26 मार्च 2018

महाराजा बस्तर प्रवीरचन्द्र भंजदेव .....!


महाराजा  प्रवीरचन्द्र भंजदेव – बस्तर के  महानायक !

Praveer - The Aadiwasi God !

बस्तर के लोकनायक , माटी पुजारी , बस्तर के युग पुरूष , अमर शहीद स्व. महाराज़ा प्रवीरचन्द्र भंजदेव जी की 52 वी पुण्यतिथी " बलिदान दिवस " पर शत् - शत् नमन ....श्रद्धांजलि.
प्रवीरचन्द्र भंजदेव – बस्तर के  महानायक !
रियासत काल के अंतिम शासक प्रवीर चन्द्र भंजदेव आधुनिक बस्तर को दिशा प्रदान करने वाले पहले युगपुरुषों में से एक हैं।महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी तथा प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव की द्वितीय संतान प्रवीरचन्द्र भंजदेव का जन्म शिलांग में 12.6.1929 को हुआ था। उनकी माता तथा बस्तर की महिला शासिका महारानी प्रफुलकुमारी देवी के असमय और रहस्यमय निधन के पश्चात लंदन में ही ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधियों ने अंत्येष्टि से पहले उनके छ: वर्षीय ज्येष्ठ पुत्र प्रवीरचन्द्र भंजदेव (1936 – 1947 ई.) का औपचारिक राजतिलक कर दिया। प्रवीर अट्ठारह वर्ष के हुए और जुलाई 1947 में उन्हें पूर्ण राज्याधिकार दे दिये गये। 15.12.1947 को सरदार वल्लभ भाई पटेल ने मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर में छत्तीसगढ़ की सभी चौदह रियासतों के शासकों को भारतीय संघ में सम्मिलित होने के आग्रह के साथ आमंत्रित किया। महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने अपनी रियासत के विलयन की स्वीकृति देते हुए स्टेटमेंट ऑफ सबसेशन पर हस्ताक्षर कर दिये। बस्तर रियासत को इसके साथ ही भारतीय संघ का हिस्सा बनाये जाने की स्वीकृति हो गयी।15.08.1947 को भारत स्वतंत्र हुआ तथा 1.01.1948 को बस्तर रियासत का भारतीय संघ में औपचारिक विलय हो गया। 9.01.1948 को यह क्षेत्र मध्यप्रांत में मिला लिया गया।




तारीख 18.03.66, शाम के साढे तीन बजे थे। चैत पूजा के लिये लकड़ी का बड़ा सा सिन्दूर-तिलक लगा हुआ लठ्ठा महल के भीतर ले जाया जा रहा था। कंकालिन गुड़ी के सामने परम्परानुसार इस स्तम्भ को लगाया जाना था। इस समय कहीं किसी तरह की अशांति नहीं और न ही कोई उत्तेजना।महिलाओं की संख्या चार सौ से अधिक होंगी; इस समूह में पुरुष भी थे, पूरी तरह नि:शस्त्र, जो संख्या में डेढ़ सौ से अधिक नहीं थे।

महिलाओं में अधिकांश के वदन पर नीली साड़ी थी और पुरुषों के सिर नीली पगडियाँ; यह भूषा प्रवीर नें अपने समर्थकों को दी थी जिन्हें वे मेम्बर तथा मेम्ब्रीन कहते थे; इस समय इस समूह का प्रवीर से केवल इतना ही सम्बन्ध भर था।



यह जुलूस महल के प्रमुख प्रवेश – सिंह द्वार के निकट पहुँचा ही था कि एकाएक उस पर लाठीचार्ज हो गया। इसके बाद स्थिति विस्फोटक हो गयी तथा उत्तेजित ग्रामीणों नें तीर-कमान निकाल लिये थे।इस अप्रिय स्थिति को प्रवीर के हस्तक्षेप के बाद ही टाला जा सका था। स्थिति यही नहीं थमी।25 मार्च 1966 के दिन राजमहल में सामने का मैदान आदिम परिवारों से अटा पड़ा था।कोंटा, उसूर, सुकमा, छिंदगढ, कटे कल्याण, बीजापुर, भोपालपटनम, कुँआकोंडा, भैरमगढ, गीदम, दंतेवाडा, बास्तानार, दरभा, बकावण्ड, तोकापाल लौहण्डीगुडा, बस्तर, जगदलपुर, कोण्डागाँव, माकडी, फरसगाँव, नारायनपुर.....जिले के कोने कोने से या कहें कि विलुप्त हो गयी बस्तर रियासत के हर हिस्से से लोग अपनी समस्या, पीड़ा और उपज के साथ महल के भीतर आ कर बैठे हुए थे। भीड़ की इतनी बड़ी संख्या का एक कारण यह भी था कि अनेकों गाँवों के माझी ‘आखेट की स्वीकृति’ अपने राजा से लेने आये थे।




चैत की नवदुर्गा में आदिवासी कुछ बीज राजा को देते और फिर वही बीज उनसे ले कर अपने खेतों में बो देते थे। चैत और बैसाख महीनों में आदिवासी शिकार के लिये निकलते हैं जिसके लिये राजाज्ञा लेने की परम्परा रही है।यह भी एक कारण था कि भीड़ में धनुष-वाण बहुत बड़ी संख्या में दिखाई पड़ रहे थे, यद्यपि वाणों को युद्ध करने के लिये नहीं बनाया गया था। ज्यादातर वाण वो थे जिनसे चिडिया मारने का काम लिया जाना था।इसी बीच आदिवासियों और पुलिस में एक विचाराधीन कैदी को जेल ले जाते समय झड़प हुई जिसमे एक सूबेदार सरदार अवतार सिंह की मौत हो गयी। इसके बाद पुलिस नें आनन-फानन में राजमहल परिसर को घेर लिया; आँसूगैस छोडी गयी तथा फिर बिना चेतावनी के ही फायरिंग होने लगी।



दोपहर बारह बजे तक अधिकतम आदिवासी मैदानों से हट कर महल के भीतर शरण ले चुके थे। धनुषों पर वाण चढ़ गये और जहाँ-तहाँ से गोलियों का जवाब भी दिया जाने लगा।दोपहर के दो बजे गोलियों की आवाज़े कुछ थमीं। सिपाहियों के लिये खाने का पैकेट पहुँचाया गया था।छुटपुट धमाके फिर भी जारी रहे। कोई सिर या छाती नजर आयी नहीं कि बंदूखें गरजने लगती थीं।

दोपहर के ढ़ाई बजे; लाउडस्पीकर से घोषणा की गयी –
“ सभी आदिवासी महल से बाहर आ कर आत्मसमर्पण कर दें। जो लोग निहत्थे होंगे उनपर गोलियाँ नहीं चलायी जायेंगी।“ प्रवीर ने औरतों और बच्चों को आत्मसमर्पण करने के लिये प्रेरित किया।लगभग डेढ़ सौ औरतें अपने बच्चों के साथ बाहर आयीं।
जैसे ही वे सिंहद्वार की ओर आत्मसमर्पण के लिये बढीं, मैदान में सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया। यह जुनून था अथवा आदेश...बेदर्दी से लाठियाँ बरसाई जाने लगीं।


क्या इसके बाद किसी की हिम्मत हो सकती थी कि वो आत्मसमर्पण करे? शाम साढे चार बजे एक काले रंग की कार प्रवीर के निवास महल के निकट पहुँची। प्रवीर और उसके आश्रितों को आत्मसमर्पण के लिये आवाज़ दी गयी।आवाज सुन कर प्रवीर पोर्चे से लगे बरामदे तक आये किंतु अचानक ही उनपर गोली चला दी गयी, गोली जांघ में जा धँसी थी।इसके बाद महल के भीतरी हिस्सों में जहाँ तहाँ से गोली चलने की आवाज़े आने लगी थीं। आदिम वाणों ने बहुत वीरता से देर तक गोलियों को अपने देवता के शयनकक्ष तक पहुँचने से रोके रखा। एक प्रत्यक्षदर्शी अर्दली के अनुसार बहुत से सिपाही राजा के कमरे के भीतर घुस आये थे।

जब वह सीढियों से नीचे उतर कर भाग रहा था उसे गोलियाँ चलने की कई आवाजें सुनाई दीं...वह जान गया था कि उनके महाराज प्रवीर चंद्र भंजदेव मार डाले गये हैं। शाम के साढे चार बजे इस आदिवासी ईश्वर का अवसान हो गया था।प्रवीर की मृत्यु के साथ ही राजमहल की चारदीवारी के भीतर चल रहे संघर्ष ने उग्र रूप ले लियाअब यह प्रतिक्रिया का युद्ध था जिसमें मरने या मारने का जुनून सन्निहित था।



 रात्रि के लगभग 11.30 तक निरंतर संघर्ष जारी रहा और गोली चलाने की आवाजें भी लगातार महल की ओर से आती रहीं थीं। इसके बाद रुक रुक कर गोली चलाये जाने का सिलसिला अलगे दिन की सुबह चार बजे तक जारी रहा। 26.03.1966; सुबह के ग्यारह बजे; जिलाधीश तथा अनेकों पुलिस अधिकारी महल के भीतर प्रविष्ठ हो सके। इसी शाम प्रवीर का अंतिम संस्कार कर दिया गया। प्रवीर बस्तर की आत्मा थे वे नष्ट नहीं किये जा सके। आज भी वे बस्तर के लगभग हर घर में और हर दिल मे उपस्थित हैं।

20 मार्च 2018

चित्रो की प्रयोगशाला - बस्तर के मृतक स्तंभ

चित्रो की प्रयोगशाला - बस्तर के मृतक स्तंभ.....!

विविध क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाने के कारण बस्तर की आदिम संस्कृति का अपना विशिष्ट स्थान है। कला के क्षेत्र में भी बस्तर की जनजाति संस्कृति अग्रणी है। चित्रकला के क्षेत्र में अद्वितीय चित्रकारी हमें बस्तर में देखने को मिलती है। बस्तर के जनजाति समाज में लोक अवसरों पर चित्रकारी के विभिन्न रूप दिखायी देते है। धर की दिवारे , आंगन या फिर मृतक स्तंभ इन सभी पर बस्तर की चित्रकला के अदभुत दृश्यों की चित्रकारी देखने को मिलती है। 

बस्तर के जनजाति समाज में किसी व्यक्ति के मरने पर उसके स्मृति मे स्तंभ गाड़ने की प्रथा रही है। ये स्तंभ बड़े पाषाण खंडो के मेनहीर, लकड़ी के स्तंभ या फिर शिलाओं के रूप में होते है। वर्तमान में दाह संस्कार या समाधि स्थल पर पतली सपाट शिलाओं को स्मृति स्तंभ के रूप में गाड़ा जाता है। इन स्तंभो पर रंग बिरंगी चित्रकारी यहां की सदियों पुरानी चित्रकला को प्रदर्शित करती है। बस्तर के कई स्थलों पर आदिमानव युग की चित्रकारी देखने को मिलती है। काष्ठ स्तंभों पर विभिन्न आकृतियां बनाई जाती थी। अब आधुनिक मृतक स्तंभों पर अव्वल दर्जे की चित्रकारी देखने को मिलती है। 

Photo - Om Soni

आदिवासियों ने चित्रकला किससे सीखी इस संदर्भ में एक दन्त कथा है। एक बार अर्जुन जंगल की ओर गये, वहाँ एक पुरानी दीवार थी, उस पर वह युवतियों का चित्र बनाने लगे। बस्तर का एक आदिवासी देख रहा था, अर्जुन के चले जाने पर उसने अन्य आदिवासियों को वहाँ बुलाया और उस चित्र को दिखाया। सभी ने उस कला कृतियों को पसंद किया, बस उसी दिन से चित्र बनाने की कला उनमें प्रचलित हुई।

आदिवासी चित्रकला की महत्वपूर्ण विशेषता उनकी स्मृति तथा मिथकीय प्रतीक है। मृतक स्तंभों पर पीढ़ियों से संचित अनुभव, चित्रों के रूप में दिखाई देते है। मृतक के शान में उसकी विजय गाथा को चित्रों के माध्यम से दर्शाया जाता है। इन स्तंभो पर में जादु टोने से जुड़े चित्रों को भी बनाया जाता है। चित्रों के माध्यम से मृतक की बहुत सी स्मृतियां स्तंभों पर संजोयी जाती है। एक एक चित्र मृतक के जीवन के महत्वपूर्ण पहलू को उजागर करता है। साथ ही साथ इन स्तंभों पर उसकी भविष्य की योजनाओं को भी चित्रों के द्वारा दिखाया जाता है।  चित्रकार इन मृतक स्तंभो पर रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े हुई चीजें, प्राचीन स्मृतियां, मिथकीय प्रतीक, जादु टोना, विजय गाथा, सांस्कृतिक, शिकार, जानवर आदि के चित्र बनाता है।  

Photo- Om Soni

साथ ही साथ ये स्तंभ आदिवासी चित्रकारी की एक प्रयोगशाला है जिस पर हमारी कल्पना से भी परे चित्र बस्तर के मृतक स्तंभों पर दिखलायी पड़ते है, उदाहरण के  तौर पर इस मृतक स्तंभ में चुहे के द्वारा ड्रम बजाया जाना जनजाति समाज में संगीत के प्रति एक नयी सोच को दिखाता है। ऐसे दृश्य हमें सिर्फ कार्टून फिल्मों में ही दिखाई पड़ते है। दो चुहे तपस्या करते हुये दिखाई दे रहे है। जानवरो में उंट, गाय, बकरी, शेर, उड़न गिलहरी, केकड़ा, कौंआ, मुर्गा, खरगोश, लोमड़ी आदि के रंगीन चित्र बनाये गये है। इसमें चीन के दैवीय प्रतीक डै्रगन को भी शामिल किया है।  मनुष्य के सर्प रूप के मिथक को भी चित्र के माध्यम से दिखाया गया है। मृतक के रोजमर्रा के जिंदगी से जुड़े चित्र, वाहन, शिकार, कृषि पानी भरना, नाच गाना आदि को भी सुंदर चित्रों में दिखाया गया है। 

मृतक स्तंभों पर बने चित्र आदिवासी संस्कृति के प्रतिबिंब है। मृतक स्तंभो पर बस्तर की आदिम संस्कृति की झलक रेखाओ और रंगो के माध्यम से दिखाई देती है। 

......ओम सोनी

16 मार्च 2018

दंतेवाड़ा की प्रशासिका - नाग राजकुमारी मासक देवी

दंतेवाड़ा की प्रशासिका - नाग राजकुमारी मासक देवी

बस्तर में छिंदक नाग शासको के राजत्व काल में शासन के अधिकारी अथवा राज परिवार का जनता से सीधा जुड़ाव होता था। राजा से या शासन में बैठे उच्च अधिकारियों से सीधे मिलकर कोई भी अपनी बात या समस्या रख सकता था। जनहित में तत्काल उनकी समस्याओं का निदान भी किया जाता था। छिंदक नागो के राज परिवार मे महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार प्राप्त थे। राज परिवार की महिलाये शासन के कार्यो में रूचि लेती थी।
राजकीय कार्यो के सफलतापूर्वक निवर्हन में राजा की मदद किया करती थी। बस्तर में नाग राजा सोमेश्वर देव प्रथम का कार्यकाल स्वर्ण युग था। इसके शासन अवधि में प्रशासकीय कार्य सुचारू रूप से चलते थे। दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी मंदिर में नाग युगीन एक शिलालेख है। यह तिथीविहिन शिलालेख तेलगु में है। उस शिलालेख में मासक देवी के नाम का उल्लेख हुआ है।



शिलालेख के अनुसार राजभूषण महाराज की छोटी बहन किसानो से अधिक कर वसूली किये जाने के कारण चिंतित होती है। शिलालेख में लिखित लेख के अनुसार - "प्रायः देखा जा रहा है कि राज्य के कर्मचारी किसानों से जबरन कर वसुली कर रहे है जिससे किसानों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। पंचमहासभा की बैठक में किसानो से वसूली के संबंध में बनाये गये नियमों का उल्लंघन किया जा रहा है। मैं आज यह राजाज्ञा जारी कर रही हुं कि अब से किसी राजा के राज्याभिषेक पर सिर्फ उन्हीं किसानो से कर वसूली की जावेगी जो कि लंबे समय से यहां निवास कर है। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाले को मासकदेवी एवं चक्रगोटट का विरोधी समझा जावेगा।"
मासक देवी सचमूच किसानों की समस्याओ से स्वयं चिंतित भी होती है वरन् उनकी समस्या के समाधान के लिये राजाज्ञा भी जारी करती है।
सोमेश्वर देव के अन्य शिलालेखो में राजभूषण की उपाधि उसके नाम के साथ उल्लेखित हुई है। अतः मासक देवी राजा सोमेश्वर देव की बहन थी। प्रतीत होता है कि सोमेश्वर देव ने अपनी बहन मासक देवी को दंतेवाड़ा मंडल की प्रशासिका नियुक्त किया होगा, तब उसी हैसियत से मासक देवी ने यह राजाज्ञा जारी करवायी होगी। सोमेश्वर देव का कार्यकाल 1069 ई से 1108 ई तक माना गया है। यह शिलालेख निश्चित रूप से राजा सोमेश्वर देव के राज्याभिषेक वर्ष 1069 ई का होगा। चक्रगोटट आज का बस्तर था जो कि नागों के समय चक्रकोट या चक्रकुट के नाम से जाना जाता था।

15 मार्च 2018

बस्तर की पहचान - तूम्बा

बस्तर में प्रकृति का दिया अनमोल उपहार - तुम्बा



बस्तर में आदिवासियो के जीवन में प्रकृति का बेहद महत्वपूर्ण योगदान है ,यूँ कहै की प्रकृति की दी हुए चीजो के बिना घने जंगलो में जीना बिलकुल भी आसान नहीं है. पहले आदिवासियो के खाना पीेना , रहना , जीवन में उपयोगी वस्तुये सब जंगलो से ही प्राप्त होता रहा है. आज मनुष्य ने बहुत तरक्की कर ली है ज़िससे रोजमर्रा की वस्तुओ के लिये ,वह अब प्रकृति पर ज्यादा निर्भर नहीं है.  अब दैनिक उपयोगी वस्तुये  स्टील , प्लास्टिक से ही बनने लगी है.


बस्तर की आदिम संस्कृति में आदिवासियो के जीवन जीने के तौर तरीको में आज भी बाहरी दुनिया में एक अजीब सा आकर्षण है. इनकी दैनिक उपयोगी वस्तुये आज भी प्रकृति प्रदत्त है. इनके दैनिक उपयोगी वस्तुये भी आज भी शहरी लोगो के लिये कौतुहल का विषय है. यहां आदिवासियो को भगवान ने गजब की शक्ति दी है ज़िसके कारण ये प्रकृति की हर चीज का सही उपयोग कर पाते है.


आदिवासियो में दैनिक उपयोग की एक महत्वपूर्ण वस्तु है ज़िसे यहां स्थानीय बोली में तुम्बा या बोरका कहा जाता है. बोरका प्रकृति के द्वारा दिया गया सबसे महत्वपूर्ण उपयोगी वस्तु है. बोरका उस फल से बना है ज़िसे हम सब सब्जी के रूप में खाते है और हर जगह आसानी से उपलब्ध होती है वह है लौकी. जी हां यह लौकी है ज़िससे बोरका बनाया जाता है.
बोरका बनाने के लिये सबसे गोल मटोल लौकी को चुना जाता है ज़िसका आकार लगभग सुराही की तरह हो. ज़िसमे पेट गोल एवं बडा अौर मुंह वाला हिस्सा लम्बा पतला गर्दन युक्त हो. यह लौकी देशी होती है. हायब्रीड लौकी से बोरका नहीं बन पाता है. उस लौकी में एक छोटा सा छिद्र किया जाता है फिर उसको आग में तपाकर उसके अन्दर का सारा गुदा छिद्र से बाहर निकाल लिया जाता है.


लौकी का बस मोटा बाहरी आवरण ही शेष रहता है. आग में तपाने के कारण लौकी का बाहरी आवरण कठोर हो जाता है. उसमे दो चार दिनो तक पानी भरकर रखा जाता है ज़िससे वह अन्दर से पुरी तरह से स्वच्छ हो जाता है. यह बोरका बनाने का यह काम सिर्फ ठंड के मौसम में किया जाता है. ज़िससे बोरका बनाते समय लौकी की फटने की संभावना कम रहती है.
बोरका में रखा पानी या अन्य कोई पेय पदार्थ सल्फी , छिन्दरस , पेज आदि में वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ता है. यदि उसमे सुबह ठंडा पानी डाला है तो वह पानी शाम तक वैसे ही ठंडा रहता है. उस पर तापमान का कौई फर्क नहीं पड़ता है और खाने वाले पेय को अौर भी स्वादिष्ट बना देता है.


बोरका के उपर चाकु या कील को गरम कर विभिन्न चित्र या ज्यामितिय आकृतियां भी बनायी जाती है. बोरका पर अधिकांशत पक्षियो का ही चित्रण किया जाता है. आखेट में रूचि होने के कारण तीर धनुष की आकृति भी बनायी जाती है.
पहले आदिवासियो के पास पानी या किसी पेय पदार्थ को रखने के लिये कोई बोतल या थर्मस नहीं होता था तब खेतो में या बाहर या जंगलो में पानी को साथ में रखने के लिये बोरका का ही सहारा था. अब आधुनिक बोतलो ने बोरका का स्थान ले लिया है ज़िससे अब यह परम्परागत , प्रकृति प्रदत्त बोरका का उपयोग कम होता जा रहा है.
.....ओम सोनी

14 मार्च 2018

Bhairav Temple of Barsur


Hidden Hertiage in Bushes – Bhairav Temple of Barsur

Does not know how many historical heritage is hidden inside Barsur. Kedarnath Thakur had mentioned 147 temples and 147 ponds in ancient Barsur in his book, Bastar Bhushan. But many historical temples were destroyed in exterior attacks. The ruined remains due to the ignorance of the people have now become landless. Some of the demolished temples have been saved by the people here because of their faith. Nature also plays an important role in protecting those demolished temples from scattering.


Spanning the four-cornered bushes, they kept hidden the unseen history hidden from peoples. There is an ancient demolished temple near the Battisa Temple which is completely hidden in the bushes. This temple is very close to the main road. Even after several programs have been organized in Barasur till today, the shrubs around the temple have not been cut, due to which the people have no information about this temple. I have gone to Barasar several times. I had no information about this temple. Neither did I ever see any photo of it. I saw this temple for the first time. History is around us but it can not be seen. Very few people have seen this temple.



This demolished temple in the thick bush towards the right side Of Battisa Temple. Local residents here have preserved the stones of this temple. Now this temple is in the right condition rather than other demolished temples. It was a small temple which was based on the sanctum sanctorum. This temple is about 5 feet high. It can be entered only by sitting. Inside sanctum sanctorum, a nude image of Bhairava ​​has been kept.

Such a huge statue is set in the courtyard of Bhairam Baba Temple of Bhairamgarh. This temple will also have been built in approximately 10-11th century. The invaders have completely destroyed this temple. The villagers have kept this ancient heritage safe.


Even now many temples in Barasur are buried . Digging in Barasur, more ancient temples, statues, inscriptions can be found. Important information related to Naga Age and other dynasties may be obtained. Administration should also make an access route through cleanliness around such historic temples in Barasur. Administration should also be cleaned around such historic temples.

बारसूर का भैरव मंदिर


झाड़ियो में छिपी ऐतिहासिक विरासत - भैरव मंदिर


बारसूर ना जाने कितने ऐतिहासिक धरोहरों को अपने अंदर छिपाये हुये है। केदारनाथ ठाकुर ने अपनी पुस्तक बस्तर भूषण में प्राचीन बारसूर में कभी 147 मंदिर एवं 147 तालाब होने की बात कही थी। किन्तु समय की मार एवं बाहय आक्रमणों में बहुत से ऐतिहासिक मंदिर ध्वस्त हो गये। लोगो की अनदेखी के चलते ध्वस्त अवशेष अब जमींदोज हो चुके है। कुछ ध्वस्त मंदिरों को यहां के निवासियों ने अपनी आस्था के चलते सहेज कर रखा है। उन ध्वस्त मंदिरों को पुनः बिखरने से बचाने के पीछे प्रकृति का भी अहम योगदान है।


चारों तरफ फैली कंटिली झाड़ियों ने अपने अंदर अनदेखे इतिहास को लोागो से छुपाये रखा है। बत्तीसा मंदिर के पास ही एक ऐसा प्राचीन ध्वस्त मंदिर है जो कि पुरी तरह से झाड़ियों में की ओट में छिपा हुआ है। यह मंदिर मुख्य सड़क से बेहद ही पास है। आज तक बारसूर में कई कार्यक्रम आयोजित होने के बाद भी मंदिर के आसपास की झाड़ियों को काटा नहीं गया है जिसके कारण लोगो को इस मंदिर की कोई जानकारी नहीं है। मैं स्वयं कई बार बारसूर गया हुं और जाते भी रहता हूं। मैने स्वयं पहली बार यह मंदिर देखा। सच में इतिहास हमारे आसपास ही है परन्तु हम आंखे होने के बावजूद भी उसे देख नहीं पाते है। बहुत ही कम लोगो ने इस मंदिर को देखा है। 

बत्तीसा मंदिर से थोड़ी दुर आगे दायी तरफ घनी झाड़ियों में यह ध्वस्त मंदिर है। यहां के स्थानीय निवासियों ने इस मंदिर के प्रस्तरों को सहेज कर रखा है। जिसके कारण यह मंदिर अन्य ध्वस्त मंदिरों की अपेक्षा सही अवस्था में है। यह एक छोटा सा मंदिर था जो गर्भगृह  पर आधारित था। मंदिर के अवशेषो को जोड़कर सहेजा गया है। यह मंदिर लगभग 5 फीट उंचा है। इसके अंदर बैठकर ही प्रवेश किया जा सकता है। मंदिर के अंदर उध्र्व रेतस भैरव की नग्न प्रतिमा रखी हुयी है। 

ऐसी ही विशाल प्रतिमा भैरमगढ़ के भैरम बाबा मंदिर के प्रांगण में स्थापित है। यह मंदिर भी लगभग 10-11 वी सदी में निर्मित हुआ होगा। आक्रमणकारियों ने इस मंदिर को पुरी तरह से नष्ट किया है। ग्रामीणों ने पुनः इसके प्रस्तरों को जोड़कर इस प्राचीन धरोहर को सुरक्षित बनाये रखा है।



बारसूर में अब भी बहुत से मंदिर झाड़ियों में , मिटटी के टीलो में दबे हुये है। बारसूर में सिरपुर की तर्ज पर खुदाई करने से और भी प्राचीन मंदिर, प्रतिमायें , शिलालेख मिल सकते है। जिससे नागयुग एवं अन्य राजवंशों से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त हो सकती है। प्रशासन को भी बारसूर में ऐसे ऐतिहासिक मंदिरों के आसपास साफ सफाई करवाकर पहुंच मार्ग बनाना चाहिये। 

13 मार्च 2018

भांड देवल मन्दिर, आरंग

भांड देवल मन्दिर, आरंग

आरंग रायपुर जिले के अंतर्गत जैन धर्म के अनुयायियों का प्रमुख स्थल है। आरंग में जैन प्रतिमाआें के अलावा गुप्त कालीन मुद्राये , राजर्षितुल्य कुल वंश , शरभपुरीय तथा कलचुरी शासकों के अनेक अभिलेख प्राप्त हुए है। आरंग में लगभग प्रत्येक मोहल्ले में प्राचीन प्रतिमायें एवं मंदिरों के अवशेष बिखरे पड़े हुये है।  


आरंग का भांड देवल मन्दिर छत्तीसगढ़ में जैन धर्म का सबसे प्रमुख एवं सुरक्षित मंदिर है। आरंग रायपुर से महासमुंद रोड में 36 किलोमीटर की दुरी पर स्थित बेहद ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है। आरंग महाभारतकालीन राजा मोरध्वज की नगरी मानी गयी है। 

आरंग नाम पड़ने के पीछे एक रोचक कथा जुड़ी हुई है। कथा के अनुसार भगवान कृष्ण ने अपने सिंह के भोजन के लिये हैहयवंशी राजा मोरध्वज से अपने पुत्र को आरे से काट कर देने की मांग की थी।, महाभारत का युद्ध खत्म होने के बाद कृष्ण अपने भक्त मोरध्वज की परीक्षा लेना चाहते थे। उन्होंने अर्जुन से शर्त लगाई थी कि उनका उससे भी बड़ा कोई भक्त है। 


राजा मोरध्वज किसी को भी अपने निवास से खाली हाथ नहीं जाने देते थे। कृष्ण ने ऋषि का वेश एवं अर्जुन ने सिंह का रूप धारण किया।  दोनो राजा मोरध्वज के पास पहुंचे और ऋषि ने राजा से कहा, ‘मेरा शेर भूखा है और वह मनुष्य का ही मांस खाता है।’ इस पर राजा अपना मांस देने को तैयार हो गए तब कृष्ण ने दूसरी शर्त रखी कि सिर्फ किसी बच्चे का मांस चाहिए। राजा ने तुरंत अपने बेटे का मांस देने की पेशकश की। 


कृष्ण ने कहा, ‘आप दोनों पति-पत्नी अपने पुत्र का सिर काटकर मांस खिलाओ, मगर इस बीच आपकी आंखों में आंसू नहीं दिखना चाहिए।’ राजा और रानी ने अपने बेटे का सिर काटकर शेर के आगे डाल दिया। तब कृष्ण ने राजा मोरध्वज को अपने अवतार में आकर आशीर्वाद दिया जिससे उसका बेटा फिर से जिंदा हो गया। यहां के निवासियो के अनुसार यह घटना इसी गांव में घटित हुयी थी। 


आरा और अंग इन दो शब्दो से इस स्थान के नाम की उत्पत्ति मानी जाती है। उसी परम्परा के अनुसार तब से अब तक इस गांव में आरे का उपयोग नहीं किया जाता है।

यह आरंग एक समय जैन धर्म का महत्वपूर्ण केन्द्र था। इस गांव में 9 सदी का प्राचीन मंदिर स्थित है। जो कि जैन धर्म का समर्पित है। यह मंदिर भांड देवल के नाम से लोकप्रिय है। भांड देवल मन्दिर एक ऊँची जगती पर बना है। मंदिर पश्चिमाभिमुखी है। मंदिर ताराकृति में पंचरथ और भूमिज शैली में बना हुआ है।


 मंदिर का मंडप पुरी तरह से नष्ट हो गया है। मंदिर का गर्भगृह जगती से तीन सीढ़िया नीचे है। गर्भगृह में जैन तीर्थंकरों की काले प्रस्तर की तीन स्थानक प्रतिमायें स्थापित है। ये प्रतिमायें भगवान शांतिनाथ, श्रेयांसनाथ एवं अनंतनाथ की है। इन प्रतिमाओं के दोनो ओर चंवरधारी पुरूष एवं द्वारपालों का अंकन है। 

मंदिर की बाहरी दीवारों पर नृत्यरत अप्सराओं, यक्ष, यक्षी, मिथुन प्रतिमायें, मृदंग , ढोल बजाते हुये स्त्री पुरूष आदि विविध अलंकृत प्रतिमायें जड़ी हुयी है। मंदिर का शिखर भूमिज शैली का है जिस पर गवाक्षों का अंकन है। शिखर एवं मंदिर का परवर्ती काल में जीर्णोद्धार हुआ है।


 इतिहासकारों ने मंदिर का निर्माण9 वी सदी में माना है। इसके अलावा आरंग में बाघदेवल, महामाया मंदिर , प्राचीन जैन एवं अन्य प्रतिमायें तथा किले के अवशेष बिखरे पड़े है। 

8 मार्च 2018

द्रविड़ स्थापत्य कला का उत्तम उदाहरण- गुमड़पाल का शिव मंदिर

 गुमड़पाल का शिव मंदिर.....!


बस्तर में नल वंश , छिन्दक नागवंश ,काकतीय चालुक्य वंश ने लम्बे समय तक शासन किया. अपने शासन अवधि में बस्तर के विभिन्न स्थलों पर इन राजवंशो ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया था। आज जो भी ऐतिहासिक पुरा संपदा बस्तर में प्राप्त होती है वह सभी छिंदक नागवंश के राजत्व काल की अनुमानित है। अधिकांश मंदिर ध्वस्त हो चुके है। कुछ ही गिनती के मंदिर सही सुरक्षित अवस्था में विद्यमान है। ऐसा ही एक मंदिर गुमड़पाल में है जो दक्षिण भारत की द्रविड स्थापत्य कला का सुंदर उदाहरण है।
विश्वप्रसिद्ध तीरथगढ़ जलप्रपात से आगे कटेकल्याण जाने वाले मार्ग में गुमडपाल ग्राम है.इस ग्राम को चिंगीतराई भी कहा जाता है। इस ग्राम में तालाब के पास एक छोटा सा प्राचीन शिव मन्दिर स्थित है। यह पूर्वाभीमुख मन्दिर लगभग 20 फीट ऊँचा होगा। मन्दिर दो फीट ऊँची जगती पर निर्मित है। मन्दिर गर्भगृह अंतराल एवं मंडप में विभक्त है. मंडप पुरी तरह से नष्ट हो चुका है। मात्र वर्गाकार गर्भगृह ही शेष है. गर्भगृह के प्रवेशद्वार में गणेशजी का अंकन है।

अन्दर गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित था ज़िसकी वर्तमान में जलधारी ही विद्यमान है. वर्तमान में एक छोटा कलश स्थापित है ज़िसकी शिवलिंग के रूप में पूजा की जा रही है। अंतराल भाग में प्रवेशद्वार के दोनो तरफ अलंकृत भित्ती स्तंभ निर्मित है। द्वार शाखा के दाहिनी तरफ नीचे चंवरधारिणी खड़ी है ज़िसके नीचे मयूर का अंकन है। बाये तरफ पगड़ी एवं दाढ़ी वाले उपासक अंजली मुद्रा में बैठे हुए हैं।

मन्दिर का मंडप स्तंभो पर आधारित था ज़िसका निचला भाग ही बचा है। मन्दिर के शिखर भाग के निर्माण में द्रविड़ शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। मन्दिर का उपरी शिखर भाग पिरामिड जैसे बना है। यह तीन तलो में निर्मित है.शिखर ऊपर की ओर संकरा होता गया है.ऊपर आमलक तथा कलश नहीं है।

छिन्दक नागवंश के अंतिम राजा हरिशचन्द्र को पराजित कर महाराज अन्नमदेव ने बस्तर में काकतीय चालुक्य वंश को स्थापित किया। तत्कालीन समय में नाग सामंत आपसी झगड़ो एवं कलह में उलझे रहते थे। उनमे केन्द्रिय नेतृत्व का अभाव था। नाग शासन छोटे छोटे हिस्सो में बंट गया था। अन्नमदेव ने एक एक करके नाग राजाओ पर विजय प्राप्त कर अपना राज्य स्थापित किया।
इस कटेकल्याण तीरथगढ़ क्षेत्र में पहले नाग सरदारो का शासन था। अन्नमदेव ने नाग सरदारो को पराज़ित किया था। यहां संभावना बनती है कि यह मन्दिर भी उसी समय में बनवाया गया होगा।  यह क्षेत्र तत्समय में ड़ोडरेपाल , डीलमिली , पखनार , चींगीतराई होते हुए उडिसा जाने का प्रमुख मार्ग था। इन जगहो में भी पुरातात्विक अवशेष प्राप्त होते है। पास के बीसपुर , तीरथगढ़ , चन्द्रगीरी में महल एवं किले की दिवारो के अवशेष आज भी बिखरे पड़े है। परन्तु अन्नमदेव के समय यह मंदिर बना हो ऐसा कोई उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता है।

इस मंदिर की स्थापत्य कला दक्षिण भारत के मंदिरों से हुबहु मिलती है। नाग शासन अवधि में बस्तर की शुरूआती शाखा पर दक्षिण भारत के चालुक्यों का सर्वाधिक प्रभाव था। यह मंदिर बस्तर के छिंदक नागवंशी शासको के शासन काल में तेरहवी सदी में निर्मित माना गया है। 

7 मार्च 2018

मयूर की तरह मोहक - मयूरा घुमर

मयूर की तरह मोहक - मयूरा घुमर


बस्तर में पग पग पर सुंदर दृश्य दिखायी पड़ते है। बस्तर में घुमना मतलब स्वर्ग में घुमने के समान है। हर तरफ मनमोहक दृश्य दिखायी पड़ते है जो मन को नयी उर्जा एवं आनंद से लबरेज कर देते है। बस्तर दंडकारण्य के पठार पर बसा हुआ है। पठारी धरती होने के कारण मीलो दुर तक जंगल ही जंगल है और पठारी सीमा खत्म होने वाली जगहों पर बेहद ही खुबसुरत जलप्रपात बने हुये है। इन जलप्रपातों के आनंदित कर देने वाले मनमोहनी दृश्य ही बस्तर को स्वर्ग बनाते है।



बस्तर चित्रकोट जलप्रपात , तीरथगढ़ जलप्रपात आज भारत ही नहीं बल्कि विश्व के प्रमुख झरनो में से एक है. इसके साथ ही बस्तर में ऐसे और भी सुन्दर और मनोहारी झरने है जो की माओवादी दहशत एवं उचित प्रचार प्रसार ना होने के कारण आज भी गुमनामी में है। चित्रकोट जलप्रपात के पास ही तामड़ा घुमर नाम का बेहद ही खुबसूरत झरना है जिसकी मधुर ध्वनि मारडूम घाटी में गुंजती रहती है।


चित्रकोट से बारसूर जाने वाले मार्ग में मारडूम के पास ही पठारी भूमि खत्म होती है। मुख्य सड़क से ही नीचे की हरी भरी वादियां दिखने लगती है। इन खाईयों में ही दो झरने बने हुये है एक तो सामने दिखाई देता है -मेंदरी घुमर और दुसरा तामड़ा घुमर जो कि मुख्य सड़क से 03 किलोमीटर अंदर की ओर है। 

तामड़ा घुमर में तामड़ा का अर्थ है मोर और धुमर का अर्थ है झरना। अर्थात झरने के आसपास मोरो की अधिकता है जिसके कारण इसे मयूरा जलप्रपात कहा जाता है। एक छोटा नाला लगभग १०० फ़ीट की ऊंचाई से गिर कर मनमोहक झरने का निर्माण करता है. 


झरने का पूरा स्वरुप देखने के लिय नाले को पार कर उस पार जाना पड़ता है. नाले का पानी बहुत ही तेजी से निचे गिर कर आगे घने जंगलो में कही विलुप्त हो जाता है. झरने के ऊपर से बेहद ही खुबसुरत दृश्य दिखलायी पड़ते है - सामने घाटी की हरी भरी वादियों , घने जंगलो का सुंदर दृश्य और उन वादियों पर इठलाते हुए बादलो के झुण्ड , वाह, क्या अद्भुत नजारा पेश होता है तो ऐसा लगता है की बस एकटक उस नज़ारे को निहारते रहो.

शहर की भागमभाग जिंदगी से दूर इस झरने की कल कल आवाज और यहाँ के सुन्दर नज़ारे मन को आनंद से प्रफुल्लित कर देते है। सारी थकान और चिंताये झरने की मधुर ध्वनि मे कहीं खो जाती है। सारी परेशानियां झरने के पानी के साथ बह जाती है।


जुलाई से लेकर फरवरी तक इस झरने के खूबसूरती को निहार सकते हो। चित्रकोट जलप्रपात आये हुए पर्यटक नारायणपाल मंदिर, मेंदरी घूमर , और तामड़ा घूमर के भी पर्यटन का आनंद ले सकते है। जगदलपुर से आप निजी वाहन से किसी जानकार व्यक्ति के साथ यहाँ आसानी से पहुंच सकते है.
........ओम सोनी

6 मार्च 2018

किरारी गोढ़ी का शिव मंदिर बिलासपुर

किरारी गोढ़ी का शिव मंदिर बिलासपुर......!


                बिलासपुर के समीप किरारी गोढ़ी में प्राचीन मंदिर के पास पहुंचने पर मुझे बड़ी निराशा  हुयी। इसलिये क्योकि वहां मंदिर के नाम पर सिर्फ एक दिवार ही शेष बची थी। बाकि सब पहले ही नष्ट हो गया था। नाले के किनारे बना यह मंदिर पश्चिमाभिमुख है जिसमें मंदिर की सिर्फ पूर्वी दिवार ही शेष है।


किन्तु मंदिर की यह दिवार भी बेहद उच्चकोटि की कलात्मक प्रतिमाओं से सुसज्जित है। दिवार पर लगी प्रतिमाओं ने तो दिल जीत लिया। प्रतिमाओं को देखने से मन की निराशा थोड़ी दुर हुयी। 


            मंदिर गर्भगृह अंतराल एवं मंडप में विभक्त है। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। यह मंदिर लगभग दो फीट उंची जगती पर बना है। मंदिर के अधिष्ठान में पुष्प, लतावल्लरी, गजलक्ष्मी , गजपंक्ति आदि आकृतियां बनी हुयी है। प्रतिमाओ में नटराज , सूर्य, हरिहरहिरण्यगर्भ, दिक्पाल, भारवाहक की प्रतिमायें बेहद ही कलात्मक एवं उच्च कोटि की शिल्पकला को प्रदर्शित करती है।

नटराज की प्रतिमा द्वादश भुजी नृत्यमुद्रा में प्रदर्शित है। प्रतिमा के दाये तरफ के छः हाथो में सिर्फ 5 हाथ ही शेष है जिसमें खेठक, अस्त्र, दंड, घ्यानमुद्रा एवं त्रिशुल पकड़े हुये है। बांये तरफ के सिर्फ दो ही हाथ शेष है जिसमें खप्पर एवं दंड पकड़े हुये है।

 सिर पर जटामुकुट, माथे में नेत्र, मुंछे चढ़ी हुयी, कानो में कुंडल, गले में हार, मुडमाला, वक्षमाला, पैरों में सर्प का कड़ा प्रदर्शित है। हरिहरहिरण्यगर्भ की प्रतिमा षटभुजी है जिनके हाथो में त्रिशुल, कमलदल, शंख, सर्प एवं चक्र धारण किये हुये है। प्रतिमा के नीचे चौकी में छः घोडे़ एवं सारथी अरूण प्रदर्शित है।


             मंदिर परिसर में ही अन्य भग्नावशेष एवं प्रतिमायें रखी गयी है। मंदिर के नाम पर सिर्फ एक दिवार ही शेष है। किन्तु उस दिवार पर जड़ी हुयी प्रतिमाओं को देखने से यह प्रतीत होता है कि पुरा मंदिर आकर्षक प्रतिमाओं से सुसज्जित रहा होगा।

यह मंदिर अपनी पूर्ण अवस्था में उच्च कोटि की स्थापत्यकला का सुंदर उदाहरण रहा होगा। यह मंदिर किरारी और गोढ़ी नामक गांवों के बीच् में स्थित है जिसके कारण इसे किरारी गोढ़ी का शिवमंदिर कहा जाता है। इतिहासकारों ने इस मंदिर का निर्माण काल कल्चुरियों के शासन अवधि में 11-12 वी सदी माना है। 
.....ओम सोनी

दंतेवाड़ा की अनोखी होली

         दंतेवाड़ा की अनोखी होली

पुरी दुनिया में बस्तर की अद्भूत आदिवासी संस्कृति , यहां की विशेष परम्पराआें को जानने की उत्सुकता रही हैं। यहां त्यौहारों को मनाने की अनोखी मान्यतायें प्रचलित है जो कि बस्तर की सांस्कृतिक समृद्धि की प्रतीक है। जैसे बस्तर का दशहरा , जहां एक ओर पुरे देश मे ,दशहरे के अवसर पर रावण के पुतले का दहन किया जाता है और दशहरे को बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाया जाता हैं वहीं बस्तर के दशहरे में लाखो आदिवासी जगदलपुर में एकत्रित होकर रथ खींचते है। बस्तर का दशहरा 75 दिनों तक चलने वाला सबसे बड़ा दशहरा है जिसमें रोज नयी नयी रस्में निवर्हन की जाती है।  ऐसे ही अलग अंदाज में यहां दशहरा मनाया जाता हैं ज़िसके कारण बस्तर का दशहरा पुरे विश्व में एक अलग पहचान रखता हैं।
फोटो - भूपेन्द्र सिंह
बस्तर में विभिन्न त्योहारो को अपने अलग अंदाज में मनाने की अदभुत परम्पराये हैं ज़िससे आज भी बाहरी दुनिया अनभिज्ञ है। बस्तर में हमारे पसंदीदा त्यौहार रंग पर्व होली भी अलग अंदाज मे मनायी जाती है। 

आमतौर पर होली के मौके पर लोग रंग और गुलाल से होली खेलते है। दंतेवाड़ा में भी होली रंग-गुलाल से खेली तो जाती है, परंतु यहां दंतेवाड़ा में माई दंतेश्वरी के सम्मान में चलने वाला फागुन मेले के नवे दिन, होलिका दहन से भी जुडी एक अनोखी रस्म हैं। यहां प्रचलित एक मान्यता के अनुसार बस्तर की एक राजकुमारी की याद में, जलाई गई होली की राख और दंतेश्वरी मंदिर की मिट्टी से होली खेली ज़ाती हैं। यह अनोखी रस्म ,जौहर करने वाली राजकुमारी के सम्मान में की जाती है।
सती शिला
दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी के मुताबिक, एक राजकुमारी ने अपनी इज्जत बचाने के लिए आग में कुदकर जौहर कर लिया था. राजकुमारी का नाम तो मालूम नहीं पर प्रचलित कथा के अनुसार सैकड़ों सालों पहले बस्तर की एक राजकुमारी को किसी हमलावर ने अगवा करने की कोशिश की थी। राजकुमारी ने अपनी अस्मिता बचाने के लिये मंदिर परिसर में आग जलवाई और मां दंतेश्वरी का नाम लेते हुए आग में कूद गई। उस राजकुमारी की कुर्बानी को यादगार बनाने के लिए उस समय के राजा ने एक सती स्तंभ बनवाया जिसमे स्त्री पुरूष की बडी प्रतिमाये बनी हैं., इस स्तंभ को ही सती शिला कहते हैं।

हजार साल पुरानी इस सती शिला के पास ही,राजकुमारी की याद में होलिका दहन की ज़ाती हैं. होलिका दहन के लिए 7 तरह की लकड़ियों जिसमे ताड, बेर, साल, पलाश, बांस , कनियारी और चंदन के पेड़ों की लकड़ियो का इस्तेमाल किया जाता है। सजाई गई लकड़ियों के बीच मंदिर का पुजारी केले का पौधे को रोपकर गुप्त पूजा करता है। यह केले का पौधा राजकुमारी का प्रतीक होता है।

होलिका दहन से आठ दिन पहले ताड़ पत्तों को दंतेश्वरी तालाब (मेनका डोबरा )में धोकर भैरव मंदिर में रखा जाता है। इस रस्म को ताड़ फलंगा धोनी कहा जाता है। पास के ग्राम चितालंका के पांच पांडव परिवार के सदस्य ही होलिका दहन करते हैं. दंतेश्वरी मन्दिर में सिंहद्वार के पास इन पांडव परिवार के कुल देवी के नाम पर पांच पांडव मन्दिर भी है।

होलिका दहन के मौके पर हजारों ग्रामीण उपस्थित रहते हैं। होली जलाने के बाद लोगो में आग की लौ के साथ उड़ कर गिर रहे ,जलते ताड़ पत्रों को एकत्रित करने की होड लग ज़ाती हैं। लोक मान्यता है कि मंत्रोच्चार के बाद प्रज्वलित होली का यह जला हुआ हिस्सा काफी पवित्र माना जाता है। इसलिए लोग इसे सुख समृद्धि की उद्देश्य से ताबिज बनाकर पहनते है।

दुसरे दिन रंगोत्सव में एक व्यक्ति को फूलों से लादकर तथा होली गाली देते हुए होलिका दहन स्थल में लाया जाता हैं. यहां होली स्थल की परिक्रमा की ज़ाती हैं। परिक्रमा पश्चात लोग होली की राख का टीका एक दूसरे को लगाकर होली की शुभकामनाएं देते हैं, फिर ग्रामीण दंतेश्वरी मंदिर परिसर में मिट्टी और होलिका दहन की राख एवं टेसु को फूलो से तैयार रंग के घोल से होली खेलते हैं।
फोटो - भूपेन्द्र सिंह
इस तरह दंतेवाड़ा में एक अनोखी होली खेली ज़ाती हैं। अलग तरह की रस्मो से त्योहार मनाने का यह अंदाज बस्तर की सांस्कृतिक संपन्नता का सूचक हैं, जो यह दर्शाता है कि बस्तर के आदिवासी भी ,बाहरी दुनिया की तरह त्योहारो से न केवल परिचित भी हैं अपितु अदभुत मान्यताओ के साथ कई गुना हर्षो उल्लास एवँ भाई चारे से त्योहारो का आनन्द भी लेते हैं।



.....ओम सोनी

1 मार्च 2018

खारवेल युगीन विद्याधरधिवास बस्तर


खारवेल युगीन विद्याधरधिवास बस्तर......!


अशोक मौर्य की मृत्यु के पश्चात मौर्य साम्राज्य की जड़े कमजोर होती चली गयी। बाद के मौर्य शासकों के कमजोर होने के फलस्वरूप कलिंग ने मौर्यों की अधीनता से स्वयं को स्वतंत्र कर लिया। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद कलिंग में महामेधवाहन वंश का उदय हुआ। इस वंश का तृतीय राजा खारवेल हुआ जो कि भारत के प्रतापी राजाओं में से एक था। खारवेल ने कलिंग में अपना शासन स्थापित किया। शीघ्र ही यह बहुत बड़े भू-भाग का स्वामी बन गया। आधुनिक बस्तर तदयुगीन आटविक क्षेत्र का कुछ भू भाग खारवेल के अधीन हो गया था।



खारवेल की जानकारी हमे उदयगिरी की हाथीगुंफा प्रशस्ति से मिलती है। 17 पंक्तियों में खुदे हुये इस लेख से हमे खारवेल की महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती है। इस प्रशस्ति को कुछ इतिहासकार प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व एवं कुछ इतिहासकार द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व मानते है।  इस शिलालेख के अनुसार खारवेल ने जैन धर्म को बढ़ावा दिया था। इतिहासकारों में खारवेल के राज्यारोहण की तिथी में मत भिन्नता है। कहीं राज्यरोहण की तिथी 182 ई पूर्व एवं कहीं पर यह 159 ई पूर्व मानी गयी है। 24 वर्ष की उम्र वह महाराज पद पर आसीन हुआ। उसने अपने शासन के दुसरे वर्ष अपने समकालीन गौतमी पुत्र शातकर्णी पर आक्रमण किया था। 

हाथी गुफा प्रशस्ति में आटविक बस्तर का भी उल्लेख मिलता है। मौर्यो के नाक में दम करने वाली आटविक की लड़ाकू जनजातियों को खारवेल की लूट का शिकार होना पड़ा था। बस्तर जो कि प्राकृतिक, खनिज एवं अन्य साधनों में संपन्न होने के साथ साथ आर्थिक रूप से भी संपन्न हुआ करता था। हजार पंद्रह सौ वर्ष पूर्व नलों एवं नागों के शासन काल के सोने के सिक्के इस क्षेत्र की आर्थिक संपन्नता को प्रमाणित करते है। 

हाथी गुफा प्रशस्ति में भी बस्तर को धन-धान्य से परिपूर्ण एवं संपन्न क्षेत्र बताया गया है। साथ ही इस प्रशस्ति से आटविक बस्तर होकर खारवेल के युद्ध अभियानों की भी महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती है। मौर्यो के समय आटविक क्षेत्र के रूप में जाने जाना वाला बस्तर खारवेल के समय विद्याधरधिवास के रूप मे जाना जाता था। प्रशस्ति की इन पंक्तियों मे बस्तर की संपन्नता का उल्लेख किया है -     ” चबुथे वसे विजाधराधिवासं अहत पुवं कलिंग पुवराज निवेसितं , भिंगारे हित रतन सापतेये सब रठिक भोजके पादे वंदा पयति “ अर्थात अपने शासन के चौथे वर्ष में कलिंग के सीमा से लगा हुआ विधाधरधिवास क्षेत्र पर आक्रमण कर बहुमूल्य रत्न , धन संपदा प्राप्त की । बस्तर होकर उसने रठिक (बरार) एवं भोजक आधुनिक महाराष्ट्र पर आक्रमण कर वहां के राजाओं को अधीनता स्वीकार पर मजबूर किया। इस आक्रमण में खारवेल को आटविक के सैन्य टुकड़ियों की मदद मिली थी।

खारवेल ने जैन धर्म का बहुत बढ़ावा दिया था। ईसा पूर्व पहली दुसरी शताब्दी में बस्तर क्षेत्र में जैन धर्म पैर प्रसार चुका था। बस्तर से लगे हुये आधुनिक जयपोर, कोरापुट क्षेत्र में जैन धर्म के बहुत से प्राचीन प्रतिमायें एवं जिनालय प्राप्त होते है। बस्तर के जगदलपुर के पास कुरूषपाल, बोदरा आदि जगहो में भी जैन धर्म से जुड़ी प्रतिमायें प्राप्त होती है। हालांकि ये प्रतिमायें नाग शासन काल की देन है। बस्तर में बौद्ध धर्म के बाद जैन धर्म का प्रवेश खारवेल के शासन में ही हुआ था। 

हाथी गुफा प्रशस्ति निश्चित तौर पर बस्तर से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराती है। आज माओवाद के दंश से पीड़ित आधुनिक बस्तर जिसकी नियती में सिर्फ शोषण ही लिखा है वह   विद्याधरधिवास बस्तर पहली दुसरी सदी ईसा पूर्व भी धन्य धान्य से परिपूर्ण एवं संपन्न प्रदेश था। हीरालाल शुक्ल जैसे इतिहासकार के शब्दो में - ”बस्तर जो आज माड़िया प्रदेश दिखायी पड़ता है यह क्षेत्र पूर्ववती समय में बेहद ही संपन्न था जहां उच्च कोटि के विद्वान निवास करते थे। “ यह खारवेल के ही शासन का परिणाम था कि बस्तर में जैन धर्म का प्रचार प्रसार हुआ। हजारों वर्षो के अन्य राज्य वंशो के शासन उपरांत भी बस्तर में आज जैन धर्म की उपस्थिति प्राचीन प्रतिमाओं एवं मंदिरों से पता चलती है। 
ओम सोनी