22 मई 2019

बस्तर के तीन व्यंजनों का अनूठा संगम

बस्तर के तीन व्यंजनों का अनूठा संगम.....!

इस टोकने में , फूटू (मशरूम), बोड़ा और चापड़े की चटनी से भरे तीन दोने रखे हुए है। इन तीनों से ही बस्तर के सबसे लजीज व्यंजन बनते है। बस्तर के ग्रामीण क्षेत्र के अधिकांश लोग उन व्यंजनों को बड़े चाव से खाते है। इन तीनों दोना का आकार भी उसी अनुपात है जिस अनुपात में उसे खाना चाहिये। सबसे छोटे दोना में चापड़ा की चटनी रखी हुई है। मध्यम आकार के दोना में छोटे छोटे आलू की तरह बोड़ा रखा हुआ है। सबसे बड़ा दोना फूटू से भरा हुआ है।
1. चापड़ा चटनी - पहले बात करते है चापड़ा चटनी की। आम, महुआ और सरगी के पेड़ो में लाल चींटियां अधिक मात्रा में रहती है। ऐसे पेड़ो में ये चींटियां अपने कुटूम्ब समेत घोसला बनाकर रहती है। स्थानीय तौर पर इन्हे चापड़ा कहते है। ग्रामीण इलाकों में चापड़ा चटनी को बहुत अधिक मात्रा में पसंद किया जाता है। चींटियों को उनके अंडे समेत नमक मिर्च के साथ पीसकर चटनी बनाई जाती है। यहां के ग्रामीणों के मानना है कि यह चापड़ा चटनी सेहत के लिये बहुत लाभदायक होती है। चींटियों के डंक मात्र से आदमी का बुखार ठीक हो जाता है। हाट बाजारों में आप चापड़ा चटनी बिकते देख सकते है। हां एक और बात कुछ दिनों पहले ही ब्रिटेन के विश्व प्रसिद्ध सेफ गार्डन रामसे बस्तर आये थे तब इन्होने चापड़ा चटनी को अपने इंटरनेशनल मेन्यू मे शामिल किया था।

2. बोड़ा - बोड़ा बस्तर की सबसे महंगी और लोकप्रिय सब्जी है। बरसात के शुरूआती दिनों में जब बादल गरजते है तब जमीन के अंदर में बोड़ा उगता है। साल के पेड़ो के तले ही बोड़ा मिलता है। इन पेड़ों के नीचे ग्रामीण जमीन खोदकर बोड़ा को बाहर निकालते है। शुरूआती दिनों में बोड़ा हजार रू. किलो तक बिकता है। बोड़ा बेहद ही नरम और मुलायम होता है। अच्छी तरह से धोकर इसे बनाया जाता है। जब बाजारों में बोड़ा आना प्रारंभ होता है तब लोगों की भीड़ बोड़ा खरीदने के लिये टूट पड़ती है। आप अंदाजा लगा सकते हो कि बोड़ा बस्तर में कितना लोकप्रिय है।
3. फूटू:- अंत में बात करते है फूटू की। यहां स्थानीय तौर पर मशरूम को फूटू कहा जाता है। मशरूम की कई प्रजातियां बस्तर में पायी जाती है। बरसात के दिनों में जब बाजारों में फूटू बिकने के लिये आते है तो लोग इसे खरीदने के लिये लालायित रहते है। हर कोई शुरूआती फूटू की सब्जी खाना चाहता है। अनेकों किस्म के फूटू यहां खाये जाते है। इन्हे सुखाकर भी खाया जाता है। कई फूटू बेहद जहरीले रहते है। बिना जानकारी के किसी भी तरह के मशरूम को नहीं खाना चाहिये।
दोस्तों इन तीनों की मैने संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर दी। आप अपनी जानकारियां कम्मेंट के माध्यम से देकर इसे विस्तृत किजिये। 
ओम.......!

छायाचित्र सौजन्य - शकील रिजवी भैया।
यदि आप इंस्टाग्राम में हो तो हमें जरूर फालो कीजिये।

सीप की मदद से तैयार करते हैं अमचूर

सीप की मदद से तैयार करते हैं अमचूर....!

बस्तर में आमा त्योहार के पश्चात से ही कच्चे आम को तोड़ कर अमचूर बनाने का कार्य ग्रामीण शुरू कर देते हैं। प्राय देखा जाता है कि आम से अमचूर बनाने के लिये चाकू से आम छिला जाता है. किन्तु बस्तर के कुछ क्षेत्रों मे आज भी पुराने परम्परागत तरिके का उपयोग देखने को मिलता हैं. आम छिलने के लिये चाकू के बजाय सीपी का प्रयोग यहाँ बस्तर मे देखने को मिल रहा है. आम के छिलके को निकालने के लिए "गुल्ली" सीप को उपयोग में लाया जाता है।

सीप से आम को छीलने का फायदा यह होता है कि अमचूर काला नही पड़ता और अमचूर सफ़ेद साफ़ रहती है. बाज़ार में उसका आसानी ने 60 ₹ से 80 ₹ तक प्रति किलो का मूल्य मिल जाता है। आम के छिलके को उतारने के पश्चात इसके मोटे टुकड़े काट कर घर की छतों पर 15 से 20 दिन तक सुखाया जाता है, फिर तैयार हो जाता है अमचूर।
बस्तर की इमली और अमचूर दक्षिण भारत मे बेहद पसंद किए जाते हैं। परंतु इसका दुखद पहलू यह भी है कि इस वनोत्पाद पर आधारित एक भी लघु उद्योग बस्तर में नही है। यदि वनोत्पाद आधारित उद्योग यहां स्थापित होता तो स्थानीय ग्रामीणों को अधिक आय होती,और बिचौलियों से मुक्ति मिलती।
पोस्ट एवं छायाचित्र साभार - @Shakeel Rizvi जी

20 मई 2019

कोलाब डैम- एक बेहतरीन पर्यटन स्थल

कोलाब डैम- एक बेहतरीन पर्यटन स्थल.......!

इंद्रावती के बाद बस्तर में दुसरी सबसे बड़ी कोई नदी है तो वह शबरी नदी। शबरी नदी सुकमा के पास से बहते हुए दक्षिण में छत्तीसगढ़ की सीमा रेखा बनाती है। ओडिसा के सींकाराम पहाड़ियों से निकलकर शबरी गोदावरी में विलीन हो जाती है। इंद्रावती के बाद शबरी गोदावरी की दुसरी सबसे बड़ी सहायक नदी है। ओडिसा में शबरी को कोलाब या खोलाब के नाम से भी जाना जाता है।
इसी कोलाब पर ओडिसा के कोरापुट जिले में बहुत बड़ा डेम बनाया गया है। यह डेम इस क्षेत्र में कोलाब डैम के नाम से चर्चित है। कोलाब डैम बस्तर के लोगों के लिये बेहद ही महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। हर साल हजारों लोेग कोलाब डैम में पिकनिक मनाने एवं घुमने के लिये जाते है।

कोलाब डैम बनाने की सुगबुगाहट अंग्रेजों के समय ही हो चुकी थी। 1976 में कोलाब डैम का निर्माण कार्य पुरा हुआ। कोलाब डैम में दुर दुर तक सिर्फ पानी ही पानी दिखलाई पड़ता है। जहां तक नजर जाती है वहां तक सिर्फ पानी ही नजर आता है। डैम के पास बहुत ही सुंदर बगीचा बनाया गया है।

जिसमें हजारों रंग बिरंगे फूल हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करते है। बगीचे में फैली हरियाली और पेड़ों की शीतल छांव पर्यटकों को काफी सुकून देते है। डैम में हिलोरे मारता कोलाब का पानी एक नया संगीत सुनाता है। आसपास के ग्रामों की ओड़िया संस्कृति भी काफी आकर्षित करती है। कोलाब डैम एक बेहतरीन पर्यटन स्थल है। जगदलपुर से ओडिसा के जयपोर होते हुुए डैम तक स्वयं के वाहन से जाया जा सकता है।

बस्तर में बेटे की तरह माना जाता है रखिया कुम्हड़ा को

बस्तर में बेटे की तरह माना जाता है रखिया कुम्हड़ा को....!

आप सभी कुम्हड़ा से जरूर परिचित होंगे। सामाजिक कार्यक्रमों में आपने कुम्हड़े की सब्जी तो जरूर खाई होगी। वैसे कुम्हड़ा के कई प्रकार है जिनमें रखिया कुम्हड़ा प्रमुख है। कुम्हड़े के उपर राख की तरह परत चढ़ी होने के कारण उसे रखिया कुम्हड़ा कहा जाता है।
कुम्हड़ा के बारे में लोगों में कई तरह की भ्रांतियां प्रचलित है। बस्तर में भी कुम्हड़े को लेकर कई तरह की मान्यतायें प्रचलित है। बस्तर में कुम्हड़े को बेहद ही सम्मानजनक स्थान दिया गया है। यहां की महिलायें रखिया कुम्हड़े को अपना बड़ा बेटा मानकर इसे काटने से बचती है। रखिया कुम्हड़ा काटना मतलब अपने बच्चे की बलि देना माना जाता है। इसलिये महिलायें कुम्हड़े को पुरूष से दो हिस्सों में कटवाती है उसके बाद ही उसे छोटे छोटे टूकड़ो में काटती है।

जब कुम्हड़े की सब्जी बनाई जाती है तो हमेशा मिल बांट कर ही खाई जाती है। प्रायः हर ग्रामीण , बाड़ी में कुम्हड़े की सब्जी जरूर लगाता है। मंदिरों में प्रतीकात्मक तौर पर कुम्हड़े की ही बलि दी जाती है। अपनी इन्ही विशेषताओं के कारण प्रतिवर्ष 29 सितम्बर को विश्व कुम्हड़ा दिवस भी मनाया जाता है। कुम्हड़ा की और क्या क्या विशेषताये है ? आप भी जरुर शेयर करे...!
फोटो.. शकील रिजवी भैया जी के सौजन्य से...!

14 मई 2019

साल वनों का द्वीप है बस्तर

साल वनों का द्वीप है बस्तर.....!

साल का वृक्ष छत्तीसगढ़ का राजकीय वृक्ष है। बस्तर में साल के पेड़ो की अधिकता के कारण बस्तर को साल वनों का द्वीप कहा जाता है। साल का पेड़ बस्तर की आदिवासी संस्कृति का अहम हिस्सा है। आदिवासी संस्कृति के बहुत से रीति रिवाज साल वृक्ष के बिना पुरे नहीं होते है। साल को यहां सरई भी कहा जाता है।

शादी विवाह के मंडप हो या छठी का कार्यक्रम इसके लिये मंडप साल पेड़ के टालियों और पत्तों से ही बनाया जाता है। इसकी छांव में ही ये कार्यक्रम संपन्न किये जाते है। सुबह की शुरूआत भी साल के दातौन से ही शुरू होती है। शादी ब्याह शोक आदि कार्यक्रमों मे दोना पत्तल के लिये साल के पत्तों का ही प्रयोग किया जाता है। अतिथियों को भोजन कराना हो या खुद पानी पीना हो उसके लिये साल के पत्ते से ही दोना पत्तल का उपयोग किया जाता है।
आदिवासी संस्कृति में साल के पत्तों का प्रयोग बेहद शुभ माना जाता है। साल के पेड़ तले उगने वाला बोड़ा बस्तर का सबसे लजीज सब्जी है। इसके व्यवसाय से लोगों को अच्छी खासी आमदनी होती है। साल के पत्ते से ग्रामीण चोंगी बीड़ी भी बनाते है। साल का वृक्ष प्रायः झुंडो में ही नजर आते है। एक साथ चार सौ पांच सौ साल के पेड़ लगे रहते है।

ये इतने उंचे होते है कि आधार से शीर्ष तक देखने में गले में मोच आने की संभावना रहती है। इन्ही साल वृक्षों के नाम पर ही गुलशेर खाँ शानी जी ने शाल वनों का द्वीप नामक पुस्तक भी लिखी है।
इसकी लकड़ी इमारती कामों में प्रयोग की जाती है। इसकी लकड़ी बहुत ही कठोर, भारी, मजबूत तथा भूरे रंग की होती है। साल के बारे में आप और क्या क्या जानते है जरूर शेयर करे।

13 मई 2019

मोहरी का मोह

मोहरी का मोह....!

बस्तर के परंपरागत वाद्य यंत्रो मे मोहरी बाजा का अपना विशेष स्थान है. कोई भी शुभ काम मोहरी बाजा के बिना पुरा नही होता है. मोहरी और नगाड़े की मस्त धुनो का अद्भुत संगम ही मोहरी बाजा है.

मोहरी एक तरह से शहनाई का ही प्रकार है. बांस की खोखली नली मे बांसुरी की तरह ही सात छिद्र होते हैं. सामने पीतल का बना गोलाकार मुख लगा होता है. इस पर देवी देवताओ को समर्पित पवित्र चिन्हो जैसे पदचिन्ह, सुर्य, चान्द, नाग का अंकन रहता है. मोहरी के पीछे ताड पत्रो से बनी फ़ुकनी लगी होती है.

मोहरी की मधुर ध्वनि से देवगुड़ी का वातावरण भक्तिमय हो जाता है. मोहरी के कर्ण प्रिय धुनो का मोह छुटे नहीं छुटता...एक बार सुन ले तो बार बार सुनने की इच्छा होती है. शादी ब्याह मे मोहरी बाजा की मधुर धुने, पैरो को थिरकने को विवश कर देती है. नृत्य के कदम मोहरी के सुरो के साथ ताल से ताल मिलाकर थिरकते है. मोहरी और नगाड़े की जुगल बन्दी पुरे तन मे असीम उत्साह का संचार कर देती है.

मोहरी बजाना भी कोई आसान काम नहीं है. इसके लिये लम्बी और गहरी स्वासो की जरूरत पड़ती है. फ़ेफडो़ का मजबूत होना बेहद जरुरी है. मोहरी बाजा बजाने वाले माहरा जाति से होते हैं. पूजापाठ, शादी ब्याह मे मोहरी बाजा बजाने का काम माहरा जाति के ही लोग करते है. ये इनका पैतृक और सदियों पुराना काम है.

गर्मी से राहत देता है मंडिया पेज

गर्मी से राहत देता है मंडिया पेज......!

गर्मी अपने चरम पर है। भीषण गर्मी के कारण बस्तर की धरती तप रही है। इस कारण घर से बाहर निकलने में लू लगने का खतरा अधिक रहता है। इतनी गर्मी होने के बावजूद भी यहां के स्थानीय ग्रामीण तेंदूपत्ता तोड़ाई, अमचूर बनाने जैसे कामों में व्यस्त है। इन्हें लू लगने का सबसे अधिक खतरा रहता है।
ऐसी गर्मी में यहां के स्थानीय ग्रामीण मंडिया पेज पीकर अपने आप को लू से बचाते है। मंडिया पेज शरीर को गर्मी से निजात दिलाता है। आजकल विभिन्न प्रकार के ठंडे पेय बाजारों में उपलब्ध है किन्तु इस मंडिया पेज का कोई तोड़ नहीं है। मंडिया पेज बस्तर की आदिवासी संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। स्थानीय ग्रामीण गर्मी के दिनों में मंडिया पेज का सर्वाधिक इस्तेमाल करते है।


मंडिया को हिन्दी में रागी कहा जाता है। मंडिया के आटे को रात भर एक कटोरी में भीगा कर रखा जाता है। सुबह तक यह घोल खटटा हो जाता है। सुबह पानी में चावल डालकर पकाते है। चावल पकने पर मंडिया के घोल को उसमें डालकर अच्छे से मिलाते है। स्थानीय हलबी बोली में इसे पेज कहते हैं।
पकने पर उतारकर ठंडा करके 24 घंटे तक इसका सेवन करते हैं। इससे शरीर को ठंडकता मिलती है और भूख भी शांत होती है।ग्रीष्मकाल में शरीर के लिये जल की अधिक आवश्यकता को ग्रामीण इस पेज से पुरी करते है। मंडिया पेज गर्मी के मौसम में प्यास बुझाने के साथ-साथ सेहत के लिये स्वास्थ्यवर्धक, शक्ति वर्धक पेय का विकल्प है। यह शरीर के तापमान को नियंत्रित करने के साथ-साथ पाचन क्रिया को भी ठीक करता है।
ग्रामीण महिलायें तेज धूप में बच्चों को धूप से बचाव हेतु उनके सिर पर मंडिया आटा का लेप लगाती हैं। प्रायः यह पेज हांडी में ही रखा जाता है। ग्रामीण कार्य करने हेतु जब घरो से बाहर निकलते है तो तुम्बा में मंडिया पेज साथ में लेकर निकलते है।

3 मई 2019

न्याय की देवी - केशकाल की भंगाराम मांई

न्याय की देवी - केशकाल की भंगाराम मांई ....!

केशकाल मे देवी भँगाराम माई का मंदिर सैकड़ों साल पुराना है. बस्तर मे भंगाराम माई को न्याय की देवी के रूप मे पूजा जाता है.आदिम संस्कृति में कई व्यवस्थायें ऐसी है जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते जिन देवी देवताओं की पूरी आस्था के साथ पूजा अर्चना की जाति है उन्हीं देवी देवताओं को भक्तों की शिकायत के आधार पर सजा भी मिलती है। 

यहां पर देवी देवताओं से वर्ष भर में किये गये कार्यों का हिसाब किताब लेखा-जोखा होता है वहां पर देवी देवताओं को उनके ठीक कार्य नहीं करने पर उसे सजा सुनाई जाती है जो देवताओं के कार्य ठीक रहने पर उसे उच्च कोटी का दर्जा दिया जाता है।
यहां प्रतिवर्ष भादो माह के कृष्णपक्ष के शनिवार के दिन भादो जातरा का आयोजन किया जाता है .जातरा के पहले छः शनिवार को सेवा (विशेष पूजा) की जाती है और सातवें अंतिम शनिवार को जातरा का आयोजन होता है । इस अंतिम शनिवार को जातरा के दिवस क्षेत्र के नौ परगना के देवी देवता के अलावा पुजारी, सिरहा, गुनिया, मांझी, गायता मुख्या भी बड़ी संख्या में शामिल होते है ।
यह मेला शनिवार के दिन ही लगता है, क्षेत्र के विभिन्न देवी देवताओं का भंगाराम मांई के दरबार में अपनी हाजरी देना अनिवार्य होता है । जात्रा के दिन भंगाराम मांई के दरबार पर महिलाओं का आना प्रतिबंधित होता है ।
सभी देवी देवताओं को फुल पान सुपारी मुर्गा बकरा बकरी देकर प्रसन्न किया जाता है वहीं भंगाराम मांई के मान्यता मिले बिना किसी भी नये देव की पूजा का प्रावधान नहीं है । देवी देवताओं के मेला में क्षेत्र व दूरदराज के लोग भी काफी संख्या में उपस्थित होते है ।
नवरात्रि मे बस्तर के नौ देवी मंदिरो की जानकारी के तहत आज आठवी पोस्ट... अधिक से अधिक शेयर करें!

बस्तर की चित्रकला

बस्तर की चित्रकला.....!
बस्तर मे चित्रकला लाखो सालो से चली आ रही है. बस्तर की धरती मे आदिमानवो के द्वारा बनाये हुए सैकड़ों शैल चित्र आज भी देखे जा सकते हैं. कांकेर से लेकर बीजापुर तक शैल चित्रो की लम्बी फ़ेरहिस्त है.
आदिमानव युग की चित्रकला आज भी बस्तर मे जीवित है. फ़र्क इतना आदिमानवो ने चित्र चट्टानों पर उकेरे और आज उनके वंशज घर की दीवारो और मृतक स्मारको पर चित्रकारी करते हैं.
यहाँ के चित्रो मे मौलिकता के साथ साथ आदिवासी संस्कृति की छाप दिखलाई पड़ती है जो कि बस्तर चित्रकला की मुख्य विशेषता है. मृतक स्तम्भो पर बनाये गये चित्रो से सामाजिक स्थिति को समझने मे मदद मिलती है. आज भी बस्तर की चित्रकला का संसार मृतक स्मारको पर ही देखने को मिलता है.
भित्तिचित्रकला मे भी बस्तर के चितेरे काफ़ी माहिर है. ग्रामीण क्षेत्रों मे आज भी घरो की दीवारो पर बस्तर की खूबसूरती के रंग देखने को मिलते है.
यहाँ के चित्रकला की बात ही निराली है... आदिम संस्कृति की असली रंगीन दुनिया इन्ही चित्रो मे ही समाहित है.
ओम सोनी.

बस्तरिया बोबो

बस्तरिया बोबो का स्वादिष्ट नाश्ता.......!
राह चलते फोटोग्राफ़ी 04
राह चलते हमें सड़क किनारे एक महिला बोबो बेचते हुये मिली। कढ़ाही में तलते हुये बोबो देखकर रहा नहीं गया, चारो तरफ फैली सुगंध ने तो हमें मजबूर कर दिया कि आज तो हम बोबो खाकर ही आगे बढ़ेगे।
बस्तर की स्थानीय बोलियों में उड़द के चपटे बड़ों को बोबो कहा जाता है। बोबो उड़द दाल और चावल के घोल से तैयार होने वाला स्वादिष्ट व्यंजन है। साथ में तली हुई मिर्ची मिल गई तो बस मजा आ गया बोबो खाने में ।



बस्तर के व्यंजनों में बोबो सबसे सस्ता और स्वादिष्ट नाश्ता है। हाट बाजारों के दिनों में बोबो बेचती हुई कई ग्रामीण महिलायें मिल जाती है। सड़क किनारे कहीं भी अच्छी जगह देखकर चुल्हा लगा लिया जाता है, घर से बोबो के लिये उड़द का घोल तैयार लाते है और फिर गर्म तेल की कढ़ाही में तलकर बोबो खाने के लिये तैयार हो जाता है।
बीस रूपये में तो हम दोनों के लिये पेटभर बोबो खाने को मिल गये। बस्तर में आपने कभी बोबो खाया है कि नहीं ? जब कभी बस्तर आये तो बस्तर का स्वादिष्ट व्यंजन बोेबो जरूर खायें।
राह चलते फ़ोटोग्राफ़ी की कड़ी मे यह 4 थी पोस्ट है। बाईक से कुल 70 किलोमीटर की यात्रा करते समय मैने जो देखा उसे उसी अवस्था मे कैमरे मे कैद किया।
राह चलते फ़ोटोग्राफ़ी मे पहले से कुछ भी तय नहीं होता कि क्या फोटो लेना है जो भी अच्छा लगे बस क्लिक कर लो। हाँ कैमरा हरदम हाथों मे होना चाहिए , पता नहीं अगले मोड़ पर कौन सा अच्छा पल मिल जाये!

केसरपाल के बेल फल

केसरपाल के बेल फल....!
राह चलते फोटोग्राफी 06
हमारा सफर केसरपाल पहुंच कर कब खत्म हो गया, पता ही नही चला। केसरपाल बस्तर ग्राम से 15 किलोमीटर अंदर की तरफ स्थित एक छोटा सा ग्राम है। केसरपाल को तेरहवी सदी में नाग शासकों की राजधानी होने का गौरव प्राप्त है।
इस ग्राम में पुरातात्विक महत्व के ध्वंसावशेष एवं प्रतिमायें बिखरी पड़ी है। एक ध्वस्त मंदिर के अवलोकन करते समय पास ही एक बेल वृक्ष पर मेरी नजर पड़ी। बेल के फलों से लदालद यह वृक्ष, नीले आसमान के तले, अपनी हरितिमा बिखेरते हुए काफी खुबसूरत लग रहा था। मनभावन हरे रंग में रंगे बेल के फल तो हमें चिढ़ाने लग गये। इच्छा हो रही थी कि बेल के फल तोड़कर उनका शरबत पान किया जावे।

बेल एक ऐसा पेड़ है जिसके प्रत्येक चीज का सेहत बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। आयुर्वेद में तो बेल के अनेकों फायदे की चर्चा की गई है। बेल का फल कड़ा और चिकना होता है। यह फल कच्ची अवस्था में हरे रंग और पकने पर सुनहरे पीले रंग का हो जाता है।
कवच तोड़ने पर पीले रंग का सुगन्धित मीठा गूदा निकलता है जो खाने और शर्बत बनाने के काम आता है। इसका शर्बत काफी ठंडा और फायदेमंद होता है। ये कब्ज , अपच , पेट के अल्सर , बवासीर , साँस की तकलीफ , डायरिया आदि से मुक्ति दिलाता है। वायरल और बेक्टेरियल इन्फेक्शन को रोकता है।
धार्मिक दृष्टिकोण से बेल के वृक्ष का अत्यंत महत्व है, क्योंकि शिवजी की पूजा के लिए इसके तीन पते वाले गुच्छे चढ़ाए जाते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि भगवान शिव इस वृक्ष के तले ही वास करते हैं। इसके वृक्ष प्रायरू समस्त भारत में मिलते हैं। इसकी छाया बड़ी शीतल और आरोग्यकारक मानी जाती है।रोगों को नष्ट करने की क्षमता के कारण बेल को बिल्व कहा गया है।
जितना मुझे इस बेल फल और वृक्ष से जुड़ी जानकारी ज्ञात थी वो मैने आपसे शेयर की। आप भी कुछ बताईये बेल और इसके फायदों के बारे में।
राह चलते फोटोग्राफी की कड़ी मे यह छठवी पोस्ट है। राह चलते फोटोग्राफी मे पहले से कुछ भी तय नहीं होता कि क्या फोटो लेना है जो भी अच्छा लगे बस क्लिक कर लो।
हाँ कैमरा हरदम हाथों मे होना चाहिए , पता नहीं अगले मोड़ पर कौन सा अच्छा पल मिल जाये!

2 मई 2019

कुआं नही है ये है चुआं

कुआं नही है ये है चुआं.....!

ये कुआं नहीं है चुआं है। कुआं का छोटा भाई चुंआ। बहुत से लोग कुएं के छोटे भाई चुएं को बिलकुल भी नहीं जानते है। बस्तर में आपको कुएं कम चुएं अधिक मिलेगे। दस हाथ गहरे और पानी से लबालब भरे ये चुऐं ही ग्रामीणों के लिये परम्परागत जल स्रोत है। इन चुओं से पानी पीने में ग्रामीणों की कई पीढ़ियां बीत गई है। नदी के किनारे वाले ग्रामीण बस्तियों में बस दस हाथ जमीन खोदते ही पानी निकल आता है। 

आसपास की मिटटी कई चुएं में ना गिर जाये, इसलिये सागौन  के पाटे चुएं के अंदर चारों तरफ लगाये जाते है। चुएं के और भी छोटे रूप भी देखे जा सकते है। जमीन से फूटते किसी फव्वारे पर पेड़ का खोखला तना लगा दिया जाता है और फिर उस पानी का उपयोग घरेलु कार्यो में किया जाता है। बस्तर में कुछ क्षेत्रों में इस चुआं  तो कुछ जगहों में तुम भी कहा जाता है। 
ग्राम बेंगलूर का एक चुआं .... फोटो ओम सोनी

बस्तर के परंपरागत जलस्रोतों में नदी तालाब के बाद तीसरा नाम चुआं का ही आता है। बड़े कुएं तो कभी देखने को भी नही मिलते है। जब दस हाथ में पानी निकल जाये तो गहरे कुओं की क्या जरूरत। हैंडपंप और बोरवेल के जमाने में आज भी चुएं सबसे आगे है। 

बस्तर का मौसम भी तेजी से बदल रहा है। साल दर साल इंद्रावती सुखती जा रही है जिसके कारण चुओं का पानी कम होता जा रहा है। चुओं की जगह बोरवेल लेता जा रहा है। वन कट रहे है इंद्रावती मर रही है और पानी कम हो रहा है। ये हालात बस्तर के लिये बड़े ही घातक सिद्ध होंगे। पेड़ों को बचाना है, ओडिसा में बने बांधों से इंद्रावती को भी बराबर का पानी मिलना आवश्यक है नहीं तो इंद्रावती दम तोड़ देगी और उसके साथ ही चुएं भी पुरानी बाते हो जायेगे। 

ओ से होती है ओखली

ओ से होती है ओखली........!

बचपन से आज तक हम ओ से ओखली ही पढ़ते आये है। ओ से और भी कई चीजे होती है परन्तु , इस पर कभी ध्यान ही नहीं गया। ओखली और हमारा रिश्ता विद्यालय के शुरूआती दिनों से ही शुरू हो जाता है। उस समय तो ओखली को जानने का एक ही चित्र होता था एक महिला खड़ी होकर मूसल से गोलाकार ओखली में मसाले कुटते हुए दिखाई पड़ती , मन मस्तिष्क में बस आज तक यही चित्र अंकित है। 

धीेरे धीरे ओखली को और भी करीब से जाना, जब मां स्टील की बनी छोटी सी ओखली में मसाले, लहसून, सुखी मिर्च कुटती थी , तो उसकी ठन ठन की वो आवाज आज भी कानो में सुनाई पड़ती है। कुटे मसालों की वह खुश्बु आज भी महसूस होती है।  ओखली में कुटे हुऐ मसालों से बनी जायकेदार सब्जी का तो क्या कहना बस उंगलियां चाटते रहो ऐसा आनंद तो मिक्सरग्राइंडर से ना मिलता है। 

ओखली को परिभाषित करता यह मुहावरा तो लगभग सभी को याद है। जब ओखली में सिर दिया है तो मूसल से क्या डरना अर्थात जब कठिन काम करने का निर्णय ले लिया है तो मुसीबतों से क्या डरना।  छोटी सी यह ओखली सफल जीवन जीने का सार्थक संदेश देती है। 

ओखली और मूसल का रिश्ता पति और पत्नि की तरह ही है।  दो सच्चे प्रेमियों का प्रेम तो मूसल और ओखली में ही दिखता है। पति पत्नि का प्रेम देखना है तो मूसल और ओखली को प्रेम को समझिये , लड़ते है झगड़ते है फिर भी दोनो साथ रहते है। एक के बिना दोनो ही अधुरे है। 

ओखली भी तरह तरह की होती है। स्टील की, पत्थर की और लकड़ी की......और भी कई धातुओं की बनी होती है। छोटी से लेकर बड़ी तक ओखली और मूसल देखने को मिल जाते है। 

एक ग्रामीण के घर में मैने लकड़ी की यह पुरानी ओखली देखी। उस घर की वृद्ध महिला ने बताया कि इस ओखली में मेरी सास मिर्च मसाले कुटा करती थी और आज मेरे पोते की बहु मसाला कूटती है। ओखली का पीढ़ियों से भी पुराना रिश्ता आज भी ग्रामीण इलाकों में देखने को मिल जाता है। जितना समझा और जाना, उतना बखान किया इस ओखली का..........अब आप की बारी कुछ तो कहिए ओखली के बारे में। 
ओम सोनी दंतेवाड़ा