28 दिसंबर 2019

शिकार की पुरानी तकनीक - चिक डोंडा

शिकार की पुरानी तकनीक - चिक डोंडा.....!

परसों केशकाल के आस पास मारी गांवों के भ्रमण के दौरान बड़ा ही रोमांचक अनुभव हुआ.ऊपर गहरा नीला आसमान,नीचे समतल मैदान,मिश्रित प्रकार के हरे-भरे वनों के सौंदर्य ने यात्रा को और भी आनंददायक बना दिया.पक्की सड़कों से इतर कच्चे लाल-लाल मुरम के रास्तों पर बाइक दौड़ाना,पगडंडियों से गुजरना,पुराने समय की याद दिला गया.


लोगों से मिलकर-बात करके उनसे कुछ जानकर-सीख कर दिल को बड़ा ही सुकून मिला.कुएँ मारी जाने का रास्ता एकदम निर्जन सा है.मैदान में बैल चराते या कोठार में काम करते हुए लोग या लकड़ियाँ ले जाती औरतें दिख जाती हैं.एक जगह तीन बच्चे नजर आ गए बाइक रोककर पास बुलाया तो वे बिना डरे झट करीब आ गए.बचपन में दूर से गाड़ी देखकर हम तो उल्टे पैर भाग जाया करते थे.
ये बच्चे थे विजय,राजेश और..... सबसे छोटे बच्चे का नाम मैं भूल रहा हूं.ये तीनों शिकार करने के लिए निकले थे.विजय के हाथ में चिक डोंडा था, के हाथ में तुमा था,जिसमें उन्होंने चुटिया(छोटे चूहे)भर रखे थे।चलिए चिक डोंडा के बारे में बता दूँ.चिक=गोंद,डोंडा=बाँस का पात्र(तरकश).बाँस के पात्र यानी डोंडा में किसी वृक्ष की गोंद को गर्म करके डाल दिया जाता है.
इसमें बाँस तीलियाँ डाल दी जाती हैं.ये तीलियाँ गोंद से चिपचिपी हो जाती हैं.इन तीलियों का प्रयोग चिड़िया फाँसने में किया जाता है. इन तीलियों को जमीन में घेरा बनाकर गाड़ दिया जाता है.इसके बीच में चुटिया अर्थात छोटा चूहा बांध दिया जाता है या दाने रख दिए जाते हैं.चारे की लालच में पक्षी के पर चिपचिपी तीलियों से चिपक जाते हैं,इस प्रकार में जीवित ही चिड़िया पकड़ लिया जाता है.


बच्चों के पास चूहे पकड़ने का लोहे का यंत्र भी था जिसे "बिलई" के नाम से जाना जाता है.मूंगफली और केले पाकर बच्चों के चेहरे खुशी से खिल उठे.उनकी सादगी,सरलता,भोलापन,व्यवहार कुशलता,और उनके मुख की प्रसन्नता ने हमारा हृदय जीत लिया।
अशोक कुमार नेताम