21 मई 2020

बस्तर का 1842 का तारापुर विद्रोह.

बस्तर का 1842 का तारापुर विद्रोह.....!

सत्ता के लालच मे दरियादेव ने बस्तर को अंग्रेजी और मराठा शासन के अधीन कर दिया. अप्रैल 1778 इस्वी की कोटपाड़ सन्धि ने मराठा और अंग्रेजो को बस्तर मे प्रवेश सुगम कर दिया. कोटपाड़ की सन्धि के एवज मे दरियादेव कम्पनी सरकार, मराठो एवं जैपुर राज्य की मदद से अपने भाई अजमेर सिंह को पराजित करने मे सफल हो पाया.
इस सन्धि के बदले जहाँ धाराधिनाथ दरियादेव बस्तर के सिंहासन पर बैठने मे सफल रहा वही बस्तर के महत्वपूर्ण परगने जैपुर राज्य मे चले गये. नागपुर के भोसलो को सालाना टकोली देने की शर्त भी स्वीकार करनी पडी. अंग्रेज तो बस बस्तर मे प्रवेश के मौके का इंतजार कर रहे थे, कोटपाड़ सन्धि से उन्हे यह अवसर आसानी से मिल गया. आंग्ल मराठा शासन के नियंत्रण का नुकसान सबसे अधिक बस्तर की रियाया को उठाना पडा. आंग्ल मराठो के अनुचित हस्तक्षेप से बस्तर की जनता को विद्रोह का रास्ता अख्तियार करना पड़ा.
फिर तो विद्रोह का सिलसिला चल पडा. 1825 इस्वी के परलकोट के विद्रोह से प्रारम्भ हुआ यह सिलसिला 1910 इस्वी के भूमकाल विद्रोह तक चलता रहा.1842 इस्वी का तारापुर विद्रोह भी मराठा अतिक्रमण और राजपरिवार मे मराठो एवं अंग्रेजो के अनुचित हस्तक्षेप से उपजा हुआ विद्रोह था.1818 इस्वी की आंग्ल और भोसलो की सन्धि से बस्तर की शक्तियां सीमित कर दी गयी. इस सन्धि से भोसले राजा बन गये और राजा जमीदार बन गये. संधि फलस्वरुप बस्तर से वसूली जाने वाली टकोली मे भी बढोतरी की गयी. जिसका परिणाम स्वरुप तारापुर में विद्रोह हुआ.दरियादेव की मृत्यु के बाद 1800 इस्वी मे दरियादेव का पुत्र महिपाल देव बस्तर के राजा बने. महिपाल देव के तीन पुत्र हुए भूपालदेव, दलगंजन सिंह और निरंजन सिंह. महिपाल देव की मृत्यु के बाद 1842 इस्वी मे भूपाल देव बस्तर के राजा बने. भूपालदेव ने अपने भाई लाल दलगंजन सिंह को तारापुर परगने का अधिकारी बना दिया. लाल दलगंजन सिंह दबंग व्यक्तित्व, सदाचारी एवं पराक्रमी था. वह अपने सदव्यवहार से बस्तर की जनता मे अधिक लोकप्रिय था. भूपालदेव और दलगंजन सिंह मे अनेक कारणो से अनमेल रहा.जगदलपुर से 26 किलोमीटर की दुरी पर अवस्थित तारापुर परगना रियासत काल मे राजस्व श्रोत के बजाय जैपुर राज्य के विरुद्ध सैनिक छावनी के रुप मे माना जाता था. तब गर्वनर के रुप मे लाल दलगंजन सिंह तारापुर परगने की देख रेख कर रहे थे.बस्तर राजा ने नागपुर सरकार के आदेश पर तारापुर परगने की टकोली बढा दी थी तब तारापुर के गवर्नर लाल दलगंजन सिंह ने विरोध किया. जब दलगंजन सिंह पर नागपुर सरकार का दबाव बढा तब तो उन्होने टकोली के माध्यम से लूट की स्वीकृति के बजाय तारापुर छोड़ देना का निश्चय किया. तारापुर के आदिवासियो ने लाल को तारापुर छोड़ कर ना जाने का आग्रह किया और लाल दलगंजन सिंह के नेतृत्व मे आंग्ल मराठा शासन के विरुद्ध बगावत करने का निर्णय किया.तारापुर विद्रोह के और भी कारण थे जैसे मराठो की रसदपूर्ति मे सहायक बंजारो ने आदिम जीवन शैली को भंग कर दिया था. तारापुर पर परगने पर राजस्व की माँग बढ़ने के कारण निरन्तर अवैधानिक टैक्स वसूले जा रहे थे और रैय्यत उससे परेशान हो चुकी थी. लाल दलगंजन सिंह और उसके साथी, दीवान जगबन्धु के द्वारा नित्य प्रति नये टैक्स के आरोपित करने के कारण बहुत उत्तेजित थे और उनकी माँग थी कि जब तक दीवान जगबन्धु को हटा नहीं दिया जाता और सारे टैक्स वापस नहीं ले लिये जाते, आदिवासी संघर्ष करते रहेगे.आदिवासियो ने एक दिन दीवान को पकड़ लिया और उसे अपने नेता दलगंजन सिंह के सामने तारापुर में प्रस्तुत किया तब राजा भूपालदेव ने जगन्नाथ बहीदार के हाथो सन्देश भेजा कि दीवान को मुक्त किया जाया. दलगंजन सिंह को आदिवासियो के भारी विरोध के बावजूद भी दीवान को मुक्त करना पड़ा.रिहा होने के बाद दीवान जगबन्धु भूपालदेव के आदेश से नागपुर गये. वहां उन्होंने नागपुर के अधिकारियो से तारापुर विद्रोह को कुचल देने की सहायता मांगी. नागपुर की सेनाओ ने बस्तर कूच किया. तारापुर मे आदिवासियो के साथ उनका घमासान युद्ध हुआ. विद्रोही सेना पराजित हुई. दलगंजन सिंह को नागपुर की सेनाओ के समक्ष आत्म समर्पण करना पड़ा. उन्हें गिरफ्तार कर नागपुर ले जाया गया जहाँ उन्हे छ महिने की जेल हुई. आदिवासियो के असंतोष को दुर करने के लिए नागपुर के रेजीडेण्ट मेजर विलियम्स ने बाद मे जगबन्धु को दीवान के पद से हटा दिया और तब विद्रोह शान्त हो गया, क्योकि वैसी स्थिति मे सारे नये अध्यारोपित टैक्सो को वापस ले लिया गया था. आलेख - ओमप्रकाश सोनी संदर्भ..1 बस्तर का मुक्ति संग्राम - शुक्ल हीरालाल 2 बस्तर भूषण - केदारनाथ ठाकुर 3 बस्तर इतिहास और संस्कृति - लाला जगदलपुरी
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डबरी : खेत में जल की खेती

डबरी : खेत में जल की खेती
डबरी खेत में जल की खेती....! ’श्रीकृष्ण जुगनू
पानी को बचाकर रखना अनेक कार्यों की सिद्धि है। मुझे सुश्रुत का वह सूत्र याद आता है जिसमें वह जल स्रोत को वाप्य कहते हैं। सामान्य रूप में इसका मतलब बावड़ी होता है जिसे वापी (बावड़ी) भी कहा जाता है, लेकिन वाप्य शब्द वपन (बुवाई) से बना लगता है। इसमें पानी की खेती का वह पुरातन भाव छिपा है जब व्यक्ति ने बीजों की तरह पानी की भी खेती करनी चाही होगी और जल की ऐसी खेती ने न केवल भूमि की नमी को बनाए रखा बल्कि कृत्रिम सिंचाई पहला अध्याय शुरू किया जिसमें मछली जैसी जलीय शाक भी पली...। ( भारतीय संस्कृति और जल)

फेसबुक मित्र दामोदर सारंग ने छत्तीसगढ़ अंचल के सुकमा जिले में प्रचलित डबरी जैसे पारंपरिक जल स्रोत के चित्र साझा किए तो मैंने कबीला काल की इस प्रणाली के बारे में जानना चाहा। यह जल को जमा रखने की कोशिश है। यह डबरी वही है जिसे हम ष्डाबरष् कहते हैं। तुलसीदास ने भी डाबर ही कहा है। डबरी यानी अपने खेत में खेत की सिंचाई के लिए बनाया जाने वाला जलस्रोत। शायद यह कुओं से पुरानी विधि हो। घर और गांव वाले इसके निर्माण में मदद करते हैं। यह हमारा डाबर अथवा ष्डाबरकियाष् है। मेरे आसपास डाबर नाम से गांव भी बसे हैं। जल संरक्षण और समीप में बस्ती निवेश का सुंदर उदाहरण। डबरी को खेत में किसी एक किनारे पर बनाते हैं। जहां प्लव अथवा ढलान रहता हो, ऐसी जगह देखकर खुदाई की जाती है ताकि समूचे खेत का पानी उसमें एकत्रित हो सके। डबरी वर्षा जल को एकत्रित करती है। सिंचाई, घरेलू निस्तारण में उपयोगी तो है ही और यदि पानी की उपलब्धता वर्ष भर है तो डबरी मछली पालन के काम आती है यानी मछरी की डबरी।यह भूमि वाले किसान के खेत में ही बनाई जाती है। यह आकार में तालाब से छोटी लेकिन कुंड से बड़ी श्रेणी की रचना है। कभी कभी इसको ष्डबराष् भी कहते हैं। वर्षा से पहले पहले डबरा का काम पूरा कर लिया जाता है ताकि बूंद- बूंद पानी बचे और वर्षा का जल हर बीज को अंकुरण के लिए राजी कर सकता है, ऐसे में अति उपयोगी है ही। कुछ और बातें आपको बतानी है... अक्षय तृतीया पर जल दान की महत्ता है... यह मानकर जल पर चर्चा का मन हुआ। जय जय।

धान की बालियों का वंदनवार - सेला

धान की बालियों का वंदनवार - सेला...!
घर की चैखट पर वंदनवार लगाने की भारतीय परम्परा सदियों पुरानी है. प्रायः पुरे भारत में सभी प्रमुख उत्सवो यथा नवरात्रि, दीपावली, गुड़ी पड़वा के अवसर पर घरो के प्रवेशद्वार पर वंदनवार लगाने की परम्परा प्रचलित है. इन त्यौहारो के शुभ अवसर पर देवी देवताओ के स्वागत वन्दन हेतु पुष्प, आम पत्ते का वंदनवार लगाते है. स्वागत वन्दन हेतु लगाये जाने के कारण ही ये वन्दनवार लगाते हैं. दीपावली के अवसर पर तो आम पत्तों का वन्दनवार तो आप सभी ने लगाया होगा. बस्तर मे धान कटाई के बाद धान की बालियो से बने हुए वंदनवार लगाने का रिवाज है. धान के इन वन्दनवारो को यहाँ सेला कहा जाता है. धान कटाई के बाद धान की बालियाँ सुखाकर रख ली जाती है. धान की इन बालियो के तनो को आपस मे गुँथकर पांच अंगुल चैड़े एवं चैखट की माप के लम्बे पट्टे का आकार दिया जाता है. इनकी गुँथाई को देखकर लगता है जैसे सोनारो ने गले की चैन बनाना इसी वंदनवार से सीखा हो.
इस पट्टी का निचला हिस्सा कुछ इस तरह गुँथा हुआ होता है जैसे अप्सरा ने अपने लम्बी बेनी (चोटी) गुथ रखी हो. इसके नीचे धान की बालियाँ लटकते रहती है. सेला मे लटकते धान के दाने सूर्य की किरणो से कुछ इस तरह दमक उठते है जैसे चैखट पर कोई स्वर्ण हार सजा रखा हो.वन्दनवार के प्रकारो मे सेला सबसे उत्तम प्रतीत होता है. सोने की चमक लिया हुआ सेला देवी देवताओ के सम्मान मे सर्वोत्तम वन्दनवार है.बस्तर मे सेला प्रायः किसानो के घरो एवं मंदिरो की शोभा बढाता हुआ दिखलाई पड़ता है.धान कटाई के बाद होने वाले लक्ष्मी जगार के अवसर पर इसे लगाना बेहद ही शुभ माना जाता है.प्रस्तुत सेला हिंगलाजिन मंदिर गिरोला का है.कुछ आप भी बताईये और किस किस तरह
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बस्तर : जहां दूल्हा पक्ष याचक की भूमिका में दिखता है

बस्तर : जहां दूल्हा पक्ष याचक की भूमिका में दिखता है..!
यह बस्तर की अनेक खासियतों में एक है, जहां वर यानी दूल्हा पक्ष वधु पक्ष के सामने याचक बनकर जाता है। माहला यानी सगाई की रस्म में गुड़-चिवड़ा(पोहा) पूरे समाज के सामने रखकर वधु का हाथ मांगा जाता है। झुककर प्रणाम कर रिश्ता स्वीकारने की याचना की जाती है। इस प्रथा का सबसे उजला पक्ष यह है कि इसमें दहेज दानव और वर पक्ष के नखरों के लिए कोई जगह नहीं होती है
यही नहीं, शादी में वधु पक्ष की तरफ का अधिकांश खर्च भी वर पक्ष को वहन करना पड़ता है, जिसे शादी का जोड़ा कहते हैं। यहां आदिकाल से निवासरत कुछ समाजों में यह परंपरा अब भी बदस्तूर जारी है। समय के साथ आंशिक बदलाव यह हुआ है कि घर में मूसल या ढेंकी से कूटे गए चिवड़ा की जगह दुकान में मिलने वाले रेडीमेड पोहा ने ले ली है। साथ ही कुछ मिठाई व नमकीन भी शामिल हो गए हैं, लेकिन सगाई की रस्म गुड़-चिवड़ा की मिठास के बगैर पूरी नहीं होती है।हां, एक बात और.. वधु पक्ष ने चिवड़ा स्वीकार लिया तो रिश्ता पक्का। अगर बाद में रिश्ता नहीं जमा तो शादी से पहले वधु पक्ष के पास गुड़-चिवड़ा लौटाने का वीटो पावर भी होता है। (आलेख साभार रू शैलेन्द्र ठाकुर, दन्तेवाड़ा)
(टीप: यह तस्वीर 2 साल पुरानी है। वर्तमान लॉक डाउन अवधि की नहीं है।)
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भूमकाल की प्रतीक - लाल साहब की कटार

भूमकाल की प्रतीक - लाल साहब की कटार...! 
भूमकाल की तैयारियाँ गुप्त रुप से चल रही थी. विभिन्न आदिवासी नेता, गुण्डाधुर, लाल कालेन्दर सिंह सरिखे भूमकाल के मुख्य नेता अलग अलग मोर्चो पर अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भूमकाल के लिए मोर्चाबन्दी कर रहे थे. गुण्डाधूर बस्तर के महान भूमकाल का नायक था तो वही बस्तर रियासत के भूतपूर्व दीवान लाल कालेन्दर सिंह का भूमकाल को समर्थन था.लाल कालेन्दर सिंह बस्तर महाराज भैरमदेव के चचेरे भाई एवं भूमकाल के समय बस्तर राजा रुद्रप्रताप देव के चाचा थे. 1842 इस्वी मे बस्तर के राजा महाराजा भूपालदेव थे. इनके छोटे भाई लाल दलगंजन सिंह थे जिन्होने तारापुर विद्रोह मे मुख्य भूमिका निभाई थी.भूपालदेव के पुत्र भैरमदेव बस्तर राजा बने वही दलगंजन सिंह के पुत्र कालेन्दर सिंह बस्तर के दीवान बने. लाल साहब का मुख्यालय ताडो़की था. उन्हे कर मुक्त 35 गाँव दिये गये थे.
भूमकाल की अन्तिम योजना अनुसार साल 1910 के जनवरी महिने मे अन्तागढ के पास ताडो़की मे आदिवासी नेताओ और लाल कालेन्दर साहब ने गुप्त महा सम्मेलन का आयोजन किया. इस सम्मेलन मे आदिवासियो ने बस्तर को ब्रिटिश परतंत्रता से मुक्ति दिलाने हेतु संकल्प लिया गया.उक्त सम्मेलन के बाद ताडो़की के स्थानीय देवी मन्दिर मे हरचंद नायक नामक स्थानीय पुजारी ने लाल साहब तथा आदिवासियो के साथ सामूहिक पूजा की तथा सभी ने यह संकल्प लिया कि देवी दंतेश्वरी के वस्त्र मे दाग नहीं लगने देगे.पूजा के बाद लाल कालेन्दर सिंह ने आदिवासी नेताओ को एक कटार भेंट की. यह कटार महान विप्लव मे उनके समर्थन की एक प्रतीकात्मक वचनबद्धता थी. यह कटार एक हाथ से दुसरे हाथ, तथा एक क्षेत्र से दुसरे क्षेत्र से गुजरते गयी और गुजरने का अर्थ था - आदिवासियो को शस्त्र उठा लेने का आव्हान.यह कटार जहाँ जहाँ पहुँची, वहां वहां के लोगों ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह मे स्वयम् को झोक दिया था. माना गया कि कटार मंत्रशक्ति से अभिचारित थी और देवी दंतेश्वरी का प्रतीकात्मक आदेश था - असुरो का संहार करो. कालान्तर मे यह कटार सुकमा जमीदार के दीवान जनकैय्या के हाथ मे आयी और जनकैय्या ने अपनी ब्रिटिश प्रतिबद्धता के कारण इसके प्रचार को रोक दिया.तदनुसार सुकमा के दक्षिण मे यह कटार नहीं पहुंच पायी, जिससे वहां विद्रोह की तीक्षणता का अहसास नहीं हुआ. भूमकाल के दमन के लिये जब सेना की टुकडी सुकमा पहुँची तो उन्होंने लाल साहब की कटार जब्त कर ली.इसके बाद उस कटार की कोई जानकारी नहीं.प्रस्तुत कटार का चित्र सांकेतिक है.
आलेख - ओमप्रकाश सोनी


दानशीलता के लिये प्रसिद्ध कांकेर की रानी बड़गहिन माँ (कलचुरि)

दानशीलता के लिये प्रसिद्ध कांकेर की रानी बड़गहिन माँ (कलचुरि).....!

दक्षिण कोसल के कलचुरि डाहल या चेदि के कलचुरियो के वंशज है , जिनकी राजधानी जबलपुर के पास त्रिपुरी थी. इन कलचुरियो ने छत्तीसगढ़ के इतिहास मे एक नये काल की शुरुआत की है.कोकल्ल द्वितीय (900 से 1015 ई) के राज्यकाल मे उसके 18 पुत्रो मे से एक कलिंगराज ने 1000 इस्वी के लगभग दक्षिण कोसल पर आक्रमण यहाँ राज्य स्थापित किया और तुम्माण मे अपनी राजधानी स्थापित की. दक्षिण कोसल मे 1000 इस्वी से सन 1750 इस्वी तक कलचुरियो ने शासन किया.कालांतर मे छत्तीसगढ़ मे कलचुरियो की दो शाखाओ ने अलग अलग क्षेत्र मे अपना राज स्थापित किया. कलचुरि शासको की एक शाखा ने रतनपुर तो दुसरी शाखा ने रायपुर से अपना शासन चलाया. रायपुर शाखा मे 1741 इस्वी मे अंतिम कलचुरि शासक अमर सिंह शासन कर रहे थे. इनके शासनकाल मे भोसला सेनापति भास्कर पन्त ने रतनपुर शाखा पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया , उसके बाद मराठो ने 1750 इस्वी में रायपुर शाखा के कलचुरि शासक अमर सिंह की गद्दी छिन ली.
1753 इस्वी मे अमर सिंह की मृत्यु उपरान्त शिवराज सिंह को सत्ता से बेदखल कर मराठो ने महासमुन्द के पास ष् बड़गाँवष् नामक माफी गाँव देकर रायपुर जिले के प्रत्येक गाँवो से एक रुपया वसुली का अधिकार दिया.यह व्यवस्था 1822 इस्वी तक चली.शिवराज सिंह के पुत्र रघुनाथ सिंह को बड़गाँव के पास गोविन्दा , मुरहेना, नाँदगाँव तथा भलेसर नामक कर मुक्त ग्राम दिये गये, यह व्यवस्था ब्रिटिशकाल तक चलती रही. रियासतकाल ने कलचुरि शासको के वंशजो के इस बड़गाँव जमीदारी की कन्या शिवनन्दिनी का विवाह कांकेर के राजा कोमलदेव के साथ हुआ जो कि बड़गहिन रानी के नाम से जानी गयी.कांकेर के राजा कोमल देव (1904 ई - 1925 ई) की तीन रानियाँ थी. पहली रानी लांजीगढ की पदमालय देवी थी जिससे आठ सन्ताने हुई किंतु एक भी सन्तान जीवित नहीं बची तब राजा कोमलदेव ने बड़गाँव के कलचुरि जमींदार खेमसिंह की रुपवती कन्या शिवनन्दिनी से दुसरा विवाह किया. दीवान दुर्गा प्रसाद ने शिवनन्दिनी को राजिम के मेले मे देखा था. तब बड़गाँव जमींदारी की आर्थिक स्थिति को देखते हुए कन्या पक्ष को सामने बुलाकर कोमलदेव ने शिवनन्दिनी से विवाह किया. बड़गाँव की होने के कारण शिवनन्दिनी देवी बड़गहिन रानी कहलायी.कोमलदेव ने शिवनन्दिनी देवी के लिए कांकेर मे महल भी बनवाया था. राजा कोमलदेव 1925 मे स्वर्ग सिधार गये तब निरूसन्तान रानी शिवनन्दिनी ने 1982 मे अपने मृत्यु तक दान धर्म एवं धार्मिक कार्यो मे ही अपना जीवन व्यतीत किया.शिवनन्दिनी देवी बहुत धार्मिक एवं दानशील थी. उन्होने कांकेर के बालाजी मन्दिर को देवरी गाँव की जमीन दान मे दी तब यह गाँव बालाजी देवरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ. उन्होने राधाकृष्ण मन्दिर को भी काफी जमीन दान थी. उनके यहाँ से कोई भी याचक कभी खाली हाथ नहीं लौटता था. रानी अपनी दानशीलता के लिए पुरे छत्तीसगढ़ में प्रसिद्ध थी. निर्धन माता पिता की कन्याओ के विवाह का खर्च भी रानी बड़गहिन माँ ही उठाती थी. कांकेर मे नदी के किनारे किनारे तक सारंगपाल माटवाडा तक कई किलोमीटर लम्बा बाग भी लगवाया जिसे रानी बाग कहा जाता था. दुध नदी मे जब भी बाढ आती थी तो राजमाता शिवनन्दिनी देवी प्रजा की फरियाद पर पैदल ही महल से आती और इस उफनती मे सोने की छोटी नाव अर्पित कर नदी का क्रोध शान्त कर देती थी, दस मिनट में नदी की बाढ़ उतरनी प्रारम्भ हो जाती थी. यह नजारा देखने वाले कई चश्मदीद गवाह आज भी जीवित है. रानी ने अन्तिम बार 1976 इस्वी मे आयी बाढ़ के समय यह करिश्मा किया था. फरियादी की मदद करते हुए और दान धर्म जैसे पूण्य कर्म करते करते बड़गहिन रानी माँ 1982 मे परलोक सिधार गयी. आज भले ही रानी बड़गहिन हमारे बीच नहीं है किन्तु दीन दुखियो की मदद और उनके धार्मिक दान कार्य की चर्चा कर आज भी उन्हें याद किया जाता है.
सभी माताओ को मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ..!
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आलेख... ओम प्रकाश सोनी

बस्तर मे माप का पैमाना - पायली

बस्तर मे माप का पैमाना - पायली....!

जैसे भार ग्राम में,तरल पदार्थ लीटर और लंबाई मी. में मापी जाती है.बस्तर में अनाज आदि मापने में आज भी प्राय:सोली-पैली का उपयोग किया जाता.कई लोग इसके लिए "पयली" या 'पायली'' भी उच्चारित करते हैं....!बस्तरिया हाट-बाजारों में महुआ,चावल,दाल,उड़द, कुलथी,चना,चिवड़ाआदि प्रति पैली/सोली की दर से विक्रय किया जाता है..!सोली छोटा पैमाना है जो लगभग 8 से.मी. व्यास व 11से.मी. गहरा पात्र है जिसमें लगभग 500 ग्राम अनाज समाता है...!वहीं पैली लगभग 14 सेमी व्यास व 15 से.मी. गहरा होता है.तथा इसमें 4 सोली अनाज बड़े आराम से आ जाता है...!
अनाज आदि उपज को भी बस्तरवासी प्राय: पैली से मापते हैं.20 पैली का माप यहाँ 1खण्डी कहा जाता है.किसी ने कहा कि मेरे घर 5 खण्डी उड़द हुआ यानी कि मतलब हुआ कि उसके यहाँ 5×20=100 पैली उत्पादन हुआ...!बस्तर में अन्न आदि के विनिमय के लिए प्राय: यही मापन यंत्र प्रयुक्त होते हैं....!हल्बी में एक मुहावरा भी है-आपलोय पैली के भरतो यानी दूसरों की न सुनकर,केवल अपनी हाँकना...!आप के तरफ़ पायली जैसे पैमाने को क्या कहा जाता है?
अशोक कुमार नेताम
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"भगवान सूर्य" की सजीव प्रतिमा

"भगवान सूर्य" की सजीव प्रतिमा....!
शिल्पी ने प्रतिमा का निर्माण पुरा मन लगाकर किया है जिससे प्रतिमा ऐसी जीवन्त बन गयी है कि लगता है भगवान सूर्य अभी अपने नेत्र खोलकर पुरे संसार मे ऐसी रोशनी बिखेर देगे जिससे हर प्राणी मात्र तृप्त हो जायेगा. एक ग्राम मे अपेक्षित इस सजीव प्रतिमा के मुख मण्डल मे ऐसा आकर्षण बस्तर के किसी प्रतिमा मे देखने को नहीं मिला. यह जीवित सी लगने वाली प्रतिमा भगवान सूर्य की है. प्रतिमा मे दोनो हाथ खंडित है किन्तु कन्धे पर कमल की कलियों के अंकन से प्रतीत होता है कि दोनों हाथो मे सनाल कमल कलियाँ धारित रही होगी.
चरणो मे भगवान सूर्य की अन्य प्रतिमाओ की तरह लम्बे बूट का अभाव है. हालाकि नाग शासन काल मे निर्मित यह प्रतिमा प्रकृति और उपेक्षा की मार से क्षरित हो गयी है तथापि इसके मुख मण्डल का अप्रतिम सौन्दर्य अभी भी काफी प्रभाव शाली है. सिर पर मुकुट धारण किये और कानो मे बड़े बड़े कुण्डल पहने हुए सूर्य देव की प्रतिमा रौद्र एवं सौम्यता का मिश्रित भाव लिये हुए है. एक तरफ अधिक क्षरित होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान सूर्य क्रोधित है एवम वही दुसरी तरफ से सौम्यता का भाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है. उस शिल्पकार को नमन जिसने इस जीवन्त प्रतिमा का निर्माण किया.
ओम्
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मित्रता के प्रतीक - कुड़ई फूल

मित्रता के प्रतीक - कुड़ई फूल.....!
बस्तर के जंगल इन दिनों कुड़ई फूल यानि कुटज की महक से गमक उठे हैं, ऐसा लगता है मानों कुदरत ने आगंतुकों के स्वागत में अगरबत्ती सुलगा रखी हो।बन्द गाड़ियों में बैठकर इसे महसूस नहीं किया जा सकता।वैसे आयुर्वेद में भी कुटज का खास इस्तेमाल किया जाता है। अतिसार, संग्रहणी जैसे पेट के रोगों में इसकी दवा को कारगर माना जाता है। कुटज घन वटी, कुटजारिष्ट इससे ही तैयार की जाती है।
और हां, बस्तर में पुराने समय में मित्रता कायम करने के लिए कुड़ई फूल का भी आश्रय लिया जाता था। इसे मीत बदना कहा जाता था। जिसे कुड़ई फूल बद लिया यानि मान लिया तो फिर दोनों आजीवन एक दूसरे को वास्तविक नाम से नहीं, बल्कि कुड़ई फूल कहकर संबोधित किया करते थे। ठीक उसी तरह, जैसे यहां कोदोमाली, डांडामाली, भोजली(जवारा) बदने की प्रथा प्रचलित थी।खैर, समय के साथ न तो ये उपमेय बाकी रहे, न ही उपमान। आधुनिकता की चकाचैंध ने ग्राम्य जीवन शैली को कोरोना की तरह संक्रमित जो कर दिया है।शहरीकरण की अंधी दौड़ में न तो कुड़ई फूल, कोदोमाली जैसे वनस्पति बाकी रह गए, बल्कि और भी ऐसे प्रतिमान लुप्त होते जा रहे हैं।

20 मई 2020

लहुरा गजपति सदा सलामत

लहुरा गजपति सदा सलामत
लहुरा गजपति सदा सलामत...!

बस्तर अपने आप मे जितना रहस्यमयी है उतना ही यहाँ का इतिहास भी रहस्यमयी है. बस्तर इतिहास के  बहुत से पहलू आज भी इतिहासकारो एवं आमजनो के लिये शोध एवं आश्चर्य का विषय है. पूर्ववती नल एवं नाग राजाओ के भाँति बस्तर के चालुक्य काकतीय राजवंश के इतिहास मे ऐसी बहुत सी पहेलिया है जिसे आज तक बूझा नहीं जा सका है.1324 ईस्वी के बाद से बस्तर मे स्थापित काकतीय राजवंश की इतिहास की जानकारियो के लिये बहुत सी वंशावली एवं अन्य लिखित दस्तावेज उपलब्ध है. दंतेवाडा स्थित शिलालेख अनुसार महाराज दृगपाल देव (1680- 1709इस्वी) नवरंगपुर जीतने की खुशी मे अपनी महारानी और युवराज रक्षपाल देव सहित मंदिर मे देवी दर्शन हेतु पधारे थे. दृगपाल देव की मृत्यु उपरांत तेरह वर्ष की आयु मे 1709 इस्वी मे रक्षपाल देव बस्तर की गद्दी पर आसीन हुए. रक्षपाल देव को राजपाल देव भी कहा गया है. (संदर्भ हीरालाल शुक्ल बस्तर का मुक्तिसंग्राम) प्रतापराज देव (1602 - 1625 इस्वी ) ने नाग सरदारो से डोंगर के तरफ के 18 गढो को जीतकर अपने राज्य मे मिलाया था. तब से डोंगर भी चालुक्य काकतीय  राज्य का दुसरा मुख्यालय बन गया था. दृगपाल देव के समय युवराज राजपाल देव डोंगर मे शासन सम्भाल रहे थे.अंग्रेज अधिकारी ब्रेत ने द छत्तीसगढ़ फ्युडिटरी स्टेट गजेटियर मे लिखा है कि बस्तर राजा रक्षपाल देव के समय  डोंगर की शाखा और बस्तर की शाखा एक हो गयी. डोंगर शाखा के राजा के अधिकार मे बस्तर शाखा भी आ गयी. तब राजधानी डोंगर से उठकर मूल शाखा बस्तर चली गयी. और राजा को लहुरा गजपति की उपाधि मिली.( संदर्भ काकतीय युगीन बस्तर के के झा) तब से बस्तर राजाओ की मंगलकामना मे लहुरा गजपति सदा सलामत का प्रयोग किया जाने लगा. 

आलेख ओम प्रकाश सोनी

18 मई 2020

और कुछ ऐसे बनी राजधानी जगदलपुर

और कुछ ऐसे बनी राजधानी जगदलपुर....!

बस्तर मे चालुक्य काकतीय शासको ने 1324 इस्वी से 1947 तक अपने शासनकाल में विभिन्न राजधानियो से सुचारु रुप से शासन संचालित किया. बस्तर मे चालुक्य काकतीय राजवंश के संस्थापक अन्नमदेव  ने मधोता को अपनी राजधानी बनाया. इस राजवंश के चौथे नृपति पुरुषोत्तम देव (1468 ई से 1534 ई) ने बस्तर को अपनी राजधानी बनाया. बस्तर महाराज दलपतदेव (1731 ई से 1774 ई) तक बस्तर ग्राम राज्य की राजधानी रहा. 
दलपतदेव के शासन काल मे सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ मराठो के आक्रमणो से त्रस्त था. 1770  ईस्वी मे भोसले सेनापति नीलू पण्डित ने बस्तर पर आक्रमण किया.  बस्तर राजा दलपतदेव ने डटकर मराठा सेना का मुकाबला किया. बस्तर की सेना के सामने मराठो को घुटने टेकने पड़े. नीलू पण्डित बंजारे की मदद से जान बचाकर भाग निकला.  कुछ दिनों बाद मराठो ने पुनः संगठित होकर बस्तर पर चढ़ाई कर दी.  सहसा हुए इस हमले मे दलपत देव को जान बचाकर भागना पड़ा. (ग्लसफ़र्ड पैरा 159, बस्तर का मुक्ति संग्राम -हीरालाल शुक्ल)अब दलपत देव को राजधानी परिवर्तित करने की आवश्यकता महसूस होने लगी. 1770 ई मे दलपतदेव ने बस्तर की जगह जगदलपुर को अपनी राजधानी बनायी.(हल्बी ग्रामर 1945). राजधानी परिवर्तन के अनेक किंवदन्ती बस्तर मे प्रचलित है.  एक बेहद रोचक किंवदन्ती का उल्लेख केदारनाथ ठाकुर ने बस्तर भूषण मे किया है. कहा जाता है कि महाराज दलपत देव अक्सर शिकार खेलने जाया करते थे.  उनके पास दो अच्छे शिकारी कुत्ते भी थे.एक बार साथियो सहित उन दोनों कुत्तो को लेकर वे इन्द्रावती के दक्षिण किनारे पर शिकार खेलने गये. जंगल मे उन्हे एक खरगोश मिला. दोनों कुत्ते खरगोश पर झपटे,  परंतु देवयोग से ख़रगोश ने उन दोनो कुत्तो को डरा दिया. महाराज को यह देखकर बेहद आश्चर्य हुआ. महाराज ने राजधानी वापस आकर अपने सभासदो से इस घटना के बारे चर्चा की.सभासदो ने उस क्षेत्र की जलवायु एवं प्रभाव को विलक्षण बताया. तदनुसार महाराज ने निश्चय किया कि राजधानी उसी स्थान मे परिवर्तित कर दी जाये. इस प्रकार बस्तर को छोड़कर जगदलपुर को अपनी राजधानी बनाया. (संदर्भ बस्तर भूषण - केदारनाथ ठाकुर) इसप्रकार महाराज दलपतदेव ने 1770 ईस्वी मे जगदलपुर को बस्तर राज्य की राजधानी बनाया. जगदलपुर मे राजधानी परिवर्तन के तीन साल बाद दलपत देव की मृत्यु हो गयी. 1770 ईस्वी से 1947 ईस्वी मे महाराज प्रवीर चन्द्र भँजदेव के काल तक जगदलपुर को राजधानी का गौरव प्राप्त रहा. जगदलपुर की जलवायु वाकई मे पुरे बस्तर मे सर्वोत्तम है. सिर्फ़ एक ख़रगोश ने महाराज को जगदलपुर की महत्ता समझा दी थी. 

ओमप्रकाश सोनी

अथश्री जगदलपुर नामकरण कथा

अथश्री जगदलपुर नामकरण कथा....! 
1770 ईस्वी मे मराठा आक्रमण से त्रस्त होकर महाराज दलपत देव ने राजधानी बस्तर से जगतुगुडा मे स्थानान्तरित करने का निश्चय किया. जगतुगुडा इन्द्रावती के तट पर जगतु माहरा के कबीले का नाम था. इस क्षेत्र मे जंगली जानवरो का आतंक व्याप्त था. एक अन्य अनुश्रुति के अनुसार जगतु माहरा ने जंगली जानवरो से सुरक्षा हेतु महाराज दलपत देव से मदद माँगी. 
बस्तर संस्कृति और इतिहास में लाला जगदलपुरी जी कहते है कि जगदलपुर मे पहले जगतु माहरा का कबीला रहता था जिसके कारण यह जगतुगुड़ा कहलाता था। जगतू माहरा ने हिंसक जानवरों से रक्षा के लिये बस्तर महाराज दलपतदेव से मदद मांगी। दलपतदेव को जगतुगुड़ा की जलवायु भा गयी  , उसके बाद दलपत देव ने जगतुगुड़ा में बस्तर की राजधानी स्थानांतरित की। जगतु माहरा और दलपतदेव के नाम पर यह राजधानी कालान्तर मे जगदलपुर कहलाई।  बस्तर के दशहरा पर्व मे काछिन देवी की पूजा की महत्वपूर्ण रस्म निभाई जाती है. दलपतदेव ने जगतु माहरा की ईष्ट देवी काछिनदेवी की पूजा अर्चना कर दशहरा प्रारंभ करने की अनुमति मांगने की परंपरा प्रारंभ की तब से अब तक प्रतिवर्ष बस्तर महाराजा के द्वारा दशहरा से पहले आश्विन अमावस्या को काछिन देवी की अनुमति से ही दशहरा प्रारंभ करने की प्रथा चली आ रही है।

देव आगमन की सूचक थाल (घण्टा)का वादन

देव आगमन की सूचक थाल (घण्टा)का वादन....! 

बस्तर मे मड़ई जात्रा या कोई भी उत्सव हो तो देव स्तुति के लिये ढोल, नगाड़े, शहनाई आदि का वादन अनिवार्य होता है. जात्रा अथवा मड़ई के अवसर पर देवी देवताओ के अगवानी मे तुरही एवं कांसे की गहरी थाल बजाने की परम्परा भी बस्तर मे देखने को मिलती है. कांसे का थाल एक तरह से घंटा ही है क्योंकि इसे बजाने से आवाज भी कुछ हद तक घंटे के समान ही आती है. 
मड़ई मे जब भी देव खेलनी की रस्म होती है तो साथ मे सम्बन्धित ग्राम के देव के पुजारी एवं सहायक तुरही एवं
थाल बजाते हुए ही रस्म पुरी करते हैं.थाल का वादन बेहद ही अनिवार्य एवं शुभ माना जाता है. इसकी ध्वनि मन मे उत्साह एवं भक्ति का संचार करती है. कोई भी मड़ई या जात्रा घंटे थाल के वादन के बिना पूर्ण नहीं होती है. इसकी आवाज इतनी स्पष्ट और मधुर होती है कि बहुत दुर से ही देव आगमन की सूचना प्राप्त हो जाती है. इसका वादन ही देव आगमन का सूचक माना जाता है. जब भी किसी भी ग्राम के देवी देवता मड़ई मे भाग लेने हेतु प्रस्थान करते हैं तो उनके पुजारी कांसे की थाल को बजाते हुए उनकी अगवानी करते हुए आगे बढते है.सही मायने (घंटे)थाल की आवाज ही मड़ई की पहचान होती है. ढोल, तुरही और (घंटे )थाल की कर्ण प्रिय आवाज ही मड़ई मे नाचते युवक युवतियो मे जोश एवं उत्साह भर देते हैं जिसे मड़ई का आनंद दुगुना हो जाता है.

कांकेर के चंद्रवंशी राज्य की स्थापना का रोचक इतिहास

कांकेर के चंद्रवंशी राज्य की स्थापना का रोचक इतिहास
कांकेर के चंद्रवंशी राज्य की स्थापना का रोचक इतिहास.......!

आज उत्तर बस्तर के नाम से विख्यात कांकेर बस्तर से एक अलग रियासत रही है. इसका अपना अलग स्वतंत्र इतिहास है. कांकेर मे भी दसवी ग्यारहवी सदी मे चक्रकोट के छिन्दक नाग राजाओ का आधिपत्य रहा है. बारहवी सदी के प्रारंभ मे यहाँ सोमवंशियो ने अपनी सत्ता स्थापित की. कालान्तर मे सोमवंशी राजाओ को कल्चुरियो की अधीनता स्वीकार करनी पडी. सोमवंश के बाद काकेर मे कुछ समय तक कण्ड्रा सरदारो का शासन रहा. कण्ड्रा सरदारो के पतन के बाद कांकेर मे चंद्रवंशी राजाओ का शासन स्थापित हुआ. कांकेर मे चंद्रवंशी शासको का शासन 1397 इस्वी से 1947 इस्वी तक रहा.  कांकेर में चंद्रवश की स्थापना के पीछे की कथा भी बेहद ही रोचक है. सिहावा के देउरपारा मे कर्णेश्वर मन्दिर समूह है. ये मन्दिर सोमवंशी राजा कर्ण ने बनवाये थे. मन्दिर के पीछे तालाब के किनारे एक कुण्ड है जिससे एक किवदन्ती जुडी हुई है कि इस कुण्ड मे कांकेर के चंद्रवंशी राज्य की स्थापना करने वाले कन्हारदेव ने स्नान किया था जिससे उनका कुष्ठ रोग ठीक हो गया था.इस किवदन्ती का विवरण प्राचीन छत्तीसगढ़ पुस्तक मे आदरणीय प्यारेलाल गुप्ता जी ने किया है. उन्होंने लिखा है कि कांकेर राज्य के प्रथम अधश्वर वीर कन्हारदेव जगन्नाथपुरी के राजा थे. पर कुष्ठ रोग से ग्रसित हो जाने के कारण उन्हे अपना राज परित्याग करना पड़ा.स्वास्थ्य लाभ की तलाश मे प्रवास करते हुए वे सिहावा पहुंचे जहाँ श्रिंगी ऋषि का आश्रम प्राचीन समय मे था. एक निकटवर्ती पोखर मे प्रतिदिन स्नान करते रहने से उनका कुष्ठ रोग जाता रहा और वे सिहावा की जनता के अनुरोध पर यहाँ राज्य करने लगे.कन्हार देव के पश्चात किशोर देव (1404 दृ 1425 ई) ने  अपनी राजधानी को उन्होंने सिहावा से हटा कर नगरी स्थानांतरित किया था. तानुदेव (1425 से 1461 ई.) ने  बस्तर के काकतीयों तथा रायपुर के कलचुरियों से सुरक्षा के लिये राजधानी को कांकेर लाया. तब से चंद्रवंशी राजाओ ने कांकेर मे ही अपनी राजधानी स्थापित कर  राज्य किया.

लेख - ओम प्रकाश सोनी

सातधार की दीवार

सातधार की दीवार....! 

यह चायना की दीवार नहीं,  बस्तर मे सातधार की दीवार है. जब अस्सी के दशक में बोधघाट परियोजना स्वीकृत होने के बाद इन्द्रावती मे बांध निर्माण का कार्य प्रगति पर था. उस समय इन्द्रावती के बहाव को कम करने के लिए नदी मे बड़ी बड़ी दीवारे बनायी गयी. 


पर्यावरण की अपार क्षति एवं भारी विरोध के कारण बोधघाट परियोजना स्थगित हो गयी किन्तु ये दीवारे रह गयी. दीवार के उस तरफ़ पानी के ठहराव के कारण इन्द्रावती मे गहरी झील बन गयी है. यहाँ पानी इतना साफ़ है कि  गहराई के बावजूद भी नदी का तल स्पष्ट दिखाई देता है. 

नदी मे नाव चलाता मछुवारा ऐसा दिखलाई पड़ता है जैसे दर्पण पर बैठकर नाव चला रहा हो...!

बस्तर मूर्ति शिल्प की अनमोल धरोहर- बारसूर का चन्द्रादित्य मंदिर

बस्तर मूर्ति शिल्प की अनमोल धरोहर- बारसूर का चन्द्रादित्य मंदिर......!

आज विश्व धरोहर दिवस के उपलक्ष्य में बारसूर के चन्द्रादित्य मन्दिर की चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। बारसूर बस्तर की ऐतिहासिक नगरी है. प्राचीन काल मे बारसूर को नाग राजाओ की राजधानी का गौरव प्राप्त था. इन्द्रावती के तट पर आबाद बारसूर अपने अंदर नागयुगीन अनेक ऐतिहासिक ईमारतो को संरक्षित किये हुए है. 

यहाँ का मामा भांजा मन्दिर, बत्तीस खम्बो पर आधारित युगल शिव मन्दिर,  विशालकाय गणेश प्रतिमाये आज बस्तर की पहचान बन चुकी है.  इसके अतिरिक्त बारसूर का चन्द्रादित्य मंदिर बस्तर की नाग कालीन प्रतिमा शिल्पो की विशिष्टता लिये हुए हैं. 
पुरे बस्तर मे सिर्फ़ चन्द्रादित्य मन्दिर ही एकमात्र ऐसा मंदिर है जिस पर जड़ी हुई प्राचीन मूर्तियाँ आज भी सुरक्षित है. बारसूर मे संग्रहालय परिसर मे किनारे तालाव के तट पर चन्द्रादित्य मंदिर अवस्थित है. भगवान शिव को समर्पित यह मन्दिर गर्भगृह, अन्तराल और मण्डप मे विभक्त है. किसी आक्रमण के कारण इस मंदिर का शिखर पुरी तरह से नष्ट हो चुका है. 
गर्भगृह मे शिव लिंग प्रतिष्ठापित है. गर्भगृह के प्रवेशद्वार के ललाटबिम्ब मे  हरिहर की प्रतिमा अंकित है. मण्डप के अन्दर नन्दी की अलंकृत पाषाण प्रतिमा स्थापित है. मण्डप की दीवारे बेहद ही शादी है. मण्डप पुरी तरह से ध्वस्त हो चुका था, कालान्तर मे इसका जीर्णोदधार कर इसे मूल स्वरुप मे लाया गया.
गर्भगृह की तीनो बाहरी दीवारो पर प्राचीन प्रतिमाये जड़ी हुई है. इनमे शिवपरिवार, विष्णु एवं उनके अवतार, अष्टदिकपाल, शाक्त प्रतिमाये, व्याली अंकन,  मैथुन प्रतिमाये, एवं तत्कालीन समाज के कुछ दृश्यो का अंकन भी प्रतिमाओ में हुआ है. मैथुन प्रतिमाओ के अंकन के कारण इसे बस्तर का खजुराहो भी कहा जाता है.
चक्रकोट के नाग राजा जगदेकभूषण के महामण्डलेश्वर चन्द्रादित्य महाराज ने 1061 इस्वी मे इस शिव मंदिर का निर्माण करवाया था. चन्द्रादित्य के नाम पर यह मंदिर चन्द्रादित्य मंदिर के नाम से जाना जाता है. इस मंदिर के खर्च एवं रख रखाव हेतु चन्द्रादित्य ने महाराज धारावर्ष से गोवर्धननाडू ग्राम खरीद कर अर्पित किया था. 
इस मंदिर के अतिरिक्त चन्द्रादित्य ने चंद्र सरोवर भी खुदवाया था जो आज इस मंदिर से लगा हुआ बारसूर का विशाल बूढा तालाब है. मंदिर , तालाब के अतिरिक्त उसने चन्द्रादित्य बाग भी लगवाया था. इस मंदिर की एक ही जानकारी के दो शिलालेख मिले है.एक तो इस मंदिर से और दुसरा 70 किलोमीटर दुर जाँगला से प्राप्त हुआ है.
नाग कालीन प्रतिमा शिल्प के अध्ययन हेतु यह मंदिर किसी भी शोधार्थी के लिये बेहद ही उपयुक्त है. इसके अतिरिक्त बारसूर मे सोलह खम्भा मन्दिर, पेद्म्मा गुड़ी, हिरमराज मन्दिर भी अपने जीर्णोद्धार की बाट जोह रहे है. बारसूर जिला दंतेवाडा के  गीदम नगर से 20 किलोमीटर की दुरी पर है. रायपुर से सडक मार्ग से लगभग 400 किलोमीटर की दुरी पर है.  वही विश्व प्रसिद्ध चित्रकोट से सिर्फ़ 45 किलोमीटर की दुरी पर है.

कांकेर महाराजाधिराज कोमलदेव का जीवन परिचय

कांकेर महाराजाधिराज कोमलदेव का जीवन परिचय
कांकेर महाराजाधिराज कोमलदेव का जीवन परिचय...! 

कांकेर के राजा पदमसिंह की मृत्यु के बाद 1853 इस्वी मे उनके अल्पायु पुत्र नरहरदेव कांकेर के राजा बने. नरहरदेव ने लगभग 50 वर्ष तक कांकेर मे शासन किया. उनके पुत्र की अकाल मृत्यु के बाद नरहरदेव ने 1902 के दिल्ली दरबार मे अंग्रेजी सरकार को कांकेर राज्य के वारिस के तौर पर तीन लोगो के नाम का सुझाव दिया था. पहला नाम अपने भतीजे कोमलदेव जो कि नरहरदेव के भाई घनश्याम देव के पुत्र थे. कोमलदेव का जन्म 1873 इस्वी मे हुआ था जो बाद मे राजा बने. दुसरे हकदार के तौर पर अपनी बेटी के पुत्र रघुनाथ सिंह देव और तीसरे हकदार के तौर पर अपने भाँजे तत्कालीन बस्तर दीवान लाल कालिन्दर सिंह का. 1903 इस्वी मे नरहरदेव की मृत्यु हो गयी, उसके बाद अंग्रेजी सरकार ने  कांकेर के कंकालीन भाटा मे दरबार लगाकर कोमलदेव को राज्य के अधिकार सौप दिये. कोमलदेव को कांकेर के महाराजाधिराज की पदवी से विभूषित कर 1904 मे उनका राज्याभिषेक किया गया और वे कांकेर रियासत के राजा बन गये.कांकेर राजा कोमलदेव ने तीन विवाह किये थे पहला विवाह लांजीगढ की रानी पदमालय से,  दुसरा विवाह बड़गाँव (महासमुन्द) के कल्चुरी जमीदार खेमसिंह की कन्या शिवनन्दिनी से जो कि बड़गहिन रानी के नाम से जानी गयी और तीसरा विवाह 1915 इस्वी मे खरियार राज परिवार की कन्या शोभा मंजरी देवी से किया था. पहली रानी से उनकी आठ सन्ताने हुई जिसमे कोई भी जीवित नहीं बची. तीसरी रानी से एक पुत्री हुई जिसका नाम गोविन्द कुमारी रखा गया.महाराजाधिराज कोमलदेव न्याय प्रिय एवं कुशल प्रशासक थे. उन्होने दीवान राम कृष्ण राव के सहयोग के नवीन भूमि बन्दोबस्त लागू किया. अंग्रेजी शिक्षा के लिये हाईस्कुल,  कन्याओ के लिये पुत्री शाला एवं रियासत भर मे 15 प्रायमरी स्कुल खोले. सम्बलपुर और कांकेर मे दो अस्पताल बनवाये. कचहरी के दक्षिण पूर्व मे रानी बड़गहिन के लिये एवं कचहरी के पश्चिम मे रानी शोभा मंजरी एवं पदमालया देवी के लिए महल बनवाये. राधानिवास बाग लगवाकर उसने सुन्दर डाक बंगला बनवाया. कोमलदेव ने 1921 इस्वी अपनी एक मात्र पुत्री गोविन्दकुमारी के नाम पर कांकेर के समीप गोविन्दपुर बसाया. उन्होने गोविंदपुर को रियासत की राजधानी बनाने का प्रयत्न किया था. उन्होंने गोविंदपुर मे रहना प्रारम्भ किया. अपराधियो को दंड देने के लिए गोविंदपुर मे एक चबुतरा बनवाया जिस पर बैठ कर वे अपराधियों को दण्ड देते थे. अपनी पुत्री के जन्मदिन पर प्रतिवर्ष गोविंदपुर मे मेले का आयोजन किया. कोमलदेव ने अपने पुत्र के अभाव मे अपनी पुत्री महाराजकुमारी गोविंदकुमारी को उत्तराधिकारी बनाने के लिये अंग्रेजी सरकार को दरख्वास्त भेजी किन्तु यह सब व्यर्थ गया. 1925 इस्वी मे कोमलदेव की मृत्यु के बाद उनके गोद लिये पुत्र भानूप्रतापदेव कांकेर के राजा बने. भानूप्रताप देव छोटी रानी शोभा मंजरी देवी के बहन के बेटे अश्विनी शाह थे जो कि छोटा नागपुर राजा के पौत्र थे. 
आलेख... ओम प्रकाश सोनी 

देव डांग का अभिन्न अंग - कलश

  •   देव डांग का अभिन्न अंग - कलश....!  

मन्दिरो के शिखर पर कलश स्थापना की परम्परा सदियों पुरानी है. यह कहे कि शिखर पर स्थित कलश मंदिर का अभिन्न भाग होता है. प्रस्तर निर्मित कलश की बनावट  धातु से बने कलश एवं उसमे स्थापित नारियल के सदृश्य होती है.


इसी तरह बस्तर मे देव लाट, विमन, डांग अर्थात लम्बी ध्वज पताकाओ के शिखर पर भी धातु निर्मित कलश लगाया जाता है. ये आकार मे छोटे बड़े हो सकते है. नुकीले कलश मे चारो तरफ़ धातु की पत्तियाँ या घुँघरु लटकते रहते है.ये कलश बस्तर के घड़वा शिल्प कला के शानदार उदाहरण है.

बस्तर के सभी मेले, मड़ई, जात्रा मे विभिन्न देवी देवताओ के प्रतीक लाट , डांग, ध्वज  भी शामिल होते है. ये सभी  कलश से सुशोभित होते है. बस्तर की दैविय शक्तियो मे कलश भी अभिन्न अंग है.

यहाँ बस्तर मे लोग मनौती के पूरा होने पर  देवी -देवताओं को कलश भी चढ़ावे में चढ़ाते हैं।

बस्तर हिन्दी के प्रथम साहित्यकार पं. केदारनाथ ठाकुर एवं उनकी अमर कृति बस्तर भूषण

बस्तर हिन्दी के प्रथम साहित्यकार पं. केदारनाथ ठाकुर एवं उनकी अमर कृति बस्तर भूषण
बस्तर हिन्दी के प्रथम साहित्यकार पं. केदारनाथ ठाकुर एवं उनकी अमर कृति बस्तर भूषण.....! 

आजादी के पूर्व हमारे देश मे आंचलिक संस्कृति विषयक प्रकाशन के जो पुनीत कार्य हुए हैं उसमे बस्तर भूषण का अपना विशिष्ट महत्व है. जनजातियो के अध्ययन की दृष्टि से बस्तर विश्व विख्यात क्षेत्र है.बस्तर भूषण पण्डित केदारनाथ ठाकुर की प्रस्तुत कृति बीसवी सदी मे प्रकाशित बस्तर विषयक प्रथम स्रोत है. 1908 इस्वी प्रकाशित बस्तर भूषण को हिन्दी का प्रथम गजेटियर भी कहा जा सकता है.मध्यप्रदेश के पूर्वान्चल महाकौशल गोंडवाना एवं छत्तीसगढ़ के राजनैतिक सांस्कृतिक इतिहास मे ठक्कुर परिवार का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. गोंडवाना की वीरांगना रानी दुर्गावती के दरबार मे महेश ठक्कुर एवं उसके परिवार का विशेष सम्मान था.सोलहवी सदी के उत्तरार्ध मे अकबर से ताम्रपत्र प्राप्त करने के बाद ठक्कुर परिवार के एक सदस्य जबलपुर से दरभंगा गये और वहां के महाराजाधिराज हुए उन्ही के दुसरे भाई एवं उनके परिवार के सदस्य इस अंचल में रहते हुए गढा मण्डला, रतनपुर,  खैरागढ राज एवं बस्तर राज्य मे राजगुरु,  राजपुरोहित,  राज ज्योतिष आदि पदो पर कार्य करते रहे एवं उनकी विद्वता का प्रभाव इस क्षेत्र के विकास मे पड़ता रहा.बस्तर के राजगुरु पण्डित रंगनाथ ठक्कुर के पांचवे पुत्र गम्भीरनाथ ठाकुर के केदारनाथ ठाकुर ज्येष्ठ पुत्र थे.केदारनाथ ठाकुर का जन्म गम्भीरनाथ ठाकुर एवं कुलेश्वरी देवी से रायपुर मे लगभग 1870 इस्वी मे हुआ. इनके माता पिता की मृत्यु एक ही दिन कार्तिक पूर्णिमा के दिन रायपुर मे हुई थी. तार द्वारा सूचना पाकर केदारनाथ ठाकुर टांगा द्वारा तीन दिन में रायपुर पहुंचे.वहां उन्होंने श्रादध कर्म एवं दान पूण्य किया. वहां रायपुर मे एक तालाब खुदवाया,  उसके मध्य खम्भे पर माता पिता का नाम खुदवाया तथा तालाब का नाम रामसागर रखा.इसके अतिरिक्त तालाब के किनारे आम का बगीचा भी लगवाया.केदारनाथ ठाकुर ने अपने युवाकाल मे बस्तर भूषण ग्रंथ की रचना की जिसकी समालोचना नवम्बर 1908 मे सरस्वती पत्रिका एवं वेकटेश्वर समाचार मे प्रकाशित हुई. बस्तर के महाराजा रुद्रप्रताप देव ने इसकी प्रंशसा की है. केदारनाथ ठाकुर की प्रमुख कृतियाँ बस्तर भूषण,  भाषा पद्यमय सत्य नारायण,  बसंत विनोद है. जिनको इन्होंने केदार विनोद नामक पुस्तक मे संग्रहित किया था. जब बस्तर का नामी भूमकाल हो रहा था तब उन्होंने बस्तर विनोद नामक पुस्तक लिखा तथा ट्रेनिग क्लास मे रहते हुए उन्होंने विपिन विज्ञान नामक पुस्तक पद्य मे लिखा. सत्यनारायण कथा की रचना 1923 इस्वी मे की. केदारनाथ ठाकुर भूतपूर्व इंस्पेक्टर आफ़ फ़ारेस्टस क्योन्झर स्टेट तथा जमीदारी खरिहार एवं फ़ारेस्ट रेंजर उत्तर विभाग बस्तर स्टेट मे कार्य कर चुके थे.भारत जीवन प्रेस काशी मे बाबू श्री कृष्ण वर्मा द्वारा बसंत विनोद सन 1910 तथा बस्तर भूषण 1908 मे मुद्रित हुआ. सत्य नारायण कथा  जगदलपुर बस्तर  स्टेट प्रेस मे सन 1923 इस्वी मे छपा. विपिन विज्ञान नामी पुस्तक सम्भवत 1908 मे लिखा गया था.नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद वे केदार कुटीर जगदलपुर मे निवास करते थे. उन्होंने नवम्बर 1923 मे एक दानपत्र द्वारा अपना नीजि पुस्तकालय रुद्रप्रताप देव पुस्तकालय जगदलपुर को नयी पीढी के नाम भेंट कर दिया. पुस्तकालय के अध्यक्ष तत्कालीन बस्तर स्टेट के एडमिनिस्ट्रेटर मि. ई एस हाईड को सम्बोधित करते हुए केदारनाथ ठाकुर ने अपने दान पत्र मे लिखा है.. " मैने अपने जीवन का अधिकांश समय अध्ययन मे ही बीता दिया और अब भी बिना पढे एक दिन गुजरना मेरे लिये पहाड़ हो जाता है. मैने सन 1908 मे बस्तर भूषण नामक पुस्तक लिखी. मैं सोचता हूँ यह पुस्तक उस समय भारत मे अपने ढन्ग की प्रथम उपलब्धि थी. मुझे अहसास होता है कि उन दिनों मेरी पुस्तक बस्तर भूषण से प्रेरणा पाकर दमोह दीपक जैसी कृतियाँ अनवरित हुई. मुझे बस्तर वासियों से यह शिकायत रही है कि मेरी पुस्तक बस्तर भूषण के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई जबकि विदेशियो ने बड़े चाव से मेरी पुस्तक पढी और उसे काफ़ी सराहा."दि माडिया गोण्डस आफ़ बस्तर के रचयिता पिछले समय के एडमिनिस्ट्रेटर ग्रिग्स के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए दान पत्र में केदार नाथ ठाकुर ने आगे लिखा है कि उन्होंने बस्तर भूषण पढकर उसकी अत्यधिक सराहना की थी.केदारनाथ ठाकुर ने अपने दान पत्र में स्व राजा रुद्रप्रताप देव के प्रति आभार व्यक्त करते हुए लिखा है कि उन्होंने बस्तर भूषण मे रुचि ली और उसे प्रोत्साहित किया और अन्त मे राजा रुद्रप्रताप देव पुस्तकालय जगदलपुर के नाम लिखे अपने उस दान पत्र द्वारा प केदारनाथ ठाकुर ने बस्तर भूषण तथा अपनी अन्य पुस्तको के साथ नीजि पुस्तकालय की समस्त पुस्तक सम्पति नई पीढ़ी के हित मे उक्त संस्था को अर्पित कर दी.केदारनाथ ठाकुर की मृत्यु मंगलवार दिनांक 23 जनवरी 1940 को हुई.वे आत्म विश्वास एवं दृढ निश्चय के धनी थे तथा बस्तर हिन्दी के प्रथम साहित्यकार थे इसमें कोई सन्देह नहीं. श्री लाला जगदलपुरी के शब्दो मे .."बस्तर के साहित्यिक इतिहास पर दृष्टिपात करने पर हमे बस्तर भूषण पण्डित केदारनाथ ठाकुर से पूर्व की जानकारी नहीं मिलती. केदारनाथ ठाकुर द्वारा लिखित ग्रंथ बस्तर भूषण से पूर्व प्रकाशित अथवा अप्रकाशित ऐसी किसी भी उल्लेखनीय कृति की आज तक कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है जिसके आधार पर बस्तर के साहित्यिक इतिहास का प्रारम्भिक काल स्थापित किया जा सके. राज दरबारो मे मानसिक दासता एवं स्वार्थ की संकीर्णता से प्रेरित केवल चारण साहित्य ही समय समय पर उच्चारित होता रहा है.
संदर्भ.. पुस्तक बस्तर भूषण - लेखक केदारनाथ ठाकुर

13 मार्च 2020

मछुआरे की ढूटी


मछुआरे की ढूटी......!

बस्तर में काष्ठकला का विस्तार इतना व्यापक है कि हम उसकी कल्पना भी नही कर सकते है। बस्तर में जनजातीय समाजों में रोजमर्रा की अधिकांश वस्तुयें लकड़ी या बांस से ही बनी होती है। घर में खाट से लेकर नदी में सफर के लिये नाव तक सभी लकड़ी की होती है। लकड़ी और बस्तर के आदिम जीवनचर्या का साथ सदियों पुराना है। बस्तर में जब ग्रामीण धर से निकलकर मछली पकड़ने के लिये नदी तालाब की ओर कुच करता है तो उसके हाथ में बांस से बना हुआ एक आकर्षक पात्र जरूर होता है। बांस से बना चैरस एवं गोलाकार पात्र डूटी या ढूटी कहलाता है। मछुआरे का ईनाम होती है उसके द्वारा पकड़ी गई मछलियां और वह अपने ईनाम को बेहद ही आकर्षक पात्र ढूटी मंे सुरक्षित रखता है। ढूटी मछुआरे द्वारा पकड़ी गई मछलियों को रखने का पात्र होता है जिसे हम अतिश्योक्तिपूर्व मछुआरे का संदूक कह सकते है। 

मार्ग मंे आते मछुआरे के हाथ में यदि ढूटी दिखाई पड़े तो समझ जाईये कि उसमें मछुआरे की मेहनत जरूर होगी। ढूटी का निचला हिस्सा प्लास्टिक के मटके के समान होता है जिसे बांस की पतली खपचियों को बुनकर बनाया जाता है वहीं उसका मुख बांस की पतली तिलियों से गोलाकार बनाया जाता है बिल्कुल मटके की तरह। पकड़ने के लिये दोनो सिरो पर रस्सियां बंधी होती है। तो यह कहानी थी मछुआरे के संदूक ढूटी की,,,, आप बताईये किस नाम से जानते है ? इस ढूटी को। 

चलायमान देव प्रतीक - छत्र

चलायमान देव प्रतीक - छत्र......!

मंदिरों मे देवी देवताओं की प्रतिमा पर छत्र अर्पित करने की परंपरा प्राचीन काल से रही है। देवी देवताओं को सामर्थ्य अनुसार चांदी के छोटे बड़े छत्र चढ़ाये जाते रहे है। देवी देवताओ का छत्र भी चलायमान देवप्रतीक है।  देव विग्रह अपने स्थान से किसी अन्य स्थान पर ले जाना संभव नहीं होता है। तब उनके प्रतीक के रूप में छत्र को ले जाया जाता है।

बस्तर में मंडई जात्रा जैसे अवसरो पर देवी देवताओं के प्रतीक के रूप में छत्र ले जाने की परंपरा देखने को मिलती है। किसी भी जात्रा मंडई या धार्मिक उत्सव में  सम्मिलित होने हेतु गांवों के देवी देवताओं के प्रतीक छत्र को घंटा और तुरही के धुन के साथ ले जाया जाता है। मंडई मेलों में कई देवी देवताओ  के प्रतीक छत्र एकत्रित होते है। बस्तर दशहरा, आमा मउड रस्म, मुख्य मंडईयों में सम्मिलित होने के लिये देवी दंतेश्वरी के प्रतीक पवित्र छत्र  को पुजारी ससम्मान लेकर जाते है। 

छत्र का दूसरा पहलू भी काफ़ी रोचक है. छत्र का अर्थ छतरी होता है। प्राचीन काल में यह सम्राटों का गौरवचिह्र था। साधारणतया इसका उपयोग ताप और वर्षा से बचने के लिये होता है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है कि एक बार महर्षि जमदग्नि की पत्नी रेणुका सूर्यताप से बहुत विकल हुई। क्रुद्ध होकर महर्षि ने सूर्य का वध करने के निमित्त धनुष बाण उठाया। सूर्यदेव डरकर उनके समक्ष उपस्थित हुए और ताप से रक्षा के लिये एक शिरस्त्राण छत्र बनाकर उनकी सेवा में भेंट की।

छत्र का एक अन्य रूप राजकीय छत्र भी होता है. राजछत्र सामान्य छत्र से भिन्न होता है। युवराज का छत्र सम्राट् के छत्र से एक चौथाई छोटा होता है जिसके अग्रभाग में आठ अंगुल की एक पताका लगी होती है। उसे दिग्विजयी छत्र कहा जाता है। भारत में अनुष्ठान आदि में छत्र का दान मंगलकारी माना जाता है।

दलहन संग्रहण का पारम्परिक पात्र- चिपटा

दलहन संग्रहण का पारम्परिक पात्र- चिपटा.....!

अधिक मात्रा में होने वाली फसलें धान, अलसी, मंडिया, कोदो वगैरह बस्तरवासी ढुसी,डोलगी आदि में संग्रहित करते हैं....लेकिन दलहन आदि सुरक्षित रखने के लिए ये अपने पारंपरिक-प्राकृतिक पात्र "चिपटा"  का उपयोग करते हैं.....

पत्तों का आपस में लिपटा होना चिपटा कहलाता है.....इसीलिए ही यहाँ पत्ता गोभी "चिपटा गोभी" कहलाता है.....सिंयाड़ी के पत्तों को परस्पर जोड़कर एक बर्तन की शक्ल दी जाती.....जिसके भीतर उड़द,मूँग,चना आदि डालकर व ऊपर से पात्र का मुँह बंद कर फसल को सुरक्षित रखा जाता.....

संलग्न तस्वीर उड़ीद चिपटा है.....

तस्वीर:-Harendra Nag 

लेख साभार.. अशोक कुमार नेताम

खाद्य पदार्थ सुखाने का पात्र - सलप

खाद्य पदार्थ सुखाने का पात्र - सलप....!

बस्तर के गाँवो मे  सभी प्रकार के साग भाजी, माँस आदि सुखाकर बाद मे खाने की परम्परा रही हैं. उपरोक्त सभी खाद्य चीजे सुखाने के लिये बांस की पतली खपचियो से बने आयताकार सलप का प्रयोग किया जाता है. 

प्राय खाद्य वस्तुये सुखाने का  कारण भविष्य मे खासकर बरसात के दिनों मे खाने का प्रबंध करना होता है. सलप बस्तर की घरेलू काष्ठ कला का उदाहरण है. इसमे बांस की पतली सीको को रस्सी से बुनकर आयताकार स्वरुप दिया जाता है. फ़िर उसे चार कोनो से रस्सी बांध कर घर आंगन के किसी खूटी मे लटका दिया जाता है.

धुप मे सुखाने के अलावा सलप को चुल्हे के उपर लटकाया जाता है ताकि उस पर रखे खाद्य को अग्नि की धीमी आंच मिलती रहे.सलप मे सब्जी,  फ़ूटु,  मछली आदि हर वो सब्जी या मांस  जो खाया जाता है .उसे सलप पर ही सुखाया जाता है. बस्तर मे प्रायः हर घर मे सलप का उपयोग देखने को मिलता हैं.

अबुझमाड के गुफ़ा गाँव मे एक ग्रामीण के घर इस सलप मे फ़िलहाल तो नदी से पकड़ी गयी मछलियाँ काट कर सुखायी गयी...

5 मार्च 2020

बस्तर मे लूप्त प्रायः है नारंगी सेमल

बस्तर मे लूप्त प्रायः है नारंगी सेमल.....!

बस्तर मे बसंत की  बयार धीमे धीमे बह रही है। जंगलो में पत्तो की सरसाहट पतझड़ का बिगुल बजा रही है। चारो तरफ फैली महुए की मादकता रोम रोम को रोमांचित करने वाली है। टेसू के लाल दहकते फूलो ने जंगल में आग लगा दी है तो फिर भला सेमल क्यो पीछे रहे ? गुलाबी फूलो से लदे हुए सेमल के वृक्ष  राहगीरो को हर्षित करे रहे है। पत्ते विहिन सेमल पेड़ो पर खिले हुए गुलाबी पुष्प बसंत ऋतु की खुशियों में चार चांद लगा रहे है। 

बसंत .ऋतु में फूलो का राजा यदि कोई है  तो वह सेमल है। बस्तर में मुख्यतः दो रंगो के पुष्पों वाले सेमल पाये जाते है पहला है नारंगी और दुसरा गुलाबी। सेमल का एक तीसरा और प्रकार है वह पीला सेमल। बस्तर में अभी सर्वाधिक मात्रा में गुलाबी सेमल के वृक्ष बहुतायत मे देखने को मिलते है। नारंगी सेमल के वृक्ष बहुत कम      शेष है। 


नारंगी सेमल का एक वृक्ष दलपत सागर के किनारे स्थित है, वहीं कुछ वृक्ष गंगालूर के आसपास है। नारंगी सेमल पुष्प का रंग संतरे की तरफ नारंगी होता है। वृक्षों की अंधाधूंध कटाई के कारण यह नारंगी सेमल वृक्ष अब बस्तर में लूप्त प्रायः है। पीले रंग वाले सेमल पुष्प तो बस्तर में अभी तक देखने को नहीं मिला है। 

सेमल के वृक्ष से मेरी बचपन की यादे जुड़ी हुई है। इसके कांटो को तोड़कर सूपारी के रूप में खाया करते थे। इन कांटों का स्वाद भी सुपारी की तरह ही होता है। बहुत से मित्रो ने भी बचपन में सेमल के कांटे सुपारी के रूप में जरूर खाये होगे। 

19 फ़रवरी 2020

चलायमान देव प्रतीक - कोल्हा

चलायमान देव प्रतीक - कोल्हा.......!

सदियों पूर्व बस्तर का जनजातीय समाज घुम्मकड़ जीवन ही व्यतीत करता था। विभिन्न प्राकृतिक एवं धार्मिक मान्यताओं के चलते वे एक जगह पर टिक कर नहीं रह सकते थे। इन कारणों के उनके देवस्थान या देवी देवताओं के प्रतीक भी स्थानांतरित होते थे। घुम्मकड़ जीवन के कारण उनके देवस्थान या देव प्रतीक भी चलायमान बनाये जाने लगे थे।


आज यहां का जनजातीय समाज भले ही अब घुम्मकड़ जीवन से स्थायित्व जीवन में परिवर्तित हो गया है किन्तु इनके देव प्रतीक आज भी चलायमान है। ग्रामीण एवं आदिवासी समुदायों में इनके विभिन्न स्वरूप होते हैं। मिटटी, धातु, लकड़ी और कपड़े आदि अनेक माध्यमों से बने ये चलायमान देवस्थान, देवी-देवताओं के आवागमन का महत्वपूर्ण साधन रहे हैं।

चलायमान देव प्रतीकों की परंपरा में आंगादेव, गुटाल, डोली आदि प्रमुख है.वर्ष भर में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब स्थानीय देवी-देवता किन्हीं अनुष्ठानों अथवा रस्मों की पूर्ति के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करते हैं। बस्तर मे मंडई जात्राओं में चलायमान देव प्रतीकों को देवी देवताओं के प्रतिनिधि के तौर पर लाया जाता है। मंडई जात्राओं में प्रमुख ग्रामों से आये हुए देव प्रतीकों को सम्मान पूर्वक परिक्रमा करायी जाती है।

चलायमान देव प्रतीक में गुटाल या कोल्हा भी प्रमुख है। कोल्हा एक सरल और आदिम किस्म का चलायमान देवस्थान है। इस देव प्रतीक में लंबी और मोटी लकड़ी के शीर्ष और मध्य मे मोर पंखों का गुच्छा बंधा रहता है।
बीच बीच में घंटियां भी बंधी रहती है। इसकी स्थापना भी आंगा के समान ही होती है। यह प्रतीक केवल पुरूष देवों के लिये बनाया जाता है। इस देव प्रतीक को देव का आसन या निवास स्थल माना जाता है। इसे देवगुड़ी में स्थापित किया जाता है।

जब सिरहा पर वह देव, जिसके लिए यह कोल्हा बनाया गया है, आता है, तब वह सिरहा कोल्हा उठाकर नाचने लगता है। सामान्यतः मोर पंखों को गुच्छा मुर्झाया हुआ रहता है किन्तु जब देव आता है तब मोर पंख खिल जाते है। इन पर लाल कपड़ा भी लपेटा जाता है।
एक विशेष बात यह है कि इस देव प्रतीक कोल्हा को कभी कभी जमीन पर नहीं रखा जाता है। जब कभी इन्हे जमीन पर खड़ा करना होता है तो जमीन पर कपड़ा रखा जाता है फिर इन्हे खड़ा रखा जाता है. देवगुड़ी में भी इन्हे छत से चैन द्वारा लटका कर या किसी उंचे स्थान पर रखा जाता है।

14 फ़रवरी 2020

कमर का आभूषण - झलाझल

कमर का आभूषण - झलाझल......!

बस्तर की धातु शिल्पकला बेहद ही उन्नत है। यहां आज भी पीतल, कांसा, तांबा जैसे धातुओं से बने ऐसें कई आभूषणों का प्रयोग किया जाता है जो कि बेहद ही दुर्लभ है। यूं कहे कि अन्यत्र जगहों में ऐसे आभूषण देखने को नहीं मिलते है। ऐसा एक आभूषण है कमर में बांधा जाने वाला कमर पटटा आभूषण। कमर में आपने सामान्यतः करधन ही पहने देखा होगा । किन्तु कमर में झलाझल भी पहना जाता है। यहां स्थानीय भाषा में इसे घुलघुली भी कहते है। 

यह आभूषण मंडई जात्राओं में सिर्फ सिरहा द्वारा पहना हुआ देखा जा सकता है। सिरहा अपने परंपरागत वेशभूषा एवं आभूषणों से सुसज्जित होकर मंडई जात्रा में सम्मिलित होते है। इन आभूषणों में कमर पटटा भी प्रमुख है। कमर पटटा एक चैन की तरह होता है जिसमें गोल गोल पदक होते है और उन पदकों में घुंघरू लटकते रहते है। इन घुुुंघरू और पदको को गुलुरका कहते है। कहीं कही झलाझल का नाम कटिकिंकणीमाल में उल्लेखित है।  देवी आने पर सिरहा जब नृत्य करते है तो कमर पटटे के घुंघरूओं से भी पवित्र संगीत की धुने निकलती रहती है।



4 फ़रवरी 2020

मेड़ारम जातरा - आदिवासियों का ऐतिहासिक कुंभ

मेड़ारम जातरा - आदिवासियों का ऐतिहासिक कुंभ.......!

मेड़ारम समक्का सारलम्मा जातरा दक्षिण भारत में आदिवासियों का सबसे बड़ा जातरा है। यह एक तरह से कुंभ मेले के समान है। तेलंगाना के वारंगल के पास मेड़ारम एक छोटा सा ग्राम है। इस ग्राम में समक्का सारलम्मा देवी का देव स्थान है। हर दो साल में यहां पर समक्का सारलम्मा देवी के सम्मान में विशाल जातरा का भव्य आयोजन होता है। इस जातरा में लगभग 01 करोड़ से अधिक लोग सम्मिलित होते है। तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के हजारो लोग इस जातरे में शामिल होते है। पुरे विश्व में मेड़ारम जातरा आदिवासियों का सबसे बड़ा संगम है। कुंभ के बाद मेड़ारम जातरा ही इतना बड़ा धार्मिक उत्सव है जिसमें करोड़ो लोग सम्मिलित होते है। 

समक्का सारलम्मा ये दो  महिलाये थी उन्होने कोया आदिवासियों के भलाई के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी। ऐसी किंवदंतीं है कि दंडकारण्य के जंगलो में कोया आदिवासियों का समूह भ्रमण कर रहा था  तब उन्होने देखा कि एक छोटी बच्ची शेरनी के साथ खेल रही थी। तब उन आदिवासियों ने उस बच्ची की अदभूत वीरता से प्रभावित होकर उसे गोद ले लिया और उसे नाम दिया - समक्का

समक्का जब बड़ी हुई तो उसका विवाह पास के दुसरे समुदाय के मुखिया से उसका विवाह कर दिया। विवाह उपरांत समक्का की एक बेटी हुई जिसका नाम सारलम्मा रखा गया।  एक बार गोदावरी नदी पुरी तरह से सुख गई थी जिसके कारण कोया आदिवासियों के खाने के लाले पड़ गये थे। उसी समय काकतीय राजा प्रतापरूद्र ने कर में वृद्धि कर दी जिसे कोया समुदाय देने में समर्थ नहीं थे।  समक्का और सारलम्मा दोनों ने इस करवृद्धि का डटकर विरोध किया। काकतीय राजा ने आदिवासियों को सबक सिखाने के लिये अपनी सेना भेजी। दोनों पक्षो में भयंकर लड़ाई हुई, तब इस युद्ध में समक्का देवी घायल हो गई।  

उसने आदिवासियों से कहा कि जब जब आप मुझे याद करोगे तब तब मैं आपकी रक्षा करूंगी। मैं श्राप देती हूॅ कि काकतीय  राजवंश का विनाश हो जाये। यह कहकर वापस जंगल में गायब हो गई। जब कोया आदिवासियों ने जंगल में समक्का को खोजने का प्रयास किया तो उन्हे  चुड़ियां और एक बाघिन के पैर निशान ही देखने को मिले।  इसके बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों ने  वारंगल पर आक्रमण कर काकतीय राजवंश का साम्राज्य ध्वस्त कर दिया। इसी घटना के  बाद समक्का सारलम्मा देवी की याद में प्रति दो वर्ष में जातरा का आयोजन किया जाता है। इस जातरे में देवी को गुड़ अर्पित किया जाता है। इस साल  05 से 08 फरवरी तक मेड़ारम जातरा आयोजित है।