13 मई 2019

मोहरी का मोह

मोहरी का मोह....!

बस्तर के परंपरागत वाद्य यंत्रो मे मोहरी बाजा का अपना विशेष स्थान है. कोई भी शुभ काम मोहरी बाजा के बिना पुरा नही होता है. मोहरी और नगाड़े की मस्त धुनो का अद्भुत संगम ही मोहरी बाजा है.

मोहरी एक तरह से शहनाई का ही प्रकार है. बांस की खोखली नली मे बांसुरी की तरह ही सात छिद्र होते हैं. सामने पीतल का बना गोलाकार मुख लगा होता है. इस पर देवी देवताओ को समर्पित पवित्र चिन्हो जैसे पदचिन्ह, सुर्य, चान्द, नाग का अंकन रहता है. मोहरी के पीछे ताड पत्रो से बनी फ़ुकनी लगी होती है.

मोहरी की मधुर ध्वनि से देवगुड़ी का वातावरण भक्तिमय हो जाता है. मोहरी के कर्ण प्रिय धुनो का मोह छुटे नहीं छुटता...एक बार सुन ले तो बार बार सुनने की इच्छा होती है. शादी ब्याह मे मोहरी बाजा की मधुर धुने, पैरो को थिरकने को विवश कर देती है. नृत्य के कदम मोहरी के सुरो के साथ ताल से ताल मिलाकर थिरकते है. मोहरी और नगाड़े की जुगल बन्दी पुरे तन मे असीम उत्साह का संचार कर देती है.

मोहरी बजाना भी कोई आसान काम नहीं है. इसके लिये लम्बी और गहरी स्वासो की जरूरत पड़ती है. फ़ेफडो़ का मजबूत होना बेहद जरुरी है. मोहरी बाजा बजाने वाले माहरा जाति से होते हैं. पूजापाठ, शादी ब्याह मे मोहरी बाजा बजाने का काम माहरा जाति के ही लोग करते है. ये इनका पैतृक और सदियों पुराना काम है.