31 दिसंबर 2019

पालनार की पेंटिंग में दंतेवाड़ा पर्यटन का निमंत्रण

पालनार की पेंटिंग में दंतेवाड़ा पर्यटन का निमंत्रण.....!

दंतेवाड़ा के कुआंकोंडा विकासखंड में पालनार नामक छोटा सा ग्राम स्थित है। इस गांव की आवासीय संस्था की चारदीवारी पर दंतेवाड़ा जिले की कला संस्कृति और पर्यटन स्थलों को बेहद खूबसूरत तरीके से उकेरा गया है। हालांकि कलाकार का नाम तो ज्ञात नही किन्तु उसने जिसने कुशलता के साथ चित्रकारी की है जिससे ये सारे चित्र जीवंत प्रतीत होते है।

चित्रों का आकार और उचित रंगों का प्रयोग बेहद ही प्रशंसनीय है। ये चित्र दंतेवाड़ा कला संस्कृति को दिखाने के साथ साथ पर्यटन को भी प्रोत्साहित करते है। चित्रकारी इतनी मनमोहक और जीवंत है कि, कोई भी फोटोग्राफर इन कलाकृतियों को अपने कैमरे में कैद करने से रोक ही नहीं सकता है।

उकेरे गये चित्र अपने आप में अपनी पुरी कहानी कह देते है। स्थानीय संस्कृति और रोजमर्रा के क्रियाकलापों को बहुत जानदार तरीके से चित्रण किया गया है। नाव में खड़े होकर महिला द्वारा पक्षियों को दाना चुगाना एक नयी प्रकार संस्कृति को दिखाता है।

नाव में खड़ा मल्लाह जाल फैलाकर मछली पकड़ रहा है तो खेत मेें छतोड़ी पहनकर घुमता किसान काफी आकर्षक लग रहा है। बैलगाड़ी के पीछे जाती महिला का दृश्य तो रोज देखने को मिलता है। अंधेरे में दीपक जलाती हुई महिला अंधकार से रोशनी की ओर जाने का संदेश देती है।

जंगल में भ्रमण के बाद तालाब के पानी से प्यास बुझाते बालक का दृश्य आज की हकीकत है। विद्यालय में पढ़ते बच्चे, और लाईब्रेरी में पुस्तके खोजती बालिका का दृश्य दंतेवाड़ा में पढ़ने की जागरूकता को दर्शाता है।

आराध्यदेवी मां दंतेश्वरी के आर्शीवाद के साथ बारसूर दंतेवाड़ा , फूलपाड़, चित्रकोट को बहुत शानदार तरीके से चित्रित किया गया है। ढोलकल में परशुराम और भगवान गणेशजी के पौराणिक तथ्यों को भी चित्र के माध्यम से कहने का प्रयास किया गया है।
आखिरी में बालक द्वारा फोटोग्राफी का दृश्य आप सभी को निमंत्रण देता है कि आईये 2020 में देखिये दंतेवाड़ा की कला संस्कृति और पर्यटन स्थलों को और कैद कीजिये उन स्वर्णिम दृश्यो को अपने कैमरे में।
साथ ही साथ बेहद खूबसूरत एवं जीवंत चित्रकारी के लिये उस कलाकार को बहुत बहुत साधुवाद।
ओम !
इस लिंक द्वारा आप पुरे चित्र देख सकते है पालनार की पेंटिंग

30 दिसंबर 2019

अग्नि का हस्तांतरण



अग्नि का हस्तांतरण......!

बस्तर के अन्दरुनी ग्रामीण अंचल मे आज भी चुल्हे की आग जलाने के लिये माचिस का उपयोग ना के बराबर होता है. बस्तर के घरो के चुल्हे मे जलाई गयी आग कभी बुझती नहीं है.

यदि चुल्हे की आग पुरी तरह से बूझ भी जाती है तो पड़ोसी के घर से अंगार, खपरे या पेड़ की छाल मे लायी जाती है. इस प्रकार अग्नि का यह हस्तांतरण आपसी रिश्तो मे भी गर्माहट पैदा करता है.
अग्नि का हस्तांतरण कर चुल्हा सुलगाने की परम्परा सदियों पुरानी है, जो आज भी बस्तर के ग्रामीण अंचलो मे देखने को मिलती है.

बेलन से धान मिंजाई और वो पुरानी यादें

बेलन से धान मिंजाई और वो पुरानी यादें...!

छत्तीसगढ़ में बेलन से धान मंजाई बहुत प्रसिद्ध है. कोंडागांव के आसपास कुछ घरों में अब भी बेलन से धान मिंजाई की जाती है. बेलन लकड़ी का एक यंत्र होता है जो बहुत भारी होता है। प्रयास साल वृक्ष से इसका निर्माण किया जाता है.
बेलन की डांडी दो हिस्सों में बांट कर बेलन के दोनों किनारों से जुड़ती है। यहां स्नेहक के रूप में ओंगन का प्रयोग किया जाता है। डांडी के आगे जुआँड़ी की सहायता से दो बैल फांदकर बेलन चलाया जाता है।बीच बीच में फसल को दो तीन बार पलटना पड़ता है,यह प्रक्रिया धान डोबना कहा जाता है।
धान डोबने का हाथियार भी होता है।धान मिंजाई का यह तरीका अधिक कारगर है क्योंकि बेलन की बाहर से धान बहुत जल्दी अलग हो जाता है.

चांदी सी चमकती शीतल चांदनी रात हो और आपको बेलन फांदने का अवसर मिले तो समझिए कि स्वर्ग ही मिल गया।अंगीठी के नजदीक बैठकर बुजुर्गों के पुराने किस्से कहानियां सुनना बड़ा ही मजेदार और रोमांचक हुआ करता था।
इसके बाद की कहानी तो और भी रोमांचक है।रात के समय सोने से पहले कोठार में बिखेरे गए फसल की सुरक्षा के लिए एक "डोकरा" बनाया जाता है। यह डोकरा धान के पैरे से बनाया जाता है,जिसे बाकायदा साग-भात परोसा जाता है।
यही नहीं रात को कोठार में बिखरे गए धान चाहे वह पैरा सहित हो या पैरा रहित,के चारों ओर पैरा जलाकर काली राख की रेखा बनाई जाती है।लोगों का विश्वास है कि इससे डुमा(भूत- प्रेतादि)उनके फसल पर कुदृष्टि नहीं डाल पाते।
अभी हाल में ही हमारे कॉलेज का शिविर जिस पाढ़ापुर गांव में लगा था,वहां पर भी कोठार के चारों दिशाओं के रास्तों पर राख की 3-3लकीरें डाली गई थीं।दरअसल वह भी यही टोटका था।

बस्तर में चावल रहित धान "दरभा" कहलाता है।जिसे हवा की मदद से उड़ाकर अलग कर दिया जाता है।उड़ाने की तकनीक भी बिल्कुल ही बदल गई पहले हवा के तेज बहने का इंतजार किया जाता था अब पंखे आ गए पहले हाथ पंखे और अब इलेक्ट्रॉनिक पंखे।
अब थ्रेसर मशीन ने तो धान उड़ाने का झंझट ही खत्म कर दिया।पहले लोग धान सूप में लेकर हवा के बहने का इंतज़ार किया करते थे।हवा का रुख पता करने के लिए एक लंबी लकड़ी पर धागे की सहायता से एक सूखा पत्ता बांध दिया जाता था।यह दिक्सूचक यंत्र का काम करता था।कंधे की ऊंचाई से धीरे-धीरे धान सूप से नीचे गिराया जाता है.धान अलग और दरभा अलग।
क्या तकनीक थी,बचपन का वो समय कितना शानदार था वो।पर अफसोस की आज के "कल" ने हमारा वो सुन्दर और सुनहरा कल छीन लिया।
अशोक कुमार नेताम

28 दिसंबर 2019

शिकार की पुरानी तकनीक - चिक डोंडा

शिकार की पुरानी तकनीक - चिक डोंडा.....!

परसों केशकाल के आस पास मारी गांवों के भ्रमण के दौरान बड़ा ही रोमांचक अनुभव हुआ.ऊपर गहरा नीला आसमान,नीचे समतल मैदान,मिश्रित प्रकार के हरे-भरे वनों के सौंदर्य ने यात्रा को और भी आनंददायक बना दिया.पक्की सड़कों से इतर कच्चे लाल-लाल मुरम के रास्तों पर बाइक दौड़ाना,पगडंडियों से गुजरना,पुराने समय की याद दिला गया.


लोगों से मिलकर-बात करके उनसे कुछ जानकर-सीख कर दिल को बड़ा ही सुकून मिला.कुएँ मारी जाने का रास्ता एकदम निर्जन सा है.मैदान में बैल चराते या कोठार में काम करते हुए लोग या लकड़ियाँ ले जाती औरतें दिख जाती हैं.एक जगह तीन बच्चे नजर आ गए बाइक रोककर पास बुलाया तो वे बिना डरे झट करीब आ गए.बचपन में दूर से गाड़ी देखकर हम तो उल्टे पैर भाग जाया करते थे.
ये बच्चे थे विजय,राजेश और..... सबसे छोटे बच्चे का नाम मैं भूल रहा हूं.ये तीनों शिकार करने के लिए निकले थे.विजय के हाथ में चिक डोंडा था, के हाथ में तुमा था,जिसमें उन्होंने चुटिया(छोटे चूहे)भर रखे थे।चलिए चिक डोंडा के बारे में बता दूँ.चिक=गोंद,डोंडा=बाँस का पात्र(तरकश).बाँस के पात्र यानी डोंडा में किसी वृक्ष की गोंद को गर्म करके डाल दिया जाता है.
इसमें बाँस तीलियाँ डाल दी जाती हैं.ये तीलियाँ गोंद से चिपचिपी हो जाती हैं.इन तीलियों का प्रयोग चिड़िया फाँसने में किया जाता है. इन तीलियों को जमीन में घेरा बनाकर गाड़ दिया जाता है.इसके बीच में चुटिया अर्थात छोटा चूहा बांध दिया जाता है या दाने रख दिए जाते हैं.चारे की लालच में पक्षी के पर चिपचिपी तीलियों से चिपक जाते हैं,इस प्रकार में जीवित ही चिड़िया पकड़ लिया जाता है.


बच्चों के पास चूहे पकड़ने का लोहे का यंत्र भी था जिसे "बिलई" के नाम से जाना जाता है.मूंगफली और केले पाकर बच्चों के चेहरे खुशी से खिल उठे.उनकी सादगी,सरलता,भोलापन,व्यवहार कुशलता,और उनके मुख की प्रसन्नता ने हमारा हृदय जीत लिया।
अशोक कुमार नेताम

27 दिसंबर 2019

विलुप्त होती धान मिंजाई की परंपरागत तकनीक - वंजीविश्नद, मांजन, दाँवर

विलुप्त होती धान मिंजाई की परंपरागत तकनीक - वंजीविश्नद, मांजन, दाँवर ....!

भारत कृषि प्रधान देश है किन्तु अब कृषि सिर्फ गांवो में बची हुई है। अधिकांश गांवों में खेती की पुरानी परंपरागत तरीके अब आधुनिकता की भेंट चढ़ चुके है।
नयी तकनीकों ने कृषि में उत्पादन एवं सरलता को नये आयाम तो दिये ही है किन्तु उन परंपरागत तरीको को पुरी से खत्म करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है।

ट्रैक्टर के प्रयोग ने गोवंश की उपयोगिता को खत्म किया तो वहीं धान मिंजाई में भी गोवंश का स्थान थ्रेसर ने ले लिया है।
रासायनिक खादों से उत्पादन बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा हमें मौत के मुंह में ढकेल रही है। भले ही भारत के अधिकांश जगहों में खेती ने अपना आधुनिक रूप अपना लिया है किन्तु देश के कुछ इलाकों में आज भी खेती की पुरानी परंपरागत तकनीके प्रचलित है। उन क्षेत्रों में बस्तर भी शामिल है।

बस्तर के कुछ क्षेत्रों में आज भी परंपरागत तरीके से ही खेती की जाती है। ट्रैक्टर की सुलभता के कारण हल से खेत की जुताई निंदाई के दृश्य तो अब कम ही दिखते है किन्तु गांवों में धान मिंजाई का काम अभी भी गाय भैसों के जरिये ही किया जाता है।

खेतों के आस पास ही पेड़ के किनारे खाली जगह चुन ली जाती है। उस जगह को साफ सुथरा कर गोबर से लीपा जाता है। चयनित स्थल के बीचों बीच गडढा खोदकर लकड़ी का मजबूत खूंटा गाड़ दिया जाता है। इस जगह को कोठार कहा जाता है। कोठार को बेहद पवित्र माना जाता है इसमें हम चप्पल या जूते पहन कर नहीं जा सकते है।

कोठार में खूंटे के चारों ओर गोलाकार रूप में , काटे हुए धान की बालियां बिछा दी जाती है। उसके उपर खूंटे से सात आठ गाय बैल को बांध कर धान के उपर गोल गोल घुमाया जाता है। खुरों के दबाव से धान के बीज जमीन में गिर जाते है और पैरा पड़ा रह जाता है।

बाद में पैरा अलग कर धान के बीजों को बोरी में भर लिया जाता है। इस प्रक्रिया को बस्तर की स्थानीय बोलियों में मांजन कहा जाता है। वहीं गोंडी में इसे वंजीविश्नद कहा जाता है। दुसरे इलाकों में इसे दांवर कहा जाता है।
धान मिंजाई करने का यह परंपरागत तरीका सिर्फ इसीलिये चलन में है क्योंकि अभी तक ट्रैक्टर की तरह थ्रेसर गांवों में आसानी से उपलब्ध नहीं है और महंगा होना भी एक कारण है।
आगे संभव है कि गाय बैलों द्वारा धान मिंजने का तरीका सिर्फ चलचित्रों या तस्वीरों में देखने को मिलेगा।
ओम !

26 दिसंबर 2019

कांगेर घाटी की दुर्लभ हरी गुफा

कांगेर घाटी की दुर्लभ हरी गुफा.......!

बस्तर की कांगेर घाटी में अनेकों ऐसे रहस्यमयी स्थल है जिससे आज की दुनिया पुरी तरह अनजान है। कांगेर घाटी की कोटमसर गुफा विश्व प्रसिद्ध है वहीं ऐसी अनेको और भी गुफायें है जिसकी जानकारी सिर्फ वहां के ग्रामीणों को ही है।
कांगेर घाटी में कोटमसर की तरह ही अनेकों गुफायें है जहां पहुंचने का मार्ग सिर्फ वहां के स्थानीय ग्रामीणों को ही ज्ञात है। कोटमसर गुफा अपने स्टेगलाईट, अंधी मछलियों के लिये जग प्रसिद्ध है।
इसी तरह कांगेर घाटी में एक अन्य गुफा हाल के कुछ सालों में प्रकाश में आयी है इस गुफा को हरी गुफा के नाम से जाना जाता है। कोटमसर से लगभग 7 किलोमीटर की दुरी पर घने जंगलों में स्थित इस गुफा का पहुंच मार्ग सिर्फ ग्रामीणों को ही मालूम है।

गुफा का प्रवेश मार्ग भले ही सकरा है किन्तु अंदर कोटमसर गुफा की तरह विशाल कक्ष मौजूद है। इस गुफा के प्रथम कक्ष में छतों से लटकते स्टेग्लेटाइट के नमीयुक्त पत्थरों पर सूरज का प्रकाश पड़ता है और नमीयुक्त चट्टानों पर शैवाल उग आते हैं। इन्हीं शैवालों की वजह से ये चट्टानें हरी दिखाई पड़ती हैं। इसी हरे पन के कारण इस गुफा को हरी गुफा का नाम दिया गया है।
हरी गुफा की सबसे बड़ी खासियत इसका हरा होना तो है ही इसके अलावा ये बस्तर की एकमात्र ऐसी गुफा है जहां दोपहर बाद कुछ देर के लिए सूरज की रौशनी अंदर आती है। इस गुफा को अभी आम पर्यटकों के लिए नहीं खोला गया है।
हरी गुफा के इस शानदार छायाचित्र के लिये उमेश सिंह जी का बहुत आभार ।

विलुप्त होता बस्तर का हुलकी मंदर-हुलकी पाटा

विलुप्त होता बस्तर का हुलकी मंदर-हुलकी पाटा...!

आप हैं बासुदेव मरकाम.आप पुराने समय को,पुरानी परम्पराओं को खासकर प्रथा घोटुल को बहुत याद करते हैं.पर आपको आज की पीढ़ी से थोड़ी नाराजगी है,क्योंकि वर्तमान पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक विरासत से दूर भाग रही है.
लोकगीत-लोकनृत्य आदि की परम्पराएँ लुप्त हो रही है.आपका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति,धर्म भाषा, वेशभूषा, संस्कृति, धरती, जल,वन से प्रेम होना ही चाहिए.

आदिम परम्परा,संस्कृति,गीत-संगीत व नृत्य प्रेमी श्वसुरजी ने स्वयं ही एक हुलकी मंदर तैयार किया है.बड़े डमरु के आकार का यह मंदर उन्होंने कुड़सी(गोंडी)सिवना(हल्बी) खम्हार वृक्ष से बनाया है.जिस पर दोनों ओर चढ़ाए गए खाल को पटसन के सुतली की सहायता से तानकर बाँधा गया है.इस मंदर से "डु डुंग डु डुंग डु डुंग" इस प्रकार की बड़ी ही सुंदर आवाज आती है.इस वाद्य यंत्र का प्रयोग हुलकी नृत्य में किया जाता है.

दीपावाली से 10-12 दिन पहले से लेकर धान कटाई तक गाँवों में हुलकी नृत्य किया जाता है.इस नृत्य में लड़के-लड़कियाँ दोनों भाग लेती हैं.लड़कियाँ कंधों पर हाथ डाले गोल पंक्ति में थिरकती हैं.उसके बीच लड़के एक हाथ में हुलकी मंदर बजाते और गीत गाते हुए नाचते हैं.दीवाली के बाद आस-पास के दूसरे गाँवों में घूम-घूमकर भी हुलकी नृत्य किया जाता है.
फिलहाल सुनिए ससुरजी द्वारा निर्मित हुलकी मंदर की ताल पर उन्हीं के द्वारा गाया गया एक सुंदर सा हुलकी पाटा...
सिल्लप रोले रो रोले रोले रो रोले.
सिल्लप रोले रो रोले रोले रो रोले.
आतिर वातिर नांगर रो बाबु सिलेदार.
कारी कोसुम नांगर रो बाबु सिलेदार.
आतिर वातिर डांडी रो बाबु सिलेदार.
जाति हरंगी डाँडी रो बाबु सिलेदार.
आतिर वातिर जुँअाड़ी रो बाबु सिलेदार.
कट कड़सी जुँआड़ी रो बाबु सिलेदार.

बहुत बहुत आभार लेख श्री अशोक कुमार नेताम

23 दिसंबर 2019

छिन्द कीड़ा का स्वादिष्ट व्यंजन

छिन्द कीड़ा का स्वादिष्ट व्यंजन ......!
बस्तर ने जहाँ कई विविधताओ को अपने अन्दर समेटे रखा है वही यहाँ की लोककला,संस्कृति ,रहन-सहन और खान-पान भी अपने में बेमिसाल है| बस्तर की पहाड़ी इलाको में मिलने वाले बौने छिंद के पौधे भी कई तरह से ग्रामीणों के आय के स्रोत है!
बाजारों में जहाँ छोटे छिंद की काफी मांग है वही इसके जड़ो में पाये जाने वाले लार्वा को भी खाने के तौर पर उपयोग में लाया जाता है |
इस छिंद के कीड़े का वैज्ञानिक नाम rhynchophorus ferrugineus है वही बस्तर में इसे इंद पुण्क कहा जाता है | इस कीड़े का जीवन चक्र ग्रीष्म ऋतू में देखने को मिलता है | किस पौधे में यह कीड़ा है इसके बारे में पता लगाने के लिये ग्रामीण पौधो के बीच कोमल पत्तियों को देखकर पता कर लेते है कि कहाँ लार्वा की उपस्थिति है.

दरअसल जिस पौधे में कीड़ा होता है उसके बीच के कोमल पत्ते मुरझा जाते है और फिर उस पौधे को जमीन से खोद कर छिंद कीड़े को बाहर लाया जाता है | छिंद कीड़े के लार्वा की लम्बाई तक़रीबन 6 से 7 सेंटीमीटर होती है | इसे अपने जीवन चक्र को पूर्ण करने के लिये लगभग 7 से 10 सप्ताह का समय लगता है |
पहले अन्डो से लार्वा बनता है फिर यही लार्वा थोड़ी बड़ी होकर जड़ो से बाहर आकर अपने लिये उसी छिंद के पौधो की रेशो से प्यूपल केस बनाती है फिर प्यूपा का निर्माण होता है तदोपरांत एक वयस्क कीड़े का निर्माण होता है | कीड़े की प्रारंभिक और अंतिम दोनों अवस्था काम में आती है | प्रारंभिक अवस्था लार्वा जहाँ तेल में तल कर खाने में उपयोग किया जाता है वही अंतिम अवस्था बच्चो के मनोरंजन के साधन के तौर पर भी उपयोग में लाया जाता है |
परिपक्व कीड़े के सामने बने सुड की तरह दिखने वाले नाल भाग में छिंद के काँटे को लगाया जाता है फिर उसे फिरकी घुमा कर रोक लिया जाता है कीड़े की उड़ने की आवाज छोटे बच्चो को ख़ुशी की अनुभूति देती है |
जिस तरह बस्तर में छोटे छिंद के लार्वा को स्वादिष्ट और पौष्टिक माना जाता है वही दुनिया के कई हिस्सों में भी कोकोनट लार्वा और डेड पाम के लार्वा को खाने में उपयोग में लाया जाता है |

पोस्ट साभार चन्द्रा मण्डावी जी
टोरा तेल मे भूनकर नमक मिर्च सहित क्रन्ची बनाकर कड़ कड़ की आवाज करते हुए खा सकते हैं

झुलन दरहा मे झुलता पानी

झुलन दरहा मे झुलता पानी...!

काँगेर घाटी वन सम्पदा एवं दुर्लभ जीव जन्तुओ से तो बेहद सम्पन्न है. इसके साथ ही काँगेर घाटी अपने अंदर झरनो की अनदेखी खूबसूरती को भी छिपाये हुए हैं. काँगेर घाटी के घने जंगलो मे आज भी कई ऐसे छोटे मोटे झरने है जिसकी जानकारी आज भी बेहद कम लोगों को है.

काँगेर घाटी मे ऐसा ही एक झरना है झुलन दरहा. हाल ही में यह झरना आम पर्यटको के सामने आया है.झुल झुल कर दरहे मे गिरता यह झरना बेहद ही खूबसूरत स्थल है. तीरथगढ की तरह सीढीदार पत्थरो से गिरती कल कल ध्वनि प्रकृति की स्वर लहरियो के साथ अद्भुत ताल मेल बनाती है.
झुला झुले पानी ऐसा अहसास इस झरने की अनोखी खासियत है.माँडू का हिन्डोला महल और काँगेर घाटी का झुलन दरहा दोनों ही तन मन मे झुला झुलने का अनुभव कराते है.
यह झुलन दरहा बेहतरीन पर्यटन स्थल है एवं परिवार सहित वन भ्रमण कार्यक्रम के लिये आदर्श स्थल है.
ओम...!
शानदार छायाचित्र के लिए मुन्ना बघेल जी का बहुत आभार...!

17 दिसंबर 2019

शालवनों का द्वीप : बस्तर की एक और छवि

शालवनों का द्वीप : बस्तर की एक और छवि
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बस्तर अपने दुर्गम भौगोलिक स्थिति और आदिम जनजातीय संस्कृति के कारण बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में मानवशास्त्रियों के आकर्षण और अध्ययन का केंद्र रहा है। ग्रियर्सन का 'माड़िया गोंड्स ऑफ बस्तर' के बाद वेरियर एल्विन का 'मुरिया एंड देयर घोटुल' विश्व प्रसिद्ध हुआ।यों इनके पूर्व और बाद भी स्थानीय साहित्यकारों, भाषाशास्त्रियों द्वारा अध्ययन होते रहे हैं। शानी जी इस क्षेत्र से चर्चित कथाकार हुए हैं; जिनका हिंदी कथा जगत में अपना विशिष्ट स्थान है।किसी भी कथाकार की तरह वे भी अपने कहानियों में अपने परिवेश को चित्रित करते रहे हैं।
मगर 'शालवनों का द्वीप' एक अलग तरह की कृति है। यह उपन्यास नही है मगर इसको पढ़ते समय उपन्यास का अहसास होता है।यह तटस्थ यात्रा विवरण भी नही है। यह एक तरह से जनजातियों के बीच रहते हुए; उनके जीवन व्यापारों को देखते, उनके सुख-दुख,पीड़ा, आनन्द से एक कथाकार और सम्वेदनशील व्यक्ति का संवेदनात्मक जुड़ाव है। इस जुड़ाव में आत्मालोचन भी और स्थिति को न बदल सकने की बेबसी की छटपटाहट भी है। चूंकि चित्रण एक कथाकर ने किया है, इसलिए इसमे कथारस भी है।
इस अनुभाविक चित्रण का आधार बस्तर में मानवशास्त्रीय अध्ययन के लिए आये अमेरिकन युवा शोधार्थी जे.जे. एडवर्ड और उनकी पत्नी फिलिस के साथ लेखक द्वारा बस्तर के 'ओरछा' में बिताये दो माह का समय है।इस दौरान लेखक ने उन चरित्रों और घटनाओं को करीब से देखा है, जो इस पुस्तक में चित्रित है। यद्यपि यह समाजशास्त्रीय अथवा मानवशास्त्रीयअध्ययन नही है तथापि इसमे जनजातियों के संस्कृति, कर्मकांड और लोकाचार का चित्रण है। श्री एडवर्ड ने भूमिका में उचित ही लिखा है " श्री शानी की यह रचना शायद उपन्यास नही, एक अत्यंत सूक्ष्म संवेदनायुक्त सृजनात्मक विवरण है जो एक अर्थ में भले ही समाजविज्ञान न हो लेकिन दूसरे अर्थ में यह समाजविज्ञान से आगे की रचना है"।

जे.जे. एडवर्ड साठ के दशक के शुरूआत में बस्तर में शोध के लिए आये थे। उन्होंने लगभग दो वर्ष बस्तर के 'ओरछा' में रहकर अपना शोधकार्य किया था।इस अध्ययन के सिलसिले में ही शानी से उनका सम्पर्क हुआ और उनमे मित्रता हुई। शानी जी ने इस पुस्तक में एडवर्ड दम्पत्ति की सहजता, आदिवासियों से प्रेम, मानवीयता, सम्वेदनशीलता की जगह-जगह प्रशंसा की है।एडवर्ड जनजातियों के लिए अध्ययनकर्ता से अधिक सहयोगी थे।वे उनकी कई तरह से सहयोग करते थें जिसमे चिकित्सकीय सहयोग का मार्मिक चित्रण है,जबकि वे चिकित्सक नही थे।उनकी पत्नी भी अपनी सहजता और मानवीयता के कारण जनजातियों के प्रेम की भागी थी। एडवर्ड की सहजता कई बार शानी जी को आत्मालोचन के लिए विवश कर देती थी मसलन एक घटना में एडवर्ड ने आश्चर्य व्यक्त किया की यहां(भारत में) थोड़ा भी धनाड्य होने पर लोग अपना छोटा-छोटा काम भी स्वयं न कर नौकर से कराते हैं, जबकि अमेरिका में ठीक इसका उल्टा होता है। वहां ऐसे लोग बेचारे अपाहिज समझे जाते हैं, जिन पर समाज तरस खाता है। जाहिर है ऐसी प्रदर्शनप्रियता को समाज के लिए सकारात्मक नही माना जा सकता। एक अन्य जगह एडवर्ड को गंभीर रोगों से ग्रस्त लोगों की चिकित्सा सहजता से करते देख लेखक को अपनी स्थिति का अहसास होता है।
इस रचना में यह भी देखा जा सकता है कि जनजातीय समाज को केवल रोमेंटिक ढंग से देखने वालों का दावा कितना खोखला रहा है। कुछ लोगों को जनजातियों का केवल नृत्य-गीत -संगीत भर दिखाई देता है; उनके जीवन संघर्ष नही। मानो वे किसी अलौकिक दुनिया में रहते हैं और उन्हें भूख प्यास नही लगती। शानी जी ने दिखाया है कि किस कदर उस क्षेत्र में भूख-गरीबी-बीमारी का आतंक है। वहां अधिकांश लोगों के लिए दो जून की रोटी जुटा लेना ही उपलब्धि रहा है।केय, रेको, लाली के जीवन की विडम्बना में इसे देखा जा सकता है। तपेदिक से मर रहे 'लाली' का प्रसंग बेहद मार्मिक है।इसी तरह 'कोसी' की उन्मुक्त हँसी जितना आकर्षित करती है; बाघ द्वारा उसका मारा जाना एक कसक पैदा कर देती है।
मुड़िया जनजाति का 'घोटूल' चर्चित रहा है। देखा जाय तो यह वेरियर एल्विन के शोध के बाद अधिक चर्चा में आया। एल्विन ने घोटुल के उन्मुक्त यौन सम्बन्धो और उसके नियमन पर काफी लिखा है; जिसका कुछ लोग आलोचना भी करते हैं। हालांकि 'मुरिया एंड देयर घोटुल' में केवल यौन प्रसंग नही अपितु मुरिया जनजाति का सम्पूर्ण अध्ययन है।एल्विन के दृष्टिकोण या अध्ययन के बलाघात से कोई असहमत हो सकता है मगर चालीस के दशक में घोटुल के यौन उन्मुक्तता से इंकार नही किया जा सकता।यह जीवन राग का उल्लास रहा है। नैतिक-अनैतिक समय और समाज सापेक्ष होते हैं। इस कृति में शानी जी ने 'घोटुल' का जो चित्रण किया है इससे इस बात की पुष्टि होती है।मगर यह बताने की आवश्यकता नही की घोटुल संस्कृति-शिक्षा का केंद्र भी रहा है। शानी ने लिखा भी है "यह भी एक पहलू है, मैने सोचा- लेकिन केवल यही सबसे ज़्यादा हमारी दृष्टि की मांग करता हो, ऐसा भी नही है।"
समय बदल रहा है। बस्तर ने भी पिछले पचास-साठ सालों में बदलाव आया है। अब अब वहां आवागमन कठिन नही रह गया है। बाज़ारवाद और नगरीकरण के प्रभाव से जनजातीय संस्कृति में भी काफी बदलाव आया है।घोटुल अब विलुप्त प्राय हैं; जो हैं केवल औपचारिक भर रह गए हैं। लेकिन बस्तर की खुशहाली को जैसे ग्रहण लगा हुआ है। समस्याएं खत्म ही नही होती। आज नक्सलवाद, जल-जंगल-ज़मीन से बेदखली,पर्यावरण की समस्याएं मुह बाये खड़ी हैं।ऐसे में 'शाल वनों का द्वीप' जैसी कृतियां और उनके चरित्र और सिद्दत से याद आते हैं।क्या बस्तर की वह उन्मुक्त हँसी वापस आयेगी?
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#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ.ग.)
मो. 9893728320

13 दिसंबर 2019

कांकेर के सोमवंशी शासकों का इतिहास एवं वंशावली

कांकेर के सोमवंशी शासकों का इतिहास एवं वंशावली.....!

दसवी ग्यारहवी सदी तक वर्तमान बस्तर संभाग अर्थात कांकेर और प्राचीन चक्रकोट राज्य पर छिंदक नाग राजाओ ने अपना एकछत्र शासन चलाया। नागवंशी शासक राजभूषण सोमेश्वर देव (1069 ई से 1109 ई) ने वर्तमान बस्तर के आसपास के सभी क्षेत्रों को अपने अधीन कर चक्रकोट राज्य का विस्तार किया था। सोमेश्वरदेव की मृत्यु के बाद चक्रकोट पर नागों की सत्ता कमजोर पड़ गयी। कल्चुरी शासकों ने चक्रकोट के बहुत बड़े हिस्से पर अपना अधिकार कर लिया। कल्चुरी शासकों की निर्बलता के कारण उनके अधीन चक्रकोट के कुछ हिस्सों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर नये राज्यों के रूप में जन्म लिया। 

उन राज्यों में  से एक कांकेर राज्य भी था। कांकेर को प्राचीन अभिलेख में काकरय भी कहा है। बारहवीं सदी के मध्य में कांकेर में सोमवंशी शासकों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। सोमवंशी शासकों के काल से लेकर वर्तमान तक कांकेर राज्य ने इतिहास में अपना  राज्य होने का अस्तित्व बनाये रखा। कालांतर में  सोमवंशी शासकों को कल्चुरियों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।  आज भी कांकेर में सोमवंशी शासकों द्वारा निर्मित देवालय एवं तालाब देखने को मिलते है। 

सोमवंशी शासकों ने लगभग दो सौ साल तक कांकेर क्षेत्र में अपना शासन चलाया। इस अवधि में कई राजाओं ने कांकेर के अलग अलग क्षेत्रों में अपनी राजधानियां बनाकर शासन किया। उस काल में राजाओं द्वारा जारी किये शिलालेखों और ताम्रपत्रों से  शासन अवधि एवं शासकों वंशावली ज्ञात होती है। सोमवंशी शासकों में बाघराज के गुरूर लेख, कर्णराज का सिहावा अभिलेख, पंपराज के दो ताम्रपत्र एवं भानुदेव के कांकेर शिलालेख से इस वंश के राजाओं की वंशावली ज्ञात होती है। 

इन अभिलेखों के आधार पर सिंहराज से लेकर भानुदेव तक लगभग 200 साल तक सोमंवशी शासकों ने कांकेर में राज किया। मेचका सिहावा क्षेत्र में कल्चुरी शासकों की निर्बलता का लाभ उठाकर सिंहराज ने सिहावा में सोमवंश की सत्ता स्थापित की।   सिंहराज की जानकारी कांकेर मे भानूदेव के शिलालेख  से मिलती है। इतिहासकारों ने सिंहराज की शासन अवधि 1130 ई से 1150 ई के मध्य अनुमानित की है।

 सिंहराज के बाद शासक हुए बाघराज। बाघराज को व्याघ्रराज भी कहा गया है। इस राजा की जानकारी सिहावा अभिलेख, गुरूर अभिलेख एवं भानूदेव के कांकेर शिलालेख से मिलती है। 

बाघराज के बाद उसका पुत्र वोपदेव शासक बना। वोपदेव को कल्चुरी शासक जगददेव की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। वोपदेव के दो पुत्र थे पहला कृष्ण जिसने कर्णराज के नाम से शासन किया एवं दुसरा सोमराज। 

कर्णराज ने अपने भाई सोमराज को पराजित कर सिहावा में अपना शासन स्थापित किया। उसने सोमराज को चारामा और गुरूर का क्षेत्र दे दिया। इस प्रकार सोमवंश दो शाखाओं में विभक्त हो गया। कर्णराज ने 1184 से 1206 ई तक शासन किया।  

कांकेर के टंहकापार ताम्रपत्र के अनुसार 1213 ई पंपराज कांकेर क्षेत्र में शासन कर रहे थे। ताम्रपत्र के अनुसार पंपराज सोमराज का पुत्र था। सोमराज वोपदेव का पुत्र एवं कर्णराज का भाई था। यह सोमवंश की दुसरी शाखा का शासक था। पंपराज के पुत्र वोपदेव की अकाल मृत्यु के बाद सोमवंश की यह दुसरी शाखा पहली शाखा में विलीन हो गई।   

कर्णराज का पुत्र जैतराज ने कुछ दिनों तक शासन किया। जैतराज के बाद सोमचन्द्र और उसके बाद भानूदेव कांकेर का राजा बना। भानूदेव ने कांकेर में 1306 से 1327 ई तक शासन किया। उसके पश्चात भानूदेव का पुत्र चंद्रसेनदेव कांकेर का राजा हुआ। जिसने 1327 से 1344 ई तक कांकेर पर राज किया। इसके बाद कांकेर में सोमवंश का शासन समाप्त हो गया। 

सोमवंशी शासकों की वंशावली एवं क्रमिकता कुछ इस प्रकार हैरू-
1. सिंहराज 
2. बाघराज या व्याघ्रराज
3. वोपदेव 
4. कर्णराज (भाई सोमराज को महामांडलिक नियुक्त किया। )
5. पंपराज (सोमराज का पुत्र) इसका पुत्र वोपदेव जो अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ। 
6. जैतराज (कर्णराज का पुत्र)
7. सोमचंद्र देव
8. भानूदेव (कांकेर में 1306 ई से 1327 ई तक शासन किया।)
9. चंद्रसेन देव (1327 से 1344 ई तक शासन किया। )

आलेख - ओमप्रकाश सोनी दंतेवाड़ा

संदर्भ:- 1. कांकेर का राजनैतिक एवं प्रशासनिक इतिहास - दिनेश राठौर
2. एपीग्राफिका इंडिका 09
3.हीरालाल सूची।
4. रियासत कांकेर का इतिहास - डा रामकुमार बेहार सर। 
5. छत्तीसगढ़ का इतिहास - प्यारेलाल गुप्त। 

6 दिसंबर 2019

कांगेर घाटी का चिकनर्रा जलप्रपात


कांगेर घाटी का चिकनर्रा जलप्रपात.....!

बस्तर के अनजानी खूबसूरती का सबसे नायाब खोज चिकनर्रा झरना है. हाल ही में बाहरी दुनिया के सामने लाया गया चिकनर्रा झरना कांगेर घाटी का नया पर्यटन स्थल है. लगभग 40 फ़ीट उंचाई लिये यह झरना बेहद ही मनमोहक है. कांगेर घाटी मे दुर दुर तक फ़ैले जंगलो मे चिकनर्रा की कल कल ध्वनि संगीत के नये नये राग छेड़ती है.



तीरथगढ की तरह सीढीदार रास्तो से होकर जलधारा कहीं दुर घने जंगल मे खो जाती है. कुण्ड की गहराई मे मचलती मछलिया और आसमान मे उडते परिन्दो का का आनंद मय दृश्य आँखो के सामने नृत्य करते रहता है. बेहद ही खूबसूरत इस झरने की बात ही निराली है.

इस शानदार तस्वीर के लिये मुन्ना बघेल जी का बहुत बहुत आभार

4 दिसंबर 2019

बस्तर के चालुक्य काकतीय राजपरिवार की वंशावली

बस्तर के चालुक्य काकतीय  राजपरिवार की वंशावली.....!

तेरहवीं सदी के अंत से चक्रकोट में नागवंशी शासको के शासन का पतन होना प्रारंभ हो गया था। चैदहवी सदी के प्रथम दशक तक चक्रकोट खंड खंड में बंट गया था। नागवंशी शासक हरिशचंद्र देव की सत्ता पर पकड़ कमजोर हो चुकी थी जिसके कारण छोटे छोटे क्षेत्रों के नाग सरदार स्वतंत्र होकर आपसे में लड़ने लग गये थे। आम जनता इन नाग सरदारों के आपसी संघर्षों के कारण बेहद ही त्रस्त हो चुकी थी। 

हरिशचंद्र देव की हुकूमत महज राजधानी के दीवारों तक चलती थी। विशाल चक्रकोट राज्य महज कुछ मीलों तक ही सीमित हो गया था। पड़ोसी राज्य वारंगल पर मलिक काफूर के आक्रमण के कारण वारंगल राज्य तहस नहस हो गया था। महान काकतीय साम्राज्य के सदस्य अन्नमदेव ने पड़ोसी राज्य चक्रकोट में आकर नागवंशी शासक हरिशचंद्र देव को पराजित कर चक्रकोट में चालुक्य काकतीय वंश की नींव डाली। सन 1324 से लेकर 1947 ई तक बस्तर में इन्ही चालुक्य काकतीय वंश के शासकों का शासन रहा। इस वंश की वंशावली विभिन्न लेखों एवं दस्तावेजों से प्राप्त होती है। 

दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी माता इस राजवंश की कुल देवी है। इस मंदिर में इस राजवंश के शासक दिक्पाल देव का शिलालेख विद्यमान है जिसमें इस राजवंश की वंशावली का उल्लेख किया गया है। यह ऐतिहासिक जानकारी दो शिलालेखो में उत्कीर्ण की गई है। एक शिलालेख में यह संस्कृत में उत्कीर्ण है वहीं दुसरे शिलालेख में यह स्थानीय बस्तरी मैथिली एवं छत्तीसगढी मिश्रित शब्दो में उत्कीर्ण की गई है। 

रायबहादुर हीरालाल इस शिलालेख के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देते है। उनके मुताबिक यह शिलालेख विक्रम संवत 1760 ईस्वी सन 1703 का है। उस समय बस्तर महाराज दिकपाल देव नवरंगपुर जीतने की खुशी में कुटूम्ब सहित मंदिर में देवी दर्शन हेतु पधारे थे। उस समय हजारों बकरों एवं भैंसों की बलि दी गई थी जिसके शंखिनी नदी कुसुम के फूल के समान लाल रंग की हो गई थी। बलि का यह कार्यक्रम 05 दिन लगातार चला था। 

इस शिलालेख में राजपरिवार की वंशावली दी गई है जिसमें महाराज अन्नमराज से दिकपाल देव तक का नाम उल्लेख है।  शिलालेख में उल्लेखित शासकों के नाम क्रमशः इस प्रकार है। 
1. अन्नमराज, प्रतापरूद्र काकतीय के छोटे भाई वारंगल से बस्तर आकर राज स्थापित किया। 
2. हमीर देव 
3. भैराजदेव 
4. पुरूषोत्तमदेव
5. जयसिंहदेव
6. नरसिंहदेव
7.जगदीशराजदेव
8.वीरनारायणदेव
9. वीरसिंहदेव
10.दिकपालदेव

दिकपाल देव अपनी महारानी अजबकुमारी एवं 18 वर्षीय पुत्र युवराज रक्षपाल देव के साथ कुटूम्ब जात्रा के लिये देवी दर्शन हेतु 1703 ई में मंदिर आये थे। उपरोक्त वंशावली में नरसिंह देव के बाद प्रतापराज देव का उल्लेख नहीं किया गया है। बस्तर के विभिन्न वंशावलियों एवं इतिहासकारों ने अपनी पुस्तकों एवं लेखों में नरसिंह देव के बाद प्रतापराज देव का उल्लेख किया है। 

 दिकपाल देव के बाद रक्षपाल देव जो कि राजपाल देव के नाम से जाने गये, वे बस्तर के राजा बने। सन 1324 से बस्तर में चालुक्य काकतीय शासन स्थापित करने वाले अन्नमराज से के बाद  सन 1947 एवं वर्तमान तक बस्तर राजपरिवार की वंशावली कुछ इस प्रकार है:-

1. अन्नमराज, प्रतापरूद्र काकतीय के छोटे भाई वारंगल से बस्तर आकर राज स्थापित किया।
2. हमीर देव (अन्नमराज के पुत्र)
3. भैराजदेव (हमीरदेव के पुत्र)
4. पुरूषोत्तमदेव
5. जयसिंहदेव
6. नरसिंहदेव
7. प्रतापराजदेव
8. जगदीशराजदेव
9. वीरनारायणदेव
10. वीरसिंहदेव
11.दिकपालदेव
12. राजपालदेव
13. दलपतदेव
14. दरियादेव
15. महिपालदेव
16. भूपालदेव
17. भैरमदेव
18. रूद्रप्रतापदेव
19. महरानी प्रफुल्ल कुमारी (मयूरभंज के भंजदेव राजघराने के प्रफुल्लचंद्र भंजदेव से विवाह)
20. प्रवीरचंद्र भंजदेव
21. विजयचंद्र भंजदेव
22. भरतचंद्र भंजदेव
23. कमलचंद्र भंजदेव (वर्तमान में बस्तर के महाराजा)

आलेख - ओमप्रकाश सोनी दंतेवाड़ा


2 दिसंबर 2019

शेटै से फ़सल की रक्षा

शेटै से फ़सल की रक्षा....!

जंगल मे जीवन बेहद कठिन होता है. विभिन्न परेशानियो एवं अभावो से दो चार होते हुए सीमित संसाधनों से जीवन बसर करना कोई बस्तर के अबूझमाडियो से सीखे. बस्तर के घने जंगलो मे अबूझमाडिया सदियो से निवासरत है. वे अब इन जंगलो के अनुरूप अपने आप को ढाल चुके हैं. जंगलो से प्राप्त वनोपज के सहारे ये अपनी सारी जिन्दगी गुजार देते हैं.

खेती सिर्फ़ खेती सिर्फ़ भगवान भरोसे है. यहाँ खेती को सबसे ज्यादा नुकसान जंगली सुकरो से होता है. रात को वे झुण्ड के झुण्ड आते हैं और फ़सल तबाह कर देते हैं.
धान या कोदो कुटकी ही करते हैं. जिससे दो समय का भोजन मिल जाता है. अबूझमाड के जंगलो मे खेती योग्य जमीन भी बेहद ही कम है.

यहाँ फ़सल की सुरक्षा हेतु घर के एक पुरुष सदस्य को खेत मे मचान बनाकर रात गुजारनी होती है. मचान के अभाव मे किसी पेड़ के नीचे आग जलाकर खाट पर रात बितानी पड़ती है. रात मे जंगली सुकर के अलावा भालू और तेन्दुआ से मुलाकात की सम्भावना भी अधिक होती है इसलिए तीर और धनुष साथ मे रखना आवश्यक हो जाता है.

फ़सल की रक्षा हेतु जानवरों के आने वाले रास्ते मे लकड़ी के उंचे मचान पर थाली बांध दी जाती हैं. थाली को एक लम्बी रस्सी से खाट या मचान तक बांध दिया जाता है. रात को पहरेदार मचान या खाट पर सोते हुए ही समय समय पर रस्सी खीचते जाता है. जिससे वह थाली बजती रहती है और जानवर खेत मे आने से डरते हैं.
थाली का यह उपकरण स्थानीय तौर पर शेटै कहलाता है.अब जंगल खेतो मे बदल रहे हैं. जंगली जानवर अब खत्म हो रहे हैं. ना जंगली जानवर रहेगे और ना ही वे फ़सल खराब करेगे तब फ़िर शेटै जैसे तरिको का क्या प्रयोजन?

29 नवंबर 2019

रमणीय "आमा दरहा जलप्रपात", केशकाल, कोंडागांव जिला

KONDAGAON DIARIES: CHAPTER NO. 05
रमणीय "आमा दरहा जलप्रपात", केशकाल, कोंडागांव जिला


इस तरह ०१ सितम्बर २०१९ के दिन को मेरी यादगार सफर का अंत हुवा ! आखिर में जब हम लोग (श्री कैलाश बघेल, श्री टीकम सोरी सर, श्री बलवंत पैकरा सर और मैं) वापस केशकाल के लिए लौटने लगे, तब हमे श्री सोरी एवं पैकरा सर ने बताया की ग्राम बटरली के घाट वाले रोड के कुछ पहले आमा नाला में दो और झरने बनते हैं, जो की पूर्णतः बरसाती झरने हैं तथा ग्रीष्म ऋतू के आगमन होते होते सुख जाते हैं, वरन वर्षा ऋतू एवं शरद ऋतू में इनका सौंदर्य अकल्पनीय, अकथनीय, अवर्णनीय होता है! वैसे यह नाला(पूर्णतः कुवेमारी-बावनिमारी ग्राम पंचायत से लगा क्षेत्र) घाट के तेज खड़ी ढाल का अनुसरण करता है ! यही कारण है की आमा नाला पर हमे २-३ से अधिक रमणीय जलप्रपातों के अवलोकन होते हैं!

आमा नाला इस स्थान पर लगभग लगभग १५ फिट से गिरकर एक सुन्दर झरने का निर्माण करता है, जिसे आज तक कोई नाम नहीं दिया गया है, पर आमा नाला की खाई पर बनने के कारण इसे आमा दरहा भी कहा जाता है! कुछ ग्रामीण लिमदरहा झरने के नज़दीक होने के कारण इसे लिमदरहा द्वितीय - लिमदरहा तृतीय झरना भी बुलाते हैं! प्रथम झरने की गहरायी लगभग ३५-४० फिट की है, किन्तु इसके निचे उतरने का रास्ता अत्यंत दुष्कर है! सभी तरह से उर्ध्वाधार किनारों के कारण हम लोग निचे नहीं उतर पाए !


द्वितीय झरना लगभग १५ फिट ऊँचा है तथा इस जगह निचे उतरकर काफी दूर तक झरने से बहते आमा नाले के जल को ट्रेक किया जा सकता है! जलप्रवाह का मार्ग पूर्ण रूप से पाषाण बाधित रह्ता है, अतः यह स्थान आपके trekking skills की अच्छी परीक्षा लेगा !
Last but not the least, अंत में मैं श्री कैलाश बघेल, श्री टीकम सोरी सर एवं श्री बलवंत पैकरा सर का ह्रदय से धन्यवाद देना चाहूंगा, जिनके कारण मेरी अनुभव यात्रा सफल हो सकी !
केशकाल से लौटकर जितेन्द्र नक़्क़ा

"उपरबेदी जलप्रपात", केशकाल, कोंडागांव जिला

KONDAGAON DIARIES: CHAPTER NO. 04
 "उपरबेदी जलप्रपात", केशकाल, कोंडागांव जिला


कभी सुना है ऐसा जलप्रपात जहां पहुंचना इतना दुश्वार हो जाए, की आपको उसके दीदार के लिए निचे उतरने का स्थान ही ना मिले, उपरबेदी ऐसी ही एक जगह है, जहां एक झरना खोजने जाओ, तो दो-तीन झरने और मिलने चालू हो जाते हैं, बस रास्ते ही नहीं मिलते !

केशकाल से बटराली होते हुवे जब हम लोग (श्री कैलाश बघेल, श्री टीकम सोरी सर, श्री बलवंत पैकरा सर और मैं) कुवे-मारी पार करते हुवे उपरबेदी ग्राम पहुंचे, तब हमे निकट के ग्रामीणों ने बताया की यहां एक छिपा हुवा झरना है, जिसे "उपरबेदी जलप्रपात" कहा जाता है! यहाँ स्थानीय नाला लगभग ४०-५० फिट निचे गिरकर एक अत्यंत मनोरम निर्झर का निर्माण करता है ! इस नाले का जल जिस खाई में गिरता है, उसके ठीक सामने एक बड़ी और गहरी वादी चारो ओर से नज़र आती है ! वादी भी इतनी गहरी और खड़ी उतरन वाली की अच्छे अच्छों के होश फाख्ता हो जाएँ ! हम लोग निचे जाने का रास्ता ढूंढते रह गए, और गलती से एक और अनदेखे झरने के दीदार हो गए ! इसे कहते हैं एक के दाम में दो (फायदे) !
उपरबेदी झरने के दो सोपान हैं, जिसमे से प्रथम सोपान अधिकतम ८-१० फिट ऊँचा है, जिसके बाद का सोपान मुख्य सोपान है, और लगभग ४०-५० फिट ऊँचा है! यह प्राकृतिक स्थल इतना ख़ूबसूरत है की इसके सामने मानव-निर्मित सबसे सुन्दरतम रचना भी फीकी लगने लगे !
केशकाल से लौटकर जितेन्द्र नक़्क़ा

स्वर्ग सा सुन्दर मुत्ते खडका जलप्रपात, केशकाल क्षेत्र, कोंडागांव

KONDAGAON DIARIES: CHAPTER NO. 03
स्वर्ग सा सुन्दर मुत्ते खडका जलप्रपात, केशकाल क्षेत्र, कोंडागांव


मुत्ते खडका के बारे में मैंने आज से पहले बस्तर के प्रसिद्द लेखक एवं शिक्षाविद डॉक्टर सुरेश तिवारी जी की पुस्तक “बस्तर-पर्यटन, संस्कृति और इतिहास” में पढ़ा था ! उनकी कुशल लेखन शैली और प्रभावी वर्णन से मै इतना प्रभावित हुवा की मैंने तब से यह तय किया था की कभी ना कभी इस आश्चर्य के दीदार जरूर करूँगा! "मुत्ते खड़का" शब्द गोंडी भाषा से लिया गया माना जाता है, जिसमे मुत्ते का अर्थ औरत से है और खड़का का अर्थ खाई में गिरते पानी से है, अर्थात ऐसी अनोखी खाईनुमा जगह जहां कोई औरत दूध के समान सफेद निर्मल जल गिरा रही हो।


यह क्षेत्र कुवे-मारी ग्राम पंचायत क्षेत्र के निकट स्थित मडगाव नामक ग्राम के बाहरी क्षेत्र से प्रवाहित होते नाले पर बनता है ! यहां का स्थानीय नाला लगभग 35 फिट से गिरकर एक बहुत ही रमणीय जलप्रपात का निर्माण करता है ! इसकी विशेषता प्रपात के ठीक नीचे स्थित पाषाण हैं, जिनके आकार कुछ बड़े-कुछ छोटे इस तरह से प्रपात को घेरे हुवे हैं, की प्रपात का जल इन पर इतनी जोर से गिरता है कि पूरे क्षेत्र में जल कणों की फुहारें उठाने लगती हैं और आसपास खड़ा हर व्यक्ति इसे तर-बतर हो जाता है। मुख्य सोपान में प्रपात लगभग 35 फिट गिरकर प्रथम सोपान बनाता है, उसके नीचे का द्वितीय सोपान प्रथम सोपान से लगभग 300 फिट दूर तकरीबन 6-7 फिट गिरकर द्वितीय सोपान बनाता है।


प्रपात के ऊपर का भाग जहां से स्थानीय नाले का जल प्रपात बनकर नीचे उतरता है, वह स्थान भी काफी रमणीय है एवं इस स्थान से सारा निकटस्थ वनाच्छादित क्षेत्र दिखाई पड़ता है, जो कि बहुत ही दर्शनीय लगता है। यहां बैठकर कोई भी व्यक्ति आराम से पिकनिक बना सकता है।
इस स्थान पर पहुचने का पहुच मार्ग भी काफी दुर्गम है एवं स्थानीय सहायता के बगैर इस स्थान का पता लगाना थोड़ा दुष्कर हो सकता है। यह प्रपात बस्तर के सुप्रसिद्ध जलप्रपातों की सूची में अपना नाम दर्ज कराने का माद्दा रखता है। क्योंकि इस स्थान पर पहुचने के बाद भी नीचे उतरने इतना आसान नही है, इसके लिए आपको अच्छे tracking skills की जरूरत पड़ेगी, तो इस नाते यह स्थान ट्रेकिंग के लिए सर्व उपयुक्त है।
अंत में पूर्व की भांति मैं श्री कैलाश बघेल, श्री टीकम सोरी सर्, श्री पैकरा सर का धन्यवाद देना चाहूंगा, जिनके कारण मेरी यह यात्रा सफल हो सकी।

"मिरदे जलप्रपात" (केशकाल क्षेत्र, कोंडागांव)

KONDAGAON DIARIES: CHAPTER 02
 "मिरदे जलप्रपात" (केशकाल क्षेत्र, कोंडागांव)


पिछला रविवार मेरे लिए यादगार रहा! जहां कोंडागांव जिला जाना हुवा, वहीँ अनेकों आश्चर्यों से भी सामना हुवा! श्री कैलाश बघेल, शिक्षकगण श्री बलवंत सिंह पैकरा एवं श्री टीकम सोरी जी के साथ जैसे ही लीमदरहा जलप्रपात देख कर हम आगे बढे! यह निश्चित हुवा की अगले आश्चर्य के रूप में हम लोग मिरदे जलप्रपात से मुखातिब होंगे !


मेरे लिए तो सभी नाम नए और जगह अनजान थी, पर अनजाने आश्चर्यों का सामना करने की अनुभूति ही अलग होती है ! मेरे लिए यह काफी शिक्षाप्रद और चुनौतीपूर्ण था!



बावनीमारी ग्राम से आगे बढ़ते हुवे हम लोग कुवे-मारी ग्राम पहुंचे, जिसके निकट ही लगभग ०२ किलोमीटर जाने पर वहां का स्थानीय नाला(ग्रामीण इस नाले को मिरदे नाला के नाम बुलाते हैं!) लगभग ७० फिट निचे सीढ़ीनुमा अंदाज में गिरकर एक नयनाभिराम प्रपात का निर्माण करता है, जिसे ग्रामीण मिरदे जलप्रपात के नाम से बुलाते हैं! यह जलप्रपात इतना ख़ूबसूरत और ऊँचा है की जहां प्रपात के ऊपर से सारा निकटवर्ती क्षेत्र दिखलाई पड़ता है! वहीँ निचे उतरने पर सीढ़ीनुमा अंदाज में गिरती जलधारा निचे के सोपानों में और चौड़ी नज़र आने लगती है ! 

ऊपर से निचे की ओर गिरती जलधारा को देख कर ऐसा लगता है मानो किसी ने जल की धारा नहीं बल्कि दूध की धारा बहा दी हो! आखिरी सोपान की ऊँचाई ३०-३५ फिट और ढलान ६० डिग्री की है, जिसे साहसी पर्यटक चढ़ने की कोशिश कर सकते है! इसके ऊपर के सोपान सीधे उर्ध्वाधार है, जिनके लिए कोई अनुभवी पर्वतारोही ही उपयुक्त होगा! यह स्थान ट्रैकिंग के लिए अतिउपयुक्त है, जहां प्रपात के निचले भाग में पहुंचने का मार्ग अत्यंत दुर्गम है, पास की ढलान वाली चट्टानों को पगडंडी बनाकर निचे उतरना पड़ता है, जो काफी रोमांचक, चुनौतीपूर्ण और साहसिक होता है !
यह एक बारहमासी जलप्रपात है और निकटस्थ ग्रामीणों में प्रसिद्ध है, परन्तु कुवेमारी ग्रामपंचायत से बाहर विरले ही इसके बारे में जानकारी रखते हैं! बारहमासी झरना होने के कारण यहां सदैव जल रहता है, परन्तु ग्रीष्मकाल में इसका सौंदर्य क्षीण हो जाता है !
आभार: अंत मे मै श्री कैलाश बघेल, शिक्षकगण श्री बलवंत सिंह पैकरा एवं श्री टीकम सोरी जी का ह्रदय से धन्यवाद देना चाहूंगा, जिनके कारण मेरी यह यात्रा सफल हो सकी !
कोंडागांव जिले से लौटकर जितेंद्र नक़्क़ा