बस्तर की एक अनोखी विशेषता है। भले ही गांव का नाम छिन्दनार हो या छिन्दगांव , या छिन्दगढ़ , छिन्दबहार हो या छिन्दगुफा , इन सबमे छिन्द नाम जुडा का होना भी बस्तर का छिन्द से गहरे नाते को दिखाता है। छिन्द में छूपा हुआ बस्तर है। लेख ओम सोनी। कापी पेस्ट ना करें । अधिक से अधिक शेयर करें। फोटो ओम सोनी, राज शर्मा , हयुमन्स आफ गोंडवाना।

खपरा कहते है इसे


खपरा कहते है इसे ......!


दोस्तो यह खपरा है , यह कच्चे घर की छत है. इसे कवेलू भी कहते है. बस्तर मे आदिवासी खुद ही खपरा बनाते है और घरो की छत मे उपयोग करते है. खपरा बनाने के लिये लकड़ी के सांचे होते है, उन सांचो मे अच्छी तरह की चिकनी मिट्टी को खपरा का आकार देकर सुखा दिया जाता है। फिर उन कच्चे खपरो को आग मे पकाया जाता है। फिर तैयार खपरो को छत मे लगाया जाता है। 





खपरो की छत वाले घर बेहद ठंडे एवँ गर्मी के लिये अनुकुल होते है. अब तो खपरे वाले घर भी टिन य़ा कांक्रीट की पक्के छत वाले घरो मे तब्दील होते जा रहे हो. बस्तर मे गांवो मे अधिकांशत घर टिन की छत वालो मे परिवर्तित होते जा रहे है. जब खपरे वाली छत ही नही होगी तो खपरे कौन बनायेगा ?

वेवरी : बेवरी : विवर

वेवरी : बेवरी : विवर
#Water_hole(pit)_in_the_River

जहाँ नदी का बहाव होता है, वहीं के लोग यह जानते हैं कि वेवरी क्या होती है ! प्रकृत पानी को प्रवाह क्षेत्र में ही गड्ढा बनाकर पाना और पीना। यह गड्ढा वेवरी है।
लम्बे काल तक जिस नदी में पानी बना रहे और जिसमें बालू का बिछाव हो, वहाँ वेवरी सुगमता से बन जाती है। हथेलियों से रेत हटाई और विवर या छेद तैयार, कुछ ही देर में धूल नीचे जम जाती है और पानी साफ़ हो जाता है। यह कपड़छन की तरह वालुकाछन पानी होता है। इसके अपने गुणधर्म है। नदी में कपड़े आदि धोते और दूसरे काम करते समय प्यास लगने पर पानी वेवरी से ही सुलभ होता और मुंह लगाकर खींचा जाता या फिर करपुट विधि (हाथों को मिलाकर) पिया जाता। एक वेवरी के गन्दी होने, अधिक पानी से बालुका के भर जाने पर दूसरी वेवरी बनाई जाती।

शायद कूप खोदने की विधि को मानव ने इसी से सीखा होगा। छोटे छेद में पानी कम होने पर मिट्टी निकलने और गड्ढे के बड़े होने ने कूप खनन करवाया एवं इसको पक्का, मजबूती देने पर विचार किया गया। ऐसे कूप से ही घरगर्त बने जो सिंधु आदि नदीवर्ती घरों में बने मिलते हैं। भविष्य पुराण में इस परम्परा की स्मृति है। वहाँ कहा गया है कि यदि कोई गोपद, विवर जैसा भी कूप बनवाता है तो उसे पुण्य मिलता है। बाद में तुलसी बाबा ने भी इस परम्परा को उदाहरण के रूप में लिया : गोपद सिंधु अनल सीतलाई।
खैर, बात जल स्रोत की है और यह भी एक पुराना प्रकार है। हम बोतल, मिनरल और सफाई सीखे लोग क्या जानते होंगे कि माँ और दादी ने नदी पर कपड़े धोते, सुखाते कितने बरस वेवरी का पानी पिया था ! मेरी बेड़च और बनास नदियां मेरी ही बनाई वेवरियां कितनी बार बहाकर ले गईं।
जेठ मास है और जल, जलस्रोत के संरक्षण का आजीवन संकल्प कर लेना चाहिए।
#श्रीकृष्ण "जुगनू"

छोटी छोटी सुखी हुई तली हुई सुक्सी

सुक्सी ....!

बस्तर मे इन छोटी छोटी सुखी हुई तली हुई मछलियो को सुक्सी कहा जाता है। नदी तालाबो से जाल के माध्यम से इन छोटी छोटी मछलियो को पकड़ा जाता है। मछलियो को धूप मे सुखाया जाता है। तेल मे तला भी जाता है। आग में भूना जाता है। फिर आदिवासी महिलाये हाट बाजार मे पत्तो के दोनो मे सुक्सी को बेचती है. 50 से 100 रूपये एक दोने के मिल ज़ाते हैं


ये सुक्सी बड़ी क्रंची एवं टेस्टी होती है. प्रोटीन से भरपुर सुक्सी को सब्जी य़ा भेंडा भाजी के साथ बनाकर खाया जाता है। आप ने भी सुक्सी ज़रूर खायी होगी . मैने तो बता दिया कुछ तो आप भी बतायेंगे ना सुक्सी के बारे मे-

23 मई 2018

बस्तर का डंडारी नृत्य

बस्तर का डंडारी नृत्य......!
बस्तर में आज बहुत से लोकनृत्य विलुप्त होने की कगार पर है। कुछ पर्व त्यौहारों के अवसर पर ऐसे विलुप्त होते नृत्य देखने को मिल जाते है। ऐसा ही एक नृत्य है जो बस्तर की धरती से आज लगभग विलूप्त होने की कगार पर है यह नृत्य है डंडारी नृत्य। दंतेवाड़ा के मारजूम चिकपाल के धुरवा जनजाति के ग्रामीणों ने आज भी इस डंडारी नृत्य को आने वाली पीढ़ी के लिये सहेज कर रखा है। यह नृत्य बहुत हद तक गुजरात के मशहूर डांडिया नृत्य से मेल खाता है। इस नृत्य में बांसूरी की धुन पर नर्तक बांस की खपचियों को टकराकर जो थिरकते है बस दर्शक मंत्रमुग्ध होकर नृत्य को एकटक देखते रह जाते हेै।




डांडिया नृत्य में जहां गोल गोल साबूत छोटी छोटी लकड़ियों से नृत्य किया जाता है। वहीं डंडारी नृत्य में बांस की खपचियों से एक दुसरे से टकराकर ढोलक एवं बांसूरी के साथ जुगलबंदी कर नृत्य किया जाता है। बांस की खपच्चियों को नर्तक स्थानीय धुरवा बोली में तिमि वेदरीए बांसुरी को तिरली के नाम से जानते हैं। तिरली को साध पाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। यही वजह है कि दल में ढोल वादक कलाकारों की तादाद ज्यादा है जबकि इक्के.दुक्के ही तिरली की स्वर लहरियां सुना पाते हैं।

कहीं कही बांस की खपचियों के जगह बारहसिंगा के सींगो का भी उपयोग किया जाता रहा है। नृत्य समूह में एक सीटी वादक रहता है सीटी की आवाज सुनते ही नृत्य करने के तरीको में बदलाव कर मस्ती के साथ नाचना प्रारंभ कर दिया जाता है। यह नृत्य आज लगभग विलूप्त सा हो गया है। दशहरे एवं दंतेवाड़ा के फागुन मेले के अवसर पर डंडारी नृत्य करते हुयेधुरवा आदिवासी दिखलाई पड़ते है। लेख ओम सोनी, मित्रों से निवेदन है कि अधिकतम शेयर करें।



18 मई 2018

मसनी घास की चटाई


मसनी घास की चटाई.....!


दोस्तों लोहंडीगुडा की यह बुढ़ी महिला चटाई बना रही है। घरों में अब ऐसी परंपरागत चटाई का स्थान प्लास्टिक के मैट ने ले लिया। यह चटाई एक तरह के घास जो स्थानीय तौर पर मसनी धास के नाम से जाना जाता है, उस घास को तोड़कर यह चटाई बनायी जाती है। इसे बोता मसनी भी कहा जाता है। 




लकड़ी के सांचे में चटाई बुनाई का कार्य किया जाता है। अब चटाई बनाने का यह काम प्लास्टिक के मैट के वजह से लगभग बंद सा हो गया है। घरों में अब मसनी घास की यह चटाई देखने को भी नहीं मिलती सब जगह प्लास्टिक की मैट ही मिलती है। यह चित्र लोहंडीगुडा की एक महिला का है जो घर में मसनी घास की चटाई बनाती है। फोटो दिया है अंकिता अंधारे जी ने।

1962 का बस्तर दशहरा

जनता के राजा - प्रवीरचन्द्र भंजदेव .....!
मित्रो प्रस्तुत चित्र 1962 के बस्तर के दशहरे का है जिसमे जनता के राजा , बस्तर के महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव जी महारानी वेदवती जी के साथ रथारूढ़ हुए थे.1961 मे महाराजा प्रवीरचन्द्र को अपदस्थ कर उनके छोटे भाई विजयचन्द्र को बस्तर का महाराजा घोषित कर दिया गया था. लाला जगदलपुरी जी अपनी पुस्तक बस्तर इतिहास एवँ संस्कृति मे कहते है कि शासन विजयचन्द्र भंजदेव द्वारा ही दशहरा मनाये जाने पर सहायता देने को राजी था. 


लेकिन विरोधी आदिवासियो के दिलो स्थापित प्रवीर के एकछत्र साम्राज्य को हिला ना सके. बस्तर भूषण Bastar Bhushan कहता है कि कभी दशहरे मे रथ पर सवार ना होने वाले प्रवीर "जनता के राजा" बनकर सपत्नीक रथ पर सवार हुए. लगभग 5 लाख आदिवासी बस्तर के कोने कोने से आकर दशहरे मे शामिल हुए. उनके लाखो समर्थक आदिवासियो ने दशहरे का खर्च उठाकर बस्तर के इतिहास में बेहद शानदार दशहरा मनाया. 1965 तक उनकी मृत्यु पर्यन्त तक सभी दशहरे बेहद शानदार ढंग से मनाये जाते रहे है. 

17 मई 2018

बांस में पकाया जाता है खाना

बांस में पकाया जाता है खाना......!

आज हम सभी स्टील के बर्तनों मंे खाना पकाते है। अब भी कहीं कहीं पूर्व समय की तरह अब भी मिटटी के बर्तनों में खाना पकाते है। पूर्व में  बर्तनों के अभाव होने के कारण जंगल में रहने वाले आदिवासी पत्तों में, जमीन खोदकर, या गर्म पत्थरों पर अपना खाना तैयार करते रहे है। खाना पकाने के लिये बांस का भी इस्तेमाल किया जाता रहा है। खोखले मोटे बांस का इस्तेमाल खाना पकाने के बर्तन के रूप में किया जाता रहा है। 



बस्तर एवं दुनिया के लगभग सभी जंगली क्षेत्रों में जहां बांस बहुतायत में पाये जाते है वहां बांस में खाना पकाने का यह तरीका प्रचलित रहा है। बस्तर के नारायणपुर के माड़ क्षेत्र एवं मध्य बस्तर के आसपास में इन खोखले बांसों में खाना पकाने की यह तरीका अब भी देखने को मिलता है। स्टील के बर्तनों की अपेक्षा मिटटी या अन्य प्राकृतिक वस्तुओं की मदद से पका खाना बेहद स्वादिष्ट होता है। 




हरे खोखले मोटे बांस को पहचान कर उसे काट लिया जाता है। अधिकांशतः उपर से काट कर उसके अंदर पानी एवं चावल डालकर जलती हुई आग में खड़ा रख दिया जाता है। या बांस को आडा कर लंबाई से काट दिया जाता है। फिर उसमें चावल डालकर पकाया जाता है। 


फिर बांस हरा होने के कारण जलता नहीं है। कुछ देर में खाना पककर तैयार हो जाता है। बस्तर में आदिम युग में खाना पकाने की यह पुरानी पद्धति अब भी चलन में है। प्रकृति प्रदत्त बांस में खाना पकाना अब भी बस्तर में प्रचलित है यह बेहद सुखद एवं आश्चर्यजनक बात है। मुझे चित्र तो नहीं मिले इसलिये प्रस्तुत चित्र नेट से लिये गये है। 

16 मई 2018

गंगा ईमली की वो मिठास

गंगा ईमली की वो मिठास......!

दोस्तों आज बात करते है अंग्रेजी ईमली की। आप सभी ने बचपन में इसे खुब खाया होगा। इसे देखकर आपके बचपन की यादें ताजा हो गई होगी। पेड़ों पर पत्थर मारकर, या बांस के सहारे तोड़ तोड़ कर बड़े चाव से यह ईमली खायी होगी। इसके लिये घर वालों से डांट भी खुब खाई होगी, मार भी पड़ी होगी। बस ऐसा ही मेरे साथ भी हो चुका है।


यह ईमली मुझे बहुत पसंद है। इसे हम गंगा ईमली भी कहते है। देखने में बिलकुल जलेबी की तरह गोल गोल होती है। पकने पर यह हरे से गुलाबी रंग की हो जाती है। इसके अंदर के गोल गोल दाने बेहद ही मीठे एवं गुदेदार होते है। वे भी सफेद एवं गुलाबी हो जाते है। बहुत ही मीठी एवं स्वादिष्ट होती है यह गंगा ईमली।


इसका पेड़ कांटो से युक्त लगभग 10-15 मीटर उंचा होता है। यह ईमली मूलत मैक्सिको , दक्षिण मघ्य अमेरिका की उपज है। मैक्सिको में तो विभिन्न व्यंजनों में इस अंग्रेजी ईमली का उपयोग किया जाता है।


यह गंगा ईमली भारत के विभिन्न क्षेत्रों के पायी जाती है। बस्तर में भी इसके बहुत से पेड़ देखने को मिलते है। खासकर मध्य बस्तर में चित्रकोट के आसपास इसके पेड़ बहुतायत में है।

हमने तो बहुत खायी है यह गंगा ईमली। आपने अब तक खायी है कि नहीं, अपने अनुभव जरूर शेयर करें।